बिटिया की पेरिस से पाती आई है....!
कुछ बड़े सवाल छोड़ता हमारे कोलकाता कार्यालय की साथी श्रीमती पूनम दीक्षित की बेटी अनन्या दीक्षित का पेरिस से अपनी माँ को लिखा पत्र !!!!
Mumma... here's my experience from the event with the PM last week smile emoticon
Thoda lamba hai... and kuch spelling mistakes ho sakti hain.. but anyhow... here you go !!!!
विगत सप्ताह, मेरे लेटर बॉक्स में भारतीय दूतावास का एक आमंत्रण पत्र पड़ा मिला था. आमंत्रण था पेरिस में, भारतीय समुदाय के कार्यक्रम का, जिसमे हमारे प्रधान मंत्री, श्री नरेंद्र मोदी, शिरकत करने वाले थे। मैं सबके बारे में तो नहीं बता सकती, पर पिछले करीब ४ सालों से विदेश में रहते हुए, मैंने पाया है की अपने देश के प्रति मेरी भावनाएं और प्रगाढ़ हो गयी हैं। अंग्रेजी में कहावत है Distance makes the heart grow fonder , शायद मेरे साथ भी यही हुआ है। चतुर्दिक भिन्न संस्कृतियों, भिन्न भाषाओँ से घिरे रहने ने, मुझे शायद भारतीयता के मूल्य का बेहतर आभास करवाया है. विदेश में, अपने देश का कोई अनजान व्यक्ति, अपने देश का झंडा, या कोई भी छोटा सा चिन्ह दिख जाये तो मन पुलकित हो उठता है। तो ऐसे में, अशोक स्तम्भ से सजा हुआ भारतीय दूतावास का पत्र तो अनूठा था। कागज़ के छोटे से टुकड़े ने ख़ुशी, गर्व, उत्साह,जैसी कई अनुभूतियों के द्वार खोल दिये। मैं बेहद उत्सुक थी देखने के लिए कि दूर देश में भारतियों का और भारतीयता का समागम कैसा होगा। फ्रांस में, कुछ घंटे के लिए भारत का एहसास कैसा होगा।
कार्यक्रम का venue , पेरिस का प्रसिद्ध Louvre संग्रहालय था। विशाल, ऐतिहासिक, आकर्षक, Louvre का नाम पेरिस के सबसे खूबसूरत नज़ारों में शुमार है। लिहाज़ा, मेरे अनुभव का आगाज़ बेहद शानदार हुआ. मैं वक़्त से कुछ पहले ही पहुँच गयी थी, इसलिए मैं सोच रही थी की मुझे अधिक भीड़ का सामना नहीं करना पड़ेगा. पर जब मैं समारोह स्थल पर पहुंचीं मैं अनायास ही हंस पड़ी। मेरी हंसी का कारण आश्चर्य भी था और ये भी था की मुझे Deja vu का एहसास हुआ क्यूंकिLouvre की Carousel Gallery , हिंदुस्तान के रंग में ओत प्रोत थी।
कार्यक्रम शुरू होने में ३ घंटे शेष थे, पर यूरोप के हर कोने से आये हुए करीब ३ हज़ार लोग पहले ही कतार में खड़े थे. क्या बच्चे, क्या बूढे, क्या जवान.. ज्यादात्तर औरतों ने अपनी ठेठ हिंदुस्तानी पोशाकें पहन रखीं थीं, जैसे कोई त्यौहार हो.... और देखा जाये तो ऐसे मौके हम प्रवासी भारतीयों के लिए त्यौहार से कम भी नहीं होते। कइयों ने हाथ में भारत के झंडे पकड़ रखे थे, कुछ के सर पर पगड़ी बंधी हुई थी, और कुछ उत्साही, बीच बीच में भारत माता की जय के नारे लगा रहे थे। हिंदी,बांग्ला और अलग अलग भारतीय भाषाओँ के कुछ शब्द उड़ते उड़ते कानों तक आ रहे थे। समस्त वातावरण जीवंत था,त्वरित ऊर्जा से सराबोर। भारत और भारतीयों की जीवन्तता, उनका जोश उन्हें समस्त विश्व से पृथक पहचान देता है, और इस उमंग का सीधा प्रसारण अपने सामने पाकर, मैं मुस्कुराती हुई, कुछ क्षण बस निहारती रही।कतार में काफी देर खड़े रहना पड़ा, और इस प्रतीक्षा ने कई और सवाल, कई और विचार जागृत कर दिये।
समारोह भारत, उसकी संस्कृति, इतिहास और उसके विकास के सम्मान में आयोजित था, पर अपने पास खड़े ज़्यदातर लोगों के व्यवहार ने मुझे सोचने पर विवश कर दिया, की क्या हम वाकई अपनी सभ्यता और भारतीयता का सम्मान करते हैं ?क्या जो उत्साह मुझे दिख रहा था, क्या वह केवल सतही था ? क़तार में मेरे इर्द गिर्द खड़े सभी लोग, शिक्षित, सभ्य प्रवासी भारतीय प्रतिनिधि थे, ऐसे प्रतिनिधि जो शायद किसी स्तर पर राजदूतों और प्रधान मंत्री या विदेश मंत्रियों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं. कहीं न कहीं हम जैसे भारतीयों को देखकर ही संभावित पर्यटक और शायद कुछ हद तक भावी निवेशक भी, देश और उसके लोगों के विषय में अपनी राय बनाते हैं. तो ऐसे में, हम हिंदुस्तान की कैसी छवि प्रदर्शित करते हैं ? Slumdog Millionaire के बाद से वैसे भी अमूमन हर विदेशी धारावी को ही भारत की असल पहचान मानता है।
चलिए कतार में खड़े अधिकांश लोगों को हम अपना data sample समझते हैँ ...। अपने छोटे से, साधारण अवलोकन पर मैंने पाया कि, ज़्यादातर लोग अपने बोलचाल की भाषा के तौर पर अंग्रेजी का प्रयोग करते दिखे। आपस में भी, और दुसरे भारतीयों से भी। यह देखकर मुझे कुछ मायूसी हुई, और कुछ हद तक क्रोध की भी अनुभूति हुई ।
एक ऐसा देश, जो हज़ारों भाषाओँ का गढ़ है, उस देश के लोग एक ऐसी भाषा के प्रति झुकाव दिखाते हैं, जो एक तरह से ३०० वर्षों की दासता की भी प्रतिरूप है. अंग्रेजी आज की दुनिया में, अनिवार्य है, व्यवसाय के लिए, शिक्षा के लिए, परन्तु आपसी स्तर पर क्यों? क्यों हम अपनी भिन्न मातृभाषाओं का उसी तरह सम्मान नहीं करते जिस तरह फ़्रांसिसी आज भी करते हैं। मेरे data sample में जो हिंदुस्तानी आपस में French का प्रयोग कर रहे थे, उनसे मुझे शिकायत बेहद काम रही,क्यूंकि एक अरसा किसी देश और किसी भाषा के मध्य बिताने पर उसका आदतों में शुमार होना लाज़मी भी है, और यह भी दर्शाता है की हमने उस देश की भाषा का सम्मान किया है।मेरे क्रोध का, मेरी निराशा का कारण यह था, कि पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण के कारण हम शायद कहीं न कहीं भारत की एक लचर छवि प्रदर्शित करते हैं। एक ऐसे देश की छवि, जो अपनी सभ्यता को तरज़ीह नहीं देता। एक ऐसा देश जो अपनी संस्कृति से कहीं अधिक आस्था अमरीकी या बर्तानी सभ्यता पर रखता है। यदि हम इन्ही देशों के lifestyle को अपना लक्ष्य बना कर चलते हैं, तो क्या केवल खान- पान, या धार्मिक रीतियों का पालन भर कर लेने से ही क्या हम सच में अपने अंदर की भारतीयता को बचा रख सकते हैं ?
...और बात यहाँ केवल अंग्रेजी के व्यवहार तक सीमित नहीं थी। कतार में खड़े रहते हुए किसी भी प्रकार आगे जाने का अनुचित प्रयास करना, फ़्रांसिसी सुरक्षा कर्मियों पर आँखें तरेरना, असंयत होकर भीड़ को और भी विश्रृंखल रूप देना। देश से हज़ारों मीलों की दूरी होने के बावजूद अपनी पहचान पंजाबी, बंगाली, इत्यादि के साथ ज़ाहिर करना। क्या यह व्यवहार उचित था ? क्या केवल अंग्रेजी बोलने पर, ऐसी व्यवहारगत खामियां छुप जाएंगी ? ऐसे कई प्रश्न, कतार के १ घंटे की अवधि ने मेरे दिमाग में कुलबुलाते छोड़ दिए।
खैर, आखिरकार प्रतीक्षा के पश्चात कार्यक्रम आरम्भ हुआ. शुरुआत सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ हुई. पेरिस के मध्य,कर्नाटक, राजस्थान, और बांग्ला लोक संगीत की गुंजन अद्भुत थी. वह रोमांच अद्भुत था, जब मैं अपनी कुर्सी पर बैठी हुई,मंच पर गा रहे गायकों के साथ, वन्दे मातरम और टैगोर के गीत गुनगुना रही थी। बेहद अभिमान वाला क्षण था, जब सभागार में उपस्थित देशी-विदेशी सारे श्रोता, राजस्थानी लोक गायकों के साथ गा रहे थे, झूम रहे थे, और once more की मांग कर रहे थे।
पर सबसे बेहतरीन और रोंगटे खड़े करने वाला लम्हा शायद वह था जब प्रधानमंत्री के आगमन पर, सबने खड़े होकर भारतीय राष्ट्रगीत को सम्मान दिया। प्रधानमंत्री मोदी का स्वागत सारी सभा ने नारों, तालियों और अतुल्य उत्साह के साथ किया। विदेशी भूमि पर, अपने देश के प्रतिनिधि के सम्मुख होना एक अलग ही आत्मीयता का भाव जगा रहा था।
हमेशा की तरह, मोदी जी का भाषण उत्साहवर्धक और करारा था। हर नयी बात पर तालियों से गड़गड़ाता हुआ अभिनन्दन मिलता था। भाषण का सीधा प्रसारण शायद आप सबने भी देखा ही होगा। यह जानकर अच्छा लगता है कि भारत की छवि को दुनिया भर में पुख्ता करने का प्रयास जारी है। भाषण में मोदी जी ने उल्लेख किया की कैसे एक काल में जगदगुरु की उपाधि पाने वाला, शांति का दीपस्तंभ भारत, कैसे आज भी UN Security Council की सदस्यता के लिए जूझ रहा है, परन्तु पिछले कुछ वक़्त से भारत की वैश्विक छवि में परिवर्तन साफ नज़र आ रहा है. कूटनीति और राजनीति के गलियारों में भारतीय सिंह की गरज दोबारा जागने लगी है, और मोदी जी के कार्यक्रम और भाषण में इस जोश और भावना का पूरा अनुभव हुआ . एक देशवासी की हैसियत से यह अत्यन्य गर्व का विषय है.
अंततः ११ अप्रैल की शाम बेहद यादगार थी, और सदा रहेगी ।
अनन्या
प्रिय महोदय/महोदया,
पत्रिका 'जय विजय' का अप्रैल 2015 अंक आपके अवलोकनार्थ प्रेषित है.
इसमें अपनी वेबसाइट www.yuvasughosh.com पर रचनाकारों द्वारा लगायी गयी रचनाओं में से श्रेष्ठ रचनाओं को चुनकर प्रकाशित किया गया है. अन्य रचनाओं को पढने के लिए कृपया वेबसाइट पर पधारें.
प्रस्तुत कर्त्ता
संपत देवी मुरारका
अध्यक्षा, विश्व वात्सल्य मंच
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
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