शनिवार, 29 अगस्त 2015

वर्ष 2015 के लिए गोइन्का राजस्थानी पुरस्कार की घोषणा



शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

यात्रा क्रम-तृतीय भाग की समीक्षा


यात्रा क्रम-तृतीय भाग की समीक्षा

मेरी यात्रा क्रम-तृतीय भाग की समीक्षा-द्विमासिक हिन्दी पत्रिका दिवान मेरा (नागपुर) के जून-जुलाई, 2015, पुस्तक समीक्षा विशेषांक में प्रकाशित हुई है | दिवान मेरा के संपादक श्री नरेंद्र परिहारजी एवं उनकी पूरी टीम की मैं आभारी हूँ |
प्रस्तुत कर्त्ता : संपत देवी मुरारका

संपत देवी मुरारका
अध्यक्षा, विश्व वात्सल्य मंच
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी

हैदराबाद

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

डा.मधु धवन...विश्व हिंदी सम्मेलन,भोपाल में सम्मानित होंगी.



डा.मधु धवन...विश्व हिंदी सम्मेलन,भोपाल में सम्मानित होंगी...चेन्नै के डॉ सुन्दरम भी.डॉ मधु धवन के साथ चेन्नै के एक समारोह में आपका ईश्वर करुण.डॉ मधु और डॉ सुन्दरम को बधाई !

प्रस्तुत कर्त्ता
संपत देवी मुरारका
अध्यक्षा, विश्व वात्सल्य मंच
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद

देव भूमि उत्तराखण्ड की गिरधर गोपाल गौशाला को करें यथा शक्ति सहयोग



देव भूमि उत्तराखण्ड की गिरधर गोपाल गौशाला को करें यथा शक्ति सहयोग आपका 100 रुपये का भी सहयोग एक विशाल गौशाला बनाने और गौसेवा में मददगार होगा .... ...

सनातनी विचार !
गौ-निवास-गोष्ठ एवं आदर्श गौशाला ( 33 करोड़ देवी - देवताओं का देवालय ) जहाँ सिर्फ देश, भारतीय प्रजाति के गौवंश हो में किया गया सतकर्म करोड़ों-करोड़ों गुना आधिक फल देता है। ''गाय के विना गति नहीं, वेद के विना मति नहीं'' !
जैसे -----
1 - पुंसवन संस्कार ! गर्भस्थ शिशु के मानसिक विकास की दृष्टि से यह संस्कार उपयोगी समझा जाता है। गर्भाधान के दूसरे या तीसरे महीने में इस संस्कार को करने का विधान है। हमारे मनीषियों ने सन्तानोत्कर्ष के उद्देश्य से किये जाने वाले इस संस्कार को अनिवार्य माना है। गर्भस्थ शिशु से सम्बन्धित इस संस्कार को शुभ नक्षत्र में सम्पन्न किया जाता है। पुंसवन संस्कार का प्रयोजन स्वस्थ एवं उत्तम संतति को जन्म देना है। विशेष तिथि एवं ग्रहों की गणना के आधार पर ही गर्भधान करना उचित माना गया है। यह ''पुंसवन संस्कार'' अगर स्वच्छ, सुन्दर गौ -शाला में अनेको गौमाताओं और नंदी बैल, एवं बछड़े - बछियों  के पवित्र सानिंध्य  हो तो करोड़ों  गुना पुण्य दायी होता है। 

2 -  सीमन्तोन्नयन संस्कार !  सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण अथवा सीमन्त संस्कार भी कहते हैं। सीमन्तोन्नयन का अभिप्राय है सौभाग्य संपन्न होना। गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। इस संस्कार के माध्यम से गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं। यह संस्कार गर्भ धारण के छठे अथवा आठवें महीने में होता है।
 यह ''सीमन्तोन्नयन संस्कार'' अगर स्वच्छ, सुन्दर गौ-शाला में अनेको गौमाताओं, नंदी बैल भगवान , एवं बछड़े - बछियों  के पवित्र सानिंध्य  हो तो करोड़ों  गुना पुण्य दायी होता है। 

3 - नामकरण ! जन्म के ग्यारहवें दिन यह संस्कार होता है। हमारे धर्माचार्यो ने जन्म के दस दिन तक अशौच (सूतक) माना है। इसलिये यह संस्कार ग्यारहवें दिन करने का विधान है। महर्षि याज्ञवल्क्य का भी यही मत है, लेकिन अनेक कर्मकाण्डी विद्वान इस संस्कार को शुभ नक्षत्र अथवा शुभ दिन में करना उचित मानते हैं। नामकरण संस्कार का सनातन धर्म में अधिक महत्व है। हमारे मनीषियों ने नाम का प्रभाव इसलिये भी अधिक बताया है क्योंकि यह व्यक्तित्व के विकास में सहायक होता है। तभी तो यह कहा गया है राम से बड़ा राम का नाम हमारे धर्म विज्ञानियों ने बहुत शोध कर नामकरण संस्कार का आविष्कार किया। ज्योतिष विज्ञान तो नाम के आधार पर ही भविष्य की रूपरेखा तैयार करता है। अगर यह ''नामकरण संस्कार'' स्वच्छ, सुन्दर गौ-शाला में अनेको गौमाताओं, नंदी बैल भगवान , एवं बछड़े - बछियों  के पवित्र सानिंध्य  हो तो करोड़ों  गुना पुण्य दायी होता है। 

4 - निष्क्रमण संस्कार ! दैवी जगत् से शिशु की प्रगाढ़ता बढ़े तथा ब्रह्माजी की सृष्टि से वह अच्छी तरह परिचित होकर दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करे यही इस संस्कार का मुख्य उद्देश निष्क्रमण का अभिप्राय है। 
बाहर निकलकर इस संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। भगवान भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है। इसके पीछे मनीषियों की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना होगी। उस दिन देवी-देवताओं के दर्शन, 33 कोटि देवी देवताओं को धारण करने वाली गौमाताओं का दर्शन तथा उनसे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिये आशीर्वाद ग्रहण कराया जाता है। जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का विधान है। तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता है इसलिये प्राय: तीन मास तक उसे बहुत सावधानी से घर में रखना चाहिए। इसके बाद धीरे-धीरे उसे बाहरी वातावरण के संपर्क में आने देना चाहिए। इस संस्कार का तात्पर्य यही है कि शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो। विद्द्वानो के मतानुसार इस संस्कार के बाद माँ के दूध के आलावा गौमाता का दूध भी दिया जाना सुरु किया जाता है।
इस ''निष्क्रमण संस्कार'' की सुरुवात अगर स्वच्छ, सुन्दर गौ-शाला में अनेको गौमाताओं, नंदी भगवान, एवं बछड़े - बछियों  के पवित्र सानिंध्य  हो तो करोड़ों गुना पुण्य फलदायी माना गया है। 

5 - अन्नप्राशन संस्कार ! इस संस्कार का उद्देश्य शिशु के शारीरिक व मानसिक विकास पर ध्यान केन्द्रित करना है। अन्नप्राशन का स्पष्ट अर्थ है कि शिशु जो अब तक पेय पदार्थो विशेषकर अपनी माता एवं गौमाता के दूध पर आधारित था अब अन्न जिसे शास्त्रों में प्राण कहा गया है उसको ग्रहण कर शारीरिक व मानसिक रूप से अपने को बलवान व प्रबुद्ध बनाए। तन और मन को सुदृढ़ बनाने में अन्न का सर्वाधिक योगदान है। शुद्ध, सात्विक एवं पौष्टिक आहार से ही तन स्वस्थ रहता है और स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। आहार शुद्ध होने पर ही अन्त:करण शुद्ध होता है तथा मन, बुद्धि, आत्मा सबका पोषण होता है। इसलिये इस संस्कार का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। हमारे धर्माचार्यो ने अन्नप्राशन के लिये जन्म से छठे महीने को उपयुक्त माना है। छठे मास में शुभ नक्षत्र एवं शुभ दिन देखकर यह संस्कार करना चाहिए। गौ दुग्ध से बनी खीर और मिठाईयां शिशु के अन्नग्रहण में अत्यधिक शुभ माना गया है। अमृत: क्षीरभोजनम् हमारे शास्त्रों में खीर को अमृत के समान उत्तम माना गया है। इस ''अन्नप्राशन संस्कार'' की सुरुवात अगर स्वच्छ, सुन्दर गौ-शाला में अनेको गौमाताओं, नंदी भगवान, एवं बछड़े - बछियों  के पवित्र सानिंध्य  हो तो करोड़ों गुना पुण्य फलदायी माना गया है। 

6 - चूड़ाकर्म संस्कार ! चूड़ाकर्म को मुंडन संस्कार भी कहा जाता है। हमारे आचार्यो ने बालक के पहले, तीसरे या पांचवें वर्ष में इस संस्कार को करने का विधान बताया है। इस संस्कार के पीछे शुाचिता और बौद्धिक विकास की परिकल्पना हमारे मनीषियों के मन में होगी। मुंडन संस्कार का अभिप्राय है कि जन्म के समय उत्पन्न अपवित्र बालों को हटाकर बालक को प्रखर बनाना है। नौ-माह तक गर्भ में रहने के कारण कई दूषित किटाणु उसके बालों में रहते हैं। मुंडन संस्कार से इन दोषों का सफाया होता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस संस्कार को शुभ मुहूर्त में करने का विधान है। वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ यह संस्कार अगर किसी पवित्र वातावरण वाले गौष्ठ या गौनिवास में सम्पन्न हो तो बहुत उत्तम माना गया है।
इस '' चूड़ाकर्म संस्कार'' की सुरुवात अगर स्वच्छ, सुन्दर गौ-शाला में अनेको गौमाताओं, नंदी भगवान, एवं बछड़े - बछियों  के पवित्र सानिंध्य  हो तो करोड़ों गुना पुण्य फलदायी माना गया है। 

7 - विद्यारम्भ संस्कार ! विद्यारम्भ का अभिप्राय बालक को शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर से परिचित कराना है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी तो बालक को वेदाध्ययन के लिये भेजने से पहले घर में अक्षर बोध कराया जाता था। माँ-बाप तथा गुरुजन पहले उसे मौखिक रूप से श्लोक, पौराणिक कथायें आदि का अभ्यास करा दिया करते थे ताकि गुरुकुल में कठिनाई न हो। हमारा शास्त्र विद्यानुरागी है। शास्त्र की उक्ति है सा विद्या या विमुक्तये अर्थात् विद्या वही है जो मुक्ति दिला सके। विद्या अथवा ज्ञान ही मनुष्य की आत्मिक उन्नति का साधन है। शुभ मुहूर्त में ही विद्यारम्भ संस्कार करना चाहिये। इस ''विद्यारम्भ संस्कार'' की सुरुवात अगर स्वच्छ, सुन्दर गौ-शाला में विद्वान आचार्य अनेको गौमाताओं, नंदी भगवान, एवं बछड़े - बछियों  के पवित्र सानिंध्य में कराएँ तो बालक अनेकों गुना विद्द्वान विद्यार्थी होता है। 

8 -  कर्णवेध संस्कार ! हमारे मनीषियों ने सभी संस्कारों को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के बाद ही प्रारम्भ किया है। कर्णवेध संस्कार का आधार बिल्कुल वैज्ञानिक है। बालक की शारीरिक व्याधि से रक्षा ही इस संस्कार का मूल उद्देश्य है। प्रकृति प्रदत्त इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं। कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। इसके साथ ही कानों में आभूषण हमारे सौन्दर्य बोध का परिचायक भी है।
यज्ञोपवीत के पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष के शुभ मुहूर्त में इस संस्कार का सम्पादन श्रेयस्कर है।
 इस ''कर्णवेध संस्कार'' की सुरुवात अगर स्वच्छ, सुन्दर गौ-शाला में अनेको गौमाताओं, नंदी भगवान, एवं बछड़े - बछियों  के पवित्र सानिंध्य  हो तो करोड़ों गुना पुण्य फलदायी माना गया है। 

9 -  यज्ञोपवीत संस्कार ! यज्ञोपवीत अथवा उपनयन बौद्धिक विकास के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। धार्मिक और आधात्मिक उन्नति का इस संस्कार में पूर्णरूपेण समावेश है। हमारे मनीषियों ने इस संस्कार के माध्यम से वेदमाता गायत्री को आत्मसात करने का प्रावधान दिया है। आधुनिक युग में ब्रह्मलीन पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी आदि अनेको विद्द्वानो ने भी गायत्री मंत्र पर विशेष शोध किया है। गायत्री सर्वाधिक शक्तिशाली मंत्र है। यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं अर्थात् यज्ञोपवीत जिसे जनेऊ भी कहा जाता है अत्यन्त पवित्र है। प्रजापति ने स्वाभाविक रूप से इसका निर्माण किया है। यह आयु को बढ़ानेवाला, बल और तेज प्रदान करनेवाला है। इस संस्कार के बारे में हमारे धर्मशास्त्रों में विशेष उल्लेख है। यज्ञोपवीत धारण का वैज्ञानिक महत्व भी है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी उस समय प्राय: आठ वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हो जाता था। इसके बाद बालक विशेष अध्ययन के लिये गुरुकुल जाता था। यज्ञोपवीत से ही बालक को ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी जाती थी जिसका पालन गृहस्थाश्रम में आने से पूर्व तक किया जाता था। इस संस्कार का उद्देश्य संयमित जीवन के साथ आत्मिक विकास में रत रहने के लिये बालक को प्रेरित करना है। इस पवित्र ''यज्ञोपवीत संस्कार'' की सुरुवात अगर स्वच्छ, सुन्दर गौ-शाला में विद्वान आचार्य अनेको गौमाताओं, नंदी भगवान, एवं बछड़े - बछियों  के पवित्र सानिंध्य  हो तो करोड़ों गुना पुण्य फलदायी होता  है। 

10  - वेदारम्भ संस्कार ! ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है यह संस्कार। वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पास गुरुकुलों में भेजा जाता था। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं।
इस अति महत्वपूर्ण ''वेदारम्भ संस्कार''  की सुरुवात विद्द्वान आचार्य महोदय के श्रीमुख से स्वच्छ, सुन्दर वातावरण वाली गौ-शाला में अनेको गौमाताओं, नंदी भगवान, एवं बछड़े - बछियों  के पवित्र सानिंध्य  हो तो करोड़ों गुना पुण्य फलदायी माना गया है। क्योकि सनातन धर्म के अनुसार ''गौमाता'' के सानिंध्य में किया गया वेद पाठ 33 करोड़ देवी-देवताओं के सानिंध्य में किया गया पाठ माना जाता है। 

11 - केशान्त संस्कार ! गुरुकुल में वेदाध्ययन पूर्ण कर लेने पर आचार्य के समक्ष यह संस्कार सम्पन्न किया जाता था। वस्तुत: यह संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का उपक्रम है। वेद-पुराणों एवं विभिन्न विषयों में पारंगत होने के बाद ब्रह्मचारी के समावर्तन संस्कार के पूर्व बालों की सफाई की जाती थी तथा उसे स्नान कराकर स्नातक की उपाधि दी जाती थी। केशान्त संस्कार शुभ मुहूर्त में किया जाता था।
पहले गुरुकुलों में ही बड़ी-बड़ी गौशालाएं हुआ करती थी पर अब वह समय नहीं रहा इस लिए इस  ''केशान्त संस्कार'' को अगर विद्द्वान आचार्य स्वच्छ, सुन्दर गौ-शाला में अनेको गौमाताओं, नंदी भगवान, एवं बछड़े - बछियों  के पवित्र सानिंध्य में करायें तो करोड़ों गुना पुण्य फलदायी होजाता है। 

12 - समावर्तन संस्कार !  गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था। इस संस्कार से पूर्व ब्रह्मचारी का केशान्त संस्कार होता था और फिर उसे स्नान कराया जाता था। यह स्नान समावर्तन संस्कार के तहत होता था। इसमें गौ-मूत्र, गंगा-जल,गुलाब-जल, सुगन्धित पदार्थो एवं औषधादि युक्त जल से भरे हुए वेदी के उत्तर भाग में आठ घड़ों के जल से स्नान करने का विधान है। यह स्नान विशेष मन्त्रोच्चारण के साथ होता था। इसके बाद ब्रह्मचारी मेखला व दण्ड को छोड़ देता था जिसे यज्ञोपवीत के समय धारण कराया जाता था। इस संस्कार के बाद उसे विद्या स्नातक की उपाधि आचार्य देते थे। इस उपाधि से वह सगर्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाता था। सुन्दर वस्त्र व आभूषण धारण करता था तथा आचार्यो एवं गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण कर अपने घर के लिये विदा होता था।
 पहले तो गुरुकुलों में ही बड़ी-बड़ी गौशालाएं हुआ करती थी पर अब वह समय नहीं रहा इस लिए इस  ''केशान्त संस्कार'' को अगर विद्द्वान आचार्य स्वच्छ, सुन्दर गौ-शाला में अनेको गौमाताओं, नंदी भगवान, एवं बछड़े - बछियों  के पवित्र सानिंध्य में करायें तो करोड़ों गुना पुण्य फलदायी होजाता है। 

13 -  विवाह संस्कार ! प्राचीन काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। यज्ञोपवीत से समावर्तन संस्कार तक ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का हमारे शास्त्रों में विधान है। वेदाध्ययन के बाद जब युवक में सामाजिक परम्परा निर्वाह करने की क्षमता व परिपक्वता आ जाती थी तो उसे गृर्हस्थ्य धर्म में प्रवेश कराया जाता था। लगभग पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत का पालन करने के बाद युवक परिणय सूत्र में बंधता था।
हमारे शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गन्धर्व, राक्षस एवं पैशाच। वैदिक काल में ये सभी प्रथाएं प्रचलित थीं। हमारे देवभूमि उत्तराखण्ड के अलावा भी आज देश भर में कई प्रान्तों में रात्रि तमाम गोष्ठ यानि गौनिवास में शादी-विवाह करते है। ताकि 33 कोटि प्रत्यक्ष देवी-देवताओं का (गौमाता ) आशीर्वाद इस विवाह को मिल सके। जो सुसंस्कारी परिवार है उन्होंने ये परम्परा आज भी नहीं छोड़ी है। आज उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है कि हमारा समाज सभ्य और सुसंस्कृत है। पहले प्रतेक घर में एक गोष्ट या गौ निवास होता था पर अब समय बदल गया है इसलिए इस ''विवाह संस्कार'' को अगर विद्द्वान आचार्य स्वच्छ, सुन्दर गौ-शाला में अनेको गौमाताओं, नंदी भगवान, एवं बछड़े - बछियों के पवित्र सानिंध्य में ''सात फेरे'' करायें तो विवाह गठबंधन सात जन्म तक सुरक्षित रहता है यह मान्यता है हमारे सनातन शास्त्रों की जो सदा सत्य ही होती है।  

14 - अन्त्येष्टि संस्कार ! यहाँ तक की अंतिम संस्कार में भी बैतरणी पार करने हेतु गौ-दान और ''गौमाता'' के पूछ पकड़ा कर मृतक शरीर को गौ-लोक धाम की, वैकुण्ठ लोक की प्राप्ति करायी जाती है। जिससे जीव की आत्मा फिर 84 के फेरे में यानि ''पुनरपि जननं, पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनं''
भज गोविन्दं, भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते !!  आदि जगद्गुरु शंकराचार्य जी ने लिखा ---
बार-बार जन्म लेने का दुःख, बार-बार मरने का दुःख और बार-बार माँ के पेट में रहने का दुःख क्यों भोग रहा है ? अरे मूढ़मति !! (इन दुखों को समाप्त करने के लिए) 33 करोड़ देवी-देवताओं का शुद्द निवास स्थान गौशाला में बैठ कर श्रीकृष्ण का स्मरण कर, श्रीकृष्ण का स्मरण कर, श्रीकृष्ण का स्मरण कर, या अपने-अपने इष्ट को भजों। --
 इस तरह सनातन धर्म के प्रतेक संस्कार में गौमाता एवं गौवंश का अतिमहत्वपूर्ण स्थान था, है, रहेगा। यहाँ तक की किसी कारण वस किसी के पितर नीच योनी में चले गयें है,या प्रेत योनी में गये अपने ही पितर पुरे परिवार को परेशान करते है तो सनातन शास्त्रों के अनुसार एक नंदी बैल को छोड़ा जाता है। गौदान किया जाता है। पर आज के समय में नंदी बैल को खुला छोड़ने का मतलब कसाई- गौहत्यारों को दावत देना और पाप को मोल लेना है। इसलिए आज का मानव भी अपने पितरों की तारण-तरन के निमित गाय, बछिया, बछड़े  या नंदी बैल का दान किसी सुरक्षित,पवित्र, स्वच्छ, सुन्दर गौशाला में करें तो वही पुण्य प्राप्त कर सकता है जो वेद पुराणों में वर्णित है । इसीलिए कहाँ गया है ''गाय के विना गति नहीं, वेद के विना मति नहीं'' -----
                               ''नयाल सनातनी''
प्रस्तुत कर्त्ता
संपत देवी मुरारका
अध्यक्षा, विश्व वात्सल्य मंच
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद

भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक साहित्य



 




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प्रस्तुत कर्त्ता
संपत देवी मुरारका
अध्यक्षा, विश्व वात्सल्य मंच
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद

डॉ. विनोद बब्बर संपादक-- राष्ट्र किंकर,


विश्व हिन्दी सम्मेलन और हम

यह प्रसन्नता की बात है कि दसवां विश्व हिन्दी सम्मेलन आगामी 10-12 सितम्बर को मध्यप्रदेश की भोपाल में होने जा रहा है। सरकार की ओर से इसे एक याादगार अवसर बनाने के लिए व्यापक इंतजाम किये जा रहे हैं। विश्व सम्मेलन है तो स्वाभाविक है कि  दुनिया भर के प्रतिनिधि भी आएगे। ऐसे में हमें यह भी समझना चाहिए विश्वभर के हिन्दीप्रेमी केवल अपनी और अपनों की यशोगाथा सुनानेे अथवा दूसरों भाषणों पर तालियां बजाने के लिए नहीं बल्कि अपनी आंखो से देखने के लिए आ रहे है कि भारत में हिन्दी की दशा क्या है। ऐसे में हमे अपने आप से पूछना चाहिए कि देशभर के बाजारों में लगे बोर्ड कहीं विदेशी भाषा के तो नहीं हैं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि भारतीय भाषाओं पर विदेशी भाषा हावी है? हमें इस बात का उत्तर भी तैयार रखना चाहिए कि आखिर कया कारण है कि हमारे पास राष्ट्रगान है, राष्ट्रध्वज है, राष्ट्रीय प्रतीक है, राष्ट्रीय पशु, राष्ट्रीय  पक्षी तो हैं. लेकिन दुनिया के अन्य देशो की तरह राष्ट्रभाषा नहीं है। 

क्योंकिं उच्च न्यायालय के बहुचर्चित फैसले के अनुसार- ‘हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं वह सिर्फ राजभाषा है।’ हमारे यहां शिक्षा का माध्यम हिन्दी की बजाय हमे गुलाम बनाने वालो की भाषा क्यों है? 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा में पारित प्रस्ताव में कहा गया था ‘15 वर्षो पश्चात (1965 से) हिंदी अंग्रेजी का स्थान पर राष्ट्रभाषा के साथ-साथ भारत की राजभाषा भी बन जाएगी।’ आखिर ये 15 वर्ष इतने लम्बे क्यों हो गए? बाद में राजनैतिक लाभ के लिए 15 वर्ष वाले प्रावधान को असंभव जैसा बनाने वाले स्वयं को किस अधिकार से हिन्दीभाषी कहते हैं? हिन्दी में वोट मांगने वाले कुर्सी पर बैठकर अंग्रेज क्यों बन जाते हैं? हमारा नैतिक बल इतना रसातल में कयो चला गया कि देश का राजकाज चलाने वाले नेताओं और अफसरशाहों की कथनी और करनी के अंतर को हम  समझ कर भी खामोश क्यों रहते हैं? कुछ स्थानों पर हिंदी भाषियों पर अत्याचार के समाचार और दूसरी ओर सभी भारतीय भाषाएं सहोदर है जैसी उक्ति आखिर क्या है? सहोदर बहनें एक-दूसरे को हटाने- धकियाने में लगी रही तो इनके बदले आप उस  भाषा को हावी होने से कैसे रोक सकते है जिसने 250 वर्षो तक इस देश को गुलाम बनाये रखा? ज्ञान आयोग पहली कक्षा से अंग्रेजी शिक्षा की सिफारिश करता है। जिसके विरोध में कोई सशक्त आदंोलन तो दूर मौन आम सहमति दिखायी दे रही है। हिन्दी को देवनागरी के बदले रोमन अपनाने की सलाह देने वाले सम्मान पा रहे हैं। इसपर भी हम स्वयं को हिन्दी का सबसे बड़ा तीर्थ बताये तो इससे बड़ा दुर्भाग्य कया होगा।

क्या हमारे पास इस बात का कोई जवाब है कि आप महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता घोषित करते हैं। हर कार्यालय में उनका चित्र विराजमान है तो हर नोट पर भी उनका चमकदार मुखमुद्रा है परंतु आपने अपने राष्ट्रपिता की वह बात क्यों अपने मन-मस्तिष्क पर क्यों नोट नहीं की जो 15 अगस्त 1947 की सुबह बी. बी. सी. को दिए इंटरव्यू में गांधी जी कही थी, ‘कह दो दुनिया वालो से, गांधी अंग्रेजी भूल चुका है।’ वे अवसर कहा करते थे, ‘अगर एक दिन के लिए भी देश की सत्ता मेरे हाथ में आ जाए तो मैं इस देश से विदेशी माध्यम की शिक्षा का अंत कर दूं।’
हमारे पास इस बात का क्या जवाब है कि स्वतंत्र भारत के नागरिको को अपनी भाषा में न्याय पाने का भी अधिकार क्यों नहीं है। क्या यह सत्य नहीं कि भारतीय संविधान की धारा 348 के अनुसार उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी है। अनेक भारतीय भाषाओं का ज्ञाता विद्वान भी न्यायालय में अधूरा है अगर उसे गुलामी की भाषा नहीं आती। 
कहने को हिन्दी अनेक राज्यों की राजभाषा है लेकिन प्रशासन के कामकाज की वास्तविक स्थिति इससे भिन्न हैं। कम्प्यूटर पर हिन्दी का आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है परंतु स्वयं विश्व हिन्दी सम्मेलन की ऑनलाइन पंजीकरण सेवा में हिन्दी का उपयोग नहीं किया जा सका। समाचार पत्रों के पजींकार कार्यालय की वार्षिक विवरणी हिन्दी में भरने के दावे तो हैं लेकिन वास्तविकता कुछ और है। देश की राजधानी दिल्ली से जारी वाहन चालक लाइसेंस में एक शब्द भी हिन्दी का न होना हिन्दी प्रेमियों को करारा तमाचा है। आज भी हिंदी के लिए यूनिकोड (इन्स्क्रिप्ट) को अनिवार्य नहीं बनाया गया  

उच्चशिक्षा में हिन्दी की स्थिति दयनीय कही जा सकती है तो गली-गली खुलते दबड़ेनुमा अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की बढ़ती संख्या के चलते हिन्दी की भविष्य की तस्वीर क्या होगी। आम बोलचाल की भाषा में भी अग्रेंजी शब्दों की घुसपैठ हो रही है क्योंकि कुछ प्रकाशन संस्थान और इलैक्ट्रोनिक मीडिया पूरी निष्ठा से ‘हिन्दी हटाओं’ में लगे हैं और हम टुकर-टुकर देख रहे हैं।

हिन्दी बहता नीर है। पतितपावनी गंगा है। अनेक बोलियां इस गंगा को सदानीरा बनाए रखती है लेकिन इन बोलियों को हिन्दी के विरूद्ध खड़ा करने की साजिश हिन्दी को बमजोर करने केअीिायान का हिस्सा है जिसके परिणाम भी आने लगे है। पिछले दिनों विकीपीडिया द्वारा जारी विश्व की सौ भाषाओं की एक सूची में बोलने वालों की संख्या के आधार पर हिन्दी को चौथा स्थान दिया गया है. इसके पूर्व चीनी भाषा प्रथम और हिन्दी को दूसरा स्थान प्राप्त था। दूसरे से चौथे स्थान पर लुढकने का कारण भाषाओं की इस सूची में भोजपुरी, अवधी, मैथिली, मगही, हरियाणवी और छत्तीसगढ़ी को स्वतंत्र भाषा के रूप में शामिल किया गया है। हम जाने-अनजाने  हिन्दी को कमजोर कर अंग्रेजी को भारत की सबसे बड़ी भाषा बनाने के अंतरराष्ट्रीय षड़यंत्र का शिकार हो रहे हैं। हिन्दी केवल एक भाषा नहीं बल्कि इस देश की सांस्कृतिक चेतना है। एकता की गारंटी है। सदभावना की रीढ़ है। दुर्भाग्य की बात है कि हम आसानी से उनके बिछाये जाल में फंस रहे है। 

यहां हमारा अभिप्राय किसी बोली अथवा भाषा को उपेक्षित रखने का नहीं है। हर बोली-भाषा का विकास होना चाहिए कयोंकि हरेक का अपना महत्व है। उसके साथ हजारो वर्षों की उसकी विरासत जुड़ी है। दो-चार नहीं सभी बोलियों- भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर दिया जाए लेकिन हिन्दी को उस सूची से निकाल कर राष्ट्रभाषा घोषित किया जाए। देश भर में प्रारंभिक शिक्षा अनिवार्य रूप से मातृभाषा  में दी जाय और द्वितीय भाषा के रूप में संघ की राजभाषा हिन्दी को रखा जाये।

भारत की अधिकांश जनता हिन्दी बोल अथवा समझ सकती है। देश भर से प्रकाशित होने वाली समाचार पत्रों तथा पत्रिका में हिंदी के पाठको की संख्या सर्वाधिक है। इंटरनेट पर हिंदी बहुत तेजी से बढ़ रही है। विश्व के 150 से अधिक विश्वविद्यालयों में हिंदी शिक्षण की व्यवस्था है। पिछले दिनों अपने चैन्नई प्रवास के दौरान हिंदी सेवी प्राध्यापक डॉ. आशीर्वादम् ने अपने कालेज की हर कक्षा के दौरान सैंकडों छात्रों को ध्वनि विस्तारक यंत्र से पढ़ाने के अपने अनुभव का उल्लेख किया। देश के अधिकांश स्थानो पर भ्रमण के दौरान इन पंक्तियों के लेखक को हिंदी बोलने के कारण कभी-कहीं कोई असुविधा नहीं हुई। सत्य तो यह है कि देश का अभिजात वर्ग अनावश्यक से हिंदी के प्रति हीन भावना उत्पन्न कर अंग्रेजी के प्रति उच्चभाव पैदा करने का दोषी है। दुखद आश्चर्य कि बात तो यह है कि यह वर्ग मूलतः हिंदी भाषी क्षेत्रों में ही पैर पसार रहा है। 

इस सत्य के कौन इंकार कर सकता है कि हिंदी को समृद्ध बनाने तथा इसे प्रतिष्ठित करने में अहिंदी भाषी महापुरूषों का बहुत अधिक योगदान है। पंजाब में गुरूओं ने हिंदी के लिए बहुत कार्य किया। श्री गुरूग्रन्थ साहिब में इसकी स्पष्ट छाप देखने को मिलती है तो श्री गुरू गोबिंद सिंह के ग्रन्थ ‘रामावतार’ एवम् ’कृष्णावतार’ हिंदी साहित्य और इतिहास की बहुमूल्य धरोहर है। इसके अतिरिक्त स्वामी दयांनद, गांधी जी (गुजरात), सुभाष बोस, बंकिम चंद्र चटर्जी रविंद्रनाथ टैगोर (बंगाल), तिलक (महाराष्ट्र), लाला लाजपत राय, महात्मा हंसराज (पंजाब) जैसे कुछ नाम उल्लेखनीय है जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी पर वे स्वयं हिंदी के ध्वज वाहक रहे है। 

देश के हिन्दीतर भाषी राज्यों में राजनीति के कारण हिन्दी विरोध अब क्षीण होने लगा है। पिछलें दिनों तमिलनाडू में नये सचिवालय के निर्माण के बाद श्रमिकों के एक उत्सव में तत्कालीन मुख्यमंत्री की उपस्थिति में हिन्दी लोकगीत, नृत्य आदि प्रस्तुत किये गये तो मुख्यमंत्री भी उनकी धुन पर धिरकने लगे। दक्षिण तथा उत्तर पूर्व के राज्यों में हिन्दी सीखने बालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है लेकिन हिन्दी बेल्ट (उत्तर भारत) हिन्दी के प्रति हीनभावना का शिकार है। हर व्यक्ति टूटी-फूटी गलत ही सही लेकिन अंग्रेजी के दो बोल बोलने में शान महसूस करता है। गली- गली दबड़ेनुमा ’कानवेंट’ स्कूल खुल रहे हैं जहाँ बच्चे को उसकी भाषा- संस्कृति के विमुख करने के सभी साधन उपलब्ध हैं। हिन्दी को कमजोर करने में हम स्वयं महती भूमिका निभा रहे हैं। आज हरियाणवी, राजस्थानी, ब्रज, बंुदेलखंडी, भोजपुरी, मैथिली आदि को हिन्दी का प्रतिद्वंदी बनाकर खड़ा किया जा रहा है ताकि हिन्दी को इनसे लड़ाया जा सके।जबकि इनमें अंतर मामूली है। उदाहरण के तौर पर ‘क्या’ शब्द को ही लीजिए। इसे  पंजाबी में - की, हरियाणी में - के, ब्रज, मैथिली, भोजपुरी में- का, राजस्थानी में काई कहा जाता है। सभी जगह व्यंजन ‘क’ है जिसपर क्षेत्रीय प्रभाव के कारण ‘स्वर’ थोड़ा भिन्न है। हिन्दी को इन सभी बोलियों से बल मिलता रहा है। ये सभी हिन्दी रूपी गंगा को प्रवाहमान बनाये रखने में सहायक नदियां हैं। इनका गंगा से बैर न था, न है और ही हो सकता है।
इस देश की संस्कृति से जुड़े अधिकांश ग्रंथ हिंदी में होने के कारण देश को जानने के लिए हिंदी की जानकारी बहुत जरूरी है। हिंदी को जाने बिना इसे नकारता बहुत आसान है पर इसका ज्ञान हासिल कर इसके गुणों का रसस्वादन करने वाला कोई भी मनुष्य इसकी वैज्ञानिकता का कायल हुए बिना नहीं रह सकता। जो लोग मौका-बेमौका ‘हिन्दी को सरल बनाओ’ जैसे नारे लगाते हैं उनसे यह जानना भी समचीन होगा कि वे जिस अंग्रेजी के भक्त हैं ,क्या पिछले तीन सौ वर्षों के दौरान अंग्रेजी के सरलीकरण की बात कभी उठी है। जबकि वास्तविकता यह है कि विशेषज्ञ भी अंग्रेजी के मानक शब्दों का ठीक से उच्चारण नहीं कर पाते। उनके सामान्य एवं विशेष अर्थ में अंतर नहीं कर पाते। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अंग्रेजी को अनावश्यक रूप से महिमा मंडित करने के लिए इस प्रकार के नारे तैयार किए जाते हैं। हमें ऐसे लोगों से बचना होगा। 

हमारे कुछ हिंदी समाचार-पत्र भी अपनी भाषा को लगातार इतना विकृत करते जा रहे हैं कि इसे हिंदी की बजाय -हिंग्लिश’ कहना ही ज्यादा ठीक होगा। आज बच्चे नमस्कार, सतश्री अकाल, वाणकम नहीं, -गुडमार्निंग’ करते हैं। वे उन्हतर को नहीं जानते, सिक्सटी नाइन समझते हैं क्योंकि उन्हें किसी ने एक दो तीन सिखाया ही नहीं, वे तो वन टू थ्री के कायल हैं। हिंदी के स्थान पर पसरती अंग्रेजी हमारी बोलचाल, रहन-सहन ही नहीं हमारे सांस्कृतिक मूल्यों और रिश्ते-नातों को भी अपनी चपेट ले रही है, तभी तो आज ताऊ-चाचा- मामा-फुफा-मौसा आदि अंकल बन चुके हैं 

हिंदी की लिपि सर्वाधिक वैज्ञानिक है। उनका एक निश्चित उच्चारण है। जो लिखा गया है, वही बोला-पढ़ा जा सकता है। बीयूटी-बट और पीयूटी-पुट जैसी विसंगतियां यहाँ देखने को नही मिलती। एक-एक शब्द के ढ़ेरो पर्यायवाची केवल हिंदी में ही उपलब्ध है। दुनिया हिंदी के समृद्ध स्वरूप से प्रभावित हो रही है पर हम......? एक साधारण खिलाड़ी, नेता, अभिनेता थोड़ी सी सफलता प्राप्त करते ही अंग्रेजी बोलने में अपनी शान समझता है। शुद्ध हिंदी बोलने की बजाय अशुद्ध अंग्रेजी बोलने वालों को कोई कैसे समझाये कि अपनी माँ को दुत्कार कर, पराई माँ को सिर आंखों पर बैठाने वाले चापलूस-चटुकार बेशक माने जाए पर उन्हें कोई योग्य पुत्र तो क्या योग्य इंसान भी मानने को तैयार नहीं होगा। अग्रेंजी को सीढी बनाकर आसमान की ऊचांईयां छूने का अरमान पालने वाले को क्या यह याद दिलाना जरूरी है कि कोई भी सीढ़ी जमीन से जुड़ी दीवार या छत्त  पर ही  लगाई जाती है, उसे  आसमान या हवा में कहीं नहीं टांगा जा सकता।

यदि हिन्दी की उपेक्षा करने, इसे हीन भावना से देखने और प्रतिष्ठा का प्रतीक न मानने वालों का एक नासमझ वर्ग है तो हिन्दी सेवियों, हिन्दी में आस्था रखने वाले प्रशासकों, हिन्दी कार्यकर्ताओं, हिन्दी लेखकों- साहित्यकारों का एक बहुत बड़ा समझदार वर्ग भी है, जो अपने ही तप  से हिंदी की सेवा करते हुए उसके ध्वज को सबसे उंचा रख कर यह घोष करता है, ’हिन्दी अभी भी वीर विहीन और विचार विहीन नहीं हुई है।’ 

यहाँ यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हमारा अभिप्राय यह हर्गिज नहीं कि हम अन्य भाषाओं को भूल जाए या उनसे दूर रहें। अधिक से अधिक भाषाओं को सीखना, उनसे ज्ञान अर्जित करना हम सभी का अधिकार है पर अपनी राष्ट्रभाषा की कीमत पर नहीं। मेरी स्वयं की मातृभाषा हिंदी नही है लेकिन हिंदी मेरी मातृभूमि की भाषा है। मुझे देश से जुड़ने का अवसर हिंदी ने दिया। हिंदी में कार्य करते हुए मुझे ही नहीं, अधिकांश देशवासियों को जो सुविधा, सरलता और आत्म संतुष्टि होती है, वह किसी अन्य भाषा में नही ंहोती। 

शुभकामनाओ सहित  
डॉ. विनोद बब्बर संपर्क-09868211911
संपादक-- राष्ट्र किंकर, 
निवास- ए-2/9ए, हस्तसाल  रोड,
 उत्तम नगर नई दिल्ली-110059  
                 
                
           
प्रस्तुत कर्त्ता : संपत देवी मुरारका 
संपत देवी मुरारका
अध्यक्षा, विश्व वात्सल्य मंच
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद

मंगलवार, 25 अगस्त 2015

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में स्वतंत्रता पर्व संपन्न



दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में स्वतंत्रता पर्व संपन्न
हर कीमत पर आजादी की रक्षा के लिए संकल्पबद्ध हों प्रो.दिलीप सिंह

हैदराबाद, 15 अगस्त 2013. (मीडिया विज्ञप्ति)
स्वतंत्रता दिवस हमें यह याद दिलाता है कि जिस राष्ट्रीय आजादी का हम आज स्वच्छंद उपभोग कर रहे हैं उसे इस देश ने लंबे संघर्ष और भीषण यातनाओं के बाद प्राप्त किया है. संघर्षों का यह इतिहास इस दृष्टि से अनोखा है कि एक ओर हमारे किशोर और युवा क्रांतिकारियों ने उपनिवेशी शासन को सशस्त्र चुनौती दी तथा दूसरी ओर सहनशीलता की चरमसीमा तक अहिंसक आंदोलन ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की इस भावना को प्रमाणित कर दिखाया कि अत्याचारी व्यवस्था को भी अहिंसा की ताकत के सामने आखिरकार झुकना ही पडता है. इस संघर्ष की समस्त गाथा तमाम भारतीय भाषाओं के साहित्य में और लोक की स्मृतियों में सुरक्षित है. आवश्यकता है कि हमारी नई पीढ़ियाँ साहित्य में निहित इस राष्ट्रीय चेतना को आत्मसात करें और मिली हुई आजादी की हर कीमित पर रक्षा के लिए संकल्पबद्ध हों.

ये उद्गार स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के कुलसचिव प्रो.दिलीप सिंह ने आंध्र सभा में मुख्य अतिथि के रूप में ध्वजारोहण के पश्चात अपने संबोधन में प्रकट किए. इस समारोह में चवाकुल नरसिंह मूर्ति, शेख मोहम्मद कासिम, शेख जमीला बेगम विशेष अतिथि के रूप में शामिल हुए.

67 वें स्वतंत्रता पर्व के तहत आयोजित कार्यक्रम की शुरुआत मुख्य अतिथि द्वारा महात्मा गांधी की प्रतिमा पर माल्यार्पण से हुई. इसके बाद ध्वज स्तंभ के समक्ष पूजा का सांस्कृतिक अनुष्ठान संपन्न हुआ और ध्वजारोहण के पश्चात अतिथियों ने अपने उद्बोधनात्मक विचार व्यक्त किए. छात्र-छात्राओं ने राष्ट्र चेतनापरक गीत प्रस्तुत किए. समारोह में सभा के विभिन्न विभागों के व्यवस्थापक, प्राध्यापक, कार्यकर्ता और छात्र उत्साहपूर्वक सम्मिलित हुए.

आरंभ में आंध्र सभा के सचिव सी.एस.होसगौडर ने मुख्य अतिथि का स्वागत-सत्कार किया. संयोजन प्रो.ऋषभदेव शर्मा ने किया तथा धन्यवाद डॉ.के.बी.मुल्ला ने दिया.
     
प्रस्तुति : डॉ.जी.नीरजा, सह संपादक स्रवन्ति’, प्राध्यापक, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद 500004, मोबाइल 09849986346,ईमेल  neerajagkonda@gmail.com

प्रस्तुत : कर्त्ता :संपत देवी मुरारका 
संपत देवी मुरारका
अध्यक्षा, विश्व वात्सल्य मंच
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद

संपत देवी मुरारका को “अर्चना प्रतिभा सम्मान” प्रदत्त



संपत देवी मुरारका को अर्चना प्रतिभा सम्मान प्रदत्त

अर्चनाकोलकात्ताके तत्वावधान में रविवार 18 जनवरी 2015 को कोलकात्ता निवासी श्री नथमल जी केडिया के निवास स्थान में 60 से भी अधिक वर्षों से संचालित अर्चना की मासिक गोष्ठी के अंतर्गत श्रीमती संपत देवी मुरारका (हैदराबाद) को अर्चना प्रतिभा सम्मान से सम्मानित किया गया |

इस अवसर पर समारोह की अध्यक्षता श्री नथमल जी केडिया (साहित्य महोपाध्यायवरिष्ठ कवि एवं लेखककोलकात्ता) ने की विशिष्ठ अतिथि के रूप में श्रीमती संपत देवी मुरारका (भूटान के परिकल्पना सार्क शिखर सम्मान से सम्मानितलेखिकाकवयित्रीपत्रकार,हैदराबाद) मंचासीन हुए |

मृदुला कोठारी के सफल संचालन में कविगोष्ठी का आयोजन हुआ इसमें चिराग चतुर्वेदीबनेचंद्र  मालूहरिलाल अग्रवालउषा सर्राफ,गुलाब बैदइंदु चांडकमृदुला कोठारीशकुन त्रिवेदीसंपत देवी मुरारका ने अपनी रचनाओं का पाठ किया श्री नथमल जी केडिया ने अध्यक्षीय काव्यपाठ किया इस अवसर पर राजेश मुरारका भी उपस्थित थे बानेचंद्र माली के आभार प्रदर्शन के साथ समारोह का समापन हुआ |
प्रस्तुति : संपत देवी मुरारका, Email : murarkasampatdevii@yahoo.co.in

संपत देवी मुरारका
अध्यक्षाविश्व वात्सल्य मंच
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद