शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

वैश्विक ई-संगोष्ठी भाग-5





(वैश्विक ई-संगोष्ठी भाग-5)

 'चिंदी-चिंदी' होती हिंदी' 
हिंदी क्षेत्र की बोलियों को अष्टम अनुसूची में स्थान ???
  प्रोफेसर कृष्ण कुमार गोस्वामी, अशोक चक्रधर के विचार 

अशोक चक्रधर

आदित्यजी, यह इस देश का दुर्भाग्य है कि यहाँ लोग छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए अपनी ही भाषा की चिंंदी - चिंंदी करने पर आमादा हैं। जो लोग हिंदी क्षेत्र की बोलियों को संविधान की अष्टम अनुसूची में शामिल करवाने की बात कर रहे हैं, ऐसा नहीं है कि उन्हें उस बोली की बहुत चिंता है ज्यादातर लोग निहित स्वार्थों के कारण ऐसा कर रहे हैं। बृजभाषा जो मेरी बोली भी है, यदि इसे अष्टम अनुसूची में शामिल नहीं किया गया तो क्या उसमें साहित्य रचना पर कोई प्रतिबंध है। अब वह हिंदी साहित्य का अभिन्न अंग है पूरे देश में हिंदी साहित्य में पढ़ाई जाती है। मैथिली को अलग भाषा बना दिया गया जबकि विद्यापति आज भी हिंदी साहित्य में पढ़ाए जाते हैं। उसे हिंदी से अलग कर के तो उसका भारी नुकसान होगा । 
  लेकिन जो लोग इस माँग के जरिए बोली विशेष के लोगों को लामबंद कर अपने राजनैतिक हित साधना चाहते हैं, या इसके जरिए बोली के नाम पर अपनी दुकानें चमकाना चाहते हैं उनका उद्देश्य ही अलग है। ऐसी हरकतों के चलते ही हिंदी को संयक्त राष्ट्रसंघ की भाषा बनने  में सफलता  नहीं मिली, संख्या कम पड़ गई । 
अगर हम चीन का उदाहरण लें, जिनकी भाषा मंदारियन है, वहाँ भी हमारी तरह अनेक बोलियाँ वगैरह हैं। लेकिन लाभ-लोभ के चलते अलगाव की बात वहाँ नहीं है । सब मंदारियन को पूरे देश की भाषा मानते हैं। मैं समझता हूँ कि अगर आज किसी बोली को  अष्टम अनुसूची में स्थान देने की बात हुई तो न जाने कितने क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा और लाभ-लोभवादी डंडा-झंडा लेकर खड़े हो जाएँगे। 
में इसे अनावश्यक व दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूँ।

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अशोक चक्रधर
    

 प्रोफेसर कृष्ण कुमार गोस्वामी, 

   प्रो. अमर नाथ ने अंतरराष्ट्रीय स्‍तर पर हिन्दी की अस्मिता और अस्तित्व पर कुठाराघात करने के षड्यंत्र का जो उल्‍लेख किया है, वह वास्तव में चिंताजनक है। प्रो. अमर नाथ ने बहुत ही सुलझे हुए ढंग से जो तथ्य रखे हैं वे हममें  जागरूकता पैदा करते हैं कि अब हमें इस ओर गंभीरता से विचार करना होगा। हिन्दी विरोधियों में विदेशियों की अपेक्षा हमारे अपने ही लोग अधिक हैं जो हिन्दी को खंड-खंड करने में लगे हुए हैं। इससे न केवल हिन्दी को नुकसान होगा बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं को भी होगा जो भारत के लिए अत्यंत घातक होगा। इससे देश के भी खंडित होने की आशंका है। वास्तव में यह भी एक प्रकार का राष्ट्रद्रोह है।

   हम लोग भारत की भाषायी स्थिति से या तो परिचित नहीं हैं या हम जानबूझकर इसकी अवहेलना कर रहे हैं। हमें इस बारे में सतर्क और सचेत होना है। मैं यहाँ पहले भारत की भाषायी स्थिति पर और उसमें हिन्दी  की विशिष्टता और उसकी बोलियों पर संक्षेप में अपनी बात भाषावैज्ञानिक दृष्टि से करूंगा ताकि यह स्पष्ट हो सके कि संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाएँ पहले ही अधिक हैं तथा अन्य बोलियों को सम्मिलित करने से हमारी राजभाषा और राष्ट्रभाषा हिन्दी की व्यापकता और श्रेष्ठता पर कितना आघात पहुंचेगा।      
   भारत एक बहुभाषी देश है लेकिन ये सभी भाषाएँ एक कड़ी में पिरोई हुई हैं और इन में परस्पर सातत्य है, टूटन नहीं। इसी प्रकार हर भाषा की बोलियों में भी यही स्थिति मिलती है। हिन्दी भाषी क्षेत्र में मैथिली से ले कर खड़ीबोली, राजस्थानी, ब्रज, अवधी, पहाड़ी आदि तक की बोलियों में भी टूटन नहीं, सातत्य मिलता है। निकट की बोलियों में एक-दूसरे के प्रति बोधगम्यता है जो उन्हें एक ही भाषा के अंतर्गत लाने में सहायक हैं।
   भाषाविज्ञान की दृष्टि से भाषा और बोली में कोई अंतर नहीं माना जाता। संरचना के स्तर पर भाषा जहां  ध्वनि-संयोजन, शब्द-संपदा,व्याकरणिक व्यवस्था आदि विभिन्न घटकों और उनकी विभिन्न इकाइयों में संबंध स्थापित कर अपना संश्लिष्ट रूप ग्रहण करती है, वहाँ वह विभिन्न सामाजिक स्थितियों से भी संबंध स्थापित करती है। साथ ही, वह विविध प्रयोजनों और संदर्भों में भी प्रयुक्त होती है। इसलिए भाषा और बोली के प्रयोग में तीन निश्चित संदर्भ सामने आते हैं और वे हैं रूपपरक, ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ। रूपपरक दृष्टि से बोली भाषा का क्षेत्रीय-प्रभेदक शैली-रूप है। इसे एक निश्चित शब्द-समूह और व्याकरणिक संरचना द्वारा पहचाना जाता है। भाषा की विविधता जब उसके प्रयोक्ताओं के भौगोलिक क्षेत्र अथवा स्थान का परिणाम होती है तब वह क्षेत्रीय बोली कहलाती है।  
   ऐतिहासिक दृष्टि से भाषा और बोली का एक ही परिवार होता है। मूल अर्थात स्रोत भाषा को भाषा की संज्ञा दी जाती है और उससे उत्पन्न भाषा को बोली कहते हैं। सुप्रसिद्ध भाषाविज्ञानी सुनीतिकुमार चटर्जी ने इसी दृष्टि से हिन्दी, बंगला, मराठी आदि आधुनिक भाषाओं को संस्कृत की बोलियों के रूप में माना है। इधर जॉर्ज ग्रियर्सन ने पारिवारिक संबंधों के आधार पर हिन्दी क्षेत्रों को दो उपवर्गों में विभाजित किया  - शौरसेनी अपभ्रंश से व्युत्पन्न पश्चिमी हिन्दी और अर्धमागधी अपभ्रंश से उद्भूत पूर्वी हिन्दी। इसी प्रकार पश्चिमी हिन्दी उपवर्ग की खड़ीबोली, हरियाणवी,ब्रज, बुंदेली, कनौजी पाँच बोलियाँ हैं और पूर्वी हिन्दी की अवधी, बघेली और छतीसगढ़ी तीन बोलियाँ हैं। ग्रियर्सन ने बिहारी, राजस्थानी और पहाड़ी को हिन्दी से अलग रखा। बिहारी उपभाषा की भोजपुरी, मगही और मैथिली बोलियाँ हैं, राजस्थानी उपभाषा की मारवाड़ी, मालवी, ढूंढारी और मेवाती बोलियाँ हैं जबकि पहाड़ी की पूर्वी पहाड़ी (नेपाली), मध्यवर्ती पहाड़ी ( गढ़वाली, कुमाँयूनी) और पश्चिमी पहाड़ी (हिमाचली) बोलियाँ हैं। ग्रियर्सन का यह वर्गीकरण भ्रामक और अवैज्ञानिक है। वास्तव में ग्रियर्सन ने ऐतिहासिक दृष्टि से व्याकरणिक समानता को देखा और उसके कारण परस्पर बोधगम्यता तथा साहित्य और संस्कृति के आधार पर उनकी जातीय अस्मिता को ध्यान में रखा, किंतु उन्होंने  भाषा और बोली के विभेदक लक्षणों की ओर ध्यान नहीं दिया। बंगला और असमिया में व्याकरणिक समानता और परस्पर बोधगम्यता के कारण काफी निकटता मिलती है, किंतु जातीय अस्मिता और जातीय बोध के कारण उनमें भिन्नता मिलती है। बिहारी और हिन्दी को व्याकरणिक समानता और परस्पर बोधगम्यता का यह विभाजन मानदंड स्वीकार्य नहीं हो पाया, क्योंकि इस मानदंड से हिन्दी और पंजाबी, पंजाबी और हिमाचली तथा असमिया और बंगला एक ही भाषा की दो बोली होतीं। यही स्थिति तमिल और मलयालम तथा बंगला और उड़िया पर भी लागू होती है। इसके अतिरिक्त हिन्दी, बंगला और मैथिली का यह विवाद भी नहीं उठता कि मैथिली हिन्दी की बोली है या बंगला की। हिन्दी तथा बिहारी, राजस्थानी और पहाड़ी भाषाओं में जातीय अस्मिता के साथ-साथ व्याकरणिक समानता और बोधगम्यता काफी हद तक मिल जाती है। इस लिए बिहारी, राजस्थानी,पहाड़ी आदि भाषाओं को  हिन्दी से अलग भाषा नहीं माना जा सकता। ग्रियर्सन का इनको हिन्दी से अलग रखना उसके अपने मानदंड के विरोध में जा पड़ता है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि बिहारी, राजस्थानी, पहाड़ी कई बोलियों का समुच्चय या उपवर्ग है। बिहारी में भोजपुरी, मैथिली और मगही बोलियाँ हैं, राजस्थानी में ढूंढारी, मेवाती, मालवी और मेवाड़ी हैं, पहाड़ी में गढ़वाली, कुमायूनी और हिमाचली आते है। पहाड़ी उपवर्ग की हिमाचली भी काँगड़ी, माड़ियाली, चंबयाली, कूलवी, सिरमौरी, क्योथली, बघाटी आदि बोलियों या उपबोलियों का समुच्चय है। इन उपवर्गों को  कुछ विद्वानों ने उपभाषा का नाम दिया है जो अपने-आप में गलत है। कुछ लोगों ने हिन्दी भाषा को भी बोलियों का एक समुच्चय माना है,लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम कि यह समुच्चय राजस्थानी और हिमाचली आदि जैसा नहीं है। यह समुच्चय एक ऐसी कुठाली (मेल्टिंग पॉट) की तरह है जिसमें सभी बोलियाँ और अन्य भाषाएँ इस प्रकार  घुलमिल गई हैं कि इसकी अपनी सत्ता है और अपना स्वरूप और अस्तित्व है। यद्यपि हिन्दी अपनी आधारभूमि खड़ीबोली का मानक रूप है तो इस मानक रूप के विकास में खड़ीबोली की बोलीगत विशेषताएँ लुप्त हो गई हैं और यह हिन्दी खड़ीबोली से उतनी ही अलग जा पड़ी है जितनी वह भोजपुरी, अवधी, राजस्थानी, ब्रज, छतीसगढ़ी आदि बोलियों से। हाँ, हिन्दी के विकास और संवर्धन में इन बोलियों और अन्य भाषाओं के योगदान को नकारा नहीं जा सकता।    
  समाज भाषाविज्ञान की दृष्टि से हिन्दी एक ओर किसी विशाल समुदाय की जातीय अस्मिता का प्रतीक बनती है और दूसरी ओर उसका प्रयोग उन छोटे-छोटे समुदायों के परस्पर संपर्क के रूप में होता है जिनकी मातृभाषा या प्रथम भाषा इससे भिन्न होती है। इसमें ध्वनि-संरचना, शब्द-संपदा और व्याकरणिक-व्यवस्था के स्तर पर पाए जाने वाले अंतर के आधार पर भाषा और बोली में भेद नहीं किया जाता। उदाहरण के लिए,भोजपुरीभाषी अपनी पहचान बनाए रखने के लिए अपनी मातृभाषा का नाम बतला देता है किंतु किसी अन्य भाषाभाषी के पूछने पर व्यापक संदर्भ में अपने को हिंदी भाषी कहलाना उपयुक्त समझता है। इस दृष्टि से भाषा और बोली का आधार किसी भाषाभाषी समाज की संप्रेषण व्यवस्था और उसकी जातीय चेतना है। इसकी प्रकृति सांस्थानिक है जो अपने-आप में गतिशील होती है। सामाजिक विकास अथवा परिवर्तन के दौरान उसकी प्रकृति और क्षेत्र में भी परिवर्तन होता रहता है, इसीलिए उस समाज की भाषा कभी भाषा का रूप धारण कर लेती है और कभी बोलीका। भाषा कभी-कभी अपनी अस्मिता किसी अन्य भाषा के साथ जोड़ देती है और वह उसकी बोली बन जाती है। मध्य काल में ब्रज भाषा साहित्यिक संदर्भ में भाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी, किंतु आज खड़ी बोली हिन्दी की आधार भूमि है और ब्रज भाषा हिन्दी की बोली के स्तर पर आ गई है। यही स्थिति राजस्थानी, अवधी, मैथिली और खड़ीबोली पर भी लागू हो सकती है। वस्तुत: जब कोई बोली साहित्य की श्रेष्ठता और शासन के बल पर अपनी अस्मिता बनाती है तब यह बोली जातीय पुनर्गठन की सामाजिक प्रक्रिया के दौरान सांस्कृतिक पुनर्जागरण, राजनैतिक पुनर्गठन और आर्थिक पुनर्व्यवस्था के कारण अन्य बोलियों की तुलना में अधिक महत्व प्राप्त कर लेती है। यह बोली अपने व्यवहार-क्षेत्र को पार कर अक्षेत्रीय और सार्वदेशिक हो जाती है। इसका प्रयोग क्षेत्र बढ़ जाता है और मानकीकरण की प्रक्रिया में उसमें आंतरिक संसक्ति आने लगती है।
   यहाँ यह स्पष्ट करना असमीचीन न होगा कि क्षेत्रीय संदर्भ में भाषा अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत होती है जबकि बोली सीमित। प्रयोजनमूलक क्षेत्र में भाषा बहुमुखी और बहुआयामी होती है जबकि बोली अपेक्षाकृत सीमित प्रयोजनों में प्रयुक्त होती है। भाषा का प्रयोग लिखित साहित्य,शिक्षा, प्रशासन आदि विभिन्न    व्यवहार-क्षेत्रों में अधिक होता है जबकि बोली का कम। भाषा का प्रयोग सर्जनात्मक साहित्य में प्राय: मिलता है जबकि बोली में लोक साहित्य की रचना अपेक्षाकृत अधिक होती है। भाषा अपेक्षाकृत अधिक मानक और आधुनिक होती है जबकि बोली में सापेक्षतया अधिक विकल्प मिलते हैं। भाषा का प्रयोग प्राय: औपचारिक संदर्भों में होता है जबकि बोली का सामान्यत: अनौपचारिक संदर्भों में होता है। इसीलिए भाषा विभिन्न बोलियों में संपर्क भाषा का काम करती है। किंतु इसमें दो राय नहीं कि बोली की भी अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता होती है चाहे वह सीमित रूप में ही क्यों न हो। यही कारण है कि हिन्दी का प्रयोग जनपदीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भों में हो रहा है जबकि राजस्थानी, भोजपुरी, ब्रज, अवधी आदि बोलियाँ अधिकतर जनपदीय संदर्भ में अपनी भूमिका निभा रही हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि आज के भूमंडलीकरण के युग में अंग्रेज़ी और वह भी अमेरिकन अंग्रेज़ी के बाद अन्य भाषाओं की तुलना में हिन्दी आगे है।           
   यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि विश्व की मुख्य तीन भाषाएँ अंग्रेज़ी, चीनी और हिन्दी मानी गई हैं। कुछ  विद्वानो ने तो हिन्दी बोलने वालों की संख्या सबसे अधिक मानी है, लेकिन अब कुछ लोग अपने स्वार्थ के लिए हिन्दी की बोलियों को हिन्दी से अलग करने का प्रयास कर रहे हैं। वे अपनी भाषाओं, जो वस्तुत: बोली ही हैं, को संविधान की अष्टम अनुसूची में लाकर उसे हिन्दी से अलग कर रहे हैं। हमने पहले भी सन 2004 में एक गलती की थी जब हिन्दी की एक बोली मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया  जो  भाषावैज्ञानिक, शैक्षिक और तार्किक दृष्टि से उचित नहीं था वरन नितांत राजनैतिक दृष्टि से था। कोंकणी और डोगरी को भी संविधान में रखना बिलकुल उचित नहीं था। ये भी एक प्रकार से मराठी और पंजाबी की बोलियाँ हैं।  इससे यह नुकसान हुआ कि अब विभिन्न बोलियों के बोलने वाले अपनी बोलियों के लिए बवाल खड़ा कर रहे हैं। यह तो वही बात सिद्ध हो रही है जैसे कुछ सिरफिरे लोग धर्म, जाति, प्रांतीयता, आदि के आधार पर देश को खंडित करने में लगे हुए हैं, उसी प्रकार कुछ लोग भाषा का सहारा ले कर भारत को तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं ताकि उनकी स्वार्थ-सिद्धि हो। उन्हें यह नहीं मालूम कि चीनी भाषा के अंतर्गत मंदारिन, हाका, कैनोनी, ताईवानी आदि अनेक बोलियाँ हैं लेकिन इन सब को चीनी भाषा के रूप में ही स्वीकार किया जाता है।               
   उर्दू को भी संविधान में शामिल करने में कोई औचित्य नहीं था। यह भी हिन्दी की एक शैली है। हिन्दी की तीन मुख्य शैलियाँ हैं – संस्कृतनिष्ठ शैली, अरबी-फारसी मिश्रित शैली अर्थात उर्दू और सामान्य बोलचाल की शैली अर्थात हिंदुस्तानी। भाषाविज्ञान की दृष्टि से इसे भाषात्रय (ट्राईग्लासिया) कहते हैं। अब एक और चौथी शैली का उद्भव हो रहा है अंग्रेज़ी मिश्रित शैली अर्थात हिंगलिश। उर्दू को हिन्दी से अलग कर हिन्दी की शक्ति को आघात पहुंचाया गया है। इसी कारण कुछ विद्वान उर्दू को हिन्दी से अलग मानते हैं। उनका मत है कि उर्दू प्रारंभ से ही संविधान में उल्लिखित अलग भाषा है और उसके तत्कालीन राजनैतिक कारण थे। चलिए, हम यह तर्क तो स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन आज की स्थिति में यह तर्क कारगर नहीं होगा जिसके के आधार पर अगर  हिन्दी की बोलियाँ या शैलियाँ बोलने वाले लोगों को हिन्दी से अलग किया जाए तो हम समझ सकते हैं कि  हिन्दी की स्थिति क्या रहेगी? भारत की जनगणना 2001 के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या 1,02,86,10,328 थी जिनमें हिन्दी को मातृभाषा या प्रथम भाषा बोलने वालों की संख्या 42,20,48,642 थी  जो भारत की कुल जनसंख्या का 41.03 प्रतिशत है । उर्दू बोलने वालों की संख्या 5,15,36,111 थी जो कुल जनसंख्या का 5.01 है। इसी प्रकार मैथिली बोलने वालों की संख्या 1,21,79,122 थी जो कुल जनसंख्या का 1.18 है। यदि इन सब को जोड़ दिया जाए तो हिन्दी बोलने वालों की संख्या 47.22 होती है। द्वितीय और विदेशी भाषा के रूप में भी हिन्दी बोलने वालों की संख्या देश-विदेश में बहुत अधिक है। मैथिली की तरह अगर अन्य बोलियों की संख्या को भी घटा दिया गया तो हिन्दी के राजभाषा के दर्जे पर भी सवाल उठ सकता है। यही नहीं संविधान में इतनी भाषाएँ आ जाएंगी तो देश पर कितना आर्थिक बोझ पड़ जाएगा, स्तरीय साहित्य में कमी आएगी, भाषायी विवाद बढ़ेगा, लेखकों तथा साहित्यकारों में पुरस्कारों की होड़ लग जाएगी, आदि अनेक समस्याएँ खड़ी हो जाएँगी। 
   सभी हिन्दी लेखकों, साहित्यकारों, विद्वानों, भाषाविदों, अध्यापकों, विद्यार्थियों से हमारी अपील है कि वे इस मुद्दे के विरोध में बुलंद आवाज़ उठाएँ। संविधान कि आठवीं अनसूची में कुच्छ बोलियों को शामिल करने के मुद्दे को बार-बार उठाया जाता है और भारत सरकार के राजभाषा विभाग में समय-समय पर संविधान की आठवीं अनुसूची में अपनी-अपनी बोलियों और भाषाओं को शामिल करने के बारे में प्रस्ताव भेजे जाते हैं तथा दबाव डाला जाता है। यह नितांत अनुचित, राष्ट्र-विरोधी और आपाराधिक है, इसे बंद कराया जाए। वैश्विक हिन्दी सम्मेलन के संयोजन में इस पर एक विस्तृत बहस हो ताकि ऐसे मामलों को हतोत्साहित किया जाए ताकि हमारे भारत की अखंडता पर ऐसे स्वार्थी लोगों की कुदृष्टि न पड़े।
                                                 प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी
                                 महासचिव और निदेशक, विश्व नागरी विज्ञान संस्थान,
                 1764, औट्रम लाइन्स, डॉ. मुखर्जी नगर (किंग्ज़्वे कैंप), दिल्ली – 110009
kkgoswami1942@gmail.com 0-9971553740 
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डॉ. एम.एल गुप्ता 'आदित्य'
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
वेबसाइट- वैश्विकहिंदी.भारत /  www.vhindi.in

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वैश्विक हिंदी सम्मेलन की वैबसाइट -www.vhindi.in
'वैश्विक हिंदी सम्मेलन' फेसबुक समूह का पता-https://www.facebook.com/groups/mumbaihindisammelan/
संपर्क - vaishwikhindisammelan@gmail.com


प्रस्तुत कर्ता: संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)

संपर्क - murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी

हैदराबाद


(वैश्विक ई-संगोष्ठी भाग-2)

(वैश्विक ई-संगोष्ठी भाग-2)
 'चिंदी-चिंदी' होती हिंदी' विषय पर डॉ. अमरनाथ के लेख पर भारतीय-भाषा प्रेमियों व विद्वानों के विचार ।

हिन्दी भाषा को केवल खड़ी बोली मानना उसी प्रकार भ्रामक है जैसे भारत को केवल दिल्ली मानना ।

प्रोफेसर महावीर सरन जैन का शोधपरक लेख

हिन्दी भाषा-क्षेत्र की समावेशी अवधारणा रही है, हिन्दी साहित्य की समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा रही है, हिन्दी साहित्य के इतिहास की समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा रही है और हिन्दी साहित्य के अध्ययन और अध्यापन की भी समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा रही है। हिन्दी की इस समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा को जानना बहुत जरूरी है तथा इसे आत्मसात करना भी बहुत जरूरी है तभी हिन्दी क्षेत्र की अवधारणा को जाना जा सकता है और जो ताकतें हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का कुचक्र रच रही हैं तथा हिन्दी की ताकत को समाप्त करने के षड़यंत्र कर रही हैं उन ताकतों के षड़यंत्रों को बेनकाब किया जा सकता है तथा उनके कुचक्रों को ध्वस्त किया जा सकता है।
वर्तमान में हम हिन्दी भाषा के इतिहास के बहुत महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़े हुए हैं। आज बहुत सावधानी बरतने की जरूरत है। आज हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने के जो प्रयत्न हो रहे हैं सबसे पहले उन्हे जानना और पहचानना जरूरी है और इसके बाद उनका प्रतिकार करने की जरूरत है। यदि आज हम इससे चूक गए तो इसके भयंकर परिणाम होंगे। मुझे सन् 1993 के एक प्रसंग का स्मरण आ रहा है। मध्य प्रदेश के तत्कालीन शिक्षा मंत्री ने भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्री को मध्य प्रदेश में ‘मालवी भाषा शोध संस्थान’ खोलने तथा उसके लिए अनुदान का प्रस्ताव भेजा था। उस समय भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्री श्री अर्जुन सिंह थे जिनके प्रस्तावक से निकट के सम्बंध थे। मंत्रालय ने उक्त प्रस्ताव केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक होने के नाते लेखक के पास टिप्पण देने के लिए भेजा। लेखक ने सोच समझकर टिप्पण लिखा: “भारत सरकार को पहले यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मध्य प्रदेश हिन्दी भाषी राज्य है अथवा बुन्देली, बघेली, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी आदि भाषाओं का राज्य है”। मुझे पता चला कि उक्त टिप्पण के बाद प्रस्ताव को ठंढे बस्ते में डाल दिया गया।
एक ओर हिन्दीतर राज्यों के विश्वविद्यालयों और विदेशों के लगभग 176 विश्वविद्यालयों एवं संस्थाओं में हजारों की संख्या में शिक्षार्थी हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन और शोध कार्य में समर्पण-भावना तथा पूरी निष्ठा से प्रवृत्त तथा संलग्न हैं वहीं दूसरी ओर हिन्दी भाषा-क्षेत्र में ही अनेक लोग हिन्दी के विरुद्ध साजिश रच रहे हैं। सामान्य व्यक्ति ही नहीं, हिन्दी के तथाकथित विद्वान भी हिन्दी का अर्थ खड़ी बोली मानने की भूल कर रहे हैं। हिन्दी साहित्य को जिंदगी भर पढ़ाने वाले, हिन्दी की रोजी , खाने वाले रोटी हिन्दी की कक्षाओं में हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थियों को विद्यापति, जायसी, तुलसीदास, सूरदास जैसे हिन्दी के महान साहित्यकारों की रचनाओं को पढ़ाने वाले अध्यापक तथा इन पर शोध एवं अनुसंधान करने एवं कराने वाले आलोचक भी न जाने किस लालच में या आँखों पर पट्टी बाँधकर यह घोषणा कर रहे हैं कि हिन्दी का अर्थ तो केवल खड़ी बोली है। भाषा विज्ञान के भाषा-भूगोल एवं बोली विज्ञान (Linguistic Geography and Dialectology) के सिद्धांतों से अनभिज्ञ ये लोग ऐसे वक्तव्य जारी कर रहे हैं जैसे वे इन विषयों के विशेषज्ञ हों। क्षेत्रीय भावनाओं को उभारकर एवं भड़काकर ये लोग हिन्दी की समावेशी एवं संश्लिष्ट परम्परा को नष्ट करने पर आमादा हैं।
जब लेखक जबलपुर के विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी एवं भाषाविज्ञान विभाग का प्रोफेसर था, उसके पास विभिन्न विश्वविद्यालयों से हिन्दी की उपभाषाओं / बोलियों पर पी-एच. डी. एवं डी. लिट्. उपाधियों के लिए प्रस्तुत शोध प्रबंध जाँचने के लिए आते थे। लेखक ने ऐसे अनेक शोध प्रबंध देखें जिनमें एक ही पृष्ठ पर एक पैरा में विवेच्य बोली को उपबोली का दर्जा दिया दिया गया, दूसरे पैरा में उसको हिन्दी की बोली निरुपित किया गया तथा तीसरे पैरा में उसे भारत की प्रमुख भाषा के अभिधान से महिमामंडित कर दिया गया।
इससे यह स्पष्ट है कि शोध छात्रों अथवा शोध छात्राओं को तो जाने ही दीजिए उन शोध छात्रों अथवा शोध छात्राओं के निर्देशक महोदय भी भाषा-भूगोल एवं बोली विज्ञान (Linguistic Geography and Dialectology) के सिद्धांतों से अनभिज्ञ थे।
सन् 2009 में, लेखक ने नामवर सिंह का यह वक्तव्य पढ़ाः
“हिंदी समूचे देश की भाषा नहीं है वरन वह तो अब एक प्रदेश की भाषा भी नहीं है। उत्तरप्रदेश, बिहार जैसे राज्यों की भाषा भी हिंदी नहीं है। वहाँ की क्षेत्रीय भाषाएँ यथा अवधी, भोजपुरी, मैथिल आदि हैं”। इसको पढ़कर मैने नामवर सिंह के इस वक्तव्य पर असहमति व्यक्त करने तथा हिन्दी के विद्वानों को वस्तुस्थिति से अवगत कराने के लिए लेख लिखा। हिन्दी के प्रेमियों से लेखक का यह अनुरोध है कि इस लेख का अध्ययन करने की अनुकंपा करें जिससे हिन्दी के कथित बड़े विद्वान एवं आलोचक डॉ. नामवर सिंह जैसे लोगों के हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ डालने के मंसूबे ध्वस्त हो सकें तथा ऐसी ताकतें बेनकाब हो सकें। जो व्यक्ति मेरे इस कथन को विस्तार से समझना चाहते हैं, वे मेरे ‘क्या उत्तर प्रदेश एवं बिहार हिन्दी भाषी राज्य नहीं हैं ?’ शीर्षक लेख का अध्ययन कर सकते हैं।
(देखें रचनाकार पर मेरे लेख का लिंक –(नामवर के इस वक्तव्य पर असहमति के तीव्र स्वर दर्ज कर रहे हैं केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के पूर्व निदेशक प्रोफेसर महावीर सरन जैन)
मेरे इस लेख को पढ़कर उस समय मुझे कांग्रेस, भाजपा, सपा, जनता दल (यूनाइटिड), राजद, तेलुगु देशम आदि राजनैतिक दलों के अनेक नेताओं तथा राष्ट्रीय विचारों के मनीषियों के फोन प्राप्त हुए तथा उन्होंने मेरे विचारों की पुष्टि की कि हिन्दी भाषा-क्षेत्र में जितने भाषिक रूप बोले जाते हैं, उनकी समष्टि का नाम हिन्दी है।
प्रत्येक भाषा-क्षेत्र में भाषिक भेद होते हैं। हम किसी ऐसे भाषा क्षेत्र की कल्पना नहीं कर सकते जिसके समस्त भाषा-भाषी भाषा के एक ही रूप के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान करते हों। यदि हम वर्तमानकाल में किसी ऐसे भाषा-क्षेत्र का निर्माण कर भी लें जिसकी भाषा में एक ही बोली हो तब भी कालान्तर में उस क्षेत्र में विभिन्नताएँ विकसित हो जाती हैं। इसका कारण यह है कि किसी भाषा का विकास सम्पूर्ण क्षेत्र में समरूप नहीं होता। परिवर्तन की गति क्षेत्र के अलग-अलग भागों में भिन्न होती है। विश्व के भाषा-इतिहास में ऐसा कोई भी उदाहरण प्राप्त नहीं है जिसमें कोई भाषा अपने सम्पूर्ण क्षेत्र में समान रूप से परिवर्तित हुई हो।
भाषा और बोली के युग्म पर विचार करना सामान्य धारणा है। पाश्चात्य भाषाविज्ञान के बासी सिद्धांतों के आधार पर अपने को बुद्धिमान मानने वाले व्यक्ति भाषा को विकसित और बोली को अविकसित मानते हैं। भाषा और बोली के भेद का इतना प्रचार-प्रसार हुआ है कि आम धारणा बन गई है जिसके कारण सामान्य व्यक्ति भाषा को शिक्षित,शिष्ट, विद्वान एवं सुजान प्रयोक्ताओं से जोड़ता है और बोली को अशिक्षित, अशिष्ट, मूर्ख एवं गँवार प्रयोक्ताओं से जोड़ता है। आधुनिक भाषाविज्ञान इस धारणा को अतार्किक और अवैज्ञानिक मानता है। आधुनिक भाषाविज्ञान भाषा को निम्न रूप से परिभाषित करता है - "भाषा अपने भाषा-क्षेत्र में बोली जाने वाली समस्त बोलियों की समष्टि का नाम है"।
तत्त्वतः बोलियों की समष्टि का नाम भाषा है। ‘भाषा क्षेत्र’ की क्षेत्रगत भिन्नताओं एवं वर्गगत भिन्नताओं पर आधारित भाषा के भिन्न रूप उसकी बोलियाँ हैं। बोलियाँ से ही भाषा का अस्तित्व है। इस प्रसंग में, यह सवाल उठाया जा सकता है कि सामान्य व्यक्ति अपने भाषा-क्षेत्र में प्रयुक्त बोलियों से इतर जिस भाषिक रूप को सामान्यतः ‘भाषा’ समझता है वह फिर क्या है। वह असल में उस भाषा क्षेत्र की किसी क्षेत्रीय बोली के आधार पर विकसित ‘उस भाषा का मानक भाषा रूप’ होता है।
इस दृष्टि के कारण ऐसे व्यक्ति ‘मानक भाषा’ या ‘परिनिष्ठित भाषा’ को मात्र ‘भाषा’ नाम से पुकारते हैं तथा अपने इस दृष्टिकोण के कारण ‘बोली’ को भाषा का भ्रष्ट रूप, अपभ्रंश रूप तथा ‘गँवारू भाषा’ जैसे नामों से पुकारते हैं। वस्तुतः बोलियाँ अनौपचारिक एवं सहज अवस्था में अलग-अलग क्षेत्रों में उच्चारित होने वाले रूप हैं जिन्हें संस्कृत में ‘देश भाषा’ तथा अपभ्रंश में ‘देसी भाषा’ कहा गया है। भाषा का ‘मानक’ रूप समस्त बोलियों के मध्य सम्पर्क सूत्र का काम करता है। भाषा की क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्नताएँ उसे बोलियों के स्तरों में विभाजित कर देती हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बोलियों के स्तर पर विभाजित भाषा के रूप निश्चित क्षेत्र अथवा वर्ग में व्यवहृत होते हैं जबकि प्रकार्यात्मक धरातल पर विकसित भाषा के मानक रूप, उपमानक रूप, विशिष्ट रूप (अपभाषा, गुप्त भाषा आदि) पूरे भाषा क्षेत्र में प्रयुक्त होते हैं, भले ही इनके बोलने वालों की संख्या न्यूनाधिक हो।
प्रत्येक उच्चारित एवं व्यवहृत भाषा की बोलियाँ होती हैं। किसी भाषा में बोलियों की संख्या दो या तीन होती है तो किसी में बीस-तीस भी होती है। कुछ भाषाओं में बोलियों का अन्तर केवल कुछ विशिष्ट ध्वनियों के उच्चारण की भिन्नताओं तथा बोलने के लहजे मात्र का होता है जबकि कुछ भाषाओं में बोलियों की भिन्नताएँ भाषा के समस्त स्तरों पर प्राप्त हो सकती हैं। दूसरे शब्दों में, बोलियों में ध्वन्यात्मक, ध्वनिग्रामिक, रूपग्रामिक, वाक्यविन्यासीय, शब्दकोषीय एवं अर्थ सभी स्तरों पर अन्तर हो सकते हैं। कहीं-कहीं ये भिन्नताएँ इतनी अधिक होती हैं कि एक सामान्य व्यक्ति यह बता देता है कि अमुक भाषिक रूप का बोलने वाला व्यक्ति अमुक बोली क्षेत्र का है।
किसी-किसी भाषा में क्षेत्रगत भिन्नताएँ इतनी व्यापक होती हैं तथा उन भिन्न भाषिक-रूपों के क्षेत्र इतने विस्तृत होते हैं कि उन्हें सामान्यतः भाषाएँ माना जा सकता है। इसका उदाहरण चीन देश की मंदारिन भाषा है, जिसकी बोलियों के क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत हैं तथा उनमें से बहुत-सी परस्पर अबोधगम्य भी हैं। जब तक यूगोस्लाविया एक देश था तब तक क्रोएशियाई और सर्बियाई को एक भाषा की दो बोलियाँ माना जाता था। यूगोस्लाव के विघटन के बाद से इन्हें भिन्न भाषाएँ माना जाने लगा है। ये उदाहरण इस तथ्य को प्रतिपादित करते हैं कि पारस्परिक बोधगम्यता के सिद्धांत की अपेक्षा कभी-कभी सांस्कृतिक एवं राजनैतिक कारण अधिक निर्णायक भूमिका अदा करते हैं।
हिन्दी भाषा क्षेत्र में भी ‘राजस्थानी’ एवं ‘भोजपुरी’ के क्षेत्र एवं उनके बोलने वालों की संख्या संसार की बहुत सी भाषाओं के क्षेत्र एवं बोलने वालों की संख्या से अधिक है। ´हिन्दी भाषा-क्षेत्र' में, सामाजिक-सांस्कृतिक समन्वय के प्रतिमान के रूप में मानक अथवा व्यावहारिक हिन्दी सामाजिक जीवन में परस्पर आश्रित सहसम्बन्धों की स्थापना करती है। सम्पूर्ण हिन्दी भाषा क्षेत्र में मानक अथवा व्यावहारिक हिन्दी के उच्च प्रकार्यात्मक सामाजिक मूल्य के कारण ये भाषिक रूप ‘हिन्दी भाषा’ के अन्तर्गत परिगणित हैं।
‘हिन्दी भाषा क्षेत्र' के अन्तर्गत भारत के निम्‍नलिखित राज्य एवं केन्द्र शासित प्रदेश समाहित हैं –
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीससढ़, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली. चण्डीगढ़।
भारत के संविधान की दृष्‍टि से यही स्थिति है। ये सभी “क” वर्ग के अन्तर्गत आने वाले राज्य हैं अर्थात् हिन्दी भाषी राज्य हैं। संविधान के अनुच्छेद 345 के अनुसरण में इस सभी राज्यों की मुख्य राजभाषा हिन्दी है। नीचे हिन्दी भाषा-क्षेत्र के राज्यों के सन् 1950 से सन् 1975 की अवधि के राजभाषा अधिनियमों का विवरण प्रस्तुत है -
क्रमांक
राज्य/ राज्यों/ के नाम
राजभाषा
राजभाषा अधिनियम
1,
बिहार (झारखंड सहित)
हिन्दी
बिहार राजभाषा अधिनियम, 1950
2.
हरियाणा
हिन्दी
हरियाणा राजभाषा अधिनियम, 1969
3.
हिमाचल प्रदेश
हिन्दी
हिमाचल प्रदेश राजभाषा अधिनियम, 1975
4.
मध्य प्रदेश (छत्तीसगढ़ सहित)
हिन्दी
मध्य प्रदेश राजभाषा अधिनियम, 1957
5.
राजस्थान
हिन्दी
राजस्थान राजभाषा अधिनियम, 1956
6.
उत्तर प्रदेश (उत्तराखंड सहित)
हिन्दी
उत्तर प्रदेश राजभाषा अधिनियम, 1951
भाषाविज्ञान का प्रत्‍येक विद्‌यार्थी जानता है कि प्रत्‍येक भाषा क्षेत्र में भाषिक भिन्‍नताएँ होती हैं। हम यह प्रतिपादित कर चुके हैं कि प्रत्येक ‘भाषा क्षेत्र' में क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्‍नताएँ होती हैं तथा बोलियों की समष्‍टि का नाम ही भाषा है। किसी भाषा की बोलियों से इतर व्‍यवहार में सामान्‍य व्‍यक्‍ति भाषा के जिस रूप को ‘भाषा' के नाम से अभिहित करते हैं वह तत्‍वतः भाषा नहीं होती। भाषा का यह रूप उस भाषा क्षेत्र के किसी बोली अथवा बोलियों के आधार पर विकसित उस भाषा का ‘मानक भाषा रूप'/'व्‍यावहारिक भाषा रूप' होता है। भाषा विज्ञान से अनभिज्ञ व्‍यक्‍ति इसी को ‘भाषा' कहने लगते हैं तथा ‘भाषा क्षेत्र' की बोलियों को अविकसित, हीन एवं गँवारू कहने, मानने एवं समझने लगते हैं।
हम इस संदर्भ में, इस तथ्य को रेखांकित करना चाहते हैं कि भारतीय भाषिक परम्‍परा इस दृष्‍टि से अधिक वैज्ञानिक रही है। भारतीय चिन्तन और पाश्चात्य चिन्तन में आधारभूत अन्तर रहा है। भारतीय चिन्तन चक्रीय एवं समावेशी रहा है जबकि पाश्चात्य चिन्तन का आधार द्विधाभवन (bifurcation) रहा है। पाश्चात्य चिन्तन में इसी कारण प्रत्येक प्रत्यय का द्विचरी विभाजन करने की परम्परा रही है। उदाहरणार्थ –
(1) पाश्चात्य चिन्तन शिष्ट और अशिष्ट का द्विचरी विभाजन करती है। शिष्ट साहित्य और संस्कृति और अशिष्ट साहित्य और संस्कृति। उनके यहाँ अशिष्ट साहित्य को “Folk Literature” एवं अशिष्ट संस्कृति को “Folk Culture” कहा जाता है। भारतीय चिन्तन परम्परा इनको क्रमशः "लोक साहित्य" एवं "लोक संस्कृति" नाम से पुकारती हैं। “Folk” एवं “लोक” शब्दों की अर्थवत्ता का अन्तर स्पष्ट है। एक परम्परा जिसको असंस्कृत, अशिक्षित एवं भदेस मानती है, उसको दूसरी परम्परा आभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता, पांडित्य की चेतना और अहंकार से शून्य ऐसा जीवन स्वरूप मानती है जो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, "ग्रामों और नगरों में फैली हुई समूची जनता जिसके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियाँ नहीं है”, और डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल के शब्दों में, “हमारे जीवन का समुद्र है जिसमें भूत-भविष्य-वर्तमान सभी कुछ संचित रहता है। वह राष्ट्र का अमर स्वरूप है, कृत्स्न ज्ञान और सम्पूर्ण अध्ययन में सब शास्त्रों का पर्यवसान है। “लोक” और लोक की धात्री, सर्वभूतरता पृथ्वी और लोक का व्यक्त रूप मानव, यही हमारे नये जीवन का अध्यात्म शास्त्र है। इसका कल्याण हमारी मुक्ति का द्वार और निर्माण का जीवन रूप है। “लोक”, पृथ्वी और मानव इस त्रिलोकी में जीवन का कल्याणतम रूप है”।
(2) पाश्चात्य चिन्तन द्विभाषिकता और बहुभाषिकता को शिष्ट समाज के भाषा-व्यवहार की विसंगत परिणति, समाज की सहज भाषिक सम्प्रेषण व्यवस्था में बाधक, मानव-मन की सर्जनात्मक शक्ति की क्षय-कारक मानता है। भारतीय परम्परा में द्विभाषिकता और बहुभाषिकता भारतीय समाज की सहज, स्वाभाविक एवं यथार्थपरक स्थिति रही है। भारत के अधिकांश आचार्य, साधु, मुनि, संत द्विभाषी एवं बहुभाषी रहे हैं। क्या शंकाराचार्य से अधिक मेधावी व्यक्ति की कल्पना की जा सकती है। पाश्चात्य परम्परा जिसको “मानव मन की सर्जनात्मक शक्ति की क्षय-कारक” मानती हैं उसको भारतीय परम्परा ने “मानव–मन की सर्जनात्मक प्रतिभा के विकास एवं वृद्धि का कारक” माना है।
(3) पश्चिमी भाषाविज्ञान भाषा और बोली का द्विचरी विभाजन करता रहा है। भाषा को शिष्ट लोगों के द्वारा बोले जाने वाला भाषिक-रूप एवं बोली को अशिष्ट, अशिक्षित एवं असभ्य लोगों के द्वारा बोले जाने वाला भाषिक-रूप मानता रहा है। मगर प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (Functional Linguistics) एवं समाजभाषाविज्ञान (Socio linguistics) के विकास के बाद अब यह सर्वमान्य है कि भाषा-क्षेत्र में बोले जाने वाले समस्त भाषिक-रूपों की समष्टि का नाम “भाषा” है। भारत में भाषाविज्ञान की जो किताबें लिखी गई हैं और महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में पढ़ी और पढ़ाई जा रही हैं, वे भ्रामक और बासी ज्ञान पर आधारित हैं। इस संदर्भ में उल्लेख्य है कि भारतीय परम्‍परा ने भाषा के अलग अलग क्षेत्रों में बोले जाने वाले भाषिक रूपों को ‘देस भाखा’ अथवा ‘देसी भाषा' के नाम से पुकारा तथा घोषणा की कि देसी वचन सबको मीठे लगते हैं - ‘ देसिल बअना सब जन मिट्‌ठा।'
(विशेष अध्ययन के लिए देखें - प्रोफेसर महावीर सरन जैन : भाषा एवं भाषा विज्ञान, अध्याय 4 - भाषा के विविध रूप एवं प्रकार, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद (1985)
हिन्दी भाषा क्षेत्र में हिन्दी की मुख्यतः 20 बोलियाँ अथवा उपभाषाएँ बोली जाती हैं। इन 20 बोलियों अथवा उपभाषाओं को ऐतिहासिक परम्परा से पाँच वर्गों में विभक्त किया जाता है - पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, राजस्थानी हिन्दी, बिहारी हिन्दी और पहाड़ी हिन्दी।
पश्चिमी हिन्दी – 1. खड़ी बोली 2. ब्रजभाषा 3. हरियाणवी 4. बुन्देली 5. कन्नौजी
पूर्वी हिन्दी – 1. अवधी 2. बघेली 3. छत्तीसगढ़ी
राजस्थानी – 1. मारवाड़ी 2. मेवाती 3. जयपुरी 4.मालवी
बिहारी – 1. भोजपुरी 2. मैथिली 3. मगही 4. अंगिका 5. बज्जिका
पहाड़ी - 1. कूमाऊँनी 2. गढ़वाली 3. हिमाचल प्रदेश में बोली जाने वाली हिन्दी की अनेक बोलियाँ जिन्हें आम बोलचाल में ‘ पहाड़ी ' नाम से पुकारा जाता है।
टिप्पण – 
मैथिली –
मैथिली को अलग भाषा का दर्जा दे दिया गया है हॉलाकि हिन्दी साहित्‍य के पाठ्‌यक्रम में अभी भी मैथिली कवि विद्‌यापति पढ़ाए जाते हैं तथा जब नेपाल में मैथिली आदि भाषिक रूपों के बोलने वाले मधेसी लोगों पर दमनात्‍मक कार्रवाई होती है तो वे अपनी पहचान ‘हिन्‍दी भाषी' के रूप में उसी प्रकार करते हैं जिस प्रकार मुम्‍बई में रहने वाले भोजपुरी, मगही, मैथिली एवं अवधी आदि बोलने वाले अपनी पहचान ‘हिन्‍दी भाषी' के रूप में करते हैं।

छत्तीसगढ़ी एवं भोजपुरी –

जबसे मैथिली एवं छत्तीसगढ़ी को अलग भाषाओं का दर्जा मिला है तब से भोजपुरी को भी अलग भाषा का दर्जा दिए जाने की माँग प्रबल हो गई है। हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का सिलसिला मैथिली एवं छत्तीसगढ़ी से आरम्भ हो गया है। मैथिली पर टिप्पण लिखा जा चुका है। छत्तीसगढ़ी एवं भोजपुरी के सम्बंध में कुछ विचार प्रस्तुत हैं। जब तक छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश का हिस्सा था तब तक छत्तीसगढ़ी को हिन्दी की बोली माना जाता था। रायपुर विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञान के प्रोफेसर डॉ. रमेश चन्द्र महरोत्रा का सन् 1976 में एक आलेख रायपुर से भाषिकी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ जिसमें हिन्दी की 22 बोलियों के अंतर्गत छत्तीसगढ़ी समाहित है।
(डॉ. रमेश चन्द्र महरोत्रा : “ Distance among Twenty-Two Dialects of Hindi depending on the parallel forms of the most frequent sixty-two words of Hindi” भाषिकी प्रकाशन, रायपुर (1976)
भोजपुरी के सम्बंध में आजकल समाचार पत्रों में जो कुछ पढ़ने को मिल रहा है, वह चिन्ता का कारक है। इससे यह पता चला कि कुछ शक्तियाँ भोजपुरी को हिन्दी भाषा से अलग भाषा की मान्यता दिलाने के लिए पूरी ताकत से सक्रिय हैं। ये शक्तियाँ भोजपुरी को भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करना चाहती हैं। इस अभियान का नेतृत्व तथाकथित भोजपुरी विश्व सम्मेलन के कार्यकारी अध्यक्ष और दिल्ली भोजपुरी समाज के अध्यक्ष अजीत दुबे कर रहे हैं। मैं श्री अजित दुबे जी पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता। केवल उनसे यह निवेदन करना चाहता हूँ कि वे श्री राहुल सांकृत्यायन, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, संत काव्य के मर्मज्ञ श्री परशुराम चतुर्वेदी और भाषावैज्ञानिक डॉ. उदय नारायण तिवारी आदि मनीषियों के ग्रंथों का पारायण करने की अनुकम्पा करें। भोजपुरी को स्वतंत्र भाषा का दर्जा दिलाने के समर्थक कई लोगों से मेरी चर्चा हुई। वे डॉ. उदय नारायण तिवारी कृत "भोजपुरी भाषा और साहित्य" शीर्षक ग्रन्थ का हवाला देकर अपने मत की पुष्टि करना चाहते हैं। लेखक डॉ. उदय नारायण तिवारी जी के भोजपुरी के सम्बंध में विचारों के सम्बंध में कुछ निवेदन करना चाहता है। लेखक को जबलपुर के विश्वविद्यालय में डॉ. उदय नारायण तिवारी जी के साथ सन् 1964 से लेकर सन् 1970 तक साथ-साथ काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। भोजपुरी की भाषिक स्थिति को लेकर अकसर हमारे बीच विचार विमर्श होता था। उनके जामाता डॉ. शिव गोपाल मिश्र उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष व्याख्यानमाला आयोजित करते हैं। दिनांक 26 जून, 2013 को मुझे हिन्दुस्तानी एकाडमी, इलाहाबाद के श्री बृजेशचन्द्र का ‘डॉ. उदय नारायण तिवारी व्याख्यानमाला’ निमंत्रण पत्र प्राप्त हुआ। व्याख्यान का विषय था - ‘भोजपुरी भाषा’। लेखक ने उसी दिन व्याख्यान के सम्बंध में डॉ. शिव गोपाल मिश्र को जो पत्र लिखा उसका व्याख्यान के विषय से सम्बंधित अंश पाठको के अवलोकनार्थ अविकल प्रस्तुत हैं –
डॉ. उदय नारायण तिवारी जी ने भोजपुरी का भाषावैज्ञानिक अध्ययन किया। उनके अध्ययन का वही महत्व है जो सुनीति कुमार चटर्जी के बांग्ला पर सम्पन्न कार्य का है। इस विषय पर हमारे बीच अनेक बार संवाद हुए। कई बार मत भिन्नता भी हुई। जब लेखक भाषा-भूगोल एवं बोली-विज्ञान के सिद्धांतों के आलोक में हिन्दी भाषा-क्षेत्र की विवेचना करता था तो डॉ. तिवारी जी इस मत से सहमत हो जाते थे कि हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अंतर्गत भारत के जितने राज्य एवं केन्द्र शासित प्रदेश समाहित हैं, उन समस्त क्षेत्रों में जो भाषिक रूप बोले जाते हैं, उनकी समष्टि का नाम हिन्दी है। खड़ी बोली ही हिन्दी नहीं है अपितु यह भी हिन्दी भाषा-क्षेत्र का उसी प्रकार एक क्षेत्रीय भेद है जिस प्रकार हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अन्य अनेक क्षेत्रीय भेद हैं। मगर कभी-कभी उनका तर्क होता था कि खड़ी बोली बोलने वाले और भोजपुरी बोलने वालों के बीच बोधगम्यता बहुत कम होती है। इस कारण भोजपुरी को यदि अलग भाषा माना जाता है तो इसमें क्या हानि है। जब लेखक कहता था कि भाषाविज्ञान का सिद्धांत है कि संसार की प्रत्येक भाषा के ‘भाषा-क्षेत्र’ में भाषिक भिन्नताएँ होती हैं। हम ऐसी किसी भाषा की कल्पना नहीं कर सकते जिसके भाषा-क्षेत्र में क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्नताएँ न हों। इस पर डॉ. तिवारी जी असमंजस में पड़ जाते थे। अनेक वर्षों के संवाद के अनन्तर एक दिन डॉ. तिवारी जी ने मुझे अपने मन के रहस्य से अवगत कराया। 
उनके शब्द थेः
“जब मैं ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के अपने अध्ययन के आधार पर विचार करता हूँ तो मुझे भोजपुरी की स्थिति हिन्दी से अलग भिन्न भाषा की लगती है मगर जब मैं संकालिक भाषाविज्ञान के सिद्धांतों की दृष्टि से सोचता हूँ तो पाता हूँ कि भोजपुरी भी हिन्दी भाषा-क्षेत्र का एक क्षेत्रीय रूप है”।
(लेखक द्वारा दिनांक 26 जून, 2013 को विज्ञान परिषद्, प्रयाग (इलाहाबाद) के प्रधान मंत्री डॉ. शिव गोपाल मिश्र को लिखा पत्र)।
जो विद्वान यह तर्क देते हैं कि डॉ. उदय नारायण तिवारी ने "भोजपुरी भाषा और साहित्य" शीर्षक ग्रंथ में "भोजपुरी" को भाषा माना है, उस सम्बंध में, लेखक विद्वानों को इस तथ्य से अवगत कराना चाहता है कि हिन्दी में प्रकाशित उक्त ग्रंथ उनके डी. लिट्. उपाधि के लिए स्वीकृत अंग्रेजी भाषा में लिखे गए शोध-प्रबंध का हिन्दी रूपांतर है। डॉ. उदय नारायण तिवारी ने कलकत्ता में सन् 1941 ईस्वी में पहले ‘तुलनात्मक भाषाविज्ञान’ में एम. ए. की परीक्षा पास की तथा सन् 1942 ईस्वी में डी. लिट्. उपाधि के लिए शोध-प्रबंध पूरा करके इलाहाबाद लौट आए तथा उसे परीक्षण के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जमा कर दिया। आपने अपना शोध-प्रबंध अंग्रेजी भाषा में डॉ. सुनीति कुमार चाटुर्ज्या के निर्देशन में सम्पन्न किया तथा डी. लिट्. की उपाधि प्राप्त होने के बाद इसका प्रकाशन ‘एशियाटिक सोसाइटी’ से हुआ। इस शोध-प्रबंध का शीर्षक है - ‘ए डाइलेक्ट ऑफ भोजपुरी’। डॉ. उदय नारायण तिवारी ने इस तथ्य को स्वयं अपने एक लेख में अभिव्यक्त किया है।
(देखें - श्री उदय नारायण तिवारी : आचार्य सुनीति कुमार चटर्जी – व्यक्तित्व तथा वैदुष्य, सरस्वती, पृष्ठ 169-171 (अप्रैल, 1977))

राजस्थानी –

“श्रीमद्जवाहराचार्य स्मृति व्याख्यानमाला” के अन्तर्गत “विश्व शान्ति एवं अहिंसा” विषय पर व्याख्यान देने सन् 1987 ईस्वी में लेखक का कलकत्ता (कोलकोता) जाना हुआ था। वहाँ श्री सरदारमल जी कांकरिया के निवास पर लेखक का संवाद राजस्थानी भाषा की मान्यता के लिए आन्दोलन चलाने वाले तथा राजस्थानी में “धरती धौरां री” एवं “पातल और पीथल” जैसी कृतियों की रचना करने वाले कन्हैया लाल सेठिया जी से हुआ। उनका आग्रह था कि राजस्थानी को स्वतंत्र भाषा का दर्जा मिलना चाहिए।
 लेखक ने उनसे अपने आग्रह पर पुनर्विचार करने की कामना व्यक्त की और मुख्यतः निम्न मुद्दों पर विचार करने का अनुरोध किया –
(1) ग्रियर्सन ने ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया है। स्वाधीनता आन्दोलन में हमारे राष्ट्रीय नेताओं के कारण हिन्दी का जितना प्रचार प्रसार हुआ उसके कारण हमें ग्रियर्सन की दृष्टि से नहीं अपितु डॉ. धीरेन्द्र वर्मा आदि भाषाविदों की दृष्टि से विचार करना चाहिए।
(2) राजस्थानी भाषा जैसी कोई स्वतंत्र भाषा नहीं है। राजस्थान में निम्न क्षेत्रीय भाषिक-रूप बोले जाते हैं –
1. मारवाड़ी, 2.मेवाती. 3.जयपुरी. 4. मालवी (राजस्थान के साथ-साथ मध्य-प्रदेश में भी)
राजस्थानी जैसी स्वतंत्र भाषा नहीं है। इन विविध भाषिक रूपों को हिन्दी के रूप मानने में क्या आपत्ति हो सकती है।
(3) यदि आप राजस्थानी का मतलब केवल मारवाड़ी से लेंगे तो क्या मेवाती, जयपुरी, मालवी, हाड़ौती, शेखावाटी आदि अन्य भाषिक रूपों के बोलने वाले अपने अपने भाषिक रूपों के लिए आवाज़ नहीं उठाएँगे।
(4) भारत की भाषिक परम्परा रही है कि एक भाषा के हजारों भूरि भेद माने गए हैं मगर अंतरक्षेत्रीय सम्पर्क के लिए एक भाषा की मान्यता रही है।
(5) हिन्दी साहित्य की संश्लिष्ट परम्परा रही है। इसी कारण हिन्दी साहित्य के अंतर्गत रास एवं रासो साहित्य की रचनाओं का भी अध्ययन किया जाता है।
(6) राजस्थान की पृष्ठभूमि पर आधारित हिन्दी कथा साहित्य एवं हिन्दी फिल्मों में जिस राजस्थानी मिश्रित हिन्दी का प्रयोग होता है उसे हिन्दी भाषा क्षेत्र के प्रत्येक भाग का रहने वाला समझ लेता है।
(7) मारवाड़ी लोग व्यापार के कारण भारत के प्रत्येक राज्य में निवास करते हैं तथा अपनी पहचान हिन्दी भाषी के रूप में करते हैं। यदि आप राजस्थानी को हिन्दी से अलग मान्यता दिलाने का प्रयास करेंगे तो राजस्थान के बाहर रहने वाले मारवाड़ी व्यापारियों के हित प्रभावित हो सकते हैं।
(8) भारतीय भाषाओं के अस्तित्व एवं महत्व को अंग्रेजी से खतरा है। संसार में अंग्रेजी भाषियों की जितनी संख्या है उससे अधिक संख्या केवल हिन्दी भाषियों की है। यदि हिन्दी के उपभाषिक रूपों को हिन्दी से अलग मान लिया जाएगा तो भारत की कोई भाषा अंग्रेजी से टक्कर नहीं ले सकेगी और धीरे धीरे भारतीय भाषाओं के अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा।
(देखें - भारत में भारतीय भाषाओं का सम्मान और विकास)

पहाड़ी –

डॉ. सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने ‘पहाड़ी' समुदाय के अन्‍तर्गत बोले जाने वाले भाषिक रूपों को तीन शाखाओं में बाँटा –
(अ) पूर्वी पहाड़ी अथवा नेपाली
(आ) मध्य या केन्द्रीय पहाड़ी
(इ)पश्चिमी पहाड़ी।
हिन्दी भाषा के संदर्भ में वर्तमान स्थिति यह है कि हिन्दी भाषा के अन्तर्गत मध्य या केन्द्रीय पहाड़ी की उत्तराखंड में बोली जाने वाली 1. कूमाऊँनी 2. गढ़वाली तथा पश्चिमी पहाड़ी की हिमाचल प्रदेश में बोली जाने वाली हिन्‍दी की अनेक बोलियाँ हैं जिन्हें आम बोलचाल में ‘ पहाड़ी ' नाम से पुकारा जाता है।
हिन्दी भाषा के संदर्भ में विचारणीय है कि अवधी, बुन्देली, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली आदि को हिन्दी भाषा की बोलियाँ माना जाए अथवा उपभाषाएँ माना जाए। सामान्‍य रूप से इन्‍हें बोलियों के नाम से अभिहित किया जाता है किन्तु लेखक ने अपने ग्रन्थ ‘ भाषा एवं भाषाविज्ञान' में इन्हें उपभाषा मानने का प्रस्ताव किया है। ‘ - - क्षेत्र, बोलने वालों की संख्या तथा परस्पर भिन्नताओं के कारण इनको बोली की अपेक्षा उपभाषा मानना अधिक संगत है। इसी ग्रन्थ में लेखक ने पाठकों का ध्यान इस ओर भी आकर्षित किया कि हिन्दी की कुछ उपभाषाओं के भी क्षेत्रगत भेद हैं जिन्हें उन उपभाषाओं की बोलियों अथवा उपबोलियों के नाम से पुकारा जा सकता है।
(देखें - डॉ. महावीर सरन जैन : भाषा एवं भाषाविज्ञान, पृष्‍ठ 60, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद (1985)
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इन उपभाषाओं के बीच कोई स्‍पष्‍ट विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती है। प्रत्‍येक दो उपभाषाओं के मध्य संक्रमण क्षेत्र विद्‌यमान है।
विश्व की प्रत्येक भाषा के विविध बोली अथवा उपभाषा क्षेत्रों में से विभिन्न सांस्कृतिक कारणों से जब कोई एक क्षेत्र अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है तो उस क्षेत्र के भाषा रूप का सम्पूर्ण भाषा क्षेत्र में प्रसारण होने लगता है। इस क्षेत्र के भाषारूप के आधार पर पूरे भाषाक्षेत्र की ‘मानक भाषा' का विकास होना आरम्भ हो जाता है। भाषा के प्रत्येक क्षेत्र के निवासी इस भाषारूप को ‘मानक भाषा' मानने लगते हैं। इसको मानक मानने के कारण यह मानक भाषा रूप ‘भाषा क्षेत्र' के लिए सांस्कृतिक मूल्यों का प्रतीक बन जाता है। मानक भाषा रूप की शब्दावली, व्याकरण एवं उच्चारण का स्वरूप अधिक निश्चित एवं स्थिर होता है एवं इसका प्रचार, प्रसार एवं विस्तार पूरे भाषा क्षेत्र में होने लगता है। कलात्मक एवं सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का माध्‍यम एवं शिक्षा का माध्‍यम यही मानक भाषा रूप हो जाता है। इस प्रकार भाषा के ‘मानक भाषा रूप' का आधार उस भाषाक्षेत्र की क्षेत्रीय बोली अथवा उपभाषा ही होती है, किन्‍तु मानक भाषा होने के कारण चूँकि इसका प्रसार अन्य बोली क्षेत्रों अथवा उपभाषा क्षेत्रों में होता है इस कारण इस भाषारूप पर ‘भाषा क्षेत्र' की सभी बोलियों का प्रभाव पड़ता है तथा यह भी सभी बोलियों अथवा उपभाषाओं को प्रभावित करता है। उस भाषा क्षेत्र के शिक्षित व्यक्ति औपचारिक अवसरों पर इसका प्रयोग करते हैं। भाषा के मानक भाषा रूप को सामान्य व्यक्ति अपने भाषा क्षेत्र की ‘मूल भाषा', केन्द्रक भाषा', ‘मानक भाषा' के नाम से पुकारते हैं। यदि किसी भाषा का क्षेत्र हिन्दी भाषा की तरह विस्तृत होता है तथा यदि उसमें ‘हिन्दी भाषा क्षेत्र' की भाँति उपभाषाओं एवं बोलियों की अनेक परतें एवं स्तर होते हैं तो ‘मानक भाषा' के द्वारा समस्त भाषा क्षेत्र में विचारों का आदान प्रदान सम्भव हो पाता है। भाषा क्षेत्र के यदि आंशिक अबोधगम्य उपभाषी अथवा बोली बोलने वाले परस्पर अपनी उपभाषा अथवा बोली के माध्यम से विचारों का समुचित आदान - प्रदान नहीं कर पाते तो इसी मानक भाषा के द्वारा संप्रेषण करते हैं। भाषा विज्ञान में इस प्रकार की बोधगम्यता को ‘पारस्परिक बोधगम्यता' न कहकर ‘एकतरफ़ा बोधगम्यता' कहते हैं। ऐसी स्थिति में अपने क्षेत्र के व्यक्ति से क्षेत्रीय बोली में बातें होती हैं किन्तु दूसरे उपभाषा क्षेत्र अथवा बोली क्षेत्र के व्यक्ति से अथवा औपचारिक अवसरों पर मानक भाषा के द्वारा बातचीत होती हैं। इस प्रकार की भाषिक स्थिति को फर्गुसन ने बोलियों की परत पर मानक भाषा का अध्यारोपण कहा है।
(डायग्‍लोसियाः वॅर्ड, 15, पृष्ठ 325 – 340)  गम्‍पर्ज़ ने इसे ‘बाइलेक्टल' के नाम से पुकारा है।
(स्पीच वेरिएशन एण्ड दः स्टडी ऑफ इंडियन सिविलाइज़ेशन, अमेरिकन एनथ्रोपोलोजिस्ट, खण्‍ड 63,पृष्ठ 976- 988)
हिन्दी भाषा क्षेत्र में अनेक क्षेत्रगत भेद एवं उपभेद तो है हीं; प्रत्येक क्षेत्र के प्रायः प्रत्येक गाँव में सामाजिक भाषिक रूपों के विविध स्तरीकृत तथा जटिल स्तर विद्‌यमान हैं और यह हिन्दी भाषा-क्षेत्र के सामाजिक संप्रेषण का यथार्थ है जिसको जाने बिना कोई व्यक्ति हिन्दी भाषा के क्षेत्र की विवेचना के साथ न्याय नहीं कर सकता। ये हिन्दी पट्‌टी के अन्दर सामाजिक संप्रेषण के विभिन्न नेटवर्कों के बीच संवाद के कारक हैं। इस हिन्दी भाषा क्षेत्र अथवा पट्टी के गावों के रहनेवालों के वाग्व्यवहारों का गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि ये भाषिक स्थितियाँ इतनी विविध, विभिन्न एवं मिश्र हैं कि भाषा व्यवहार के स्केल के एक छोर पर हमें ऐसा व्यक्‍ति मिलता है जो केवल स्थानीय बोली बोलना जानता है तथा जिसकी बातचीत में स्थानीयेतर कोई प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता वहीं दूसरे छोर पर हमें ऐसा व्यक्ति मिलता है जो ठेठ मानक हिन्दी का प्रयोग करता है तथा जिसकी बातचीत में कोई स्थानीय भाषिक प्रभाव परिलक्षित नहीं होता। स्केल के इन दो दूरतम छोरों के बीच बोलचाल के इतने विविध रूप मिल जाते हैं कि उन सबका लेखा जोखा प्रस्तुत करना असाध्य हो जाता है। हमें ऐसे भी व्यक्ति मिल जाते हैं जो एकाधिक भाषिक रूपों में दक्ष होते हैं जिसका व्यवहार तथा चयन वे संदर्भ, व्यक्ति, परिस्थियों को ध्यान में रखकर करते हैं। सामान्य रूप से हम पाते हैं कि अपने घर के लोगों से तथा स्थानीय रोजाना मिलने जुलने वाले घनिष्ठ मित्रों से व्यक्ति जिस भाषा रूप में बातचीत करता है उससे भिन्न भाषा रूप का प्रयोग वह उनसे भिन्न व्यक्तियों एवं परिस्‍थितियों में करता है। सामाजिक संप्रेषण के अपने प्रतिमान हैं। व्‍यक्‍ति प्रायः वाग्‍व्‍यवहारों के अवसरानुकूल प्रतिमानों को ध्यान में रखकर बातचीत करता है।
किसी भाषा क्षेत्र की मानक भाषा का आधार कोई बोली अथवा उपभाषा ही होती है किन्‍तु कालान्तर में उक्‍त बोली एवं मानक भाषा के स्वरूप में पर्याप्त अन्तर आ जाता है। सम्पूर्ण भाषा क्षेत्र के शिष्ट एवं शिक्षित व्यक्तियों द्वारा औपचारिक अवसरों पर मानक भाषा का प्रयोग किए जाने के कारण तथा साहित्य का माध्यम बन जाने के कारण स्वरूपगत परिवर्तन स्वाभाविक है। प्रत्येक भाषा क्षेत्र में किसी क्षेत्र विशेष के भाषिक रूप के आधार पर उस भाषा का मानक रूप विकसित होता है, जिसका उस भाषा-क्षेत्र के सभी क्षेत्रों के पढ़े-लिखे व्यक्ति औपचारिक अवसरों पर प्रयोग करते हैं। हम पाते हैं कि इस मानक हिन्दी अथवा व्यावहारिक हिन्दी का प्रयोग सम्पूर्ण हिन्दी भाषा क्षेत्र में बढ़ रहा है तथा प्रत्येक हिन्दी भाषी व्यक्ति शिक्षित, सामाजिक दृष्टि से प्रतिष्ठित तथा स्थानीय क्षेत्र से इतर अन्य क्षेत्रों के व्यक्तियों से वार्तालाप करने के लिए इसी को आदर्श, श्रेष्ठ एवं मानक मानता है। गाँव में रहने वाला एक सामान्य एवं बिना पढ़ा लिखा व्यक्ति भले ही इसका प्रयोग करने में समर्थ तथा सक्षम न हो फिर भी वह इसके प्रकार्यात्मक मूल्य को पहचानता है तथा वह भी अपने भाषिक रूप को इसके अनुरूप ढालने का जुगाड़ करता रहता है। जो मजदूर शहर में काम करने आते हैं वे किस प्रकार अपने भाषा रूप को बदलने का प्रयास करते हैं - इसको देखा परखा जा सकता है।
सन् 1960 में लेखक ने बुलन्द शहर एवं खुर्जा तहसीलों (ब्रज एवं खड़ी बोली का संक्रमण क्षेत्र) के भाषिक रूपों का संकालिक अथवा एककालिक भाषावैज्ञानिक अध्ययन करना आरम्भ किया।
(डॉ.. महावीर सरन जैन : बुलन्दशहर एवं खुर्जा तहसीलों की बोलियों का संकालिक अध्ययन (ब्रजभाषा एवं खड़ी बोली का संक्रान्ति क्षेत्र, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद (1967)
सामग्री संकलन के लिए जब लेखक गाँवों में जाता था तथा वहाँ रहने वालों से बातचीत करता था तबके उनके भाषिक रूपों एवं आज लगभग 55 वर्षों के बाद के भाषिक रूपों में बहुत अन्तर आ गया है। अब इनके भाषिक-रूपों पर मानक हिन्दी अथवा व्यावहारिक हिन्दी का प्रभाव आसानी से पहचाना जा सकता है। इनके भाषिक-रूपों में अंग्रेजी शब्दों का चलन भी बढ़ा है। यह कहना अप्रासंगिक होगा कि उनकी जिन्दगी में और व्यवहार में भी बहुत बदलाव आया है।मानक हिन्दी अथवा व्यावहारिक हिन्दी का सम्पूर्ण हिन्दी भाषा क्षेत्र में व्‍यवहार होने तथा इसके प्रकार्यात्मक प्रचार-प्रसार के कारण, यह हिन्दी भाषा-क्षेत्र में प्रयुक्त समस्त भाषिक रूपों के बीच संपर्क सेतु की भूमिका का निर्वाह कर रहा है।
हिन्दी भाषा का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। इस कारण इसकी क्षेत्रगत भिन्नताएँ भी बहुत अधिक हैं।‘खड़ी बोली' हिन्दी भाषा क्षेत्र का उसी प्रकार एक भेद है ; जिस प्रकार हिन्दी भाषा के अन्य बहुत से क्षेत्रगत भेद हैं। हिन्दी भाषा क्षेत्र में ऐसी बहुत सी उपभाषाएँ हैं जिनमें पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत बहुत कम है किन्तु ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से सम्‍पूर्ण भाषा क्षेत्र एक भाषिक इकाई है तथा इस भाषा-भाषी क्षेत्र के बहुमत भाषा-भाषी अपने-अपने क्षेत्रगत भेदों को हिन्दी भाषा के रूप में मानते एवं स्वीकारते आए हैं। कुछ विद्वानों ने इस भाषा क्षेत्र को ‘हिन्दी पट्‌टी’ के नाम से पुकारा है तथा कुछ ने इस हिन्दी भाषी क्षेत्र के निवासियों के लिए 'हिन्दी जाति' का अभिधान दिया है। "आज ‘हिन्दी जाति’ भारत के बड़े भूभाग पर अवस्थित है, जिसमें उत्तर भारत के उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, उत्तरांचल. हिमांचल, दिल्ली, हरियाणा आदि प्रदेशों के भूभाग सम्मिलित हैं। यों तो आज सम्पूर्ण भारत में धीरे-धीरे हिन्दी का विस्तार हो रहा है। उक्त के अतिरिक्त मारीशस, सूरिनाम, फीजी, ट्रिनीडाड आदि कई देशों में हिन्दी सदियों से वाग्व्यवहार की भाषा रही है”।
हम बलपूर्वक यह कहना चाहते हैं कि हिन्दी, चीनी एवं रूसी जैसी भाषाओं के क्षेत्रगत प्रभेदों की विवेचना
 यूरोप की भाषाओं के आधार पर विकसित पाश्चात्य भाषाविज्ञान के प्रतिमानों के आधार पर नहीं की जा सकती
जिस प्रकार अपने 29 राज्यों एवं 07 केन्द्र शासित प्रदेशों को मिलाकर भारत देश है, उसी प्रकार भारत के जिन राज्यों एवं शासित प्रदेशों को मिलाकर हिन्‍दी भाषा क्षेत्र है, उस हिन्‍दी भाषा-क्षेत्र के अन्‍तर्गत जितने भाषिक रूप बोले जाते हैं उनकी समाष्‍टि का नाम हिन्‍दी भाषा है। हिन्‍दी भाषा क्षेत्र के प्रत्‍येक भाग में व्‍यक्‍ति स्‍थानीय स्‍तर पर क्षेत्रीय भाषा रूप में बात करता है। औपचारिक अवसरों पर तथा अन्‍तर-क्षेत्रीय, राष्‍ट्रीय एवं सार्वदेशिक स्‍तरों पर भाषा के मानक रूप अथवा व्‍यावहारिक हिन्‍दी का प्रयोग होता है। आप विचार करें कि उत्तर प्रदेश हिन्‍दी भाषी राज्‍य है अथवा खड़ी बोली, ब्रजभाषा, कन्‍नौजी, अवधी, बुन्‍देली आदि भाषाओं का राज्‍य है। इसी प्रकार मध्‍य प्रदेश हिन्‍दी भाषी राज्‍य है अथवा बुन्‍देली, बघेली, मालवी, निमाड़ी आदि भाषाओं का राज्‍य है। जब संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका की बात करते हैं तब संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका के अन्‍तर्गत जितने राज्‍य हैं उन सबकी समष्‍टि का नाम ही तो संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका है। विदेश सेवा में कार्यरत अधिकारी जानते हैं कि कभी देश के नाम से तथा कभी उस देश की राजधानी के नाम से देश की चर्चा होती है। वे ये भी जानते हैं कि देश की राजधानी के नाम से देश की चर्चा भले ही होती है, मगर राजधानी ही देश नहीं होता। इसी प्रकार किसी भाषा के मानक रूप के आधार पर उस भाषा की पहचान की जाती है मगर मानक भाषा, भाषा का एक रूप होता है ः मानक भाषा ही भाषा नहीं होती। इसी प्रकार खड़ी बोली के आधार पर मानक हिन्‍दी का विकास अवश्‍य हुआ है किन्‍तु खड़ी बोली ही हिन्‍दी नहीं है। तत्‍वतः हिन्‍दी भाषा क्षेत्र के अन्‍तर्गत जितने भाषिक रूप बोले जाते हैं उन सबकी समष्‍टि का नाम हिन्दी है। हिन्‍दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने के षडयंत्र को विफल करने की आवश्‍कता है तथा इस तथ्‍य को बलपूर्वक रेखांकित, प्रचारित एवं प्रसारित करने की आवश्‍यकता है कि सन् 1991 की भारतीय जनगणना के अन्तर्गत भारतीय भाषाओं के विश्‍लेषण का जो ग्रन्‍थ प्रकाशित हुआ है उसमें मातृभाषा के रूप में हिन्‍दी को स्‍वीकार करने वालों की संख्‍या का प्रतिशत उत्‍तर प्रदेश (उत्‍तराखंड राज्‍य सहित) में 90.11, बिहार (झारखण्‍ड राज्‍य सहित) में 80.86, मध्‍य प्रदेश (छत्‍तीसगढ़ राज्‍य सहित) में 85.55, राजस्‍थान में 89.56, हिमाचल प्रदेश में 88.88, हरियाणा में 91.00, दिल्‍ली में 81.64, तथा चण्‍डीगढ़ में 61.06 है।
हिन्दी भाषा-क्षेत्र एवं मंदारिन भाषा-क्षेत्र –
जिस प्रकार चीन में मंदारिन भाषा की स्थिति है उसी प्रकार भारत में हिन्दी भाषा की स्थिति है। जिस प्रकार हिन्दी भाषा-क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक रूप बोले जाते हैं, वैसे ही मंदारिन भाषा-क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक-रूप बोले जाते हैं। हिन्दी भाषा-क्षेत्र के दो चरम छोर पर बोले जाने वाले क्षेत्रीय भाषिक रूपों के बोलने वालों के बीच पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत बहुत कम है। मगर मंदारिन भाषा के दो चरम छोर पर बोले जाने वाले क्षेत्रीय भाषिक रूपों के बोलने वालों के बीच पारस्परिक बोधगम्यता बिल्कुल नहीं है। उदाहरण के लिए मंदारिन के एक छोर पर बोली जाने वाली हार्बिन और मंदारिन के दूसरे छोर पर बोली जाने वाली शिआनीज़ के वक्ता एक दूसरे से संवाद करने में सक्षम नहीं हो पाते। उनमें पारस्परिक बोधगम्यता का अभाव है। वे आपस में मंदारिन के मानक भाषा रूप के माध्यम से बातचीत कर पाते हैं। मंदारिन के इस क्षेत्रीय भाषिक रूपों को लेकर वहाँ कोई विवाद नहीं है। पाश्चात्य भाषावैज्ञानिक मंदारिन को लेकर कभी विवाद पैदा करने का साहस नहीं कर पाते। मंदारिन की अपेक्षा हिन्दी के भाषा-क्षेत्र में बोले जाने वाले भाषिक-रूपों में पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत अधिक है। यही नहीं सम्पूर्ण हिन्दी भाषा-क्षेत्र में पारस्परिक बोधगम्यता का सातत्य मिलता है। इसका अभिप्राय यह है कि यदि हम हिन्दी भाषा-क्षेत्र में एक छोर से दूसरे छोर तक यात्रा करे तो निकटवर्ती क्षेत्रीय भाषिक-रूपों में बोधगम्यता का सातत्य मिलता है। हिन्दी भाषा-क्षेत्र के दो चरम छोर के क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के वक्ताओं को अपने अपने क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के माध्यम से संवाद करने में कठिनाई होती है। कठिनाई तो होती है मगर इसके बावजूद वे परस्पर संवाद कर पाते हैं। यह स्थिति मंदारिन से अलग है जिसके चरम छोर के क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के वक्ता अपने अपने क्षेत्रीय भाषिक-रूपों के माध्यम से कोई संवाद नहीं कर पाते। मंदारिन के एक छोर पर बोली जाने वाली हार्बिन और मंदारिन के दूसरे छोर पर बोली जाने वाली शिआनीज़ के वक्ता एक दूसरे से संवाद करने में सक्षम नहीं हैं मगर हिन्दी के एक छोर पर बोली जाने वाली भोजपुरी और मैथिली तथा दूसरे छोर पर बोली जाने वाली मारवाड़ी के वक्ता एक दूसरे के अभिप्राय को किसी न किसी मात्रा में समझ लेते हैं।
यदि चीन में मंदारिन भाषा-क्षेत्र के समस्त क्षेत्रीय भाषिक-रूप मंदारिन भाषा के ही अंतर्गत स्वीकृत है तो उपर्युक्त विवेचन के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अन्तर्गत समाविष्ट क्षेत्रीय भाषिक-रूपों को भिन्न-भिन्न भाषाएँ मानने का विचार नितान्त अतार्किक और अवैज्ञानिक है। लेखक का स्पष्ट एवं निर्भ्रांत मत है कि हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने के षड़यंत्रों को बेनकाब करने और उनको निर्मूल करने की आवश्यकता असंदिग्ध है। हिन्दी देश को जोड़ने वाली भाषा है। उसे उसके ही घर में तोड़ने का अपराध किसी को नहीं करना चाहिए।
(देखें - हिन्दी देश को जोड़ने वाली भाषा है; इसे उसके अपने ही घर में मत तोड़ो) 

प्रोफेसर महावीर सरन जैन
सेवा निवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान
123, हरि एन्कलेव, बुलन्दशहर – 203001

डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य'
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
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प्रस्तुत कर्ता: संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)

लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद