बुधवार, 26 सितंबर 2018

[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] हिन्दी को अब राष्ट्रभाषा होना ही है - प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी


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वैश्विक हिंदी सम्मेलन
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                                    हिन्दी को अब राष्ट्रभाषा होना ही है  
                                        प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी
   राष्ट्रभाषा को समझने से पहले राष्ट्र, देश और जाति शब्दों को समझना असमीचीन न होगा। वस्तुत: राष्ट्र को अंग्रेज़ी शब्द नेशन (Nation) का हिन्दी पर्याय माना जाता है, किंतु इन दोनों शब्दों में कुछ अंतर है। अंग्रेज़ी में नेशन शब्द से अभिप्राय किसी विशेष भूमि-खंड में रहने वाले निवासियों से है जबकि राष्ट्र शब्द विशेष भूमि-खंड, उसमें रहने वाले निवासी  और उनकी संस्कृति का बोध कराता है। राजनीतिक दृष्टि से और भौगोलिक रूप से एक विशेष भूमि-खंड को देश की संज्ञा दी जाती है, किंतु इसका संबंध मानव समाज से नहीं है। जाति से अभिप्राय उस मानव समुदाय से है जो सामाजिक विकास के क्रम में पहले जन या गण के रूप में गठित होती है। यह गण समाज अर्थात जन समुदाय आर्थिक आधार पर जुड़ कर एक निश्चित जाति का रूप धारण कर लेता है। इस जाति का अपना प्रदेश और अपनी भाषा होती है। युनान में अनेक गण-राज्य थे जिनमें सामंती व्यवस्था वाली लघु जातियाँ थीं। भारत में भरत, कुरु, पांचाल आदि अनेक गण समाज थे। बौद्ध काल के जनपद या महाजनपद लघु जातियों के ही प्रदेश थे, जिनमें  ब्रज, अवध, बुंदेलखंड आदि लघु जातियों वाले अनेक प्रदेश बने जिनकी अपनी-अपनी भाषा है। इन्हींसे हिन्दी भाषी जाति का निर्माण हुआ है। हिन्दी के साथ-साथ मराठी, बंगला, तमिल आदि भाषाएँ बोलने वाली अनेक जातियाँ भी अस्तित्व में आई हैं। कुछ विद्वान जाति का अर्थ नेशन से भी जोड़ते हैं।
   राष्ट्र शब्द व्यापक अर्थ लिए हुए है। इसके अंतर्गत देश और जाति दोनों की संकल्पना निहित है। वैदिक काल से ही राष्ट्र शब्द का प्रयोग भूमि, जन और संस्कृति के अंतर्ग्रंथित रूप में चला आ रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो राष्ट्र शब्द में तीन संदर्भों का सम्मिलन  होता रहा है - एक, वह भूखंड या भूमि जिसमें मानव समुदाय रहता है, दो, स्वयं मानव समुदाय और तीन, उस मानव समुदाय की संस्कृति। मनुस्मृति (10/61,7/739/254) में राष्ट्र को ज़िला, मंडल, प्रदेश या राज्य, देश या साम्राज्य के साथ-साथ प्रजा, जनता या अधिवासी के अर्थ में परिभाषित किया गया है। इस प्रकार इसमें भूमि, जन और उनकी संस्कृति सभी कुछ समाहित है। अपनी जन्मभूमि के प्रति अनन्य प्रेम की अभिव्यक्ति से भी राष्ट्र की भावना जन्म लेती है। इसी अभिव्यक्ति को रामायण के रचयिता वाल्मीकि ने राम के मुख से कहलाया है – जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। 
     राष्ट्र से राष्ट्रवाद का उदय हुआ जिसे कुछ विद्वान व्यापारिक पूँजीवाद की देन मानते हैं। वस्तुत: राष्ट्रवाद किसी समुदाय की वह आस्था है जिसके अंतर्गत उस समुदाय का इतिहास, उसकी परंपरा, संस्कृति, भाषा और जातीयता आधार के रूप में समाहित होते हैं। यूरोप का नवजागरण और फ्रांस, इटली, ब्रिटेन आदि देशों का राष्ट्रवाद व्यापारिक पूँजीवाद का परिणाम माना जाता है। भारत में राष्ट्रवाद का विकास ब्रिटिश शासन काल में राष्ट्रीयता की भावना पैदा होने से हुआ। राष्ट्रीयता से राष्ट्र में ऐक्य की भावना जन्म लेती है और राष्ट्रीय एकता के लिए आंतरिक सौहार्द्र एवं सद्भावना, राष्ट्र-भक्ति और संगठन की भावना की आवश्यकता होती है।
   विश्व में तीन प्रकार के जातीयता वाले राष्ट्र हैं। जापान, ईरान, पोलैंड, रूमानिया आदि देश एकजातीय राष्ट्र हैं। कनाडा,बेल्जियम आदि द्विजातीय राष्ट्र हैं और भारत, ब्रिटेन, अमेरिका, चीन, फ्रांस, जर्मनी आदि अनेक देश बहुजातीय राष्ट्र हैं। हर जाति की अपनी भाषा, अपनी संस्कृति और अपना साहित्य होता है जिनसे राष्ट्रीय संस्कृति का विकास होता है। भारत बहुजातीय राष्ट्र है जिसमें तमिल, कन्नड़, तेलुगू, मलयालम, बांग्ला, उड़िया, मराठी, गुजराती, पंजाबी, कश्मीरी आदि कई जातियाँ हैं। इनके केंद्र में हिन्दी जाति है जिसके कारण भारत को हिंदुस्तान या हिंदुस्ताँ या हिन्दी कहा जाता हैब्रिटेन में इंग्लिश जाति की प्रधानता के कारण ही उसे इंग्लैंड भी कहते हैं। इसी संदर्भ में एक महान शायर इकबाल ने अपने कौमी तराना में कहा है – ‘’हिन्दी हैं हम वतन है हिंदुस्ताँ हमारा।‘’ इस प्रकार बहुजातीय राष्ट्र से अभिप्राय उस देश से है जिसमें अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं, अनेक जातियों के लोग रहते हैं और उनमें राष्ट्रीय चेतना होती है। ऐसी चेतना का विकास भारत में हुआ है।                           
   जब कोई भाषा जीवंत, स्वायत्त, मानक, उन्नत और समृद्ध हो कर समूचे राष्ट्र अथवा देश में सार्वजनिक संप्रेषण-व्यवस्था और कार्य-व्यापार में प्रयुक्त होने लगती है, बहुभाषी राष्ट्र में अंतर-प्रांतीय मध्यवर्तिनी भाषा के रूप में विभिन्न भाषाभाषी समुदायों के बीच बृहत्तर स्तर पर संपर्क भाषा की भूमिका निभाती है तथा केंद्रीय एवं राज्य सरकारों में सरकारी कार्यों और पत्रव्यवहार में प्रयुक्त होने लगती है तो वह राष्ट्रभाषा और राजभाषा के रूप में जन्म लेती है। अमेरिकन भाषाविज्ञानी जोशुआ फिशमैन ने राष्ट्रभाषा और राजभाषा के संदर्भ में nationalism (राष्ट्रीयता) और nationism (राष्ट्रता अथवा  राष्ट्रिकता) की संकल्पना प्रस्तुत की है। राजभाषा का संबंध राष्ट्रिकता (nationism) से रहता है जो राष्ट्र की आर्थिक प्रगति, राजनैतिक एकता और प्रशासनिक प्रयोजनों की पूर्ति के लिए काम करती है। यह सरकारी कामकाज में प्रयुक्त हो कर जनता तथा शासन के बीच संपर्क पैदा करती है। राष्ट्रभाषा का संबंध राष्ट्रीयता (nationalism) से रहता हैक्योंकि राष्ट्रीयता जातीय प्रमाणिकता एवं राष्ट्रीय चेतना से जुड़ी होती है। राष्ट्रीय चेतना का संबंध सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना से होता है। इसका संबंध भूत औरवर्तमान’ के साथ होता है तथा महान परंपरा के साथ जुड़ा रहता है। वस्तुत: राष्ट्रभाषा राष्ट्र के समाज और संस्कृति के साथ तादात्म्य स्थापित करती है तथा सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता की भाषा की अभिव्यक्ति के रूप में कार्य करती है। यह भाषा जनता की निजी, सहज और विश्वासमयी भाषा बन जाती है जिसका प्रयोग राष्ट्रपरक कार्यों में चलता रहता है। इसी लिए राष्ट्रभाषा का अपने देश की भाषा होना अनिवार्य है, किंतु राजभाषा के लिए अपने देश की भाषा होना आवश्यक नहीं।  देश के बाहर की भाषा राजभाषा तो हो सकती है, किंतु राष्ट्रभाषा नहीं। इस प्रकार राष्ट्रभाषा वही होती है जिसमें राष्ट्रीय प्रवृतियाँ सन्निहित होती हैं, अपने देश की परंपरा के प्रति प्रेम होता है, राष्ट्र की संस्कृति के प्रति लगाव होता है और राष्ट्र की एकता के प्रति भावनाएँ होती हैं। अमेरिका के सुविख्यात विद्वान फर्ग्युसन के मतानुसार देश का भाषा नियोजन करते हुए राष्ट्रीय एकता, राष्ट्रीय अस्मिता, आधुनिक समाज, प्रौद्योगिकी और अंतरराष्ट्रीय संबंध में से कम-से-कम तीन लक्ष्यों को ध्यान में रखना आवश्यक होता है। ये विशेषताएँ अपने देश की भाषाओं में ही मिल सकती हैं, विदेशी भाषा में नहीं। इसके अतिरिक्त राष्ट्रभाषा के संदर्भ में यह कहना भी उचित होगा कि जिस भाषा में राष्ट्र-निष्ठा और राष्ट्रीय भावना नहीं होती, वह राष्ट्र भाषा कहलाने की अधिकारी नहीं होती।
   प्रश्न उठता है कि हिन्दी में ऐसी कौन-सी विशेषता है जिसके कारण उसे राष्ट्रभाषा माना जा सकता है। साहित्यिक समृद्धि की दृष्टि से हिन्दी का साहित्य श्रेष्ठ है। विश्व के अनेक विद्वानों ने हिन्दी साहित्य की कविता, उपन्यास, कहानी, नाटक आदि विभिन्न विधाओं की कृतियों का न केवल अनुवाद किया है बल्कि उनपर शोध और आलोचनात्मक कार्य भी किया है। यद्यपि हिन्दी संस्कृत, तमिल, बंगला और अंग्रेज़ी से अधिक समृद्ध नहीं है तो मराठी, गुजराती, कन्नड़, तेलुगु, उड़िया आदि अन्य भारतीय भाषाएँ भी उससे कम नहीं हैं। हिन्दी को भारतीय संविधान में संघ की  राजभाषा के पद से सुशोभित किया गया, क्योंकि इसे बोलने और समझने वाले इन सभी भाषाओं से अधिक है। वास्तव में हिन्दी न तो किसी क्षेत्र-विशेष की भाषा है और न ही किसी एक समुदाय की मातृभाषा। वह तो जन-जन की भाषा है, महाजनपद की भाषा है, पूरे राष्ट्र की भाषा है। यद्यपि समय-समय पर इसके स्वरूप  में परिवर्तन होते रहे हैं, किंतु यह अपने मानस में विभिन्न भाषाओं और बोलियों के तत्त्वों को संजोती रही है। यह एक ऐसी अजस्र प्रवाहिनी गंगा नदी के समान है जो अन्य भाषाओं एवं बोली रूपी नदियों के सम्मिलन से एक विस्तृत, व्यापक और सुंदर स्रोतस्विनी का रूप धारण करती रही है। हिन्दी मात्र एक भाषा नहीं,अपितु हमारी राष्ट्रीयता है। हमारे जातीय गौरव का प्रतीक है और भारत अर्थात हिंदुस्तान की पहचान है। इसने लोकभाषा खड़ीबोली का आधार ले कर और अन्य बोलियों से सिंचित हो कर भाषा का रूप धारण किया और फिर भाषा से भारत की संपर्क भाषा बनी और फिर राजभाषा से गौरवान्वित हुई। राजभाषा से राष्ट्र भाषा का स्वरूप ग्रहण कर लिया और फिर अपने बढ़ते हुए विकास की यात्रा में यह राष्ट्रभाषा इतनी गतिशील हो गई है कि विश्व भाषा का स्थान लेने में अग्रसर हो गई। इसी लिए राष्ट्रीयता की भावना से अनुस्यूत राष्ट्रभाषा दो लक्षणों -  आंतरिक एकता और बाह्य विशिष्टता से परस्पर गुंथी होती है। समूचे राष्ट्र को एकता के सूत्र में बाँधने की प्रवृति आंतरिक एकता होती है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाह्य रूप में विशिष्टता  सिद्ध करने की प्रवृति होती है। बहुभाषी देश में आंतरिक एकता तभी संभव है जब मातृभाषा के साथ-साथ एक अन्य भाषा संपर्क भाषा (lingua franca) के रूप में उभर कर आए और बाह्य विशिष्टता के लिए यह भी आवश्यक है कि संपर्क भाषा के रूप में राजभाषा की पदवी पाने वाली वह भाषा स्वदेशी ही हो। ये दोनों लक्षण हिन्दी को राजभाषा से राष्ट्रभाषा बना देते हैं। इसी कारण हिन्दी को स्वतंत्रता-संग्राम के समय से राष्ट्रभाषा का पद देने के लिए निरंतर प्रयास किए जा रहे हैं।           
   समूचे देश की संपर्क भाषा होने के कारण न केवल हिन्दीभाषी संतों और आचार्यों ने जन-जन के हृदय तक हिन्दी में अपना संदेश पहुँचाने का कार्य किया बल्कि दक्षिण और हिंदीतर-भाषी आचार्यों और संतों का भी विशेष योगदान रहा है। दक्षिण के रामानुज, रामानंद, विट्ठल, वल्लभाचार्य, महाराष्ट्र के नामदेव एवं ज्ञानेश्वर, गुजरात के नरसी मेहता तथा स्वामी दयानंद, असम के शंकर देव, पंजाब के गुरु नानक देव आदि आचार्यों और संतों ने देश में जन-जन तक अपना संदेश पहुँचाने और अपने ज्ञान का प्रसार करने के लिए हिन्दी को अपना माध्यम बनाया। हिन्दी की इस सरलता, सहजता और सर्वदेशिकता के परिप्रेक्ष्य में काका कालेलकर ने कहा था कि ‘’हिन्दी सिद्धों की भाषा है, संतों की भाषा है और साधारण जन की भाषा है जिसकी सरलता, सुगमता, सुघड़ता और अमरता स्वयं-सिद्ध है। हिन्दी उत्तर से दक्षिण तक जोड़ने वाली सब से बड़ी कड़ी है।‘’एक विदेशी अनुसंधानकर्ता एच. डी. कोलबुक ने एक सौ वर्ष पूर्व एशियाटिक रिसर्च में लिखा था कि ‘’जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रांत के लोग करते हैं जो पढे-लिखे और अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है और जिसको प्रत्येक गाँव में थोड़े-बहुत लोग समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिन्दी है।’’ एक शोध से जानकारी मिली है कि मुग़ल काल से पूर्व भी मुस्लिम राज्यों में शाही फरमानों में हिन्दी का प्रयोग होता था। यद्यपि मुग़ल काल में फारसी राजभाषा हो गई थी किंतु यत्र-तत्र हिन्दी का भी प्रयोग होता था। एक शोधकर्ता बुलाखमैन ने सन् 1871 में कलकत्ता रिव्यू में लिखा था, ‘’मुग़ल बादशाहों के शासन काल में ही नहीं, इससे पहले भी सभी सरकारी कागजात हिन्दी में लिखे जाते थे।‘’ स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, दक्षिण भारत आदि हिंदीतर भाषी राज्यों के नेताओं, राजनेताओं, साहित्यकारों और समाज सुधारकों ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा और राजभाषा बनाने की माँग की। इनमें राजा राममोहन राय, केशव चंद्र सेन, सुभाष चंद्र बोस, स्वामी दयानंद, सरदार वल्लभ पटेल, लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय, सुब्रह्मण्यम भारती आदि उल्लेखनीय हैं। सन 1910 में न्यायमूर्ति शारदा चरण मित्र ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अवसर पर प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष पं.मदन मोहन मालवीय को शुभ संदेश भेजते हुए लिखा था हिन्दी समस्त आर्यावर्त की भाषा है। यद्यपि मैं बंगाली हूँ तथापि इस वृद्धावस्था में मेरे लिए वह गौरव का दिन होगा जिस दिन सारे भारतवासियों के साथ साधु हिन्दी में वार्तालाप कर सकूँ।‘’भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के महा नायक गुजराती भाषी महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता की लड़ाई में हिन्दी के महत्व को मानते हुए उसे राष्ट्रभाषा बनाने के लिए हिंदीतर भाषी राज्यों में राष्ट्रभाषा प्रचार समितियों का जाल बिछा दिया।
   स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारतीय राजनेताओं ने हिन्दी की महता को स्वीकार करते हुए संविधान में राजभाषा का दर्जा दे कर उसे गौरवान्वित किया। मुंशी-आयंगर फार्मूले के नाम से विख्यात संविधान का भाग 17 है जिसमें 343 से 351 तक अनुच्छेद हैं और साथ में संविधान के परिशिष्ट में अष्टम अनुसूची। इस अवसर पर संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने बड़ी मार्मिकता से  कहा था कि “आज पहली बार हम अपने संविधान में एक भाषा स्वीकार कर रहे हैं जो भारत संघ के प्रशासन की भाषा हो गी। हमें समय के अनुसार अपने-आप को ढालना और विकसित करना हो गा। हमने अपने देश का राजनैतिक एकीकरण किया है। राजभाषा हिन्दी देश की एकता को कश्मीर से कन्याकुमारी तक अधिक सुदृढ़ बना सके गी। अंग्रेज़ी की जगह भारतीय भाषा को स्थापित करने से हम निश्चय ही और भी एक-दूसरे के नजदीक आएँ गे।
   राजभाषा का उत्तरदायित्व ग्रहण करने के लिए हिन्दी को सक्षम माना गया। अत: संविधान के अनुच्छेद 343 में देवनागरी लिपि मे लिखित हिन्दी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया। व्यापक अर्थ में हिन्दी का संविधानीकरण करना हिन्दी का राष्ट्रीयकरण करना है। इसमें हिन्दी को अखिल भारतीय रूप में देखा गया है जिससे राष्ट्रीय विकास की संभावनाओं में वृद्धि होती है। यह केवल प्रशासनिक प्रयोजनों की भाषा नहीं है, बल्कि राष्ट्रभाषा की भूमिका भी निभा रही है। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने तो उन लोगों की इस बात से कि हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाना है, इन्कार करते हुए कहा है कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा  बनाना नहीं है, यह तो पहले से ही राष्ट्रभाषा है। यह सांस्कृतिक जागरण और भारतीय एकता का आधार है। यदि राष्ट्र की संकल्पना को समूचे भारतवर्ष पर लागू हो जाए तो हिन्दी सामाजिक और भावात्मक एकता के लिए राष्ट्रभाषा का कार्य कर रही है और यदि भारत राष्ट्र को अन्य राष्ट्रों का संघ या समूह माना जाए तो अन्य भारतीय भाषाएँ राष्ट्रभाषा के रूप में कार्य कर रही हैं। वस्तुत: हिन्दी को संघ की राजभाषा घोषित करने का यह अभिप्राय नहीं है कि यह भाषा अन्य भारतीय भाषाओं की अपेक्षा अधिक समृद्ध है। इसे राजभाषा का दर्जा देने का कारण इस भाषा को बोलने और समझने वाले लोगों की संख्या देश में सबसे अधिक है। इसका अभिप्राय यह भी नहीं है कि अन्य भारतीय भाषाओं का महत्व कम हो गया। हिन्दी अगर अखिल भारतीय स्तर पर राजभाषा है तो अन्य भारतीय भाषाएँ अपने-अपने राज्य में राजभाषा की भूमिका निभा रही हैं। अत: ये भाषाएँ हिन्दी की सहयोगी भाषा का कार्य कर रही हैं।
     संविधान में हिन्दी संबंधी भाषायी अनुच्छेदों में अनुच्छेद 351 सबसे अधिक महत्वपूर्ण उपबंध है जिसमें कहा गया है कि “संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक हो वहाँ उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।“ इस अनुच्छेद का अभिप्राय है कि संघ की राजभाषा का स्वरूप क्या हो और वह सभी भाषायी वर्गों के लिए कैसे स्वीकार्य हो? हिन्दी को विकसित करने और समृद्ध बनाने की ज़िम्मेदारी संघ सरकार की है। इसका स्वरूप समन्वित और उदार हो। भारत की सभी संस्कृतियाँ मिली-जुली हों, उनमें पूर्ण समन्वय हो, जिससे विभिन्न क्षेत्रीय भाषा-समूह यह अनुभव करें कि राजभाषा के रूप में विकसित भाषा उनकी अपनी भाषा के निकट हैं और इस भाषा के निर्माण में उनका भी महत्वपूर्ण स्थान है। इसी लिए  हिन्दी की परिभाषा सांगोपांग और उदार निर्धारित की गई है। यथा, 
1. यह भारत की सामासिक संस्कृति अर्थात मिलीजुली संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम बने। दूसरे शब्दों में, किसी एक ही समुदाय की संस्कृति की वाहिका न बने।
2.  यह अपनी प्रकृति खोए बिना हिंदुस्तानी और आठवीं अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं के रूप, शैली और पदों को आत्मसात करे अर्थात क्षेत्रीय भाषाएँ राजभाषा हिन्दी का पोषक बने।
3. यदि आवश्यकता पड़ती है तो यह अपने विकास के लिए मुख्य रूप से संस्कृत और गौण रूप से अन्य भाषाओं के शब्द ग्रहण कर सकती है।
   यह बहुत ही महत्वपूर्ण है कि हिन्दी भारत की लगभग सभी क्षेत्रीय भाषाओं के शब्द, शैली आदि अपना कर विकसित हो गी, अर्थात उसमें भारतीय भाषाओं का प्रभाव परिलक्षित हो गा। वास्तव में सभी भारतीय भाषाओं के प्रभाव से विकसित हिन्दी का स्वरूप कृत्रिम नहीं हो गा बल्कि वह सार्वदेशिक रूप ग्रहण करे गा, क्योंकि भाषा समाज की सांस्कृतिक अवधारणाओं और आकांक्षाओं का प्रतीक होती है। इसके अतिरिक्त धर्म-निरपेक्ष होने के कारण हिन्दी का सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम बनना आवश्यक था।, हालांकि भारतीय संस्कृति अपने-आप में ही सामासिक और मिली-जुली है। भारत की विभिन्न उपसंस्कृतियों के आपस में एक-दूसरे के बहुत निकट होने के  कारण उन्हें अलग से पहचानना कुछ कठिन है। तथापि, उनमें पारस्परिक आदान-प्रदान होना आवश्यक है ताकि हिन्दी अपनी समन्वयवादी भूमिका भली-भाँति निभा सके। यह तभी संभव हो गा जब सभी क्षेत्रों में हिन्दी का व्यापक प्रयोग हो और समूचे देश के राष्ट्रीय जीवन में अधिक व्याप्त हो। 
   संविधान के अनुच्छेद 343 खंड (3) के अधीन राजभाषा अधिनियम, 1963 को लोकसभा में तत्कालीन गृह मंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने 13 अप्रैल, 1963 को प्रस्तुत किया था। इसका उद्देश्य था कि 15 वर्ष की अवधि (26 जनवरी, 1965) के बाद हिन्दी के अलावा अंग्रेज़ी भाषा का प्रयोग जारी रखने के लिए संसद को कानून बनाने का अधिकार दिया जाए। इस विधेयक पर अपना वक्तव्य देते हुए गृह मंत्री ने यह भी कहा कि “हम अंग्रेज़ी कि वर्तमान स्थिति कायम नहीं रख सकते और न ही रहनी चाहिए। कोई राष्ट्रीय औचित्य न हो तब तक अंग्रेज़ी के स्थान पर और देश की अन्य राष्ट्रीय भाषाओं को अपनाने में अनिश्चितता बनाए रखना भी उपयुक्त नहीं है। अनंत कल तक अंग्रेज़ी की वर्तमान स्थिति चलने नहीं दी जा सकती।” काफी लंबे वाद-विवाद के बाद यह विधेयक पारित हुआ और 10 मई, 1963 को उसपर हस्ताक्षर हुए।
    इस प्रकार भारत की बहुभाषिक स्थिति होते हुए भी हिन्दी के प्रयोग की संभावनाएँ अधिक थीं, किंतु भारत संघ की यह राजभाषा कार्यालयीन भाषा तक सीमित रह गई है। एक विडंबना और, न्यायपालिका में और वह भी हिन्दी भाषी राज्यों में इसका प्रयोग आज भी अत्यल्प हो रहा है, उच्चतम न्यायालय में तो बिलकुल ही नहीं। सभी कानूनी औपचारिकताएँ अंग्रेज़ी में पूरी की जाती हैं, जनता तक नहीं जातीं। शिक्षा, विशेषकर पब्लिक स्कूलों में और उच्च शिक्षा में, वाणिज्य-व्यापार, विज्ञान,प्रौद्योगिकी आदि अनेक क्षेत्रों में अंग्रेज़ी का वर्चस्व है। वास्तव में संविधान में हिन्दी को राजभाषा का दर्जा देते हुए हमारे भाषा नियोजन में कुछ कमी रह गई, जिसके कारण इसकी सामाजिक-सांस्कृतिक एकता की अवधारणा को प्रशासनिक प्रयोजनों तक सीमित कर दिया गया। दूसरा, शासन तंत्र की सुविधा के लिए अंग्रेज़ी को अनिश्चित काल तक जारी रख देश में    द्विभाषिक स्थिति पैदा कर दी गई है। उससे हिन्दी की स्थिति नाज़ुक और जटिल बन गई है। तथापि, हिन्दी अपनी सार्वदेशिक प्रकृति के कारण समूचे भारत की संपर्क भाषा की भूमिका निभाए गी और देश की सामासिक संस्कृति को अभिव्यक्त करने के लिए सक्षम हो गी।
    आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री गोपाल राव एकबोटे ने सन् 1980 में  A Nation without a National Language के नाम से एक पुस्तिका का प्रकाशन किया। बाद में उन्होंने इस पुस्तिका में और सामग्री जोड़ी और आचार्य खंडेराव कुलकर्णी के सहयोग से इस परिवर्द्धित पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद कर राष्ट्रभाषा विहीन राष्ट्र पुस्तक का प्रकाशन सन् 1987 में किया। बहुभाषी भारत में हिन्दी को राष्ट्रीय एकात्मकता का निर्माण करने की शक्ति और महत्ता का विवेचन करते हुए कहा कि हिन्दी एक समन्वयवादी और उदार भाषा है। इसके विकास में इसकी अपनी बोलियों, भारतीय  भाषाओं और अन्य वैश्विक भाषाओं का विशेष योगदान है। स्वतंत्रता-संग्राम से चली आ रही भावनात्मक पृष्ठभूमि है। एकबोटे जी ने यह भी उल्लेख किया है कि संविधान के अनुछेद 351 में इसके स्वरूप का विवेचन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह हिन्दी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि हिन्दीभाषी क्षेत्रों की भाषा हिन्दी से अलग हो गई है। इस लिए इसे राष्ट्रभाषा का सम्मान मिलना ही चाहिए। भारत का भाषिक भारतीयकरण का स्वावलंबन और भाषा नीति भारतीय जनता की राष्ट्रीय आकांक्षाओं और राजकीय प्रयोजनों के अनुरूप होना ज़रूरी है। यदि हिन्दी को पूर्ण रूप से राष्ट्रभाषा का सम्मान नहीं मिला तो भारत के विकास और प्रगति की संभावना करना व्यर्थ हो जाए गा।      
   भारत का स्वतंत्रता-संग्राम हमारे संघर्षों का इतिहास है। आज़ादी की लड़ाई में हिन्दी की  विशेष भूमिका रही है और इसी लिए महात्मा गांधी ने कहा था कि राष्ट्र की भावनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए एक जनभाषा का होना आवश्यक है। यह भूमिका केवल हिन्दी या हिंदुस्तानी ही निभा सकती है। गांधी जी हिन्दी और हिंदुस्तानी में कोई अंतर नहीं मानते थे। इसी लिए हिन्दी न केवल स्वतंत्रता-सेनानियों की राष्ट्र भाषा थी अपितु समस्त जनता ने अपने समूचे स्वतंत्रता-संग्राम में इसे राष्ट्रभाषा ही माना हुआ था। सच्च मानिए उस काल में हिन्दी ही राष्ट्रभाषा थी। सन् 1906 से सन् 1947 तक अर्थात देश के स्वतंत्र होने तक भारत के हर देशवासी की अभिलाषा थी कि भारत की राष्ट्रीय एकात्माकता के लिए और उसे  शक्तिशाली बनाने के लिए एक राष्ट्र-ध्वज, एक राष्ट्रगीत और एक राष्ट्रभाषा का होना नितांत आवश्यक है। इसी संघर्ष, इन्हीं जन-आकांक्षाओं और भावनाओं का सुफल है संविधान का अनुच्छेद 351। इस अनुच्छेद के पीछे अगर इस महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि को भुला दिया गया तो इसकी सार्थकता और प्रयोजनीयता समाप्त हो जाए गी। इस प्रकार अनुच्छेद 351 से यह आशय निकलता है कि संविधान-निर्माता हिन्दी को मात्र राजभाषा तक सीमित नहीं रखना चाहते थे बल्कि उनका लक्ष्य उसे भविष्य में राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाना था, क्योंकि उस समय संविधान सभा के कुछ सदस्य हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने में हिचकिचा रहे थे। इस अनुच्छेद में यह भाव भी निहित है कि हिन्दी के विकास का उद्देश्य न केवल भाषायी दृष्टि से एकात्मकता स्थापित करना है बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक तथा भावनात्मक दृष्टि से भी एकात्मकता स्थापित कर समन्वित संस्कृति का निर्माण भी करना है ताकि हिन्दी को राष्ट्रभाषा का पद मिलने में कोई बाधा न आए। इसके साथ-साथ संविधान  की अष्टम अनुसूची में उल्लिखित 22 भाषाओं को देने का उद्देश्य यह था कि ये भारतीय भाषाएँ अपना विकास करते हुए हिन्दी भाषा के विकास में भी सहयोग देंगी। इसके संकेत अनुच्छेद 351 में मिल जाते हैं।    
    राष्ट्रभाषा से अभिप्राय समूचे राष्ट्र या देश की भाषा से है। वह समूचे देश में बोली और समझी जाती हो और उसका यह स्वरूप सदैव अक्षुण्ण बना रहता है। यह न तो उत्तर की या दक्षिण की भाषा होती है और न ही पूर्व की या पश्चिम की भाषा होती है। यह तो समूचे देश की भाषा होती है। यह मात्र विद्वानों और शोधर्थियों की भाषा तक सीमित न रह कर जन-जन की भाषा होती है। विभिन्न भाषा-भाषियों और समुदायों के बीच का काम करती है और उनमें सौहार्द्र और सद्भावना का संबंध बनाए रखती है। समूचे राष्ट्र की सामाजिक-सांस्कृतिक तथा भावनात्मक एकता का निर्माण करती है। इस भाषा की प्रकृति सार्वदेशिकता, सर्वसमावेशिकता, प्राचीन परंपरा, जीवंतता, स्वायत्तता, उदारतावादी दृष्टिकोण, अनेक स्रोतीय शब्द-संवर्धन,मानकीकारण, संप्रेषणीयता एवं बोधगम्यता आदि विशिष्टताओं के कारण अखिल भारतीय हो गई है। इसकी प्रकृति में बिहारी हिन्दी, पंजाबी हिन्दी, हैदराबादी हिन्दी, मुंबइया हिन्दी, कोलकतिया हिन्दी आदि अनेक रूप मिलते है। भाषा के ये रूप उसके व्यापक एवं विशाल प्रयोग के द्योतक हैं। वे सभी भारतीयों के लिए बोधगम्य रहें गे, क्योंकि इन रूपों में उसकी आत्मा एक ही बसती है।            
   भारत की यह राष्ट्रीय आवश्यकता है कि राष्ट्र की एक राष्ट्रभाषा हो, क्योंकि राष्ट्रभाषा ही देश में राष्ट्रीय चेतना जगा सकती है, राष्ट्रभाषा ही सांस्कृतिक चेतना पैदा कर सकती है, राष्ट्रभाषा ही जन-जन में राष्ट्रवाद की भावना प्रज्वलित कर सकती है। यह भूमिका हिंदी ही निभा सकती है। इसने संविधान की अष्टम अनुसूची में उल्लिखित संस्कृत, बांग्ला, मराठी,गुजराती, तमिल, तेलुगू आदि सभी भारतीय भाषाओं और अरबी, फारसी, तुर्की, अंग्रेज़ी आदि अनेक विदेशी भाषाओं के शब्दों को अपना कर और आत्मसात् कर अपना सर्वसमावेशी रूप धारण कर लिया है। इस राष्ट्रभाषा को सभी भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अन्य भारतीय  भाषाओं का भी हिन्दी के साथ आत्मसातीकरण एवं समन्वय हो गया है और यह समृद्ध एवं विकसित भाषा बन गई है। शब्द-भंडार, भाव, रूप और शैली की दृष्टि से यह भाषा अखिल भारतीय हिन्दी हो गई है। यह जनपदीय संदर्भ की भाषा से उठ कर राष्ट्रीय संदर्भ की भाषा बन गई है और वैश्विक संदर्भ की भाषा बनने की ओर पूर्णतया अग्रसर है। इस लिए अब समय आ गया है कि हिन्दी को केवल राजभाषा तक सीमित न रख उसे राष्ट्रभाषा के पद पर गौरवान्वित किया जाए।

                                                           प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी               
                                                         kkgoswami1942@gmail.com                                            
                       
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प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
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[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] हिंदी दिवस के अवसर पर हिंदी की बात- डॉ. वेद प्रताप वैदिक, डॉ विजय कुमार भार्गव , देवसिंह रावत, डा.देविदास प्रभु


हिंदी दिवस के अवसर पर हिंदी की बात

1. हिंदी महारानी है या नौकरानी ?

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

आज हिंदी दिवस है। यह कौनसा दिवस है, हिंदी के महारानी बनने का या नौकरानी बनने का ? मैं तो समझता हूं कि आजादी के बाद हिंदी की हालत नौकरानी से भी बदतर हो गई है। आप हिंदी के सहारे सरकार में एक बाबू की नौकरी भी नहीं पा सकते और हिंदी जाने बिना आप देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री भी बन सकते हैं। इस पर ही मैं पूछता हूं कि हिंदी राजभाषा कैसे हो गई ? आपका राज-काज किस भाषा में चलता है ? अंग्रेजी में ! तो इसका अर्थ क्या हुआ ? हमारी सरकारें हिंदुस्तान की जनता के साथ धोखा कर रही हैं। उसकी आंख में धूल झोंक रही हैं। भारत का प्रामाणिक संविधान अंग्रेजी में हैं। भारत की सभी ऊंची अदालतों की भाषा अंग्रेजी है। सरकार की सारी नीतियां अंग्रेजी में बनती हैं। उन्हें अफसर बनाते हैं और नेता लोग मिट्टी के माधव की तरह उन पर अपने दस्तखत चिपका देते हैं। सारे सांसदों की संसद तक पहुंचने की सीढ़ियां उनकी अपनी भाषाएं होती हैं लेकिन सारे कानून अंग्रेजी में बनते हैं, जिन्हें वे खुद अच्छी तरह से नहीं समझ पाते। बेचारी जनता की परवाह किसको है ?

सरकार का सारा महत्वपूर्ण काम-काज अंग्रेजी में होता है। सरकारी नौकरियों की भर्ती में अंग्रेजी अनिवार्य है। उच्च सरकारी नौकरियां पानेवालों में अंग्रेजी माध्यमवालों की भरमार है। उच्च शिक्षा का तो बेड़ा ही गर्क है। चिकित्सा, विज्ञान और गणित की बात जाने दीजिए, समाजशास्त्रीय विषयों में भी उच्च शिक्षा और शोध का माध्यम आज तक अंग्रेजी ही है। आज से 53 साल पहले मैंने अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का पीएच.डी. का शोधग्रंथ हिंदी में लिखने का आग्रह करके इस गुलामी की जंजीर को तोड़ दिया था लेकिन देश के सारे विश्वविद्यालय अभी भी उस जंजीर में जकड़े हुए हैं। अंग्रेजी भाषा को नहीं उसके वर्चस्व को चुनौती देना आज देश का सबसे पहला काम होना चाहिए लेकिन हिंदी दिवस के नाम पर हमारी सरकारें एक पाखंड, एक रस्म-अदायगी, एक खानापूरी हर साल कर डालती हैं। हमारे महान राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री को चार साल बाद फुर्सत मिली कि अब उन्होंने केंद्रीय हिंदी समिति की बैठक बुलाई। उसकी वेबसाइट अभी तक सिर्फ अंग्रेजी में ही है। यदि देश में कोई सच्चा नेता हो और उसकी सच्ची राष्ट्रवादी सरकार हो तो वह संविधान की धारा 343 को निकाल बाहर करे और हिंदी को राष्ट्रभाषा और अन्य भारतीय भाषाओं को राज-काज भाषाएं बनाए। ऐसा किए बिना यह देश न तो संपन्न बन सकता है, न समतामूलक, न महाशक्ति !
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यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम स्वभाषा का सम्मान नहीं करते।  हिंदी दिवस केवल नाम के लिए मनाया जाता है। हाँ हिंदी बोलने वाली तो भाषा बनती जा रही है पर ज्ञान-विज्ञानं की भाषा बनाने के प्रति कोई प्रयास नहीं है। मैंने इस दिशा में वहुत प्रयास करे पर सफलता नहीं मिली। मैंने अपनी पीएच का शोध हिंदी में भी लिख कर दर्शाया कि  हिंदी में भी वैज्ञानिक शोध लिखा जा सकता है।  हाँ अंगरेजी में भी इसलिए लिखा कि अभी मानसिकता नहीं बदली है हाँ साक्षात्कार हिंदी में ही दिया और परमाणु ऊर्जा विभाग के उस समय जो अध्यक्ष दक्षिण भारतीय डॉ चितम्बरण थे उन्होंने मुझे सम्मानित किया और कहा कि मैंने अंगरेजी में शोध ग्रन्थ अंगरेजी में क्यों लिखा। डॉ चितम्बरण जी पिता वनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में शिक्षक थे इसलिए उन्होंने दसवीं तद फ्शिक्षा हिंदी माध्यम से की थी।   मेरे द्वारा परमाणु ऊर्जा पर हिंदी बनाये सचित्र 50 चार्टों को भी सराहया।  इसलिए मेरा मानना है कि केवल हिंदी दिवस मनाने से नहीं पर उसे क्रियान्वित करने से ही हिंदी का भला हो सकता है।

डॉ विजय कुमार भार्गव 
सेवानिवृत वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी 
भाभा परमाणु अनुसन्धान केंद्र एवं परमाणु ऊर्जा नियामक परिषद् , मुम्बई 400703 
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 भारतीय भाषा आंदोलन

अंग्रेजी में राज चलाकर, हिंदी दिवस मनाने का पाखण्ड बंद करो

भारतीय भाषा आंदोलन ने हिंदी दिवस पर  संसद मार्ग पर धरना देकर प्रधानमंत्री मोदी को दिया ‘देश को अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त करने व भारतीय भाषाओं को लागू करने के लिए ’रोषयुक्त ज्ञापन 

नई दिल्ली।  14 सितम्बर 2018 को हिंदी दिवस के अवसर पर  भारतीय भाषा आंदोलन ने संसद की चौखट, राष्ट्रीय धरना स्थल संसद मार्ग पर धरना दे कर इसे राष्ट्र विरोधी षडयंत्र बताते हुए प्रधानमंत्री श्री मोदी को ‘देश को अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त करने व भारतीय भाषाओं को लागू करने के लिए ’रौष युक्त ज्ञापन  दिया। 
65 माह से संसद की चैखट पर देश को अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त करने के लिए आंदोलन छेडने वाले भारतीय भाषा आंदोलन ने प्रधानमंत्री को दिये ज्ञापन में दो टूक शब्दों में लिखा कि 14 सितंबर, को भारत सरकार सहित भारत सरकार के तमाम विभाग हिंदी दिवस के रूप में मना रहे है। इसे राजभाषा के रूप में भी गौरवान्वित किये जाने का बखान कर रहे है। परन्तु हकीकत यह है कि  अंग्रेजों के जाने के 72 साल बाद भी बेशर्मी से अंग्रेजों की ही भाषा अंग्रेजी की गुलामी इस देश में बनी हुई है और हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाये गुलामी के पिंजरे में जकड़ी हुई है। देश का दुर्भाग्य है कि देश में शिक्षा,रोजगार, न्याय, सम्मान व शासन सहित पूरी व्यवस्था विदेशी भाषा अंग्रेजी में ही चल रही है और  साल में एक दिन 14 सितम्बर को हिंदी दिवस या हिंदी पखवाड़ा मना कर देश की जनता की आंखों में धूल झोंकने का धृर्णित मजाक देश के साथ किया जा रहा है।  यह देश की लोकशाही, आजादी व सम्मान के साथ मानवाधिकारों का गला घोंटने वाला राष्ट्रद्रोही कृत्य है। भारतीय भाषायें देश संचालित करने के लिए है न की साल में एक दिन का श्राद्ध करने के लिए।   यह जग जाहिर है कि 1918 में महात्मा गांधी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन में हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने को कहा था.। इसे गांधी जी ने जनमानस की भाषा भी कहा था। परन्तु संसार के सारे देश जहां अपनी अपनी देश की भाषा में अपने देश में शिक्षा, रोजगार, न्याय व शासन संचालित कर विश्व में अपना परचम लहरा रहे है। वहीं भारत उन्हीं अंग्रेजों की भाषा अंग्रेजी का गुलाम बन अपने देश के नाम, संस्कृति, सम्मान, लोकशाही, मानवाधिकार, प्रतिभाओं का निर्ममता से गला खुद बेशर्मी से घोंट रहा है। भारतीय भाषा आंदोलन का मानना है किसी भी स्वतंत्र देश की भाषाओं को रौंदकर विदेशी भाषा में बलात शिक्षा, रोजगार, न्याय व शासन देना किसी देशद्रोह से कम नहीं है।  
   
14 सितम्बर को हिंदी दिवस इसलिए मनाया जाता है कि क्योंकि इसी तारीख को 1949 में  हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिला था।  संविधान में विभिन्य नियम कानून के अलावा नए राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का मुद्दा अहम था। काफी विचार-विमर्श के बाद हिन्दी और अंग्रेजी को नए राष्ट्र की आधिकारिक भाषा चुना गया। 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी को अंग्रेजी के साथ राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के तौर पर स्वीकार किया था। 14 सितम्बर को हिंदी दिवस इसलिए मनाया जाता है कि क्योंकि इसी तारीख को 1949 में  हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिला था।बाद में जवाहरलाल नेहरू सरकार ने 14 सितम्बर 1953 को पहला हिंदी दिवस मनाते हुए हर साल इसी दिन हिंदी दिवस मनाने का निर्णय लिया।

संसद की चैखट पर देश को अंग्रेजों के बाद अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त कराकर भारतीय भाषाओं को लागू करने का संकल्प लेते हुए  भारतीय भाषा आंदोलन के जांबाज ने ( भारत को अंग्रेजी का गुलाम बना कर /हिंदी दिवस का पाखण्ड बंद करो, बंद करो/अंग्रेजी की गुलामी थोप कर,देश की आजादी व संस्कृति रौंदने वाले हुक्मरानों, शर्म करो शर्म करो /ैअंग्रेज गये अंग्रेजी जाये, भारतीय भाषा राज चलाये/वही अंग्रेजी भाषा, इंडिया नाम, आज भी भारत है गुलाम/अंग्रेजी के दलालों भारत छोड़ा, भारतीय भाषा लागू करो/ अंग्रेजी में काम न हो, फिर से देश गुलाम न हो व देश के हुक्मरानों शर्म करो, अंग्रेजी की गुलामी बंद करो  व हिंदी दिवस का पाखण्ड बंद करो के गगनभेदी नारे लगाये। 

 14 सितम्बर को भारतीय भाषा आंदोलन में  आंदोलन के अध्यक्ष देवसिंह रावत,  धरना प्रभारी रामजी शुक्ला,  पुरषोत्तम कपूर, हरिराम तिवारी ,बलराम सिंह,  अनिल पंत, मोहन जोशी  कमल किशोर नौटियाल,  कुंवर बहादुर , स्वामी संतुष्टानंद जी महाराज, मनमोहन शाह, संतोष विश्वकरमा,वेदानंद, खुशहाल सिंह बिष्ट ,आशा शुक्ला   आदि ने भाग लिया।   
                          (अध्यक्ष)  भारतीय भाषा आंदोलन, राष्ट्रीय धरना स्थल जंतर मंतर दिल्ली  .दूरभाष- ;  9910145367
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 नाच न आये आंगन टेढ़ा
    -डा.देविदास प्रभु
    जिन लोगो को हिंदी से नफ़रत है वही लोग देवनागरी हटाकर रोमन लिपि को अपनाने की बात कर रहे है! किसी भी भाषा में और उसकी लिपि में कोई कमजोरी नहीं होती है अगर कमजोरी होती है तो वो केवल उस भाषा बोलनेवालो में और उस भाषा में लिखनेवालों में होती है ! यहूदी यूरोप से जब इस्रायल आये तब उन्होंने अपनी मृत भाषा हिब्रू को फिर से जीवित किया और उसी भाषा की लिपि को भी अपनाया ! अब सभी ज्ञान हिब्रू भाषा में मौजूद है ! क्या चीनी, जापानी, कोरियाई या थाई भाषा बोलनेवालो ने अपनी लिपि कमजोर कहकर रोमन लिपि को अपनाया है ? कमी किसी भाषा में नहीं बल्कि भाषा बोलनेवालों में होती है ! अपनी कमजोरी को वे भाषा पर और लिपि पर डाल देते हैं ! दुनिया के छोटी छोटी भाषाओं में जो ज्ञान मौजूद है वो ज्ञान भारत के बड़े बड़े भाषाओं में नहीं है !
भारत की राजधानी के बड़े स्कूलो में भारत सरकार की राजभाषा बोलने पर बच्चो को शिक्षा (दंड) दी जाती है, इस से बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है? अमेरिका की राजधानी वाशिंग्टन में सरकारी दफ्तर के करीब ही जर्मन माध्यम का स्कूल है वहाँ जर्मन एम्बसी में काम करनेवालों के बच्चे पढ़ते है, देखिये हममें और उनमे क्या अंतर है !
अंग्रेजी पंडितों की पेहली दुश्मन है हिंदी, उसे कमजोर बनाने के लिए हिंदी में अंग्रेजी शब्दों की मिलावट करके हिंदी को बर्बाद करने की मुहीम जारी है ! हिंदी अखबारों में भरपूर अंग्रेजी शब्द ,किसी अन्य भारतीय भाषा के अखबारों में अंग्रेजी शब्दों का मिलावट नहीं करते है !
कन्नड़ ,मलयालम, तेलुगु आदि भाषाओं में कोई भी संस्कृत शब्द का प्रयोग कर सकते हैं। उसे उसी भाषा का शब्द माना जाएगा, मगर हिंदी की हालत यह है कि कोई भी अंग्रेजी शब्द को देवनागरी में लिख दिया, तो हो गया उसे हिंदी शब्द ही माना जाएगा! अब देवनागरी को भी हटा दिया तो बचेगा क्या? हिंदी अपनी आप अंग्रेजी हो जायेगी ! वाह रे वाह,  क्या तरकीब ढूंढ़ लिया है हमारे अंग्रेजी पंडितों ने हिंदी का अंत करने के लिए !
हिंदी के विकास केलिए संविधान के अनुच्छेद (article) 351 का पालन कही भी नहीं हुआ है, किसी संकृत या (1950 के बाद ) ८वि अनुसूची के अन्य भाषाओं का कोई भी शब्द हिंदी में शामिल नहीं किया गया है ! इसकेलिए कौन जिम्मेदार है ? हिंदी भाषा बोलनेवाले ही जिम्मेदार हैं।
अंग्रेजो के जमाने में ग्रामीण लोग कोई भी अंग्रेजी शब्द का प्रयोग नहीं करते थे, कार को वे हवा गाडी कहेते थे मगर आज बदलाव देखिये पति - पत्नी को भी हसबंड - वैफ कहेते है ! क्या हमें अंग्रेजो ने आकर शादी करना सिखाया है ? क्या हमें अंग्रेजो ने आकर अन्न खाना सिखाया है के हम उसे राईस कहें ?
अंग्रेजी एक यूरोपीय भाषा है, उसमे अन्य यूरोपीय भाषाओं के शब्द शामिल होना स्वाभाविक है, हिंदी भारतीय भाषा है उसमे भारतीय भाषाओं के शब्द ही शामिल करें।
हिंदी दिवस के मोके पर सभी शपथ करें ,कोई भी अंग्रेजी शब्द का प्रयोग नहीं करेंगे !
-डा.देविदास प्रभु 

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[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] 31वीं केंद्रीय हिंदी समिति की बैठक में हुई वार्ता तथा प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी जी के सुझाव। ( प्रतिक्रियाएँ) तथ्य भारती सितंबर 2018 का लिंक


31वीं केंद्रीय हिंदी समिति की बैठक में हुई वार्ता  तथा

प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी जी द्वारा भेजे गए सुझाव। 
 ( प्रतिक्रियाएँ)  

1. सभी सुझाव तो बहुत अच्छे हैं किंतु इस बैठक का आधिकारिक कार्यवृत्त जारी होने पर ही पता चलेगा कि सारी चर्चाओं को कार्य रूप में परिवर्तित करने हेतु
अंतिम निर्णय क्या हुआ और कार्यान्वित करने की समय सीमा क्या रखी गयी है. ऐसा होने पर ही बैठक की सार्थकता सिध्द होगी. 

कुछ मंत्रालयों की  इस तरह की  बैठकों के कार्यवृत्त  पढने को मिले,वक्तव्य और चर्चाओं  का जिक्र तो था किंतु निर्णय  और उन पर कार्र्वाई  का कहीं कोई
उल्लेख नही था  .
- जवाहर कर्नावट 

2. ऐसे सुझाव तो चालीस साल से पढ़ रहा हूँ । 
     राजेश बादल 

3. मा. प्रधानमंत्री ने चार साल में कुछ नहीं किया तो अब भी कुछ नहीं करेंगे। स्व. मुरारजी देसाई ने शायद बिना ऐसी बैठक किये यूपीएससी(आईएएस) में हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाएं को कुछ सीमा तक स्वीकार किया था। सब चाहिए वाले हैं।
**महेश रौतेला

4. बहुत महत्त्वपूर्ण बातें कही गईं। डॉ कृष्ण कुमार जी के भाषा सम्बन्धी कार्यों से मैं विगत 30 वर्षों से परिचित हूँ। आपके सारे सुझाव व्यावहारिक हैं। सरकारी वेबसाइट और केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय की दुर्गति परेशान करने वाली है। हमें विश्व समनेलन के नाम पर करोड़ों रुपये पानी में बहाने के बजाय अपनी संस्थाओं को मजबूत करना चाहिए। दो -तीन नाम को छोड़ दीजिए,मॉरीशस में हिन्दी की स्थिति क्या है, यह जग जाहिर है।
    रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
      सम्पादक

5.  बेहतरीन प्रयास !
      प्रियंका कुमारी  

     लीना मेहंदले

7. केन्द्रीय हिन्दी समिति की यह बैठक संभवत: एक दशक बाद हुई है. इसके लिए प्रधान मंत्री जी तथा गृह मंत्री जी धन्यवाद के पात्र हैं. इस अवसर पर रखे गए प्रस्ताव भी बहुत जरूरी हैं. डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी जी द्वारा रखे गए प्रस्ताव तो बहुत ही उपयोगी हैं. मेरी दृष्टि में यू.पी.एस.सी  से लेकर एस.एस.सी. तक की सरकारी नौकरियों में अंग्रेजी के वर्चस्व पर अंकुश लगना चाहिए और हिन्दी को महत्व मिलना चाहिेए. इसके अतिरिक्त उच्चतम न्यायालय में अंग्रेजी के साथ साथ हिन्दी और सभी उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के साथ साथ उन राज्यों की राजभाषाओं के प्रयोग की अनुमति मिलनी चाहिए. हिन्दी समिति के सदस्यों से हमारा आग्रह है कि उन्हें जब भी अवसर मिले वे इन प्रस्तावों की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करने की अवश्य कोशिश करें.
हिन्दी समिति  के सभी सदस्यों को बधाई और सार्थक चर्चा के लिेए साधुवाद.
     अमरनाथ

8. आप सभी विद्वजन यह भली-भांति जानते हैं कि भारत सरकार के सभी मंत्रालयों में जितना भी कार्य राजभाषा हिंदी में हो रहा है उसका 90 फीसदी कार्य उन मंत्रालयों में कार्यरत राजभाषा हिंदी के कर्मियों द्वारा किया जा रहा है। अगर मंत्रालय स्तर पर राजभाषा हिंदी में ढ़ंग से कार्य नहीं हो रहा है तो उसके पीछे दो मुख्य कारण है। पहला-मंत्रालयों में कार्यरत वरिष्ठ अधिकारीगण शिद्दत से न तो हिंदी में कार्य करते हैं और न ही कार्य करने देते हैं।दूसरा-केंद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा संवर्ग (CSOLS) के कुल स्वीकृति 1010 पदों में से आज की तारीख में 372 पद खाली पड़े हुए हैं जिनका विवरण इस प्रकार है:

1-निदेशक कुल पद 18, रिक्त 14;
2-संयुक्त निदेशक कुल पद 36, रिक्त 02;
3-उप निदेशक कुल पद 85, रिक्त 81;
4-सहायक निदेशक कुल पद 203, रिक्त 83
5-वरिष्ठ अनुवादक कुल पद 318, रिक्त 72 और
6-कनिष्ठ अनुवादक कुल पद 350, रिक्त 121।

केंद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा संवर्ग एसोसिएशन, प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, गृह राज्य मंत्री और राजभाषा सचिव से पिछले 5 साल से इन पदों को भरने का अनुरोध कर रही है लेकिन राजभाषा विभाग की नकारात्मक कार्यप्रणाली और नौकरशाहों के कारण हमारे सारे प्रयास निष्फ़ल हो गए हैं। 

इसके परिणामस्वरूप केंद्र सरकार के मंत्रालयों और उनके अधीनस्थ, संबद्ध कार्यालयों, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों, बोर्डों, स्वायत्त निकायों, निगमों, परिषदों आदि में केंद्र सरकार की राजभाषा नीति, राजभाषा हिंदी की कार्यान्वयन स्थिति, उसकी मॉनिटरिंग दिनोंदिन बदतर होती जा रही है।

राजभाषा विभाग किसी की नहीं सुनता। जिस विभाग का मूल दायित्व ही राजभाषा हिंदी को बढ़ावा देना है, वही विभाग राजभाषा हिंदी और उसके कार्यान्वयन करने वाले को हतोत्साहित करता हो, तो क्या किया जा सकता है। 
जय हिंद, जय हिंदी।
 मोहनलाल मीणा

9. प्रो.कृष्ण कुमार जी गोस्वामी द्वारा केन्द्रीय हिन्दी समिति की बैठक में दिये गये सुझाव सभी भारतीय भाषाओं के हित में हैं। अतः इन्हें बिना देरी लागू किया जाना चाहिए। आश्वासन, वादें, दावे बहुत हो चुके हैं, अब केवल क्रियान्वयन की प्रतीक्षा है। आशा है प्रधानमंत्री जी हिंदी सेवी प्रो.गोस्वामी जी को दिये गये आश्वासन को पूरा कर राष्ट्रीय एकता और भारतीय ज्ञान परम्परा को सुदृढ़ करने वाले इस यज्ञ का शंखनाद करेंगे।
डा. विनोद बब्बर (राष्ट्र किंकर)
संपर्क-    88009630219868211911 , 1vinodbabbar@gmail.com

10 मैंने तो मित्रों और हिन्दी प्रेमियों के आग्रह पर परिश्रम किया है और मीटिंग का विवरण भेज दिया। ओफिशियल रिपोर्ट आने के बाद क्या होता है, यह राजभाषा विभाग ही बता पाएगा, जवाहर कर्नावैट जी। मैं तो गैर-सरकारी सदस्य था और मैंने अपने विचार जोरदार शब्दों में रखे थे।   
    प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी

11. केंद्रीय हिंदी समिति में प्रस्तुत सुझावों पर सरकार कितना कुछ कर पाती है, यह अभी कहा नहीं जा सकता । इतने लंबं अर्से बाद  प्रधानमंत्री जी ने केंद्रीय हिंदी समिति की बैठक के लिए समय निकाला, बैठक हुई और सरकार के उच्चतम स्तर पर हिंदी के संबंध में विचार-विमर्श हुआ यह भी महत्वपूर्ण है। जहाँ तक केंद्रीय हिंदी समिति के एक सदस्य के रूप में मा. कृष्ण कुमार गोस्वामीजी के योगदान का प्रश्न है, उन्होंने  इस उम्र में भी इस बैठक के लिए इतनी तैयारी की और अनेक हिंदी सेवियों और विद्वानों से चर्चा के पश्चात एक-एक कर तमाम बिंदुओं को  पहले तैयार  करके राजभाषा विभाग को भेजा और फिर सिमिति की बैठक में मा, प्रधानमंत्रीजी के सामने पुरजोर ढंग से रखा,  इसकी हमें सराहना करनी चाहिए। कितने लोग हैं जो इतनी मेहनत करते हैं। कमी निकालने में तो कुछ नहीं लगता लेकिऩ करने में बहुत मेहनत लगती है । सुझावों पर सरकार कितना कर पाती है या नहीं कर पाती उसके लिए तो मा. गोस्वामी जी जिम्मेदार नहीं। उऩ्होंने इस बैठक में सर्वाधिक सक्रिय भूमिका निभाई, इसके लिए  मैं मा. गोस्वामी जी को सादर धन्यवाद देता हूँ ।  हम आशा करते हैं कि सरकार बैठक में प्रस्तुत सुझावों पर सकारात्मक रुख अपनाते हुए आवश्यक कार्रवाई करेगी । और फिर यदि कुछ नहीं होता तो हमें अपना आवाज उठानी चाहिए ।

डॉ. एम.एल. गुप्ता  'आदित्य'
झिलमिल
तथ्य भारती सितंबर 2018 का लिंक



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