गुरुवार, 28 जनवरी 2021

[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] गणतंत्र दिवस पर करें विचार ! - जन – गण- मन की भाषा.. - डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’। झिलमिल में - मैं रहूं या ना रहूं, भारत ये रहना चाहिए

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गणतंत्र दिवस पर करें विचार !

जन – गण - मन  की भाषा..   

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- डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’

 

आज समग्र राष्ट्र गणतंत्र दिवस मना रहा है। गण का अर्थ है समूह। भारत की शासन व्यवस्था जनतांत्रिक है। लेकिन जनता सीधे शासन नहीं करती बल्कि उसके चुने हुए प्रतिनिधिगण संविधान के अनुसार शासन करते हैं। 26 जनवरी 1950, आज ही के दिन भारत का संविधान लागू हुआ था। इसलिए प्रतिवर्ष देश गणतंत्र दिवस मनाता है। यही वह अवसर है जिस पर हमें विचार करना चाहिए कि हमने इस दिन जिस राह पर चलने का निश्चय किया था,  हम उस राह पर चल रहे हैं या नहीं ? जहां पहुंचना चाहते थे वह पहुंचे हैं या नहीं ?

 

जहां तक भाषा का प्रश्न है स्वतंत्रता सेनानियों की प्रबल भावनाजनतंत्र और संविधान की अपेक्षा तो यही थी कि देश की व्यवस्था जन गण मन की भाषा में हो ताकि जन गण मन की भावनाओंआवश्यकताओं और अपेक्षाओं के अनुसार देश की व्यवस्था चल सके। आज गणतंत्र दिवस के अवसर पर इस पर विचार किए जाने की आवश्यकता है। हमें वस्तुस्थिति को समझना होगा कि स्वतंत्रता से अब तक जन-मन की भाषाएँ यानी भारतीय भाषाएँ  कहां से कहां पहुंची हैं और हम किस ओर बढ़ रहे हैं।  भारतीय भाषाओं का प्रयोग बढ़ रहा है या घट रहा है इसको लेकर कथित आशावादियों और यथार्थवादियों के बीच प्रायः वाद विवाद होता ही रहता है।

 

एक शक्तिशाली अंग्रेजीदां वह वर्ग है जो अंग्रेजी को आज की प्रमुख आवश्यकता मानता है और भारतीय भाषाओं के अंग्रेजीकरण पर इस हद तक आमादा है कि वह इन भाषाओं के चलते-फिरते हर शब्द को अंग्रेजी से बदलने के लिए पूरी शक्ति झोंके हुए है। इस मामले में सबसे चिंताजनक स्थिति तो हिंदी की है।  हिंदी का मीडिया, सिनेमा जगत और विज्ञापन जगत प्रमुख है।  इस क्षेत्र में जिस प्रकार अंग्रेजीदां वर्ग का दबदबा बढ़ा है  उससे स्थिति निरंतर बिगड़ती जा रही है। अपने को आधुनिक, अतिशिक्षित और प्रगतिशील दिखाने की फिराक में लगे मीडियाकर्मी अपनी भाषा से ज्यादा अपने अंग्रेजी ज्ञान को बघारते दिखते हैं।   एक ऐसा भी बड़ा वर्ग है जो यह तो जानता और मानता है कि हमारी भाषाओं की बुनियाद हर क्षेत्र से खिसक रही है लेकिन वह पूरी तरह  असहाय होने की मुद्रा बनाकर कुछ भी करने को तैयार नहीं है।  इस वर्ग का मानना है कि जब कुछ होना ही नहीं है तो क्यों कुछ किया जाए। हिंदी के विद्वानों और साहित्यकारों द्वारा हिंदी को साहित्य और मनोरंजन तक सीमित करने के चलते  देश के ज्यादातर लोगों की यह धारणा बन चुकी है कि हिंदी भाषा के प्रचार का मतलब केवल कहानी, कविता और मनोरंजन ।  इसीके चलते देश के ज्यादातर लोग ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा और रोजगार आदि में  भारतीय भाषाओं के प्रयोग या माध्यम की बात को केवल एक बचकाना शगूफा समझने लगे हैं। व्यवस्था में भाषाओं के प्रयोग को बढ़ाने के बजाए  कहानी – कविता, नृत्य- नाटक गीत -संगीत आदि तक और कार्मिकों की रुचि पुरस्कार आदि तक सिमट कर रह गई है । तमाम सरकारी आदेशों के बावजूद हिंदी पखवाड़ों आदि के माध्यम से व्यवस्था में हिंदी को बढ़ाने की बात धीरे - धीरे गौण होती जा रही है।

 

 लेकिन स्वतंत्रता से लेकर अब तक देश में हिंदी का प्रसार हुआ है या संकुचन ? यदि कुछ बिंदुओं को लेकर ही आकलन करें तो कुछ ही समय में स्थिति स्पष्ट होने लगती है। स्वतंत्रता के समय ही नहीं स्वतंत्रता के दो तीन दशक बाद तक भी देश में हिंदी भाषी क्षेत्रों में ज्यादातर लोग हिंदी में ही पढ़ाई करते थे और अन्य राज्यों में वहां की स्थानीय भाषाओं में। राजभाषा आयोग की उन्नीस सौ छप्पन की रिपोर्ट को ही देखें तो पूरे देश में अंग्रेजी जानने वालों का प्रतिशत सर्वाधिक तमिलनाडु में था जो कि कुल आबादी का लगभग 1%था । इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि पूरे देश में 1951 तक  अंग्रेजी जानने वालों का प्रतिशत कितना कम रहा होगा।अच्छी अंग्रेजी  जानने वालों या अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले तो कुछ अत्यधिक संपन्न वर्ग के लोग ही थे जिनका सत्ता में खासा दखल था। सामान्य जन तो मातृभाषा में ही पढ़ता था। राज्यभाषा ते साथ-साथ राष्ट्रभाषा का सम्मान देते हुए देशवासी राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से हिंदी भी पढ़ते थे। यह जान कर आश्चर्य होगा कि वह तमिलनाडू जहाँ कहा जाता है कि हिंदी का विरोध है वहाँ  उस समय हिंदी ऐच्छिक विषय होने पर भी 1952-53 में 78.6% तथा 1953-54 में 82 % लोग स्वेच्छा से हिंदी पढ़ते थे ।

 

1अगस्त 1947 को भारत स्वाधीन हुआजनतंत्र की भी स्थापना हुई  लेकिन शासन-प्रशासन, वित्तीय व्यवस्था, न्याय व्यवस्था व शिक्षा व्यवस्था पर आज भी अंग्रेजी का आधिपत्य है। जब व्यवस्था नहीं बदली तो व्यवस्था की भाषा कैसे बदलती ?  पीछे देखो, आगे लिखो की नीति पर चलते पूरी व्यवस्था में अंग्रेजी अपने पांव पसारती गई। निजी क्षेत्र हो या सरकारी क्षेत्र लगभग सभी जगह यही मानसिकता काम करती रही है। अब भारत में यह एक अलिखित निर्विवाद सत्य बन गया है कि भारत में बिना अंग्रेजी के तो आप कुछ नहीं कर पाएंगे, कुछ नहीं कर सकते और कहीं नहीं पहुंच सकते।  इसका कारण स्पष्ट है कि देश की व्यवस्था में जनभाषाओं को वह स्थान नहीं मिल सका जिसकी अपेक्षा संविधान निर्माताओं ने की थी।

 

व्यवस्था में जनभाषा के स्थान पर अंग्रेजी के प्रभाव के बढ़ने के चलते आज  महानगरों की लगभग पूरी आबादी अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने लगी है। यह रुझान बहुत ही तेजी से छोटे नगरों, कस्बा से होते होते गांवों तक पहुंच चुका है।  छोटे छोटे कस्बों और गावों तक में जाने - अनजाने अंग्रेजी के नाम पर खुलने वाले अधकचरे स्कूल हमारे देश के नौनिहालों को अंग्रेजी रटवा कर राष्ट्रीय के बजाए सीधे सीधे अंतर्राष्ट्रीय बनाने में लगे हुए हैं। हर कोई समझने के बजाए रटने की दौड़ में लगा है। सरकारी स्कूल जहां हिंदी माध्यम से पढ़ाई होती भी है, उनकी हालत इतनी खस्ता है कि वहां पढ़ाई का कोई माहौल ही नहीं दिखता । दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि उसमें उस वर्ग के बच्चे जाते हैं जहाँ प्राय: पढ़ने का कोई विशेष माहौल या रुझान होता नहीं है धीरे-धीरे ये स्कूल देश के विकास में अपनी भूमिका खत्म करते जा रहे हैं । जबकि ऐसे ही स्कूलों से एक समय देश के बड़े - बड़े विद्वान और वैज्ञानिक निकलते थे।

 

लोग अक्सर जनभाषा प्रेमियों को यह दोष देते आए हैं कि जब वे अपनी भाषा के समर्थक हैं तो वे अपने बच्चों को मातृभाषा-माध्यम में क्यों नहीं पढ़ाते?  लेकिन वे ऐसा कहते हुए यह भूल जाते हैं कि जब प्रगति के हर क्षेत्र में  केवल अंग्रेजी के मार्ग बनाए जाएँगे तो जन-भाषा वाले कहाँ से जाएँगे ? आप विकास के लिए अंग्रेजी की सड़क और पटरियाँ हनाएँगे और जनभाषा की राह में कांटे बिछाएँगे तो जनभाषा - प्रेमियों के पास विकल्प ही कहाँ बचता है ?  आप ही रास्ते बंद करें और आप ही दोष दें, यह तो चालबाजी है ।

 

जब शिक्षा, रोजगार, व्यापार, सुचना व्यवस्था सहित सभी अवसरों और संसाधनों की ढलान अंग्रेजी की ओर बनती रहे तो अपने बच्चों का भविष्य दांव पर लगाएँ ? दूसरी ओर लोग अंग्रेजी की पटरी से सबसे आगे निकल जाएँ। हिंदी के प्रसार के सभी प्रश्नों के उत्तर उच्च  शिक्षा – रोजगार और व्यवस्था की भाषा में निहित हैं । इनके बिना किए गए प्रयास औपचारिकता पूरी करने तक तो ठीक हैं, लेकिन कभी सफल नहीं हो सकते , कुछ सफल होंगे भी तो टिकेंगे नहीं । मुंबई में आयोजित वैश्विक हिंदी सम्मेलन- 2014 में मुख्य अतिथि पद से बोलते हुए इस संबंध में गोवा की तत्कालीन राज्यपाल स्व. श्रीमती मृदुला सिन्हा का यह कथन सबसे सटीक है – ‘हिंदी को हृदय के साथ-साथ पेट की भाषा बनाना भी आवश्यक है।‘  अर्थतंत्र से कट कर हिंदी या किसी भी भाषा का प्रयोग व प्रसार बढ़ाने के प्रयास सार्थक नहीं हो सकते । इसलिए सबसे आवश्यक है व्यवस्था की पटरी हिंदी व राज्यों की भाषाओं में समानान्तर रूप से इस प्रकार से बिछाई जाए कि शिक्षातंत्र के डिब्बों की सवारी करते हुए देश के युवा रोजगार के हर लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। यदि रोजगार की व्यवस्था न हुई तो हिंदी या किसी भी भाषा में की गई व्यवस्था के तैयार डिब्बे भी खाली ही रहेंगे , उनमें कोई बैठेगा नहीं । यदि रोजगार मिले तो तमाम व्यवस्थाएँ अपने आप निर्मित हो जाएँगी। माँग – पूर्ति के सिद्धांत के चलते और अर्थतंत्र की व्यवस्था से निजी क्षेत्र सभी व्यवस्थाएँ स्वयं कर लेगा।

 

उच्च शिक्षा और रोजगार के साथ-साथ देश की व्यवस्था में यदि उन छिद्रों की बात की जाए जिनसे तमाम प्रयासों का जल बह जाता है और हासिल कुछ नहीं होता तो उनमें कुछ महत्वपूर्ण बिंदू  निम्नलिखित हैं :-

 

विधि और न्याय व्यवस्था : भारत की व्यवस्था में नीचे  से ऊपर तक विधि निर्माण से लेकर न्याय व कानूनी प्रक्रियाओं के पालन में अंग्रेजी के माध्यम से कहीं कोई रुकावट नहीं जबकि जनभाषाके लिए हर कदम पर समस्याएं हैं । कहीं पटरी ही नहीं है अगर है भी तो टूटी-फूटी। उच्च न्यायालय स्तर पर तो भारतीय भाषाओं के प्रयोग की अनुमति कहीं-कहीं ही है। और उच्चतम न्यायालय  में तो है ही नहीं। इस स्थिति के चलते विधि शिक्षा से लेकर सब कुछ ज्यादातर अंग्रेजी में ही चलता है। इसीलिए विधि विशेषज्ञ और वकील आदि भी अंग्रेजी में ही कार्य करते हैं । हर कार्य, कहीं न कहीं विधि व्यवस्था से संबंधित होता है । फिर अंग्रेजी की पूर्व परंपरा और सुविधा की पटरी के चलते चाहे – अनचाहे  जनभाषा-प्रेमी भी उसे अंग्रेजी में करने को विवश होते हैं। इसीके परिणामस्वरूप निजी और सरकारी क्षेत्र में अंग्रेजी का बोलबाला है। ऐसे कितने वकील है जो अंग्रेजी ठीक से न जानते हुए भी अपनी वकालत की गाड़ी जैसे – तैसे अंग्रेजी में खींचते हैं और आम आदमी तो आँख बंद करते बिना सोचे – समझे हस्ताक्षर करने को अभिशप्त है।

 

सूचना की भाषा नियत करना : - भारत सरकार के और राज्यों के कानूनों में बड़ी संख्या में ऐसे प्रावधान हैं जिनमें एक से दूसरे को सूचना देना कानूनन अनिवार्य है –जैसे –कंपनी अधिनियम में कंपनी की ओर से शेयरधारक को , ग्राहक कानूनों में उत्पाद या सेवा प्रदाता द्वारा ग्राहक को , बीमा कंपनी द्वारा बीमाधारक को जानकारी दी जानी आवश्यक है । यह उनका कानूनी अधिकार है। लेकिन ये सूचनाएं प्राय: अंग्रेजी में दी जाती हैं । इससे कानून के पालन की औपचारिकता तो पूरी होती है लेकिन अंग्रेजी न जानने वाले या ठीक से न समझनेवाले  देश के 95% या उससे ज्यादा लोग विधि द्वारा उन्हें प्राप्त अधिकारों से वंचित रहते हैं क्योंकि भारत में प्राय

: कोई ऐसा प्रावधान नहीं कि विभिन्न कानूनों के अंतर्गत जनता को सूचना जनभाषा में यानी देश की और राज्य की भाषा में दी जाए।  यदि हमारे देश में भी विभिन्न कानूनों के अंतर्गत दी जाने वाली जानकारी व सूचनाएँ संघ व राज्य का भाषा में दी जाए तो जनता को उसके कानूनी अधिकार तो मिलेंगे ही, जनभाषा के प्रयोग व प्रसार में तीव्र गति से प्रगति होगी।

 

हिंदी संघ की राष्ट्रभाषा नहीं, राजभाषा है यानी सरकारी भाषा है । इसी प्रकार राज्यों में भी राज्यों की भाषाएँ वहाँ  की राजभाषाएँ हैं। इनके  प्रावधान सरकारी कार्यालयों तक सीमित हैं। जिसके कारण राजभाषा संबंधी प्रावधानों का प्रभाव निजी क्षेत्र पर नहीं है। इसका परिणाम यह कि सरकारी कार्यालयों को छोड़कर किसी के लिए जनभाषा का प्रयोग आवश्यक नहीं है । सरकारी बैंक है तो उसे हिंदी का प्रयोग करना है, गैरसरकारी है तो कोई आवश्यकता नहीं।  सभी क्षेत्रों में यही स्थिति है । अगर ये प्रावधान  जनतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप  जनहित को ध्यान में रख कर जनभाषा के प्रयोग की दृष्टि से बनाए गए हैं तो इनका प्रभाव निजी क्षेत्र पर क्यों नहीं होना चाहिए ।  जनता तो तो अपनी भाषा में सूचना और सुविधा चाहिए , सरकारी हो या गैर सरकारी ।  इसलिए यह आवश्यक है कि हिंदी को संघ की राजभाषा के सीमित दायरे से निकाल कर राष्ट्रभाषा का दर्जा देते हुए हिंदी के प्रयोग को निजी क्षेत्र पर भी लागू किया जाना चाहिए । यही व्यवस्था राज्यों में भी होनी चाहिए, वे राजभाषाएँ नहीं राज्य-भाषाएं होनी चाहिए ।

 

आज सभी सेवाएँ धीरे –धीरे कागज से हटकर डिजिटल व्यवस्था के अनुसार ऑन लाइन होती जा रही हैं । इसी प्रकार स्थानीय प्रशासन से ले कर राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न व्यवस्थाएं ई – प्रशासन( ई- गवर्नेंस) से जुड़ रही हैं जिनसे न केवल पारदर्शिता  बढ़ती है बल्कि व्यवस्था भी अपेक्षाकृत चुस्त-दुरुस्त होती है । लेकिन समस्या यह है कि ऑन लाइन सेवाएँ और ई गवर्नेंस प्राय: अंग्रेजी  में होने के चलते इंग्लिश गवर्नेंस  बनता जा रहा है । अगर ये व्यवस्थाएँ जनता के लिए हैं तो जनभाषा में यानी संघ और राज्यों की भाषा में होनी चाहिए । इन प्रणालियों में जनभाषा में सूचनाओं और निर्बाध कार्य करने की व्यवस्था से ही ये जन-उपयोगी होंगी और अर्थतंत्र में भी जनभागीदारी बढ़ेगी। अगर एक पंक्ति में कहें तो बात यह कि देश की जनता के सभी काम उनकी भाषा में सधने ताहिए, राष्ट्र की भाषा और राज्य के स्तर पर राज्य की भाषा। वैश्विक स्तर पर वैश्विक भाषाओं का प्रयोग भी स्वभाविक है।

 

नई शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा तथा भारतीय भाषाओं के शिक्षण के प्रावधान अब जन-मन में आशा जगा रहे हैं।  भारत सरकार केंद्रीय स्तर पर उच्च तकनीकी व प्रबंधन शिक्षण संस्थानों में भी हिंदी शिक्षण की व्यवस्था कर रही है। इनके परिणाम कितने परिणामजनक होंगे यह तो भविष्य बताएगा। लेकिन यह आवश्यक है कि शिक्षा के साथ-साथ रोजगार और व्यवस्था में भी जनभाषा को उचित स्थान दिया जाए। तभी जन गण मन... का सपना साकार हो सकेगा। 

जय हिंद, जय हिंद की भाषा ! 


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सिलसिला ये बाद मेरे, यूँ ही चलना चाहिए, 
मैं रहूं या ना रहूं, भारत ये रहना चाहिए । 

वैश्विक हिंदी सम्मेलन

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प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारकाविश्व वात्सल्य मंच

murarkasampatdevii@gmail.com  

लेखिका यात्रा विवरण

मीडिया प्रभारी

हैदराबाद

मो.: 09703982136

[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] आधुनिक काव्य की बढ़ती गद्यात्मकता - कुछ विचार - डॉ. वरुण कुमार, निदेशक केंद्रीय हिंदी प्रशिक्षण संस्थान,, नई दिल्ली

 

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आधुनिक काव्य की बढ़ती गद्यात्मकता - कुछ विचार
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          डॉ. वरुण कुमार

मृदु मंद मंद मंथर मंथर

लघु तरणि हंसिनी-सी सुंदर

तिर रही खोल पालों के पर

                ------------------------------          (पंत)

हम नदी के द्वीप हैं

हम नहीं कहते

कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए    (अज्ञेय)

-------------------------------------------

शहर के पेशाबघरों और अन्य लोकप्रिय जगहों में/उन गुमशुदा लोगों की तलाश के पोस्टर अब भी चिपके दिखते हैं / जो कई बरस पहले दस ग्यारह साल की उम्र में बिना बताए घरों से निकले थे / पोस्टरों के अनुसार उनका कद मँझोला है / रंग गोरा नहीं गेहुआँ या साँवला है हवाई चप्पल पहने है / चेहरे पर किसी चोट का निशान है और उनकी माँएँ उनके बगैर रोती रहती हैं / पोस्टरों के अंत में यह भी आश्वासन रहता है / कि लापता की खबर देनेवाले को दिया जाएगा / यथासंभव उचित इनाम।                            (मंगलेश डबराल)


प्रथम उद्धरण कविता की छंदबद्धतालयात्मकतासंगीतात्मकता का सुन्दर उदाहरण है। दूसरा उद्धरण मुक्त छंद में है और उसमें वाक्य गद्य जैसे हैं लेकिन लय का प्रवाह और बहाव उसमें मौजूद है। गद्यवत होने के बावजूद यह सीधा अभिधेय कथन नहीं होकर प्रतीक है - नदी का द्वीप मानवीय अस्तित्व का रूपक बनकर उभरा है। किंतु तीसरा उदाहरणछंद की बात तो छोड़ ही देंइसमें न लय है न संगीतात्मकतान संक्षिप्ततान ही किसी प्रकार की प्रतीकात्मकता। ऐसा नहीं कि लयया संगीतात्मकताया प्रतीकात्मक कविता के आवश्यक गुण हों किंतु यह निर्मिति अगर कविता है तो इसकी योग्यता किन तर्कों पर हासिल करती है।  


     आज जबकि कविता का रूप निरंतर गद्य जैसा होता जा रहा है और कविता और गद्य के बीच की सीमारेखा निरंतर धुंधली होती जा रही है यह समयानुकूल होगा कि हम इन दोनों की मूल प्रकृति पर विचार करें और पुनः उनके विधागत अंतर को परिभाषित करने का प्रयास करें। इससे हमें यह भी आकलन करने में मदद मिल सकती है कि आज कविता पाठक की अपेक्षाओं को पूरा करने में पीछे तो नहीं छूट रही है और अगर ऐसा है तो वह कवि की प्रतिभा या क्षमता या सजगता में कमी का परिणाम है या पाठक के प्रशिक्षण और रुचि.संस्कार में कमी कायह अध्ययन विशेषतः विषय या सामग्री’ की अपेक्षा उसके रूपायन (फार्म) से अधिक संबंधित होगा क्योंकि कोई भी अनुभव अपने आप में विधाविशिष्ट नहीं होता। 


एक पाठक की कविता की पहचान सामान्यतः जिस चीज से शुरू होती है वह है छंद। छंद में बंधी रचना कविता होती है ऐसी समझ हमें बचपन से ही प्राप्त होती है। किसी भी भाषा में पहले पद्य रचना छंद में ही होती है। गद्य के साथ उसके अंतर को प्रथमतया छंद के आधार पर ही परिभाषित किया जाता है। छंद से मुक्त कविता आधुनिक युग की देन है। छंद से मुक्ति एक बहुत बड़ी आवश्यकता थी, जिसे हिंदी कविता में पहले पहल निराला ने शुरू किया और अपने समय का प्रचंड विरोध झेला। छंद से शब्द चयन की स्वतंत्रता बाधित हो रही थी, अर्थ की अनुकूलता के ऊपर छंद की अनुकूलता को तरजीह देनी पड़ती थी। इस आवश्यकता में कभी कभी कवि को पूरा बिम्ब ही बदल देना पड़ता था। छंद मूलतः संरचना हैपैटर्न हैढाँचा है। छंदोबद्ध कविता में संरचना की मांग ही इतनी प्रबल हो जाती है कि कभी-कभी कवि को उसका मूल्य कथ्य की गुणवत्ता से चुकाना पड़ता है।


छंद की शक्ति है - लय। लय कविता में विशेष प्रभाव की सृष्टि करता है। पाठक के मन पर वह जो प्रभाव छोड़ता है उसमें एक स्थायित्व होता है और इस कारण वह पंक्ति स्मरणीय और उद्धरणीय बन जाती है। ऊपर पंत की नौका विहार’ के उद्धरण में जो सौन्दर्य है (और जिस कारण वह स्मरणीय है) उसके लिए उत्तरदायी हैं उसका छंद जो नदी की मंद धारा में बहती नौका की लय का अनुकरण करता हैउसकी सांगीतिकता जो अनुप्रासों और कोमल अल्पप्राण घ्वनियाँम ल न ण आदि सांगीतिक ध्वनियोँऔर तुक से उपजी है। लयात्मकता संगीतात्मकता आदि को हम कविता के गुणों के रूप में ही देखते हैं। किंतु यही विशेषता उसे बोलचाल की सामान्य लय से दूर ले जाती है। छंद की लय विशिष्ट है, अतः कृत्रिम है। जो कवि यथार्थ को व्यक्त करने की आवश्यकता में अपने कथ्य के अनुरूप बोलचाल के सामान्य लय का भी अनुकरण करना चाहता है उसके लिए छंद की अपनी विशिष्ट लय बाधक होती है। पंत ने रीतिकाल की आलोचना के क्रम में तबके अत्यंत प्रचलित सवैया छंद की आलोचना इसी आधार पर की थी। सवैया वार्णिक छन्द है और इसके वाचन में दीर्घ या ह्रस्व स्वरों का निर्वाह नहीं हो पाता है। सभी वर्ण एक ही समयावधि में अँटाकर पढ़े जाते हैं। फलतः यह जिस लय का निर्माण करता है वह बोली जानेवाली ब्रजभाषा के समक्ष अत्यंत अस्वाभाविक लगता है। नियमित संरचना भी कथ्य को विशिष्टता प्रदान करती है।  इससे उसके प्रभाव में भी तीव्रता आ जाती हैएक पैटर्न में बंधे होने के कारण वह स्मृति में टिकने की क्षमता भी पा लेता है। लोकोक्तियों का प्रभाव बहुत कुछ उनकी संरचना के कारण भी है -

1. नीम हकीम खतरे जान  2. नीम हकीम से जान का खतरा होता है।

दोनों कथन एक ही बात कहते हैं लेकिन जहाँ पहला बराबर वजन की दो समानान्तर संरचनाओं (नीम हकीम और खतरे जान  दोनों में 7-7 मात्राएँ) और अनुप्रास की नियमितता के कारण चुटीला और विशिष्ट एवं काव्यात्मक बन जाता है वहीं दूसरा महज एक सामान्य कथन बनकर रह जाता है। दूसरा कथन केवल एक प्रेक्षण (observation) भर प्रतीत होता है पहला कथन उससे आगे बढ़कर अवधारणा की तरह। (कोई प्रश्न कर सकता है नीम हकीम खतरे जान’ क्या होता है?’  यही प्रश्न दूसरे कथन को लेकर नहीं बनता) समानान्तर संरचना इस लोकोक्ति की न केवल प्रभाव क्षमता में वृद्धि करती है बल्कि इसे उद्धरणीय भी बनाती है।

छंद की अपेक्षा लय कहीं बुनियादी चीज है। छंद के बिना भी संरचना में नियमितता और आवृत्ति के तत्व अभिव्यक्ति को लयात्मक बनाते हैं। छंद से मुक्ति का अर्थ लय से मुक्ति नहीं है। निराला की कविताएँ छंदमुक्त भले ही होंलय से रहित नहीं हैं। उनमें पूर्वप्रचलित छंद भले नहीं हैं मगर नियमितता और सममिति पूरी तरह मौजूद है। निम्न पंक्तियों को देखें -

वह तोड़ती पत्थर / मैंने उसे देखा इलाहाबाद के पथ पर

दूसरी पंक्ति पहली की अपेक्षा बहुत लम्बी होकर भी पहली के पैटर्न का ही विस्तार है। अगर इसे तबले के बोल से मिलाकर देखें तो यह तथ्य एकदम स्पष्ट हो जाता है –

    वह तोड़ती       पत्थर        मैंने उसे           देखा इलाहाबाद के        पथ पर 

ता थेई तथेइ        ता थेइ        ता थेइ तथेइ           ता थेइ तथेइ           ता थेइ 

रबड़ छंद या केंचुआ छंद कहकर तत्कालीन आलोचकों ने जो उसका मजाक उड़ाया था वह उनकी सममिति की कमजोर समझ का परिचायक था। मुक्त छंद में होकर भी छायावादी दौर की कविताएँ लय से मुक्त नहीं थीं। लय के निर्वाह की प्रवृत्ति प्रयोगवादी दौर तक भी विद्यमान रही। किंतु आज की कविता में लय भी अत्यंत क्षीणनहीं के बराबर हो गया है। लेख के आरंभ में दिया गया तीसरा उद्धरण ऐसा ही है। उसे बिना पंक्तिभंग किए लगातार लिखा जाए तो वह गद्य ही प्रतीत होगा:

शहर के पेशाबघरों और अन्य लोकप्रिय जगहों में उन गुमशुदा लोगों की तलाश के पोस्टर अब भी चिपके दिखते हैं जो कई बरस पहले दस ग्यारह साल की उम्र में बिना बताए घरों से निकले थे। पोस्टरों के अनुसार उनका कद मँझोला हैरंग गोरा नहीं गेहुआँ या साँवला हैहवाई चप्पल पहने हैचेहरे पर किसी चोट का निशान हैऔर उनकी माँएँ उनके बगैर रोती रहती हैं। पोस्टरों के अंत में यह भी आश्वासन रहता है कि लापता की खबर देनेवाले को दिया जाएगा यथासंभव उचित इनाम।

यह किसी कहानी या वर्णन का अंश प्रतीत होता है जिसमें काव्यात्मक’ कहने लायक कुछ है तो सिर्फ अंतिम पंक्ति जिसका विपर्यय (inversion) सीधा करके अगर खबर देनेवाले को उचित इनाम दिया जाएगा’ कर दिया जाए तो फिर इसके कविता होने की कोई प्रतीति नहीं रह जाती।

     कविता में पंक्तिभंग का एक तर्क होता हैजो छंदबद्ध कविता में छंद की मांग से और छंदमुक्त कविता में लय एवं अर्थ की मांग से निर्देशित होता है। डबराल के उद्धृत अंश में वाक्य को सूचनाखण्डों में विभाजित करते हुए पंक्तिभंग किया गया हैजो व्याकरणिक दृष्टि से पदबंध या उपवाक्य हैं। यह अर्थ के आधार पर विभाजन का सबसे स्वाभाविक आधार है। यह विभाजन उस नियमितता को सहारा देता है जो किसी हद तक उक्त काव्यांश के अर्थ और संरचना में मौजूद हैजिस कारण उसमें हल्की सी लयात्मकता भी है:

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कोष्ठक में दर्शाई गई किंचित् समानांतर संरचनाओं के अतिरिक्त भी इसमें और बड़े स्तर पर नियमितता है। चौथी पंक्ति (जो कई बरस पहले ..) से लेकर दसवीं पंक्ति (चेहरे पर किसी चोट...) लगातार गुमशुदा लोग’ को विशेषित करने वाले परवर्ती विशेषकों (post modifiers) की श्रृंखला है जिसमें सिर्फ एक व्यतिक्रम है: पोस्टरों के अनुसार। इस व्यतिक्रम की प्रकृति भी विशेषक की-सी हैयहाँ यह क्रियाविशेषण पदबंध है। इन समानांतर संरचनाओं के कारण इसमें हल्की सी लय है।

लेकिन क्या अपने अर्थ में भी उक्त उद्धरण गद्य की अपेक्षा कोई वैशिष्ट्य रखता हैइसके लिए उपयुक्त होगा कि हम देखें कि पूरी कविता में क्या बात कही गई हैं। उद्धृत अंश के बाद बाकी अंश इस प्रकार हैं -

तब भी वे किसी की पहचान में नहीं आते पोस्टरों में छपी धुधली तस्वीरों से उनका हुलिया नही मिलता उनकी शुरुआती उदासी पर अब तकलीफें झेलने की ताब है शहर के मौसम के हिसाब से बदलते गए हैं उनके चेहरेकम खाते कम सोते कम बोलते लगातार अपने पते बदलते सरल और कठिन दिनों को एक जैसा बिताते अब वे एक दूसरी ही दुनियाँ में हैं कुछ कुतूहल के साथ अपनी गुमशुदगी के पोस्टर देखते हुए जिन्हें उनके परेशान माता पिता जब तब छपवाते रहते हैं जिनमें अब भी दस या बारह लिखी होती है उनकी उम्र। 

गुमशुदा लोग’ जैसा कि शीर्षक से ही प्रतीत होता हैएक प्रतीक के रूप में आया है। अपने अतीत सेस्मृतियों सेमानवीय संबंधों से दूर जा चुके व्यक्ति का जो धीरे धीरे इतना बदल चुका है कि अपने खो जाने को भी भूल चुका है। उसके जो लक्षण गिनाए गए हैं: हुलिया नहीं मिलनामौसम के हिसाब से चेहरे बदलनालगातार अपने पते बदलनाएक दूसरी ही दुनियाँ में होनाकुतूहल के साथ अपनी गुमशुदगी के पोस्टर देखना आदि उसके विस्मरण और गुमशुदगी’ को अच्छी तरह परिभाषित कर देते हैं। कवि के लिए बारह तेरह वर्ष की उम्र के अनुभव एक आदर्शीकृत अतीत (idealized past) की तरह है जिसे वह अपनी रचनाओं में अक्सर मिस’ करता नजर आता है। कविता में कल्पित गुमशुदा व्यक्ति को संभवतः परिस्थितियोंजीवन के संघर्षोंविभिन्न बाहरी और आंतरिक दबावों ने इतना बदल डाला है कि वह अपनी पुरानी पहचान तक भूल गया है। यदि हम इसे आधुनिक निर्वासित विडम्बनाग्रस्त मानव का प्रतीक मानना चाहें तो यह दावा किया जा सकता है कि कविता के रूप में इसने छोटे कलेवर में एक विडम्बनाएक बिम्बएक प्रतीक को उभारा है और यहीं उसकी निर्मिति की और कर्तव्य की भी पूर्णता है। गद्य में उस विडम्बनाउस प्रतीक को उभारने के लिए वास्तविक पात्रों और घटनाओं के सृजन की आवश्यकता पड़ती। उन स्थितियों और कारणों को शामिल करना आवश्यक होता जो गुमशुदा’ होने के लिए जिम्मेदार हैं। गद्य के रूप में यह निर्मिति अधूरी और नाकाफी’ होने का एहसास दिलाती। यद्यपि गुमशुदगी’ के कारणों का संकेत देनेवाले तत्वों के अभाव में अर्थ की द्विस्तरीयता की संभावना कमजोर पड़ जाती है किंतु फिर भीअपनी संकीर्ण परिधि में भी यह कविता एक विशेष वर्ग के मानव का प्रतीक तो बन ही लेती है।

किंतु जितनी हल्की नियमितता और लयात्मकता हमने डबराल के उद्धरण में देखी है उतनी  गद्य के नमूनों में भी पाई जा सकती है। उदाहरणार्थ -

कई बार नाम याद नहीं रहते: घटनाएँ और छवियाँ याद आती हैंपर नाम बहुत जोर लगाने पर भी याद नहीं आते। याद पहले जो हुआ उसे जस का तस दोबारा से पेश नहीं कर देती: कई बार वह अनजाने ही या शायद बहुत महीन चतुराई से कुछ-न-कुछ बदल देती है। हमें गीत की धुन याद रहती है पर सब शब्द नहीं और हम उस धुन में उसी वजन का कोई और शब्द रख देते हैं, जो चुपके से अर्थ भी बदल देता होगा। पर हमें पता नहीं चलता। या शायद कहीं हममें कुछ सजग होता है जो जानता है कि कुछ बदल रहा है पर ऊपर से हमें न तो इसकी खबर होती है और न ही हम इसे स्वीकार करते हैं। स्मृति भी बदलती हैजीवन की दशागति और रूप अकेले नहीं बदलतेस्मृति भी बदलती जाती है। जैसे हम समय और लय चुनते हैंअंततः हम अपनी स्मृति भी चुनते हैं।                  (कुछ भी एक बार नहींअशोक वाजपेयी)

आत्मकथात्मक रचना के बीच यह स्थल ऐसा है जहाँ घटना नहीं लेखक का चिंतन प्रकट हुआ है। यह स्थल केवल अर्थ की दृष्टि से ही नहीं बल्कि संरचना की दृष्टि से भी विशेष है। यदि इसे कविता के रूप में लिखें तो एक रूप यह हो सकता है -

कई बार/नाम याद नहीं रहते:/घटनाएँ और छवियाँ याद आती हैं पर नाम बहुत जोर लगाने पर भी याद नहीं आते याद पहले जो हुआ उसे /जस का तस दोबारा से पेश नहीं कर देती कई बार वह अनजाने ही या शायद बहुत महीन चतुराई से कुछ न कुछ बदल देती है। हमें गीत की धुन याद रहती है पर सब शब्द नहीं और हम उस धुन में उसी वजन का कोई और शब्द रख देते हैं जो चुपके से अर्थ भी बदल देता होगा। पर हमें पता नहीं चलता। या शायद कहीं हममें कुछ सजग होता है जो जानता है कि कुछ बदल रहा है पर ऊपर से हमें न तो इसकी खबर होती है और न ही हम इसे स्वीकार करते हैं।

इसके संयोजन में समानांतरता और नियमितता के तत्व देखे जा सकते हैं -    

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             लयात्मक प्रकृति के गद्य का आत्यंतिक उदाहरण हैं राजा राधिकारमण सिंह की कहानियाँ जिनकी सबसे बड़ी विशेषता उनकी समानांतरतातुक और अनुप्रास ही हैं।

1.  उपवन में फूल खिलते हैंवन में विहँसते हैं।

2.  तो उस ताज के तले मुँहताज की तायदाद तरक्की पर होगी!           (दरिद्रनारायण)

एक अन्य उदाहरण देखें -

वे भारी भरकम पोथेकबिरा जाने कितने थोथे। ये धरम करम के पथ सारेमल कीचड़ के ही गलियारे। ये तीरथ बरत के धामजिनसे अल्लाह बचाये राम। यह भाग भरम की शोभा तोबा रे बापू तोबा। ये ऊँच नीच की अनंत कजियारी रातें। ये राव रंक के जालेसरासर झूठे और काले। सूरज उगने पर ही मिटती रातदिशा दिशा में स्वर्णिम प्रभात। तो वक्त के मुताबिक यह बात बरसों पुरानी है कि हरियाली के बीच और हवा के झूले पर एक गाँव बसा थाजहाँ धरम करम के साँचे में ढले नित नेमी इन्सानों की बस्तीपर एक झोंपड़ी टली हुई। उस झोंपड़ी में बसनेवाले व्यक्ति का नाम तो कुछ और ही थापर गाँव व इलाके के लोग उसे व्यंग व ताने के बहाने कबीर के नाम से ही बतलाते थे।

(दूजौ कबीरविजयदान देथा)

कहावतें प्रायः किसी स्थिति पर व्यंग्य या आलोचनात्क टिप्पणी होती हैं। लेखक यहाँ कहानी का आरंभ कहावतों वाली नियमित संरचनाओं से करके व्यंग्य और उपहास का एक ग्राम्य वातावरण तैयार करता है जिसमें कबीर की बेलौस और निर्लोभ मानव प्रकृति और राजा की आडम्बरपूर्ण कृत्रिमकामनाचालित प्रकृति पर विजय पाती दिखाई गई है। कबीर राजा की धमकियों को ही नहींराजपाट और विलासितापूर्ण जीवन के प्रस्ताव को निर्भयतापूर्वक धूल की तरह ठुकरा देता है और राजकुमारी के प्रति आकर्षण के बावजूद उसे अपनी स्वतंत्रता की शर्त पर अपनाने को तैयार नहीं होता। एक उच्चतर आधार पर यह कहानी मानव की मूल प्रकृति और मूल्यबोध का यथार्थ रचती है और इसके लिए वह व्यंग्यपूर्णपरिहासपूर्ण वातावरण के बीच अत्यंत गम्भीर सत्य को उद्घाटित करने की विरोधाभासी तकनीक का सहारा लेती है। उसके लिए सामान्य से अलग जिस विशिष्ट वातावरण की आवश्यकता थी उसके निर्माण में कथ्य के साथ समानांतर संरचनाएँ अहम भूमिका निभाती है।  

इसलिए ऐसा नहीं कि गद्य में कविता के उपादानों का प्रयोग नहीं होता - अंतर उनके उपयोग के प्रयोजन में है। कविता की प्रकृति नियमितता की है उसमें अगर अनियमितता आती है तो किसी विशेष प्रभाव की सृष्टि के लिएवैसा किसी कथ्य पर बल देने के लिए किया जाता है। इसके विपरीत गद्य की प्रकृति अनियमितता की है उसमें अगर नियमितता आती है तो विशेष प्रभाव के लिए। एक कवि अगर गद्यात्मक संरचना की कविता प्रस्तुत करता है तो वह सायास किसी विशेष वातावरण के निर्माण के लिए जो कि कविता में उसका अभीष्ट है।

                    विचलन 

                   कविता.........                        अनियमित लय

                विचलन

गद्य.......                            नियमित लय

कई बार कथ्य ही इतना प्रबल होता है कि उसी से एक आंतरिक लय निर्मित हो जाती है -

एक नीला दरिया बरस रहा                 (16 मात्राएँ)

और बहुत चौड़ी हवाएँ हैं                   (16 मात्राएँ)

मकानात हैं जंगल                        (12 मात्राएँ)

           मगर किस कदर ऊबड़-खाबड़                (16 मात्राएँ)             (शमशेर बहादुर सिंह) 

इसमें सभी पंक्तियाँ अलग अलग प्रकार के व्याकरणिक वाक्य हैंहालाँकि मात्राओं की एक नियमितता उनमें है लेकिन इसका सबसे उल्लेखनीय तत्व एक के बाद आनेवाले अनोखे अप्रत्याशित बिम्ब हैंजो भाषाई विचलन का सहारा लेकर प्रकट हुए हैं। नीला दरिया बरस रहा’ में स्थिर (नीला आकाश) के लिए गतिशील क्रिया (बरसना) का प्रयोगहवाएँ जिनका कोई आयाम नहीं उसके लिए ठोस आयाम वाले विशेषण चैड़ाई’ का प्रयोग और मानव निर्मित (मकान) की प्रकृतिनिर्मित (जंगल) के रूप में कल्पना। ये सभी विचलन एक के बाद एक लगातार आकर कथ्य मे एक लय निर्मित कर देते हैं। विन्यास की अपेक्षा अर्थ का स्तर यहाँ लय के लिए उत्तरदायी है। अर्थ का स्तर छंदबद्ध की अपेक्षा छंदमुक्त कविता में लय के निर्माण में गुरुतर भूमिका निभाता है।

     लय के लिए एक और तत्व जिम्मेदार हो सकता है - अव्यवस्था में व्यवस्था आरोपित करने का प्रयास। किंग जेम्स अधिकृत पाठ बाइबिल की भाषा नियमित लय का ऐसा ही उदाहरण है जिसमें लय छंद के कारण नहीं हैजैसा कि कविता में होता हैया फिर गद्य की लय भी नहीं है जो मुख्यतः घटनाओं की अनुकृति के कारण होती है। 

कविता से गद्य का भेद संप्रेषण व्यापार (discourse situation) की स्थितियों में भी है। गद्य में जब कोई बात कही जाती है तो उसके संदर्भों को परिभाषित करना आवश्यक होता है। गालिब का शेर दिले नादाँ तुझे हुआ क्या हैआखिर इस दर्द की दवा क्या है अगर किसी गद्य की विधा में आता तो यह स्पष्ट करना अनिवार्य होता कि किसने किससे और किस संदर्भ में में ये बात कही। यही नहीं, किस प्रकार के दर्द की बात कही जा रही है यह भी स्पष्ट करना आवश्यक होता। किसी कहानी में इसके होने की संभावना पात्रों के संवादया किसी पात्र की सोच या फिर लेखक की तरफ से किसी पात्र या स्थिति के बारे में टिप्प्णी के रूप में ही हो सकती थी। लेकिन कविता की पंक्तियों के रूप में ये चीजें इसके लिए अनिवार्य नहीं। हाँकथात्मक कविता इसका जरूर अपवाद है। संदर्भ से न बंधने की इसी छूट के कारण कविता स्वतंत्र रूप से अनेक संदर्भों में फिट होने की क्षमता रखती है। कविता की पंक्तियों को हम इसी कारण अलग अलग स्थितियेां में उद्धृत कर पाते हैं। गद्य में ऐसी स्थिति तब आती है जब कोई उक्ति इतनी प्रसिद्ध हो जाए कि वह कहावत का-सा रूप धारण कर लेजैसे प्रेमचंद के पंच परमेश्वर की ये पंक्तियाँ –बेटाक्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं बोलोगे?

दोनों उदाहरणों में संप्रेषण व्यापार की स्थितियों के अंतर को हम निम्न आरेख से व्यक्त कर सकते हैं - 

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आज कविता छंदलय आदि को छोड़कर चाहे कितनी ही गद्यवत हो चुकी होसंदर्भ की उक्त स्वतंत्रता का लाभ वह अवश्य उठा रही है। ऊपर मंगलेश डबराल की कविता की पंक्तियाँ यदि गद्य की विधा में होतीं तो वह किसी निबंध या कहानी का अंश बनकर ही आतींउनका अलग वजूद संभव नहीं होता। इसके विपरीत अशोक वाजपेयी के संस्मरण का उद्धृत अंश कविता के रूप में स्वतंत्र रूप से खड़ा होने की क्षमता रखता है। संदर्भ से मुक्ति की यह सुविधा कविता को असीम संभावनाएँ प्रदान करती है। रघुवीर सहाय की प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं:

मैं सब जानता हूँपर बोलता नहीं / मेरा डरमेरा सच एक आश्चर्य है / पुलिस के दिमाग मे वह रहस्य रहने दो वे मेरे शब्दों की ताक में बैठे हैं / जहाँ सुना नहीं उनका गलत अर्थ लिया और मुझे मारा / इसलिए कहूँगा मैं / मगर मुझे पाने दो / पहले ऐसी बोली / जिसके दो अर्थ न हों।       

यह आत्मकथन की मुद्रा में है जो मुद्रा गद्य भी अख्तियार करती है और यह गद्य के विन्यास में है भी। अगर गद्य की विधा के अनुरूप इसमें कोई भूमिका बांधने या प्रसंग सृजित करने की बाध्यता होती कि किन्ही पात्रों के बीचकिन्हीं स्थितियों मेंकिन्हीं घटनाओं के परिणाम या प्रतिक्रिया में उपर्युक्त बातें कही जाएँ तब शायद यह अभिव्यक्ति संभव ही नहीं हो पाती। बल्कि यह उद्धरण वास्तविक दुनियाँ के व्यवहार से विचलन प्रदर्शित करता है। इसमें पुलिस है जो शब्दों की ताक में बैठी है (जो होता नहीं)अपराध गलतबयानी का नहीं सच बोलने का है। विडम्बना सच बोलकर भी झूठे ठहराए जाने के षडयंत्र की है। और समस्या ऐसी बोली’ पाने की है जिसके दो अर्थ न हों। व्याकरणिक दृष्टि से प्रत्यक्ष और अभिधेय कथन होने के बावजूद इसकी प्रकृति अभिधात्मक नहींप्रतीकात्मक है। इसका आशय राजनैतिक है: पुलिस सत्ता और राजनीति की प्रतीक हैउसके दिमाग में आश्चर्य’ और रहस्य’ कवि के सत्य पर बने रहने की जिद को लेकर हैशब्दों का गलत अर्थ लगाना और दण्डित करना राजनैतिक आशय में सत्ता और राजनीति द्वारा शब्दों के दुरुपयोग और सच को खामोश करने की कोशिशों से है। स्वयं कवि का दर्द कि ऐसी बोली पाने दो जिसके दो अर्थ न हों विडम्बना का शिकार होकर बहुअर्थी बन जाता है - हम चाहें तो इसे रचनाकार और समाज के संबंध के संकट के स्तर पर भी संगत ठहरता देख सकते हैं जिसमें पुलिस समकालीन गलत आशय लगानेवाले आलोचक पाठक साहित्यिक समुदाय और अप्रिय सच्चाइयों से घबरानेवाले समाज की प्रतीक हो और कवि की मुश्किल शब्दच्युत समाज में अपने आशय को सही रूप में संप्रेषित करने की हो। अर्थ की यह बहुस्तरीयता इस कविता में संदर्भ मुक्ति के कारण संभव हो पाई है यद्यपि इसकी संरचना गद्य की है।

     अर्थ की बहुस्तरीयता पर कविता का एकाधिकार हो ऐसा नहीं है। गद्य की रचनाएँ भी प्रतीकात्मक या उससे भी आगे रूपकात्मक हो सकती है। जार्ज आर्वेल का प्रसिद्ध उपन्यास एनिमल फार्म’ रूपक का उत्कृष्ट उदाहरण है। 

अतएवएक अलंकार का सहारा लेकर कहें तोगद्य और कविता विधागत अंतर के बावजूद एक दूसरे के घर में आवाजाही करते हैं। अभिव्यक्ति के हर उपादानछंदलयनियमित विन्यासअनियमित विन्यास का अपना महत्व है। इसे समझने की आवश्यकता है। आज जब कवि उत्साह में आकर एक फैशन के रूप में छंद की या उसके उपादानों की उपेक्षा करता है तब कई बार वह अभिव्यक्ति के सशक्त औजारों का या तो मूल्य नहीं समझ रहा होता है या उसमें चैंकाने की प्रवृत्ति काम कर रही होती है।

     लेकिन दूसरी तरफचर्चा को संतुलित करते हुएइस तथ्य का उल्लेख भी आवश्यक है कि केवल छंद या नियमित लय में बांध देने मात्र से ही कोई अभिव्यक्ति कविता की हैसियत अख्तियार नहीं कर लेतीवह पद्य की संज्ञा पा लेने की अर्हता भले प्राप्त कर लेती हो। प्राचीनकाल में साहित्येतर विषय भी छंद में बांध कर कहे जाते थे। आयुर्वेद भी पद्य में है और सारे उपनिषद् पुराण भी पद्यबद्ध हैं। आज कविता ने ऐसे दायित्व गद्य को हस्तांतरित कर दिए हैं। रचनात्मक अभिव्यक्ति के अंतर्गत भी अगर कविता के पास मूल्यवान कहने के लिए कुछ नहीं है तो छंद लय आदि उसको कोई सहारा नहीं दे सकते। किसी भी अभिव्यक्ति के लिए अर्थ का स्तर सबसे महत्वपूर्ण है। वही अभिव्यक्ति को मूल्य प्रदान करता है।

धड़कन धड़कन धड़कन -दाईंबाईंकौन आँख की फड़कन - / मीठी कड़वी तीखी सीठी / कसक किरकिरी किन आँखों की तड़कन? / ऊँह! कुछ नहींनशे के झोंके से में / स्मृति के शीशे की तड़कन। (अज्ञेय)

 

इसमें लय भी है और तुक अनुप्रास शब्दालंकार भीभाषाशास्त्र की शब्दावली मे कहें तो इसमें विन्यास की नियमितता और स्वनिमिक आवृत्ति (अनुप्रासएवं तुक) दोनों हैं लेकिन ये चीजें इसका मूल्य नहीं बढ़ातीं। उल्टे लगता है कवि बस तुक मिलाने के लिए शब्दों की बाजीगरी कर रहा है। अज्ञेय की उत्तरकालीन कृतियों में यह दोष अधिक है। इस मामले मे पंत और बड़े उदाहरण बनेंगे जिनकी उत्तरकालीन कविताओं में छंदलय आदि सब हैं मगर कथ्य के नाम पर पुरानी बासी भावों की आवृत्ति है या समकालीन समस्याओं का सिर्फ विचार के रूप में उथला अनुभवरिक्त प्रत्यक्षीकरण। कई बार कवि नितांत सतही कथ्य को ही छंदलय अलंकारों आदि में लपेटकर विशेष दिखाने की कोशिश करता है। यह दोष प्रायः मंचीय कवियों में अधिक होता है। 

निष्कर्ष: गद्य और पद्य का अंतर अभिव्यक्ति के प्रकार (mode of perception) का अंतर है - दोनों अभिव्यक्ति की अलग अलग विधाएँ है। छंद और लयउसमें भी विशेषकर लय वह गुण है जो कविता को गद्य से अलग करता है: कविता की लय नियमित होती है और गद्य की अनियमित। लय प्रतिफलित होता है नियमितता और आवृत्ति के द्वारा। विभिन्न स्तरों पर आवृत्तिजैसे: स्वनिमिक स्तर पर वर्णों की आवृत्ति (तुक और अनुप्रास)रूपिमिक स्तर पर शब्दों की आवृत्ति (यमकध्वन्यर्थ व्यंजना, onomatopoeia, द्वित्व) व्याकरणिक स्तर पर संरचनात्मक इकाइयों की आवृत्ति (एक जैसे पदबंधोंउपवाक्योंवाक्यों का आनासमानांतरता) आदि कथन में नियमितता लाती हैं और अभिव्यक्ति को काव्यात्मक बनाती हैं। ये काव्यात्मक उपादान हैं जिनकी मौजूदगी कथन को विशिष्टता प्रदान करती है। समग्र अर्थ के निर्माण में इनका योगदान होता है। ये अभिव्यक्ति के संसाधनों में शामिल हैं जिनका उपयोग कविता में अभीष्ट प्रभाव की सिद्धि के लिए किया जाता है। एक कुशल कवि अभिव्यक्ति के इन साधनों का अपनी कविता में जैसी जरूरत हो, उपयोग करता है। बिल्कुल सादी भाषा मेंबिना अलंकारों के -जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख - में ऊँची कविता की जा सकती है और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख की शर्त पूरी की जा सकती है।

आज हिन्दी या किसी भी भाषा के आधुनिक काव्य का मूल्यवान अंश छंदहीन ही है। किंतु अगर हम लय का बहुत उदार अर्थ में प्रयोग न करके प्रचलित अर्थ नियमित या सममितिपूर्ण आवृत्ति’ ही लें तो आज की कविता बहुत कुछ लय का भी त्याग कर चुकी है। आज कविता के नाम पर सीधे सीधे गद्य भी लिखा जा रहा है। यह प्रवृत्ति अपेक्षाकृत नई है। मुक्तिबोधधूमिल जैसे अब पुराने हो चुके’ कवियों का अधिकांश कृतित्व छंदहीन ही है किंतु उनकी कविताओं में एक प्रकार का लय हैजो छंद की लय-सी नियमित नहीं लेकिन उसके स्रोत अर्थ और संरचना में किसी प्रकार की नियमिततासममिति या विचलन में हैं। मुक्तिबोध की टूटी वाक्य श्रृंखलाविश्रृंखल बिम्ब योजना और फैंटेसीपूर्ण भयावह जगत उसे सामान्य अनुभव और बोलचाल की भाषा के धरातल से उठाकर उसे एकदम दूसरे तल पर ले जाते हैं। उनमें अनेक संदर्भगत तत्वों का त्याग कर दिया गया है जैसा कि कविता करती है जिनका होना किसी गद्यकृति के लिए आवश्यक होता। अगर उसकी तुलना किसी गद्यकृति से करें तो फैंटेसीपूर्ण भयावह जगतउदाहरण के लिएजार्ज आर्वेल ने 1984 (या फिर एनिमल फॉर्म में भी) रचा है लेकिन वह जगत तार्किक संगति से परिपूर्ण है जिसके सभी अंग सुगठित हैं, जिसमें पात्र हैं घटनाएँ हैंविचार हैं -- सबकुछ इस हद तकऔर आंतरिक संगति से पूर्ण कि वही पूर्णता उसमें भयानक विसंगति का संचार करती है। ऑर्वेल ऑल मेन आर ईक्वल बट सम मेन आर मोर ईक्वल भाषाई विचलन से ऑर्वेल विद्रूप और व्यंग्य रचते हैं और मुक्तिबोध मोहभंग या फिर विद्रूप (चाँद का मुँह टेढ़ा है)। आर्वेल का संसार विलक्षण बौद्धिक समझ और व्यंग्य से प्रसूत है जबकि मुक्तिबोध का जगत सिर्फ भयानक कल्पना से निर्मित जिसमें भय के कारणों का उल्लेख या संकेत नहीं। फैंटेसी और भय (horror) दोनों ही में हैं। मुक्तिबोध का जगत अपने खंडित बिम्बों और विसंगतियों से चकित करता है और आर्वेल का जगत पात्रों घटनाओं विचारों की आश्चर्यजनक संगति से एक दर्शनएक शासन व्यवस्था की अमानवीय विसंगति का आतंक रचता है। एक कविता है और एक गद्य।

आज की कविता का प्रतिनिधि चेहरा गद्य का है। उसने अलंकरणलयात्मकता आदि का त्याग कर सपाटबयानी और सीधे साक्षात्कार को अपना मूलाधार बनाया है। उसमें सीधे गद्य के फॉर्म में बोली जानेवाली भाषा का अनुकरण करने की कोशिश है। यह सुरक्षित रूप से कहा जा सकता है कि बोलचाल की लय अपनाने की चेष्टा फॉर्म के स्तर पर समकालीन कविता की सबसे प्रबल प्रवृत्ति है। किंतु इस प्रवृत्ति का दूसरा पक्ष यह है कि बोलचाल की भाषा विवरणात्मक होती हैउसमें चीजों को पूर्णता में कहने की जरूरत होती हैव्याकरणिक विन्यासों को पूरा करना पड़ता हैजबकि कविता इस बाध्यता से काफी हद तक मुक्त होती है। गद्य का फॉर्म विस्तार मांगता है आश्चर्य नहीं कि आज की कविता में भी विस्तार से कहने की प्रवृत्ति है। यह विस्तार अक्सर उसमें अर्थ के स्तर पर मामूली तत्वों के समावेश के कारण आता है। अक्सर यह खतरा होता है कि साधारण भाषा में साधारण अनुभव या सोच ही सामने आ पाएयद्यपि ऐसा होना आवश्यक नहीं । कवि की तो चेष्टा एक अर्थ में शब्दों की साधारणता के प्रति विद्रोह होती है: कैसे वह यूनीक’ अनुभवों को एक कॉमन’ भाषा में व्यक्त करे। किसी समय दार्शनिक रही यह समस्या आज के समय में संकट का रूप धारण कर चुकी है जब मीडिया बाजार आदि के विभिन्न बाहरी दबावों के कारण शब्द अवमूल्यित होते जा रहे हैं। आज कवि से और गहरी कोशिश की अपेक्षा है।

प्राचीन और मध्यकाल में कविता का फॉर्म छंदबद्धस्थिर था। छंद और काफी हद तक लय से स्वतंत्रता ने आज की कविता में फॉर्म के स्तर पर भी क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है। पुरानी अभिरुचि से चिपका पाठक आज कविता के साथ न्याय नहीं कर सकता। दुर्भाग्यवश हिन्दी क्षेत्र में वांछित रुचि-संस्कार सांस्कृतिक पिछड़ापनया जिन भी कारणों सेअपेक्षा से बहुत कम हो पाया है। आज का हिन्दी समाज तो साहित्य से भी विमुख हैउसमें कविता से सम्पृक्ति की बात तो दूर है। किंतु दोष सिर्फ पाठक को देना अनुचित होगा। बदलाव के आग्रह में अति की सीमा तक बदलती जा रही हिन्दी कविता अब अपनी विधागत विशिष्टता - प्रभाव की सघनता - से भी वंचित हो रही है। उसमें गद्य की काया में मामूली अनुभवों और सपाट गद्यात्मक कथनों की बाढ़ है। ऐसा नहीं कि गद्य का मूल्य कुछ कम’ है। एलियट ने कहा था कि एक अच्छी कविता एक अच्छा गद्य भी होती है। कविता की प्रकृति सघनता कीसंक्षिप्तता की है। आज कविता के नाम पर आ रही ढेर सारी निर्मितियों को अच्छा गद्य भी नहीं कहा जा सकता। पाठक को लगता है कि जो बात गद्य में भी मामूली लगती उसको ही पंक्तियों में तोड़करबल्कि तोड़-फोड़कर’ कविता की तरह लिख दिया गया है। तोड़-फोड़’ इसलिए कि उसमें पंक्तिभंग का कोई तर्क नजर नहीं आताऔर अगर तर्क हो भी तो भी मात्र उसी की बिना पर उसे कविता का दर्जा नहीं दिया जा सकता। स्वाभाविक हैवह पाठक से भी दूर होती जा रही हैक्योंकि पाठक को उसमें कविता का रस नहीं मिलता।

आज कविता नए यथार्थ को व्यक्त करने के नाम पर चाहे जितनी भी गद्यवत होने की चेष्टा करेशब्द लाघव और अर्थ अमित अति आखर थोरे’ की अपेक्षा उससे रहेगी ही, अन्यथा वह वाचालता के आरोप से अपने को मुक्त नहीं कर सकेगी। आज हिन्दी की कितनी ही पत्र-पत्रिकाओं में छपती विपुल काव्यराशि को देखकर यही प्रतीत होता है कि आज का कवि विभिन्न काव्यात्मक उपादानों से मुक्ति की आड़ में अपने ज्ञान और कल्पना और संयोजन क्षमता की दुर्बलता को छिपाना चाहता है। किसी अनुभवप्रसूत विवेकसम्पन्न जीवनदृष्टि की जगह तात्कालिक या सतही अनुभवों से काम चलाना चाहता है। अनुभवों के पीछे के सत्य का साक्षात करने के बजाए अनुभवों के विवरण देने में सुविधा देखता है। ऐसे में आज बार-बार छपतेचर्चित होते और क्रमशः पुरस्कृत भी होते अनेक कवियों के माहौल में किंचित अफसोस के साथ पाठक यही सोचता है -

अब मुअज्जन की सदाएँ कौन सुनता है
चीख चिल्लाहट अजानों तक पहुँचती है।” (दुष्यंत)

-     डॉ. वरुण कुमार
निदेशक 
केंद्रीय हिंदी प्रशिक्षण संस्थान,, नई दिल्ली
मोबाइल - 7827935451

ईमेल – bkumar1964@gmail.com


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 गणतंत्र दिवस पर करें विचार !
जन – गण - मन की भाषा..
- डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’
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वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई

प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारकाविश्व वात्सल्य मंच

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मीडिया प्रभारी

हैदराबाद

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