शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2021

[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] मातृभाषा दिवस के अवसर पर विशेष विचार श्रृंखला - भाग 1। मातृभाषा केबिना व्यक्ति या राष्ट्र का समुचित विकास संभव नहीं...। मातृभाषा दिवस पर विशेष संगोष्ठी ( मनुमुक्त मानव मेमोरियल ट्रस्ट का आयोजन

 

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मातृभाषा दिवस के अवसर पर विशेष विचार श्रृंखला - भाग 1


मातृभाषा के बिना व्यक्ति या राष्ट्र का समुचित विकास संभव नहीं...।

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डॉ. एम.एल. गुप्ता आदित्य

विश्व में संभवत: कोई ऐसा वैज्ञानिक, शिक्षाविद, दार्शनिक, चिंतक अथवा भाषाविद् नहीं होगा जिसने मनुष्य के विकास के लिए मातृभाषा के महत्व को स्वीकार न किया हो। भाषाविदों के अनुसार समाज विकसित या अविकसित हो सकते हैं लेकिन कोई भी भाषा अविकसित नहीं होती। संसार की हर भाषा में अपने बोलने वालों की सभी संचार-अभिव्यक्ति-आवश्यकताओं को पूरा करने की स्वभाविक क्षमता होती है।

 मातृभाषा क्यों और कैसे इस विषय पर चर्चा उन्हीं देशों में अधिक होती है जहां लोग लंबे समय तक विदेशी पराधीनता में रहे हैं और विदेशी सत्ता के कारण शासन की भाषा को ही ज्ञान-विज्ञान, शासन-प्रशासन के साथ-साथ व्यवहार की भाषा के रूप में भी कृत्रिम रूप से अपनाने लगे हैं। अन्य देशों में तो ज्ञान-विज्ञान, शासन-प्रशासन सहित सभी उद्देश्यों के लिए सामान्यतः मातृभाषा का और राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रभाषा का ही प्रयोग किया जाता है। इसलिए वहाँ ऐसी प्रश्न उठते ही नहीं।

भारत में लोग अब न केवल अपनी भाषा से कटते जा रहे हैं बल्कि उसे हीन भाव से भी देखते हैं। इसका मुख्य कारण है हमारी लंबी पराधीनता। बारह सौ वर्ष पूर्व से इस देश पर विदेशी आक्रमणकारियों के हमले होते रहे और अपनी सत्ता को स्थाई बनाए रखने के लिए विदेशी शासकों ने भारतीय भाषाओं और ज्ञान-विज्ञान के स्थान पर अपनी भाषा और ज्ञान विज्ञान को स्थापित करने का प्रयास किया। स्वतंत्रता के पश्चात सत्तासीन वर्ग ने अपना आधिपत्य बनाए रखने के लिए इसका प्रभुत्व बनाए रखा। भारत में अक्सर अंग्रेजी में पढ़े लोग लोग यह प्रश्न पूछते हैं कि की मातृभाषा क्यों ? यह प्रश्न ही गलत है। प्रश्न तो यह होना चाहिए कि मातृभाषा में क्यों नहीं ? मातृभाषा ही वह भाषा है, जिसमें कोई व्यक्ति स्वभाविक रुप से सोचना, समझना और सीखना प्रारंभ करता है। भारत के संदर्भ में प्रश्न यह बनता है कि विदेशी भाषा यानी अंग्रेजी में क्यों ? इस बात को समझने के लिए हमें निम्नलिखित बिंदुओं को समझना होगा।

बौद्धिक विकास और मातृभाषा:-

इस्लामिक आजाद विश्वविद्यालय, तेहरान के विज्ञान एवं अनुसंधान शाखा के प्रोफ़ेसर रिज़वान   नूर मौहम्मदी के अनुसार, परिष्कृत रूप में बौद्धिक (संज्ञानात्मक) विकास को तीव्रता से आगे बढ़ने और तर्क के स्तर पर प्रतिबिंबसमन्वय और सामाजिक संपर्क की प्रक्रिया बचपन से ही भाषा के माध्यम से होती है। इस प्रक्रिया में मातृभाषा जीवन भर प्राथमिक उपकरण की तरह काम करती है। कहने का अभिप्राय यह कि मातृभाषा रूपी इस उपकरण के माध्यम से चिंतन, मनन, विश्लेषण आदि के लिए उसे किसी अतिरिक्त श्रम की या किसी प्रकार के आंतरिक और बाह्य अनुवाद की आवश्यकता नहीं होती। जैसे-जैसे वह बढ़ता है, वह उस भाषा की शब्दावली को आत्मसात करता जाता है और उसकी अभिव्यक्ति क्षमता भी विभिन्न क्षेत्रों में उसी प्रकार बढ़ती चली जाती है। प्रकृति की यही स्वभाविक प्रक्रिया है। इसलिए मातृभाषा को पहली भाषामूल भाषा के रूप में सीखना आवश्यक है। मातृभाषा बौद्धिक क्षमता का हिस्सा है। मातृभाषा वह भाषा है जिसे मनुष्य स्वभाविक रूप से जन्म से अर्जित करता है। यह बच्चे को उसके मानसिकनैतिक और भावनात्मक विकास में मदद करती है।

इसी बात को राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के संदर्भ में प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि किसी व्यक्ति के जीवन में उसकी मातभाषा के महत्व की सबसे अच्छी और सटीक तुलना करने के लिए माँ के दूध से बेहतर कुछ नहीं जैसे जन्म के एक या दो वर्ष तक बच्चे के शारीरिक और भावनात्मक विकास के लिए माँ का दूध और स्पर्श सर्वश्रेष्ठ होत है वैसे ही उसके संवेगात्मक, बौद्धिक और भाषिक विकास के लिए मातृभाषा या माँ बोली मातृभाषा क इस भूमिका पर संसार में कोई भी मतभेद नहीं है, वैसे ही जैसे माँ के दूध के महत्व, प्रभाव और भूमिका पर कोई मतभिन्नता नहीं है

बच्चों की प्रारंभिक देखभाल और शिक्षा में मातृभाषा या पारिवारिक भाषा या परिवेश/स्थानीय भाषा  महत्व उन मुट्ठी भर विषयों में है, जिस प पूरी दुनिया के शिक्षाविदों और मनोवैज्ञानिकों की सर्वानुमति है इस विषय पर इतने सारे शोध, प्रयोग, अध्ययन हुए हैं, इतनी सारी किताबें लिखी गई हैं कि अब इसे एक सार्वभौमिक निर्विवाद सत्य के रूप में वैश्विक स्वीकृति मिल गई है लेकिन भारत का कथित शिक्षित समाज इस वैश्विक स्वीकृति के विपरीत अपनी मात-भाषा और राष्ट्रीय भाषा के स्थान पर औपनिवेशिक भाषा की दासता की ओर तेजी से बढ़ रहा है।

शिक्षा का सर्वश्रेष्ठ माध्यम:-

अध्ययनों से पता चलता है कि जो बच्चे अपनी मातृभाषा में एक ठोस आधार के साथ स्कूल आते हैं,  उनमें साक्षरता क्षमताओं का विकास होता है। कुल मिलाकर बच्चों की मातृभाषा के महत्व के बारे में,  अनुसंधान उनके व्यक्तिगत और शैक्षिक विकास के लिए बहुत स्पष्ट है (बेकर, 2000; कमिंस, 2000; स्कुटनब-कांगस, 2000 कमिंस में उद्धृत, 2000)। स्पष्टतमातृभाषा की शिक्षा में केंद्रीय भूमिका होती है।

शिक्षा के माध्यम के संबंध में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का कहना था कि माता का दूध पीने से लेकर  जो संस्कार और मधुर शब्दों द्वारा शिक्षा मिलती है उसके और पाठशाला की शिक्षा के बीच संगती होनी चाहिए । पराई भाषा से वह श्रृंखला टूट जाती है और उस शिक्षा से पुष्ट हो कर हम मातृद्रोह करने लग जाते हैं।

शिक्षाविद कृष्णजी (1990) का दावा है कि कई मनोवैज्ञानिकसामाजिक और शैक्षिक प्रयोगों ने साबित किया कि मातृभाषा के माध्यम से सीखने में अधिक गहराई, और अधिक तीव्रता है, और यह अधिक प्रभावी है। वास्तव मेंकक्षा में छात्रों की मातृभाषा का उपयोग करके विषय सामग्री पढ़ाने से छात्रों के संज्ञानात्मक कौशल को विकसित किया जा सकता है।

यह कोई कम हैरानी की बात नहीं की लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति और उसकी तमाम प्रयासों के बावजूद भी स्वतंत्रता के समय देश की 99% से भी अधिक लोग मातृभाषा में ही पढ़ते थे लेकिन स्वाधीनता के पश्चात आशा के विपरीत स्थिति बदलती चली गई और आज स्थिति यह है कि छोटे-छोटे गांवों तक और उच्च शिक्षा के स्थान पर नर्सरी तक भी अंग्रेजी माध्यम पहुंच गया है। हर कोई अंग्रेजी रट रहा है। देश के अधिकांश लोग मातृभाषा या तो पढ़ते नहीं और पढ़ते भी हैं तो केवल किसी औपचारिकता को पूरी करने की दृष्टि से। मातृभाषा माध्यम लगभग लुप्त होता जा रहा है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? यह चर्चा का एक अलग विषय हो सकता है, लेकिन इसके चलते अब नई पीढ़ियां यह सोच भी नहीं पाती की ज्ञान-विज्ञान मातृभाषा के माध्यम से पढ़ा जा सकता है। हम आत्मनिर्भर के बजाय अंग्रेजी-निर्भर हो गए हैं। आज स्थिति यह है कि देश के बड़े भूभाग में हमारे विद्यार्थी न तो ठीक से अपनी मातृभाषा जानते हैं, न देश की भाषा और न ही अंग्रेजी ।

नई शिक्षा नीति 2020 में कहा गया है कि शोधों ने यह सिद्ध किया है कि जीवन के आरंभिक वर्षों और प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों में सर्वश्रेष्ठ संवेगात्मक विकास के साथ साथ सभी विषयों की समझ और अधिगम भी बेहतर होते हैं उन बच्चों की तुलना में जिन्हें अपनी मातृभाषा/परिवेश भाषा से अलग किसी भाषा में पढ़ना पड़ता है। इतना ही नहीं, दूसरी भाषाएं सीखने में भी मातृभाषा में पढ़ने वाले बच्चे उन दूसरी श्रेणी के बच्चों की तुलना में आगे पाए गए। यानी प्राथमिक कक्षाओं में मातृभाषा माध्यम शिक्षा बच्चों को बहुभाषी बनाने में भी श्रेष्ठतर साबित होती है।

यह तथ्य अकेला ही पर्याप्त है यह सिद्ध करने के लिए कि दुनिया के किसी भी स्थान-समाज में जन्म लेने वाले बच्चों के लिए मातृभाषा/परिवेश/स्थानीय भाषा ही सर्वांगीण विकास तथा सभी विषयों के बारे में सीखने के लिए सर्वोत्तम माध्यम होती है। यह बात सुदूर जंगलों में रहने वाले वनवासी बच्चों पर भी उतनी है लागू होती है, जितनी सबसे विकसित, संपन्न समाजों-देशों के बच्चों पर। यह प्रसन्नता की बात है कि नहीं शिक्षा नीति में मातृभाषाओं के माध्यम से शिक्षा और उनके अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था की गई है यह  किस प्रकार और किस हद तक लागू हो सकेगी, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।

मौलिक चिंतन, ज्ञान-विज्ञान और मातृभाषा:-

जो लोग विज्ञान को समझते हैं वे समझ सकते हैं कि ज्ञान-विज्ञान का संबंध किसी भाषा विशेष से नहीं हो सकता है? ज्ञान-विज्ञान का संबंध तो तर्क से है। विषय वस्तु को समझते हुए तथ्यों का विश्लेषण करते हुए जब हम किसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं तो ज्ञान - विज्ञान आगे बढ़ता है। लेकिन हमारे देश में और हम जैसे कई पूर्व गुलाम देशों में अधिकांशत: हम मौलिक रूप से चिंतन - मनन न करके केवल आयातित ज्ञान-विज्ञान को रटते हुए सामान्यतः उसका प्रयोग करते हैं । स्थापित तथ्य है कि मौलिक चिंतन अपनी भाषा से ही संभव है और मातृभाषा से बढ़कर कोई माध्यम हो नहीं सकता।

अगर हम विज्ञान के विद्यार्थियों की बात करें तो ज्ञात होता है कि भारत में विज्ञान के जितने विद्यार्थी हैं उतने शायद पूरे विश्व में न हों। 2019 के मानव संसाधन मंत्रालय ( शिक्षा मंत्रालय) द्वारा कराए गए ‘अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण’ के मुताबिक देश में सबसे ज्यादा विज्ञान वर्ग के छात्र पीएचडी के लिए नामांकन कराते हैं। स्नातक स्तर में “सबसे अधिक छात्र” बीए में पंजीकरण कराते हैंजिसके बाद बी.एस.ई. और बीकॉम का स्थान है। स्नातक स्तर पर 35.9 प्रतिशत विद्यार्थी कलामानविकी और सामाजिक विज्ञान के पाठ्यक्रमों में, विज्ञान में 16.5 प्रतिशतइंजीनियरिंग तथा प्रौद्योगिकी में 13.5 प्रतिशत यानी विज्ञान व प्रौद्योगिकी में  मिलाकर 40 प्रतिथत, वाणिज्य में 14.1 प्रतिशत छात्र पंजीकरण कराते हैं। यह भी कि अपनी प्रतिभा और ज्ञान के बल पर अतीत में भारत हर क्षेत्र में अग्रणी रहा है, जिसके चलते विश्व गुरू कहलाया है। लेकिन इसके बावजूद आज विभिन्न क्षेत्रों में नई अवधारणाओं और आविष्कारों आदि के मामले में विपुल जनसंख्या के बावजूद भारत विश्व के छोटे – छोटे देशों से भी काफी पीछे है। कारण यह कि लंबे समय तक विदेशियों और विदेशी भाषाओं की दासता ने हमें मौलिक चिंतन और नए विचारों के बजाए उन भाषाओं में निहित ज्ञान-विज्ञान पर निर्भर बना दिया। हम विदेशी भाषाओं के माध्यम से उपलब्ध विदेशी ज्ञान-विज्ञान पर निर्भर होते चले गए। क्योंकि मौलिक चिंतन तो मातृभाषा में ही होता है। हम यूं कह सकते हैं कि भाषायी दासता के चलते हम न केवल ज्ञान-विज्ञान में बल्कि कला क्षेत्र में भी पिछड़ते चले गए। यदि विज्ञान के क्षेत्र में देखें तो हमारे ज्यादातर लोग मूलभूत विज्ञान के बजाए अनुप्रयुक्त यानि प्रायोगिक विज्ञान के क्षेत्र में हैं।  

प्रो. नूरमोहम्मदी के अनुसार शिक्षा के बीच स्वतंत्र सोच को प्रोत्साहित करने के लिए एक संभावित साधन मातृभाषा है। यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिकवैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन) के 2008 के समाचार पत्र के अनुसार, "मातृभाषा में सीखने का संज्ञानात्मक और भावनात्मक मूल्य है। जब बच्चे अपनी मातृभाषा के माध्यम से सीख रहे हैंतो वे अवधारणाएँ और बौद्धिक कौशल सीख रहे होते हैं जो समान रूप से आजीवन उनके कार्य करने की क्षमता से संबंधित है। मातृभाषा में स्कूल / प्राथमिक विद्यालयके महत्व पर जोर देता है व्यक्ति का व्यक्तिगत और बौद्धिक विकास। अध्ययनों से पता चलता है कि जो बच्चे ठोस नींव के साथ स्कूल आते हैं उनकी मातृभाषा में साक्षरता क्षमताओं का विकास होता है।

20 अक्टूबर 1917 को गुजरात के भरूच में एक शिक्षा सम्मेलन में दिए गए अपने लंबे संबोधन में गांधी जी ने कहा था, 'विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा पाने में दिमाग पर जो बोझ पड़ता है, वह बोझ हमारे बच्चे उठा तो सकते हैं लेकिन उसकी कीमत हमें चुकानी पड़ती है। वे दूसरा बोझ उठाने लायक नहीं रह जाते। इससे हमारी स्नातक अधिकतर निकम्मे, कमजोर, निरुत्साही, रोगी और कोरी नकलची बन जाते हैं। उनमें खोज करने की शक्ति, विचार करने की शक्ति, साहस, धीरज, वीरता, निर्भयता और अन्य गुण बहुत क्षीण हो जाते हैं। इससे हम नई योजनाएं नहीं बना सकते, और यदि बनाते हैं तो उन्हें पूरा नहीं कर पाते। कुछ लोग जिनमें उपर्युक्त गुण दिखाई देते हैं, अकाल ही काल के गाल में चले जाते हैं। उन्होंने आगे कहा, 'एक अंग्रेज ने लिखा है कि मूल लेख और सोखता कागज के अक्षरों में जो भेद है, वही भेद यूरोप के और यूरोप के बाहर के लोगों में है। इस विचार में जो सच्चाई है वह एशिया के लोगों की स्वभाविक अयोग्य योग्यता के कारण नहीं है, इसका कारण शिक्षा का माध्यम है।'

गाँधी जी कहते हैं, 'हम जगदीश चंद्र बसु और डॉक्टर प्रफुल्ल चंद्र राय को देखकर मोहित हो जाते हैं। मुझे विश्वास है कि यदि 50 वर्षों तक मातृभाषा द्वारा पढ़ाई होती तो हममें इतने बसु और राय होते कि उन्हें देखकर हमें अचंभा न होता।' महात्मा  गांधी का स्पष्ट मत था कि जब तक वैज्ञानिक विषय मातृभाषा में नहीं समझाए जा सकते, तब तक राष्ट्र को नया ज्ञान नहीं मिल सकता।

प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक जयंत विष्णु नारलीकर ने भारत में विज्ञान की शिक्षा के सेबंध में कहा, अगर भारत की सोई हुई प्रतिभाओं को जगाना है तो विज्ञान की शिक्षा का माध्यम हिंदी को बनाना होगा। इसके बिना भारतीय जनता और वैज्ञानिक विचारों के बीच विद्यमान दूरी को खत्म नहीं किया जा सकता और ऐसी दशा में भारतीय जनता और वैज्ञानिक विचारों के बीच जनभाषा का सहारा लेना बहुत जरूरी है।

आर्थिक विकास और मातृभाषा:-

आईआईटी कानपुर और टैक्सास विश्वविद्यालय के स्नातक, सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र के विशेषज्ञ, उद्यमी, लेखक और शोधकर्ता संक्रांत सानु जिन्होंने विश्व के विभिन्न देशों में कार्य करते हुए भाषाओं की भूमिका पर भी अध्ययन किया, उन्होंने 'भाषा का अर्थशास्त्रसमझाते हुए अपनी चर्चित पुस्तक अंग्रेजी माध्यम का भ्रमजाल में भाषायी अनुसंधान के आधार पर विश्व के विभिन्न देशों में प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि विश्व के सर्वाधिक धनी बीस देश वे हैं, जहां शिक्षा का माध्यम और कामकाज की भाषा वहां की जनभाषा हैइसके ठीक विपरीत विश्व के सर्वाधिक निर्धन बीस देश वे हैं, जहां जनभाषा वहाँ की राजभाषा नहीं है और शिक्षा और कामकाज प्रायः उस भाषा में होता है जिस देश के वे कभी गुलाम थे। यह अनुसंधान भारत में प्रचलित उस मिथ्या धारणा को ध्वस्त करता है जिसमें अंग्रेजी को देश के आर्थिक विकास से जोड़ कर देखा जाता है।

मातृभाषा तथा समाज व संस्कृति का विकास:-

कोई भी भाषा न केवल अपने क्षेत्र की संस्कृति की वाहिका होती हैं बल्कि हजारों वर्षों से संचित ज्ञान-विज्ञान की वाहिका भी होती है। यदि कोई भाषा सीमत्ती है या समाप्त होती है तो उसके साथ ही साथ वहां की पूरी संस्कृति भी नष्ट हो जाती है यदि हमें अपनी प्राचीन ज्ञान विज्ञान अपने गीत-संगीत साहित्य सहित भाषा में निहित विभिन्न तत्वों को संरक्षित रखना है तो उसके लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि हम अपनी भाषा को अपनाएँ इससे न केवल हमारी भाषा संस्कृति और ज्ञान विज्ञान का संरक्षण होगा बल्कि हमारा स्वयं का भी समुचित विकास  हो सकेगा। भारत में जैसे-जैसे भारतीय भाषाओं के स्थान पर अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ता गया है वैसे-वैसे भारतीय धर्म - संस्कृति, आध्यात्म, भारतीय मूल्य, संस्कार तथा भारत का वैभवशाली ज्ञान-विज्ञान भी तिरोहित होता जा रहा है। इन्हें बचाने और बढ़ाने के लिए सबसे अधिक आवश्यक हैं हमारी भाषाएँ।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी किसी व्यक्ति और समाज के विकास के लिए मातृभाषा को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते थे। यहां तक कि उन्होंने अपनी जीवनी अपनी मातृभाषा गुजराती में ही लिखी थी। महात्मा गांधी मातृभाषा को कितना महत्व देते थे यह उनके इस वक्तव्य से ही समझा जा सकता है। मुझे यह नहीं बर्दाश्त होगा कि हिंदुस्तान का एक भी आदमी अपनी मातृभाषा को भूल जाए, उसकी हंसी उड़ाए, उससे शर्माए या उसे यह लगे कि वह अपने अच्छे से अच्छे विचार अपनी भाषा में नहीं रख सकता। वे आगे कहते हैं, मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियां क्यों न हो मैं उससे उसी तरह चिपटा रहूँगा, जिस तरह अपनी माँ की छाती से। वही मुझे जीवनदाई दूध दे सकती है।

इस संबंध में महात्मा गांधी का कहना था, यदि हम मातृभाषा की उन्नति नहीं कर सके और हमारा यह सिद्धांत रहे कि अंग्रेजी के जरिए ही हम अपने उनके विचार प्रकट कर सकते हैं उनका विकास कर सकते हैं तो इसमें जरा भी शक नहीं है कि हम सदा के लिए गुलाम बने रहेंगे जब तक हमारी मातृभाषा में सारे विचार स्पष्ट करने की शक्ति नहीं आ जाती और जब तक वैज्ञानिक विषय मातृभाषा तब तक राष्ट्र को नया ज्ञान नहीं मिल सकता

मातृभाषा के संबंध में समग्र चर्चा को भारतेंदु हरिश्चंद्र नें निम्नलिखित पंक्तियों में बहुत पहले ही स्पष्ट कर दिया था, जो उनकी कविता निजभाषा से ली गई हैं।

 

निज भाषा उन्नति अहैसब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान केमिटत न हिय को सूल।।
विविध कला शिक्षा अमितज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहूभाषा माहि प्रचार।।


इसमें उन्होंने कहा है कि अपनी भाषा से ही सभी प्रकार की उन्नति संभव हैक्योंकि यही सारी उन्नतियों का मूलाधार है। मातृभाषा के ज्ञान के बिना हृदय की पीड़ा का निवारण संभव नहीं है। विभिन्न प्रकार की कलाएँअसीमित शिक्षा तथा अनेक प्रकार का ज्ञान, सभी देशों से जरूर लेने चाहियेपरन्तु उनका प्रचार मातृभाषा के द्वारा ही करना चाहिये।

यदि हमें भारत का और भारत के नागरिकों का सर्वांगीण विकास करना है तो हमें अपनी मातृभाषाओं का सर्वोपरि महत्व देना होगा।


वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
मातृभाषा दिवस, 21 फरवरी 2021, रविवार को
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गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

भाषा की कहानी: सभ्यताओं के विकास और ह्रास की कहानी - डॉ. एम.एल.गुप्ता 'आदित्य'



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केंद्रीय हिन्दी संस्थान में मनायी गयी डॉ. मोटुरिसत्यनारायण की जयंती - हिन्दी मिलाप एवं शुभ-लाभ - समाचार कतरन




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'साहित्य, संस्कृति और भाषा' पुस्तक लोकार्पित - हिन्दी मिलाप - समाचार कतरन

प्रस्तुति: प्रो.ऋषभदेव शर्मा 

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ऋषभदेव शर्मा की पुस्तक साहित्य संस्कृति और भाषा लोकार्पित -समाचार कतरन


प्रस्तुति: प्रो. ऋषभदेव शर्मा 

प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारकाविश्व वात्सल्य मंच

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[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] मातृभाषाओंको रोज़गार से जोड़ने वाले पहले वैज्ञानिक : दौलत सिंह कोठारी· डॉ.अमरनाथ। झिलमिल में - भाषा, साहित्य, संस्कृति और प्रौद्योगिकी की अंतरराष्ट्रीय ईृ पत्रिका "भाषा ज्ञान संवाद"

 

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हिन्दी के योद्धा : जिनकी 4 फरवरी को पुण्यतिथि है -

मातृभाषाओं को रोज़गार से जोड़ने वाले पहले वैज्ञानिक : दौलत सिंह कोठारी

·         डॉ. अमरनाथ

आजादी के बाद जब 1950 में संघ लोक सेवा आयोग की पहली बार परीक्षा हुई तो उसमें 3647 अभ्यर्थी शामिल हुए थे जिनमें से 240 उत्तीर्ण हुए. 1960 में 10000 बैठे थे, 1970 में 11710 बैठे थे और 1979 में यह संख्या बढ़कर एक लाख से ऊपर हो गई. इस वर्ष इस परीक्षा में कुल 1,00742 अभ्यर्थी शामिल हुए जिनमें से 703 उत्तीर्ण हुए. परीक्षा में शामिल होने वाले अभ्यर्थियों की संख्या इस वर्ष बढ़कर लगभग दसगुनी हो गई. इसका कारण यह था कि इसी वर्ष कोठारी आयोग की सिफारिशें लागू हुई थीं.  कोठारी आयोग की इन सिफारिशों में अभ्यर्थियों की उम्र सीमा तो बढ़ाई ही गई थी परीक्षार्थियों को अंग्रेजी सहित संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं में लिखने की छूट भी मिल गई थी. इसका परिणाम यह हुआ कि देश के दूर दराज क्षेत्रों के पिछड़े और गरीब किन्तु प्रतिभाशाली अभ्यर्थियों को भी इस सर्वाधिक प्रतिष्ठित परीक्षा में शामिल होने का पहली बार अवसर नसीब हुआ था. अपनी भाषाओं में उत्तर लिखने की छूट के कारण सदियों से वंचित दलितों और शोषितों के भीतर आत्मविश्वास तो पैदा हुआ ही, उनके भीतर अपनी भाषाओं के प्रति प्रेम और निष्ठा का भी विकास हुआ. इसके पहले तो आईसीएस करने के लिए अभ्यर्थियों को इंग्लैंड जाना पड़ता था और परीक्षा का माध्यम सिर्फ अंग्रेजी थी.

भारत सरकार ने उच्च प्रशासनिक सेवाओं के लिये आयोजित सिविल सेवा परीक्षा की रिव्यू के लिए सन् 1974 में प्रो. डी.एस कोठारी ( 6.7.1906- 4.2.1993) की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई. इस कमेटी ने 1976 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी और उसी के आधार पर 1979 में भारत सरकार के उच्च पदों जैसे आईएएस, आईपीएस और बीस दूसरे विभागों के लिए एक सामान्य परीक्षा का आयोजन आरंभ हुआ. इसमें सबसे क्रान्तिकारी सुझाव अंग्रेजी सहित भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं के माध्यम से परीक्षा देने का विकल्प था. देश भर में परीक्षा केन्द्र भी बढ़ाए गए जिसके कारण ग्रामीण क्षेत्रों और कस्बों में रहने वाले पिछड़े और वंचित अभ्यर्थी भी इस परीक्षा में शामिल हो सकें. इसका जो तत्काल परिणाम आया उसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है. बाद में दिन प्रति दिन हिन्दी सहित दूसरी भारतीय भाषाओं के माध्यम वाले अभ्यर्थी बढ़ते गए और ग्रामीण क्षेत्र के प्रतिभाशाली अभ्यर्थी भी इस प्रतिष्ठित सेवा में आने लगे. हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के क्षेत्र में यह ऐतिहासिक घटना थी जिसका व्यापक और दूरगामी प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था.

कोठारी आयोग ने सुक्षाव दिया कि, हम पूरे विश्वास से यह कहना चाहते हैं जो अभ्यर्थी अखिल भारतीय सेवाओं की नौकरी में आना चाहते हैं उन्हें आठवीं अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं का ज्ञान होना अनिवार्य है. जिन्हें ये भाषाएँ नहीं आतीं वे सरकारी सेवाओं के लिए कत्तई उपयुक्त नहीं हैं. वास्तव में एक सही व्यक्तित्व के विकास के लिए यह जरूरी है कि हमारे नौजवानों को हमारी भाषाओं और उसके साहित्य का ज्ञान हो. इसलिए हमारी जोरदार सिफारिश है कि पहले और दूसरे चरण दोनों पर ही आठवीं अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं की परीक्षा अनिवार्य हो.(पैरा 3.22)

आयोग ने कहा कि, हमने परीक्षाओं के संदर्भ में अंग्रेजी की बात पर भी विचार किया. अंग्रेजी का हमारे देश में एक महत्वपूर्ण स्थान है. यह अखिल भारतीय स्तर के प्रशासन के लिए संपर्क भाषा भी है. बहुत सारे विश्वविद्यालयों में शिक्षा का माध्यम भी अंग्रेजी ही है. दुनिया भर के ताजा हालातों और विशेषकर विज्ञान और तकनीकी ज्ञान के लिए अंग्रेजी बहुत जरूरी भी है और इसीलिए अंग्रेजी का भी अनिवार्य पेपर होना चाहिए. (पैरा 3.23)

 सिविल सेवाओं में भारतीय भाषाओं की शुरुआत का असर था कि बाजार में विभिन्न विषयों में हिन्‍दी माध्यम की किताबें उपलब्ध होने लगीं. महत्वपूर्ण पुस्तकों के हिन्‍दी में अनुवाद होने लगे और बाजार ऐसी पुस्तकों से पट गया. राज्यों में विभिन्न भाषाओं की ग्रंथ अकादमियाँ स्थापित और सक्रिय होने लगीं.

हिन्दी के शुभचिन्तक आमतौर पर कहते हैं कि हिन्दी सहित अन्य सभी भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठा तभी मिलेगी जब उन्हें रोजगार से जोड़ा जाएगा. आजाद भारत में प्रो. डी.एस. कोठारी पहले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने भारतीय भाषाओं को रोजगार से जोड़ने का महान कार्य किया.

      इसके पूर्व प्रो. डी. एस. कोठारी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (1964-66) गठित हुआ था. इस शिक्षा आयोग के सचिव थे जे.पी.नायक (पुणे) और सह सचिव थे जे.एफ.मक्डौगल (यूनेस्को). आयोग के सदस्य थे ए.आर.डाउड (नई दिल्ली), एफ.एन.एल्विन (लंदन), आर.ए. गोपालस्वामी ( नई दिल्ली), वी.एस.झा ( लंदन), पी.एन. कृपाल, (शिक्षा सलाहकार, भारत सरकार), एम.वी.माथुर (राजस्थान विश्वविद्यालय), बी.पी. पाल ( नई दिल्ली), एस.पणंडीकर ( धारवाड़), सरोजर रेवेल्ले ( कैलीफोर्निया), के.जी.सईडेन ( शिक्षा सलाहकार, भारत सरकार), टी.सेन ( रेक्टर, यादवपुर यूनिवर्सिटी), जीन थामस ( यूनेस्को), एस.ए.शुमोवस्की ( मास्को) और सादातोशी इहारा( टोकियो). इसके अलावा दुनिया भर से शिक्षा-विशेषज्ञों के 20 सदस्यों का एक पेनल कंसल्टेंट भी नियुक्त था जिनमें जेम्स ई. एलेन ( यूएसए), सी.ई. बीबी ( हारवर्ड), पीएमएस बलैकेट (यूके), क्रिस्टोफर काक्स (यूके), फिलिप एच.कूम्ब्स (पेरिस), आंद्रे देनीरे ( हावर्ड), स्टेवान देदीजेर ( स्वीडेन), निकोलस डेविट (यूएसए) आदि प्रमुख हैं.

29 जून 1966 को इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की और उसके बाद भी हर स्तर पर भरपूर चर्चा के बाद 24 जुलाई 1968 को भारत की यह प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित की गई. यह पूर्ण रूप से कोठारी आयोग के प्रतिवेदन पर ही आधारित थी. इसका लक्ष्य था सामाजिक दक्षताराष्ट्रीय एकता एवं समाजवादी समाज की स्थापना. इसमें शिक्षा प्रणाली का रूपान्तरण कर 10+2+3 पद्धति पर कर दिया गया.  हिन्दी को सम्पर्क भाषा के रूप में विकसित करने पर विशेष जोर दिया गया. सबके लिए शिक्षा के समान अवसर की उपलब्धता का ख्याल रखा गया.  विज्ञान व तकनीकी शिक्षा के साथ ही नैतिक व सामाजिक मूल्यों के विकास पर जोर दिया गया.

इस शिक्षा नीति की दो बातें बेहद चर्चित रहीं. पहली, समान विद्यालय व्यवस्था (कामन स्कूल सिस्टम) और दूसरी विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा अपनी भाषाओं में देने का प्रस्ताव.

आयोग के सुक्षाव लागू होने के बाद शिक्षा के सभी चरणों मेंप्रादेशिक भाषाओं को शिक्षा का माध्‍यम बनाने का प्रयास हुआ.  प्राथमिक शिक्षा को सिर्फ मातृभाषाओं के माध्यम से देने पर जोर दिया गया. कोठारी शिक्षा आयोग का सुक्षाव था कि प्राथमिक स्तर तक बच्चों को सिर्फ एक भाषा पढ़ाई जानी चाहिए और वह या तो मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा ही होनी चाहिए.  आयोग का सुझाव था कि अंग्रेजी भाषा संसार से हमारे संपर्क का मुख्‍य माध्‍यम है और आधुनिक वैज्ञानिक युग के बढ़ते हुए ज्ञान को प्राप्‍त करने का भी मुख्‍य साधन है. इसलिए अंग्रेजी को प्रोत्‍साहन मिलना चाहिए और उसपर विशेष बल दिया जाना चाहिए.  आयोग ने सुक्षाव दिया था कि गैर हिन्‍दी क्षेत्रों में हिन्‍दी के अध्‍ययन को प्रोत्‍साहित किया जाना चाहिए ताकि वह संघ की राजभाषा के रूप में अपना दायित्व निभा पाने में सक्षम हो सके और भारत की सभी भाषाओं के बीच सम्‍पर्क स्‍थापित करने में सहायक हो सके. आयोग ने सुझाव दिया कि पूरे देश में ईमानदारी से त्रिभाषा फार्मूला अपनाया जाना चाहिए.

कोठारी शिक्षा आयोग की शिक्षा नीति में हिन्दी और भारतीय भाषाओं को लेकर स्पष्ट निर्देश है. वहाँ भाषाओं का विकास शीर्षक तीसरे अनुच्छेद में क्षेत्रीय भाषाओं, त्रिभाषा फार्मूला, हिन्दी, संस्कृत और अंतरराष्ट्रीय भाषाओं को लेकर अलग- अलग निर्देश है. यहाँ देश में शैक्षिक और सांस्कृतिक विकास के लिए भारतीय भाषाओं और उसके साहित्य के विकास को अनिवार्य शर्त के रूप में रेखांकित किया गया है और कहा गया है कि क्षेत्रीय भाषाओं के विकास के बिना न तो लोगों की रचनात्मक ऊर्जा निखरेगी, न तो शिक्षा का स्तर उन्नत होगा और न ज्ञान का आम जनता तक प्रसार हो सकेगा. बौद्धिक समुदाय और आम जनता के बीच की खाई भी यथावत बनी रहेगी. वहाँ कहा गया है कि देश में प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर शिक्षा के माध्यम के रूप में क्षेत्रीय भाषाएँ पहले से ही प्रयोग में हैं, इन्हें विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा के माध्यम के रूप में अपनाने के लिए तत्काल कदम उठाने की जरूरत है. 

त्रिभाषा फार्मूला को लेकर कोठारी शिक्षा आयोग के सुझाव अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. त्रिभाषा फार्मूला एक ऐसा प्रावधान है जिसके साथ हिन्दी क्षेत्र ने हमेशा से बेईमानी की है. कोठारी शिक्षा आयोग द्वारा हिन्दी भाषी राज्यों के लिए स्पष्ट निर्देश था कि, हिन्दी भाषी राज्य के लोग हिन्दी और अंग्रेजी के साथ दक्षिण की कोई एक आधुनिक भाषा अपनाएंगे और इसी के साथ अहिन्दी क्षेत्र के लोग एक अपनी राज्य की भाषा, एक अंग्रेजी और एक संघ की राजभाषा हिन्दी अपनाएंगे.“  किन्तु हिन्दी क्षेत्र के लोगों ने हिन्दी और अंग्रेजी के साथ उर्दू या संस्कृत को अपना लिया और खुद दक्षिण वालों से हिन्दी पढ़ने की अपेक्षा करते रहे. यह गलत था. संस्कृत, चाहे जितनी भी समृद्ध हो किन्तु वह आधुनिक भाषा नहीं है और इसी तरह उर्दू और हिन्दी एक ही भाषा की दो शैलियाँ मात्र हैं. ये अलग- अलग जाति की भाषाएँ नहीं है. कोठारी आयोग द्वारा प्रस्तावित त्रिभाषा फार्मूला हमारे देश की भाषा समस्या को हल करने की दिशा में आज भी सर्वाधिक उपयुक्त फार्मूला है और जरूरत उसपर ईमानदारी से अमल करने की थी किन्तु राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 के माध्यम से इसे अब विस्थापित कर दिया गया है.

हमारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में त्रिभाषा फार्मूले की बात तो बार- बार की गई है किन्तु यहाँ त्रिभाषा से क्या तात्पर्य है- इस संबंध में कुछ भी स्पष्ट नहीं है. हाँ, अनुच्छेद- 4.17 में संस्कृत को महत्वपूर्ण आधुनिक भाषा बताते हुए कहा गया है कि, इस प्रकार संस्कृत को त्रि-भाषा के मुख्यधारा विकल्प के साथ, स्कूल और उच्चतर शिक्षा के सभी स्तरों पर छात्रों के लिए एक महत्वपूर्ण, समृद्ध विकल्प के रूप में पेश किया जाएगा. ऐसी दशा में यदि बंगाल, गुजरात, केरल या तमिलनाडु के लोग अपने-अपने राज्यों की भाषाएँ क्रमश: बांग्ला, गुजराती, मलयालम और तमिल के साथ संस्कृत और एक विदेशी भाषा (अंग्रेजी) पढ़ें तो त्रिभाषा फार्मूले का समुचित अनुपालन माना जाएगा. इतना ही नहीं, राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुच्छेद 4.13 में स्पष्ट कहा गया है कि, तीन भाषा के इस फार्मूले में काफी लचीलापन रखा जाएगा और किसी भी राज्य पर कोई भाषा थोपी नहीं जाएगी. इस तरह त्रिभाषा फार्मूले में हिन्दी के लिए कोई जगह नहीं है. हिन्दी को उसके स्थान से पदच्युत कर दिया गया है. यह भी उल्लेखनीय है कि थोपी जाने का आरोप हमेशा हिन्दी को लेकर ही लगता रहा है.  हम संस्कृत का सम्मान करते हैं. उसमें भारत की सांस्क़तिक विरासत है. उसका अध्ययन होना ही चाहिए किन्तु हिन्दी को हटाकर नहीं. वह हिन्दी का विकल्प नहीं है.

 कोठारी शिक्षा आयोग का सुझाव था कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली में सम्‍पन्‍न वर्ग और गरीब जनता के बीच गहरी खाई पैदा हो गई है. इसमें एक ओर तो ऐसी शिक्षण संस्‍थाएँ हैं जिनमें अमीरों तथा सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से संपन्न लोगों के बच्‍चे पढ़ते हैं और दूसरी ओर सरकारी शिक्षण संस्‍थाएँ हैं जिनमें गरीब और दलित लोगों के बच्चे पढ़ते हैं.  भारतीय सामाज के सर्वांगीण विकास तथा संविधान द्वारा निर्देशित सबको अवसर की समानता उपलब्ध कराने की दृष्टि से यह स्तर-भेद खत्म होना चाहिए. अत: सरकार को चाहिए कि सभी बच्‍चों को स्‍कूलों की एक सामान्‍य प्रणाली में शिक्षा प्राप्‍त करने का अवसर उपलब्ध कराए. प्राथमिक शिक्षा के लिए विशेष रूप से इसे पड़ोसी स्‍कूल का प्रतिमान अपनाना चाहिएजिसमें सब बच्‍चे- चाहे वे किसी भी जातिप्रजातिधर्मलिंग या वर्ण के हों- मोहल्‍ले के एक सामान्‍य प्राथमिक स्‍कूल में पढ़ने जाएँ.  

राजस्थान के उदयपुर में एक निम्न मध्यवर्गीय जैन परिवार में दौलत सिंह कोठारी का जन्म हुआ था. उनके पिता का नाम फतेहलाल कोठारी और माँ का नाम लहर बाई था. पिता प्राइमरी स्कूल के अध्यापक थे.  जब दौलतसिंह कोठारी 12 साल के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया. इसके बाद वे अपने पिता के मित्र के पास इंदौर आ गए. यहीं उनकी माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा हुई.  इसके आगे की उनकी शिक्षा मेवाड़ के महाराणा द्वारा दी गई छात्रवृति से हुई.  उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से भौतिकी में एमएससी की. यहाँ उनके गुरु विश्वविख्यात भौतिकविज्ञानी मेघनाथ साहा थे. इसके बाद शोध के लिए वे कैम्ब्रिज चले गए. वहाँ न्यूक्लियर फिजिक्स के फादर कहे जाने वाले लॉर्ड अर्न्स्ट रदरफोर्ड के निर्देशन में उन्होंने डॉक्टोरेट किया. इसके बाद कोठारी भारत लौट आए और 1934 में वे दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए.

 लार्ड रदरफोर्ड ने दिल्ली विश्‍वविद्यालय के तत्कालीन वाइस चांसलर सर मॉरिस ग्वायर को लिखा था कि मैं बिना हिचकिचाहट कोठारी को कैम्ब्रिज विश्‍वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त करना चाहता हूँ परंतु यह नौजवान पढ़ाई पूरी करके तुरंत देश लौटना चाहता है.”

डॉ. कोठारी 1961 तक दिल्ली विश्वविद्यालय में रहे. इस दौरान वे कुछ वर्ष तक भौतिकी के विभागाध्यक्ष भी रहे. प्रो. डी.एस. कोठारी भारत के महान वैज्ञानिकों में से थे. भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की विज्ञान नीति में जो लोग शामिल थे उनमें होमी भाभाडॉ. मेघनाथ साहा, सी.वी. रमन के साथ डॉ. डी.एस.कोठारी भी थे. वे 1948 से 1961 तक रक्षा मंत्रालय, भारत सरकार के वैज्ञानिक सलाहकार थे तथा 1961 से 1973 तक यूजीसी के चेयरमैन थे. वे भारत की शिक्षा व्यवस्था को आधुनिक और स्तरीय बनाने के लिए गठित पहले राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के अध्यक्ष थे. वे भारत में रक्षा विज्ञान के वास्तुकार थे. वे नवल कैमिकल एंड मेटैलर्जिकल लेबोरेट्री मुंबई, इंडियन नवल फिजिकल लेबोरेट्री कोच्ची, सेंटर फॉर फायर रिसर्च दिल्ली, सॉलिड स्टेट फिजिक्स लेबोरेट्री दिल्ली, डिफेंन्स फूड रिसर्च लेबोरेट्री मैसूर,  डिफेन्स इंस्टीच्यूट ऑफ फिजिओलॉजी एंड एलॉयड साइंस चेन्नई, डाइरेक्टोरेट ऑफ साइकॉलाजिकल रिसर्च नई दिल्ली, डिफेन्स इलेक्ट्रॉनिक्स एंड रिसर्च लेबोरेट्री हैदराबाद, साइंटिफिक इवेलुएशन ग्रुप दिल्ली, टेक्निकल बैलिस्टिक रिसर्च लैबोरेट्री, चंडीगढ़ आदि भारत के अधिकाँश डीआरडीओ लैब के संस्थापक थे. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तथा एनसीईआरटी के गठन और स्थापना में उनकी केन्द्रीय भूमिका थी. वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के चांसलर भी थे. इसके अलावा प्रो. कोठारी ने इंडियन साइंस कांग्रेस के गोल्डेन जुबली सेशन 1963 की अध्यक्षता की थी और वे इंडियन नेशनल साइंस अकादमी (1973) के भी अध्यक्ष चुने गए थे.

प्रेमपाल शर्मा ने लिखा है, गाँधी, लोहिया के बाद आजाद भारत में भारतीय भाषाओं की उन्नति के लिए जितना काम डॉ. कोठारी ने किया उतना किसी अन्य ने नहीं. यदि सिविल सेवाओं की परीक्षा में अपनी भाषाओं में लिखने की छूट न दी जाती तो गाँव, देहात के गरीब और आदिवासी लोग उच्च सेवाओं में कभी नहीं जा पाते ..... शिक्षा आयोग की सिफारिशों के महत्व का अंदाजा  इस बात से लगाया जा सकता है कि 1971 में यूनेस्को द्वारा डॉ. एडगर फाउर की अध्यक्षता में  जब शिक्षा के विकास पर अंतरराष्ट्रीय आयोग का गठन किया गया तब उन्होंने कोठारी आयोग की रिपोर्ट को ही आधार बनाया था. इस आयोग ने अगले दो दशकों तक दुनिया के विभिन्न देशों में  शिक्षा के विकास पर कार्य किया. ( भाषा का भविष्य, पृष्ठ-112) 

प्रो. डी.एस.कोठारी के व्यक्तित्व के बारे में उनकी पौत्री दीपिका कोठारी ने सुनहरी स्मृतियाँ नाम से एक पुस्तक लिखी है. इसमें वे अपने दादा के व्यक्तित्व के बारे में कहती हैं कि विश्वविद्यालय में रहते हुए जब भी वेतन बढ़ाने की माँग आती वे अपने सहकर्मियों को यही कहते, “ऐसे अवसर तुम्हें कहाँ मिलेंगे जहाँ तुम्हें अपनी पसंद का कार्य करने के लिए पैसा भी मिलता हो और रुचि का काम भी करने दिया जा रहा हो. उसकी कुछ कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी. शिक्षा को वे अपने जीवन में शायद सबसे उँचा दर्जा देते थे. उन्हीं के शब्दों में शिक्षण एक उत्कृष्ट कार्य है और किसी विश्वविद्यालय का शिक्षक होना उच्चतम अकादमिक सम्मान है. इसीलिये जीवन पर्यन्त वे शिक्षा और शिक्षण से जुड़े रहे, कभी गुरू बनकर तो कभी विद्यार्थी बनकर. (उद्धृत, भाषा का भविष्य, पृष्ठ-113)

न्यूक्लियर एक्सप्लोजन्स एंड देयर इफेक्ट्सऐटम एंड सेल्फनॉलेज एंड विज्डम, ‘शिक्षा विज्ञान और मानवीय मूल्य’, ‘विज्ञान और मानवता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं.

अनेक पुरस्कारों के साथ उन्हें भारत सरकार का पद्मभूषण और पद्मविभूषण सम्मान भी प्राप्त हुआ था.

हम प्रो. दौलतसिंह कोठारी की पुण्यतिथि पर उनके द्वारा हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के लिए किए गए उनके कार्यों का स्मरण करते हैं और उन्हे श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.

(लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)

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मातृभाषा और बच्चों की प्रारंभिक शिक्षा में भारतीय भाषाओं का महत्व...,
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