सोमवार, 24 अगस्त 2020
शुक्रवार, 21 अगस्त 2020
[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] क्या नई शिक्षा नीति से लौटेगा मातृभाषा माध्यम ? (स्वतंत्रता दिवस पर गूगल मीट पर वैश्विक ई-संगोष्ठी आयोजित)
क्या नई शिक्षा नीति से लौटेगा मातृभाषा माध्यम ?
(स्वतंत्रता दिवस पर गूगल मीट पर वैश्विक ई-संगोष्ठी आयोजित)
नई शिक्षा नीति में प्राथमिक स्तर तक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा किए जाने के संबंध में वैश्विक हिंदी सम्मेलन द्वारा स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त 2020 को गूगल मीट पर वैश्विक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इस संगोष्ठी में देश के विभिन्न राज्यों की और विभिन्न भाषाओं के प्रतिनिधियों ने सहभागिता की। संगोष्ठी का विषय था क्या नई शिक्षा नीति से लौटेगा मातृभाषा का माध्यम ?
संगोष्ठी का संचालन करते हुए वैश्विक हिंदी सम्मेलन के निदेशक डॉ. एम. एल. गुप्ता 'आदित्य' ने राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त की पंक्तियों को उद्धृत किया, 'हम कौन थे क्या हो गए, और क्या होगी अभी। आओ मिलकर विचारें, ये समस्याएं सभी। इन पंक्तियों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि अक्सर लोग यह सोचते हैं कि भारत का अंग्रेजीकरण अंग्रेजों ने किया जबकि सत्य यह है कि स्वतंत्रता के समय भी देश के 99% से भी बहुत अधिक लोग मातृभाषा में ही पढ़ते थे। भारत के संविधान में हमने हिंदी को राजभाषा बनाया और विभिन्न राज्यों की भाषाओं को वहां की राजभाषा बनाया और धीरे-धीरे अंग्रेजी को समाप्त करते हुए भारतीय भाषाओं को अपनाने का संकल्प लिया। लेकिन इसके ठीक विपरीत शासन-प्रशासन सहित जीवन के हर क्षेत्र में अंग्रेजी तेजी से बढ़ती गई और देश के छोटे-छोटे गांवों तक अंग्रेजी माध्यम पहुंच गया। अब नई शिक्षा नीति में सरकार ने प्राथमिक स्तर या उससे आगे की शिक्षा मातृभाषा में देने की बात कही है। लेकिन तस्वीर अभी भी बहुत साफ नहीं है आज देश के सामने यह प्रश्न खड़ा है कि क्या नई शिक्षा नीति से शिक्षा में मातृभाषा माध्यम लौटेगा ?
मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित इंदौर से श्री वैष्णव विद्यापीठ विश्वविद्यालय के कुलपति श्री उपेंद्र धर ने कहा कि यह अच्छी बात है कि नई शिक्षा नीति में सभ्यता, संस्कार, मातृभाषा और सभी भारतीय भाषाओं की बात हुई है। लेकिन मातृभाषा माध्यम लौटेगा कि नहीं यह कह नहीं सकते ? जिन महानगरों में विभिन्न मातृभाषाओं को बोलने वाले रहते हैं, वहाँ पर स्कूल कितनी भाषाओं के शिक्षकों को भर्ती कर सकेगा? कितनी भाषाओं में पढ़ा सकेगा? नवीं के बाद मातृभाषा के अभाव में क्या होगा, स्पष्ट नहीं है? जब विदेशी, अंतर्राष्ट्रीय संस्थान आएँगे, क्या तब उनमें मातृभाषा वाले जा सकेंगे, आगे क्या होगा ? अभिभावकों की दृष्टि से यह भी विचारणीय है कि क्या मातृभाषा के माध्यम से उनके बच्चों को उच्च शिक्षा मिल पाएगी ? क्या वे उससे उच्च पदों पर पहुंच सकेंगे ? नई शिक्षा नीति में शिक्षा के वैश्वीकरण की बात की जा रही है, तो प्रश्न यह उठता है कि क्या मातृभाषा से पढ़े हुए बच्चे इन विश्वविद्यालयों में पढ़ पाएंगे ? अभी शिक्षा नीति मैं व्यापक स्तर पर नीति निर्देश हैं। आगे चलकर इसका स्वरूप तैयार होगा। 'वैश्विक हिंदी सम्मेलन' ने पहल करते हुई इस दिशा में एक अच्छी शुरुआत की है। यह उचित होगा कि 'वैश्विक हिंदी सम्मेलन' द्वारा इस संबंध में विभिन्न शंकाओं और सुझावों को सरकार के सामने रखा जाए।
मुंबई विश्वविद्यालय के बोर्ड ऑफ स्टडीज के पूर्व अध्यक्ष एवं 'महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी' के पूर्व अध्यक्ष डॉ शीतला प्रसाद दुबे ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि आज शिक्षा ज्ञान का माध्यम ही नहीं बल्कि उससे पहले आजीविका का माध्यम है। केंद्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय, राज्य सरकारों के ओर महानगरपालिकाओं के विद्यालय, अनुदानित और गैर अनुदानित विद्यालयों द्वारा शिक्षा प्रदान की जाती है। मुंबई में सरकारी स्कूलों में जनसंख्या के अनुसार विभिन्न भाषा माध्यमों में शिक्षा दी जाती है, वहां सब कुछ निशुल्क होता है लेकिन इसके बावजूद भी वहां कोई जाना नहीं चाहता क्योंकि हर कोई उसमें स्टेटस नहीं पाता। दूसरी तरफ चकाचौंध वाले कॉर्पोरेट जैसे विद्यालय हैं। ऐसे में अभी बहुत से प्रश्न अनुत्तरित हैं, क्या होगा और कैसे होगा ? लेकिन शुभ संकेत यह है कि 34 वर्ष तक मातृभाषा पर कभी चर्चा नहीं हुई और अब नई शिक्षा नीति में भाषा, संस्कार और संस्कृति को लेकर बात हुई है। हो सकता है कि आगे चलकर राज्य सरकारों को निर्देश दिए जाएं कि वे भारतीय भाषाओं को ही शिक्षा के माध्यम के रूप में अपनाएँ और रोजगार की दृष्टि से भी इस पर विचार किया जाए। यह उचित समय है कि देश भर में इस समय व्यापक विचार-विमर्श करें । 'वैश्विक हिंदी सम्मेलन' द्वारा इस संबंध में की गई पहल सराहनीय है।
पटना से संगोष्ठी में जुड़े वरिष्ठ भाषासेवी, वीरेंद्र कुमार यादव, जो कि हिंदी सलाहकार समिति के सदस्य, और विश्व हिंदी दिवस के प्रस्तावक भी हैं, उन्होंने कहा कि नई शिक्षा नीति मैं मातृभाषा माध्यम से अंग्रेजीराज को समाप्त करने में मदद मिलेगी। देखना यह है कि इसे कितनी कड़ाई से और कैसे लागू किया जाता है ? क्योंकि अभी इन बातों को लेकर काफी असमंजस की स्थिति है। उन्होंने कहा कि देसी ज़बान और निजीकरण की योजना दोनों परस्पर विरोधाभासी हैं। इसमें अनेक व्यावहारिक कठिनाइयां हैं। उन्होंने कहा कि विदेशी विश्वविद्यालयों को आमंत्रित किया जाएगा तो क्या वे हमारी भाषाओं को उचित स्थान और सम्मान देंगे ? एक प्रश्न यह भी है कि अखिल भारतीय सेवाओं के कार्मिक जो जिनका स्थानांतरण होता रहता है, वे अपने बच्चों को किस माध्यम से पढ़ाएंगे? फिर यह कि राज्य सरकारें क्या केंद्र की नीति को स्वीकार करेंगी ? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब शिक्षा-दीक्षा, रोजगार, प्रतिष्ठा और पद अंग्रेजी के पक्ष में रहेंगे तो माता-पिता अपने बच्चों को मातृभाषा माध्यम में कैसे पढ़ाएँगे? उनका कहना था कि इन तमाम बिंदुओं के आधार पर ही मातृभाषा माध्यम का भविष्य निर्भर करेगा। नीति तभी सफल होगी जब इसमें व्यावहारिकता होगी।
कोलकाता विश्वविद्यालय के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर अमरनाथ का कहना था कि यदि नई शिक्षा नीति में मातृभाषा के साथ अंग्रेजी भाषा का विकल्प रहेगा तो कुछ भी नहीं बदलेगा, यथास्थिति ही बनी रहेगी। शिक्षा नीति में ही दो जगह लिखा गया है कि यथासंभव। फिर जब नौकरियाँ अंग्रेजी से मिलेंगी तो कोई क्यों मातृभाषा में जाएगा। किसीको समझाने से कुछ नहीं होनेवाला, यह गलतफहमी है। उन्होंने यह माँग रखी कि सबके लिए एक समान शिक्षा, मुफ्त शिक्षा और केवल प्राथमिक स्तर तक नहीं बल्कि समूची शिक्षा मातृभाषा में दिए जाने की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि गांवों की प्रतिभाएँ भी आगे बढ़ सकें। उन्होंने कहा जब तक हम मातृभाषा में पढ़ते थे भारत विश्व-गुरू रहा और ज्ञान-विज्ञान के सभी क्षेत्रों में भारत विश्व में अग्रणी रहा। हमारे बच्चे पढ़ते हैं अंग्रेजी में, सोचते हैं मातृभाषा में, फिर अनुवाद करके लिखते हैं अंग्रेजी में। उनकी आधी जिंदगी तो अंग्रेजी के चक्कर में ही निकल जाती है। कानपुर से राष्ट्रवादी लेखक संघ की राष्ट्रीय संयोजक यशोभान तोमर ने स्वतंत्रता पूर्व भारतीय भाषाओं की स्थिति को प्रस्तुत करते हुए कहा कि 1986 की शिक्षा नीति में कंप्यूटर और वैश्वीकरण की बात करते हुए अंग्रेजी को निरंतर बढ़ाया गया और योदनाबद्ध रूप से मातृभाषाओं के स्थान पर अंग्रेजी को स्थापित किया गया। उन्होंने आशा व्यक्त की कि नई शिक्षा नीति के माध्यम से 1986 से पहले की स्थिति लौटेगी और भारत में मातृभाषा में विद्यार्थियों की पढ़ाई होने लगेगी।
पटियाला से पंजाब विश्वविद्यालय के भाषा -विज्ञान के प्रोफ़ेसर व भारतीय भाषा सेनानी जोगा सिंह विर्क का कहना था मुझे लगता है कि नई शिक्षा नीति से अंग्रेजी और तेजी से आगे बढ़ेगी। अभी 12वीं कक्षा तक विज्ञान मातृभाषा में पढ़ने की व्यवस्था है। लेकिन नई शिक्षा के बाद छठी कक्षा से विज्ञान अंग्रेजी में अनिवार्य रूप से पढ़ाया जाएगा। पहले अंग्रेजी छठी के बाद अंग्रेजी आती थी लेकिन अब तो अंग्रेजी चौथे साल में ही जरूरी हो जाएगी। दूसरी बात यह है कि शिक्षा नीति में दो जगह लिखा है जहां तक संभव होगा। इसका मतलब यह है कि अंग्रेजी माध्यम का विकल्प भी मौजूद रहेगा। जाहिर है इसके कारण अंग्रेजी माध्यम के स्कूल मातृभाषा में नहीं आएँगे। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय की ओर भी ध्यान आकर्षित किया जिसमें कर्नाटक सरकार के मातृभाषा में पढ़ाने के फैसले को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी। उच्च न्यायालय में कर्नाटक सरकार के पक्ष में निर्णय दिया लेकिन बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने उस निर्णय को पलटते हुए यह कहा कि यह मां-बाप का अधिकार है, वे जिस माध्यम में चाहे बच्चों को पढ़ा सकते हैं। इन सब कारणों से अंग्रेजी का वर्चस्व और अधिक बढ़ेगा। शिक्षा नीति में यह कहा गया है कि बच्चा कम उम्र में ज्यादा भाषाएं सीख लेता है जबकि दुनिया में अंग्रेजी का प्रसार करने वाली संस्था का ऐसा मानना नहीं है, उनका यह मानना है कि 15 साल के बाद बच्चा विदेशी भाषा जल्दी सीखता है। जब भारत के शिक्षा नीतिकारों की भाषा सिखाने के संबंध में जानकारी का स्तर ऐसा होगा तो क्या किया जा सकता है। लेकिन जिस प्रकार अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों का स्तर गिर रहा है और वे लूट के अड्डे बनते जा रहे हैं इसके चलते अनेक लोग अंग्रेजी माध्यम को छोड़कर मातृभाषा माध्यम के स्कूलों की तरफ लौट रहे हैं।
राजभाषा विभाग के पश्चिम क्षेत्र की बांग्ला भाषी उपनिदेशक (कार्ययान्वयन)
और वैश्विक हिंदी सम्मेलन की मानद संयोजक डॉ सुस्मिता भट्टाचार्य का कहना था कि पहले हमें उन लोगों से भी बात करनी चाहिए जिन पर यह शिक्षा नीति लागू होनी है, उन्हें कैसी लग रही है ? ज्यादातर विद्यार्थियों ने तो इसका स्वागत ही किया है। कुछ पूर्व विद्यार्थियों ने यहांँ तक कहा है कि काश उनके समय में ऐसी शिक्षा नीति होती। जहाँ तक शिक्षा में मातृभाषा माध्यम लौटने की बात है इस मामले में तस्वीर साफ नहीं है। लेकिन इतना अवश्य है कि यदि अभी मातृभाषा माध्यम नहीं लौटा तो फिर कभी नहीं लौटेगा। इसलिए जन जागरण की आवश्यकता है। विद्यार्थियों के बौद्धिक विकास के लिए मातृभाषा के अलावा कोई अन्य विकल्प भी नहीं है। उन्होंने कहा कि जब मैं विद्यार्थी थी उस समय बंगाल में बांग्ला माध्यम के बहुत अच्छे स्कूल होते थे। ज्यादातर अभिभावक अपने बच्चों को गणित और विज्ञान के लिए मातृभाषा में ही भेजना चाहते थे ताकि उनका इस क्षेत्र में स्वाभाविक विकास हो सके। उन्होंने कहा कि हमारे देश में ज्यादातर राजनीतिक दल किसी मुद्दे को मेरिट के आधार पर नहीं बल्कि इस आधार पर स्वीकार या विरोध करते हैं कि वह किस दल ने रखा है और वे उनके साथ में है या उनके विरोध में। मैं तो यही कहना चाहूंगी कि विद्यार्थियों के हित में तो कम से कम हमें राजनीतिक विरोध की नीति छोड़ कर विद्यार्थी हित की नीति अपनानी चाहिए।
पुणे-महाराष्ट्र से भाषा सेवी अनिल गोरे (मराठी काका) ने महाराष्ट्र के विद्यालयों में मराठी को अपनाने के लिए किए जा रहे कार्यों की जानकारी देते हुए कहा कि नई शिक्षा नीति में विद्यालयों में अंग्रेज़ी अनिवार्य नहीं रहनी चाहिए। उनका कहना था कि उनके प्रयासों से लाखों विद्यार्थी अंग्रेजी माध्यम से मराठी माध्यम की तरफ लौटे हैं। उनका कहना था कि विद्यार्थियों को मातृभाषा की ओर ले जाने के लिए सरकारी नीति से भी ज्यादा माता- पिता को जागृत करने की आवश्यकता है।मल्लपुरम केरल के गणित के शिक्षक और भारतीय भाषा मंच के राष्ट्रीय न्यासी और दक्षिण भारत के संयोजक श्री ए. विनोद का कहना था कि नई शिक्षा नीति से मातृभाषा की अनिवार्यता समाप्त हो जाएगी और बच्चे अंग्रेजी माध्यम के डर से मुक्त हो कर आनन्द से मातृभाषा में पढ़ सकेंगे। नोकरी के क्षेत्र में भी अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त होगी। भारत गुणवत्ता मातृभाषा की ओर जाएगा।
इंदौर के भाषा-सेवी व 'वैश्विक हिंदी सम्मेलन' के उपाध्यक्ष निर्मलकुमार पाटोदी ने कहा कि नई शिक्षा नीति में प्रस्तावित सुधार एक सीमा तक सराहनीय है। किंतु भारतीय भाषाओं को सभी स्तर महत्व देने पर जानबूझकर छोड़ दिया गया है। संविधान के अनुसार शिक्षा नीति लागू करने के अधिकार राज्यों की सरकारों के पास हैं। नीति में स्पष्ट नहीं किया गया है कि यदि राज्यों की सरकारें नीति का पालन नहीं करेंगी, क्या स्थिति बनेगी ? नई शिक्षा नीति को अंतिम रूप देते समय सरकार के मन में भय रहा है कि शिक्षा में भारतीय भाषाओं को समुचित रूप से महत्व दिया गया, तो विपक्षी दल और राज्यों में उनकी सरकारें बड़ी बाधा खड़ी कर देंगे, इसलिए पाँचवीं और आठवीं कक्षा तक मातृभाषा और राज्यों की भाषाओं के लिए ठोस निर्णय न लेते हुए अधकचरापन अपना लिया गया है। संसद में नई शिक्षा नीति प्रस्तुत करने से पहले भारतीय भाषाओं को अपनाने से पहले सभी दलों की सहमति लेने के लिए अविलंब उनके साथ बैठक बुलानी चाहिए। शिक्षा नीति में एक प्रावधान यह किया जाना चाहिए कि शिक्षा का माध्यम उच्चतम स्तर तक देश की सभी मान्यता प्राप्त भाषाओं को बनाया जाए। शिक्षा में भारतीय भाषाओं को महत्व देने के साथ केन्द्र सरकार और राज्यों में भी न्याय और प्रशासन में भारतीय भाषाओं को अपनाने का निर्णय लिया जाए। अंबाला, से सम्मिलित भाषा-सेवी प्रेमचंद अग्रवाल का कहना था कि जब तक रोजगार के क्षेत्र में भारतीय भाषाओं को उचित स्थान नहीं मिलेगा तब तक मातृभाषा में शिक्षा का लाभ नहीं होगा, इसमें सफलता नहीं मिल पाएगी।
पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय की हिंदी विभागाध्यक्ष श्रीमती मंगला रानी ने यह सवाल उठाया कि अन्य राज्यों में रहने वाली विद्यार्थी जिन की भाषा अलग है वे किस प्रकार अपने बच्चों को अपनी मातृभाषा में पढ़ा सकेंगे? बोलियों को मातृभाषा के रूप में अपनाए जाने के संबंध में उन्होंने बताया कि बिहार में उनकी अनेक लोगों से बात हुई है। सबका यही कहना है कि वह बोलियों में नहीं बल्कि हिंदी में पढ़ाना पसंद करेंगे। नासिक से भारतीय स्टेट बैंक में कार्यरत एवं हिंदी सेवी राहुल खट्टी ने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि जब गरीब से गरीब अभिभावक भी रोजगार और उच्च शिक्षा के अवसरों को देखते हुए अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में भेजना चाहते हैं तो ऐसी में मातृभाषा माध्यम से शिक्षा कैसे संभव हो सकेगी ?
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प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
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लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो.: 09703982136
[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] Fwd: इंडिया नहीं, भारत ही कहा जाए : निर्मलकुमार पाटोदी । मातृभाषा परिवार का एक करोड़ हस्ताक्षर बदलवाने का संकल्प। तुलसीदास का जीवन। प्रो. जोगा सिंह विर्क
भारत देश के नाम से अंग्रेजों की गुलामी का प्रतीक इंडिया शब्द हटाने के लिए प्रस्तुत याचिका (पिटीशन) के समर्थन के लिए
इंडिया नहीं, भारत ही कहा जाए।निर्मलकुमार पाटोदीइंडिया को भारत ही कहा जाए। एक राष्ट्रवादी सरकार के बाद अब देश का प्रबुद्ध नागरिक भी सचेत हो गया है और भारत के धर्म के साथ साथ सांस्कृतिक एवं धार्मिक प्रभुसत्ता को स्थापित करने में योगदान देने चल पड़ा है। हमारे देश का नाम इंडिया की जगह भारत ही कहने पर बहस छिड़ी है। यह मांग उठी है कि भारतीय संविधान में लिखित 'इंडिया दैट इज़ भारत' को बदलकर केवल भारत कर दिया जाए।
भारत का संविधान तत्कालीन कारणवश सिर्फ भारत नाम को ही आधार बना कर नहीं लिखा गया बल्कि इसके खंड १ के अन्नुछेद एक में निम्नलिखित वाक्य प्रयुक्त हुआ :
"भाग 1
1. संघ का नाम और राज्यक्षत्रे –(1) भारत, अर्थात इंडिया राज्यों का संघ होगा।"
भारत नाम के उद्भव की पृष्ठभूमि को देखने पर हम पाते हैं की प्राचीनकाल से भारतभूमि के अलग-अलग नाम रहे हैं जैसे जम्बूद्वीप, भारतखण्ड, हिमवर्ष, अजनाभवर्ष, भारतवर्ष, आर्यावर्त, हिन्द। इनमें भारत सबसे ज़्यादा लोकमान्य और प्रचलित एवं स्वीकार्य हो गया। भारत की वैविध्यपूर्ण संस्कृति की तरह ही अलग-अलग कालखण्डों में इसके अलग-अलग नाम भी मिलते है। इन नामों में कभी भौगोलिक दशा का वर्णन आता है तो कभी जातीय चेतना और कभी संस्कार। हिन्द, हिन्दुस्तान, इंडिया जैसे नाम भौगोलिक रूप से उत्पत हैं क्योंकि इन नामों के मूल में सिन्धु नदी का प्रभाव दीखता है। सिन्धु का अर्थ नदी भी है और सागर भी।
पौराणिक युग में भरत नाम के अनेक व्यक्ति हुए। दुष्यन्तसुत के अलावा दशरथपुत्र भरत भी प्रसिद्ध हैं। नाट्यशास्त्र के रचयिता भरतमुनि है। मगधराज इन्द्रद्युम्न के दरबार में भी एक भरत ऋषि थे, एक योगी भरत हुए हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में भी दुष्यन्तपुत्र भरत ही भारत नामकरण के कारक हैं क्योंकि भरत एक चक्रवर्ती सम्राट बनें जिन्होंने चारों दिशाओं की भूमि का अधिग्रहण कर विशाल साम्राज्य का निर्माण कर अश्वमेध यज्ञ किया, उनके द्वारा निर्मित भूखंड को भारतवर्ष नाम मिला। मत्स्यपुराण में उल्लेख है कि मनु को प्रजा को जन्म देने वाले वर और उसका भरण-पोषण करने के कारण भरत कहा गय। जिस भू खण्ड पर उसका शासन-वास था उसे भारतवर्ष कहा गया। नामकरण के सूत्र जैन परम्परा तक में मिलते है। भगवान ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र महायोगी भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। इतिहास के अध्येताओं का आमतौर पर मानना है कि भरतजन इस देश में दुष्यन्तपुत्र भरत से भी पहले से थे। इसलिए यह तार्किक है कि भारत का नाम किसी व्यक्ति विशेष के नाम पर न होकर जाति-समूह के नाम पर प्रचलित हुआ। भरतजन अग्निपूजक, अग्निहोत्र व यज्ञप्रिय थे। वैदिकी में भरत / भरथ का अर्थ अग्नि, लोकपाल या विश्वरक्षक (मोनियर विलियम्स) और एक राजा का नाम है। जहाँ तक जम्बुद्वीप की बात है यह सबसे प्राचीन नाम है। आज के भारत, आर्यावर्त, भारतवर्ष से भी प्राचीन। जामुन फल को संस्कृत में 'जम्बु' कहा जाता है और अनेक उल्लेख हैं कि इस केन्द्रीय भूमि पर यानी आज के भारत में किसी काल में जामुन के पेड़ों की बहुलता थी, इसी कारण इसे जम्बु द्वीप कहा गया। कालांतर में जनमानस की चेतना जम्बूद्वीप के साथ नहीं, भारत नाम से जुड़ती चली गई। 'भरत' संज्ञा के रूप में प्रयोग होने लगा एवं समस्त क्षेत्र में इसकी कथाएं जुड़ती चली गई जो की स्वीकार्यता को बढाती चली गई।
सन्दर्भ बताते हैं कि देवश्रवा और देववात इन दो भरतों यानी भरतजन के दो ऋषियों ने ही मन्थन के द्वारा अग्नि प्रज्वलन की तकनीक खोज निकाली थी। भरतों से निरन्तर संसर्ग के कारण अग्नि को भारत कहा गया. इसी तरह यज्ञ में निरन्तर काव्यपाठ के कारण कवियों की वाणी को भारती कहा गया. यह काव्यपाठ सरस्वती के तट पर होता था इसलिए यह नाम भी कवियों की वाणी से सम्बद्ध हुआ एवं अनेक वैदिक मन्त्रों में भारती और सरस्वती का उल्लेख आता है. प्राचीन ग्रन्धों में वैदिक युगीन एक प्रसिद्ध जाति भरत का नाम अनेक सन्दर्भों में आता है. यह सरस्वती नदी या आज के घग्घर के कछार में बसने वाला समूह था. ये यज्ञप्रिय अग्निहोत्र जन थे. इन्हीं भरत जन के नाम से उस समय के समूचे भूखण्ड का नाम भारतवर्ष हुआ. विद्वानों के मुताबिक़ भरत जाति के मुखिया सुदास थे. इस तरह भरतों के इस संघ को भरत जन नाम से जाना जाता था. बाक़ी अन्य आर्यसंघ भी अनेक जन में विभाजित था इनमें पुरु, यदु, तुर्वसु, तृत्सु, अनु, द्रुह्यु, गान्धार, विषाणिन, पक्थ, केकय, शिव, अलिन, भलान, त्रित्सु और संजय आदि समूह भी जन थे. महाभारत की प्रामणिकता एवं विश्वश्नीयता भी भारत नाम को सिद्ध करता है वह युद्ध जिसका नाम ही महा'भारत' है जो की भारत की भौगोलिक सीमा में आने वाले लगभग सभी साम्राज्यों ने हिस्सा लिया था इसलिए इसे महाभारत कहते हैं। इस विजय के बाद तत्कालीन आर्यावर्त में भरत जनों का वर्चस्व बढ़ा और तत्कालीन जनपदों के महासंघ का नाम भारत हुआ।
भारत-ईरान संस्कृति के ऐतिहासिक सन्दर्भ को देखें तो पायेंगें की ईरान पहले फ़ारस था. उससे भी पहले अर्यनम, आर्या अथवा आर्यान. अवेस्ता में इन नामों का उल्लेख है. माना जाता है कि हिन्दूकुश के पार जो आर्य थे उनका संघ ईरान कहलाया और पूरब में जो थे उनका संघ आर्यावर्त कहलाया. ये दोनों समूह महान थे, प्रभावशाली थे। कुर्द सीमा पर बेहिस्तून शिलालेख पर उत्कीर्ण हिन्दुश शब्द इसका प्रमाण है।
ग्रीक में भारत के लिए India अथवा सिन्धु के लिए Indus शब्दों का प्रयोग इस बात का प्रमाण है कि हिन्द अत्यन्त प्राचीन शब्द है और भारत की पहचान हैं. संस्कृत का 'स्थान' फ़ारसी में 'स्तान' हो जाता है. इस तरह हिन्द के साथ जुड़ कर हिन्दुस्तान बना- जहाँ हिन्दी लोग रहते हैं, हिन्दू बसते हैं। .'इंडिका' का प्रयोग मेगास्थनीज़ ने किया. वह लम्बे समय तक पाटलीपुत्र में भी रहा मगर वहाँ पहुँचने से पूर्व बख़्त्र, बाख्त्री (बैक्ट्रिया), गान्धार, तक्षशिला (टेक्सला) इलाक़ों से गुज़रा. यहाँ हिन्द, हिन्दवान, हिन्दू जैसे शब्द प्रचलित थे. उसने ग्रीक स्वरतन्त्र के अनुरूप इनके इंडस, इंडिया जैसे रूप ग्रहण किए. यह ईसा से तीन सदी और मोहम्मद से 10 सदी पहले पहले की बात है.
भरतजनों का वृतान्त आर्य इतिहास में इतना प्राचीन और दूर से चला आता है कि कभी युद्ध, अग्नि, संघ जैसे आशयों से सम्बद्ध 'भरत' का अर्थ सिमट कर महज़ एक संज्ञा भर रह गया जिससे कभी 'दाशरथेय भरत' को सम्बद्ध किया जाता है तो कभी भारत की व्युत्पत्ति के सन्दर्भ में दुष्यन्तपुत्र भरत को याद किया जाता है.
इंडिया नाम पुरानी अंग्रेजी में ९वीं शती में और आधुनिक अंग्रेजी में १७वीं शती से मिलता है। ब्रिटिश काल के शाशन में इंडिया नाम प्रमुखता से शाशकों द्वारा स्वीकार कर लिया गया अतः यह संविधान सभा के सामने भी स्वीकार हो गया। अगर हम सविधान सभा की बहस एवं कार्यवाही को देखें तो पायेंगें की अन्नुछेद १ के सन्दर्भ में हुई चर्चा में यह विषय उठाया गया था की India that is Bharat के स्थान पर Bharat that is India होना चाहिए। इसपर चर्चा १५-१७ नवंबर, १९४८ एवं १७-१८ सितम्बर, १९४९ में हुई एवं संविधान सभा ने सभी आपत्तिओं को अस्वीकार मतदान द्वारा India that is Bharat को ही मान्य किया।
अब विषय यह उठता है की सभी सरकारी कामों में, पासपोर्ट पर, विदेश जाने वाले कागज़ों पर भारत शब्द की जगह इंडिया नाम का प्रयोग किया जाता है जिसके कारण सभी जगह देश को भारत की जगह इंडिया के नाम से प्रचलित कर दिया गया। यह देश के मूल नाम एवं पहचान को बदल देता है क्योंकि दक्षिण अमेरिका भी रेड इंडियंस का देश है, जबकि मेगस्थनीज़ के आने के हजारों वर्ष पूर्व से यह भू खंड भारतवर्ष नामित था। किन्हीं कारणों से मेगस्थनीज़ ने इसका नाम सिंधु नदी से जोड़ कर लिख दिया तो यह कालांतर में इंडिया हो गया।
जैसा की प्रारम्भ में लिखा गया है, अब जनमानस भी इन सभी विषयों पर गंभीर हो गया है और भारत एक विश्वगुरु बनने की राह पर है तो इंडिया जो की एक विदेशी द्वारा दिया गया नाम है उससे क्यों जाना जाये ? अतः इस बात की मांग उठी है की देश का नाम अधिकारी रूप से इंडिया की जगह भारत होना चाहिए। यह हमारे देश के प्राचीन सांस्कृतिक एवं राजनैतिक नाम को ही स्वीकार करता है।
इस सन्दर्भ में एक याचिका सर्वोच्च न्यायालय में जून २०२० को प्रस्तुत की गई थी की इंडिया शब्द के बदले भारत शब्द का प्रयोग होना चाहिए। याचिकाकर्ता की माँग थी कि इंडिया ग्रीक शब्द इंडिका से आया है और इस नाम को हटाया जाना चाहिए. याचिकाकर्ता ने कहा कि वह केंद्र सरकार को निर्देश दे कि संविधान के अनुच्छेद-1 में बदलाव कर देश का नाम केवल भारत करे. इस याचिका की सुनवाई के पश्च्यात सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इस याचिका को संबंधित मंत्रालय में भेजा जाना चाहिए और याचिकाकर्ता सरकार के सामने अपनी माँग रख सकते हैं.
एक प्रबुद्ध नागरिक होने के नाते सभी को अधिकार है की अब अपने देश का नाम भारत ही कहें एवं लिखें इसके कारन भारत शब्द की स्वीकार्यता देश के नाम के रूप में होगी एवं जनमानस एवं लोगों के मुँह से स्वतः ही इंडिया की जगह भारत शब्द ही देश के नाम के रूप में निकलेगा और सभी इसका प्रयोग करेंगें। यह भारत को विश्वगुरु की और अग्रसर करने की दिशा में एक बृहद कदम होगा और विश्व में भारत एक सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक धरोहर के रूप में जाना जायेगा।निर्मलकुमार पाटोदी,विद्या -निलय, ४५, शांति निकेतन ,(बाॅम्बे हाॅस्पीटल के पीछे),
इन्दौर-४५२०१० मध्य प्रदेश। सम्पर्क :०७८६९९१७०७० ।
मातृभाषा में शिक्षा की वकालत - सबसे विश्वसनीय आवाज़ : प्रो. जोगा सिंह विर्क..
http://matrubhashaa.com/?p=24874 विशेष अनुरोधएक करोड़ हस्ताक्षर बदलवाने का संकल्पयदि आप अंग्रेजी में हस्ताक्षर करते हैं तो निवेदन है कि 'हिंदी में हस्ताक्षर करें'|आपकी यह छोटी-सी कोशिश हिंदी को राजभाषा से राष्ट्रभाषा बनाने में अमूल्य योगदान देगी |संस्थान द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र में 'हस्ताक्षर बदलो अभियान' संचालित किया जा रहा है |हम सबका एक-एक कदम राष्ट्र के प्रखर होने की दिशा में बड़ा कदम है|------------------------------------------------------------ ------------------------------ --------------- सादर धन्यवाद ,डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' श्रीमति शिखा जैनसंस्थापक: मातृभाषा . कॉम सह संस्थापक: 'मातृभाषा.कॉम'09406653005 07067455455
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प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
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गुरुवार, 20 अगस्त 2020
[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] Fwd: हिन्दी युनिकोड फॉण्टस्
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सारंग कुलकर्णी
भारत के पहले संगीतकार जो चमकेंगे आसमान पर…
मंगल और बृहस्पति के बीच होंगे ‘पंडित जसराज
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| 18 अग॰ 2020, 7:49 pm (2 दिन पहले) | |||
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Reetessh Sabrr
सर्वे भवन्तु सुखिनः ; सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ; मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ॥
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः
अर्थ - "सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें,
सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और
किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।"
प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] स्वतंत्रता दिवस पर आज गूगल मीट पर वैश्विक ई-संगोष्ठी- क्या नई शिक्षा नीति से लौटेगा मातृभाषा माध्यम? और गिरीश्वर मिश्र का लेख शिक्षा को प्रभावी बनाने के लिए राष्ट्र को भाषा की दरकार है।
कृपया गूगल मीट पर ई-संगोष्ठी में 15 मिनट पहले 4:15 पर जुड़ें।
संगोष्ठी से जुड़ने के लिए कृपया निम्नलिखित लिंक पर क्लिक करें।
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शिक्षा को प्रभावी बनाने के लिए राष्ट्र को भाषा की दरकार है।
- गिरीश्वर मिश्र
कुछ बातें प्रकट होने पर भी हमारे ध्यान में नहीं आतीं और हम हम उनकी उपेक्षा करते जाते हैं और एक समय आता है जब मन मसोस कर रह जीते हैं कि काश पहले सोचा होता. भाषा के साथ ही ऐसा ही कुछ होता है. भाषा में दैनंदिन संस्कृति का स्पंदन और प्रवाह होता है. वह जीवन की जाने कितनी आवश्यकताओं की पूर्ति करती है. उसके अभाव की कल्पना बड़ी डरावनी है. भाषा की मृत्यु के साथ एक समुदाय की पूरी की पूरी विरासत ही लुप्त होने लगती है. कहना न होगा कि जीवन को समृद्ध करने वाली हमारी सभी महत्वपूर्ण उपलब्धियां जैसे-कला, पर्व, रीति-रिवाज आदि सभी जिनसे किसी समाज की पहचान बनती है उन सबका मूल आधार भाषा ही होती है. किसी भाषा का व्यवहार में बना रहना उस समाज की जीवंतता और सृजनात्मकता को संभव करता है. आज के बदलते माहौल में अधिसंख्य भारतीयों द्वारा बोली जाने वाली हिंदी को लेकर भी अब इस तरह के सवाल खड़े होने लगे हैं कि उसका सामाजिक स्वास्थ्य कैसा है और किस तरह का भविष्य आने वाला है.
हिंदी के बहुत से रूप हैं जो उसके साहित्य में परिलक्षित होते हैं पर उसकी जनसत्ता कितनी सुदृढ है यह इस बात पर निर्भर करती है कि जीवन के विविध पक्षों में उसका उपयोग कहां, कितना, किस मात्रा में और किन परिणामों के साथ किया जा रहा है. ये प्रश्न सिर्फ हिंदी भाषा से ही नहीं भारत के समाज से और उसकी जीवन यात्रा से और हमारे लोकतंत्र की उपलब्धि से भी जुड़े हुए हैं. वह समर्थ हो सके इसके लिए जरूरी है कि हर स्तर पर उसका समुचित उपयोग हो. वह एक पीढी से दूसरे तक पहुंचे, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढे, हमारे विभिन्न कार्यों का माध्यम बने, विभिन्न कार्यों के लिए उसका दस्तावेजीकरण हो, और उसे राजकीय समर्थन भी प्राप्त हो.
वास्तविकता यही है कि जिस हिंदी भाषा को आज पचास करोड़ लोग मातृ भाषा के रूप में उपयोग करते हैं उसकी व्यावहारिक जीवन के तमाम क्षेत्रों में उपयोग असंतोषजनक है. आजादी पाने के बाद वह सब न न हो सका जो होना चाहिए था. लगभग सात दशकों से हिंदी भाषा को इंतजार है कि उसे व्यावहारिक स्तर पर पूर्ण राजभाषा का दर्जा दे दिया जाय और देश में स्वदेशी भाषा जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में संचार और संवाद का माध्यम बने. संविधान ने अनुछेद 350 और 351 के तहत भारत संघ की राज भाषा का दर्जा विधिक रूप से दिया है. संविधान के में हिंदी के लिए दृढसंकल्प के उल्लेख के बावजूद और हिंदी सेवी तमाम सरकारी संस्थानों और उपक्रमों के बावजूद हिंदी को लेकर हम ज्यादा आगे नहीं बढ सके हैं.
आज की स्थिति यह है कि वास्तव में शिक्षित माने अंग्रेजीदां होना ही है. सिर्फ हिंदी जानना अनपढतुल्य ही माना जाता है. हिंदी के ज्ञान पर कोई गर्व नहीं होता है पर अंग्रेजी की दासता और सम्मोहन अटूट है. अंग्रेजी सुधारने के विज्ञापन ब्रिटेन ही नहीं भारत के तमाम संस्थाएं कर रही हैं और खूब चल भी रही हैं. हिंदी क्षेत्र समेत अनेक प्रांतीय सरकारें अंग्रेजी स्कूल खोलने के लिए कटिबद्ध हैं. भाषाई साम्राज्यवाद का यह जबर्दस्त उदाहरण है. ज्ञान के क्षेत्र में जातिवाद है और अंग्रेजी उच्च जाति की श्रेणी में है और हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाएं अस्पृश्य बनी हुई हैं. उनके लिए या तो पूरी निषेधाज्ञा है या फिर ‘ विना अनुमति के प्रवेश वर्जित है’ की तख्ती टंगी हुई है. इस करुण दृश्य को पचाना कठिन है क्योंकि वह सभ्यता के आगामे विकट संकट प्रस्तुत कर रहा है. आज बाजार का युग है और जिसकी मांग है वही बचेगा. मांग अंग्रेजी की ही बनी हुई है.
यह विचारणीय है कि बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में राजा राम मोहन राय, केशव चंद्र सेन, दयानंद सरस्वती बंकिम चंद्र चटर्जी भूदेव मुखर्जी जैसे शुद्ध अहिंदीभाषी लोगों हिंदी को राष्ट्रीय संवाद का माध्यम बनाने की जोरदार वकालत की थी. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने 1936 में वर्धा में ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति‘ की स्थापना की जिसमें राजेंद्र प्रसाद, राजगोपालाचारी, जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, जमना लाल बजाज, बाबा राघव दास, माखन लाल चतुर्वेदी और वियोगी हरि जैसे लोग शामिल थे. उन्होने अपने पुत्र देवदास गांधी को दक्षिण भारत हिंदी प्रचार समिति का काम सौंपा. यह सब हिंदी के प्रति राष्ट्रीय भावना और समाज और संस्कृति के उत्थान के प्रति समर्पण को बताता है.
‘ हिंद स्वराज’ में गांधी जी स्पष्ट कहते हैं कि ‘ हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा हिंदी ही होनी चाहिए’ . इसके पक्ष में वह कारण भी गिनाते हैं कि राष्ट्रभाषा वह भाषा हो जो सीखने में आसान हो , सबके लिए काम काज कर पाने संभावना हो, सारे देश के लिए जिसे सीखना सरल हो, अधिकांश लोगों की भाषा हो. विचार कर वह हिंदी को सही पाते हैं और अंग्रेजी को इसके लिए उपयुक्त नहीं पाते हैं . उनके विचार में अंग्रेजी हमारी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती. वह अंग्रेजी मोह को स्वराज्य लिए घातक बताते हैं. उनके विचार में ‘ अंग्रेजी की शिक्षा गुलामी में ढलने जैसा है’ . वे तो यहां तक कहते हैं कि ‘ हिंदुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं. राष्ट्र की हाय अंग्रेजों पर नहीं पड़ेगी हम पर पड़ेगी’ . वे अंग्रेजी से से मुक्ति को स्वराज्य की लड़ाई का एक हिस्सा मानते थे . वे मानते हैं कि सभी हिंदुस्तानियों को हिंदी का ज्ञान होना चाहिए . उनकी हिंदी व्यापक है और उसे नागरी या फारसी में लिखा जाता है. पर देव नागरी लिपि को वह सही ठहराते हैं.
गांधी जी मानते हैं कि हिंदी का फैलाव ज्यादा है. वह मीठी , नम्र और ओजस्वी भाषा है. वे अपना अनुभव साझा करते हुए कहते हैं कि ‘ मद्रास हो या मुम्बई भारत में मुझे हर जगह हिंदुस्तानी बोलने वाले मिल गए’ . हर तबके के लोग यहां तक कि मजदूर , साधु, सन्यासी सभी हिंदी का उपयोग करते हैं. अत: हिंदी ही शिक्षित समुदाय की सामान्य भाषा हो सकती है. उसे आसानी से सीखा जा सकता है. यंग इंडिया में में वह लिखते हैं कि यह बात शायद ही कोई मानता हो कि दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले सभी तमिल-तेलुगु भाषी लोग हिंदी में खूब अच्छी तरह बातचीत कर सकते हैं . वे अंग्रेजी के प्रश्रय को को ‘ गुलामी और घोर पतन का चिह्न’ कहते हैं . काशी हिंदू विश्व विद्यालय में बोलते हुए गांधी जी ने कहा था :
‘ जरा सोच कर देखिए कि अंग्रेजी भाषा में अंग्रेज बच्चों के साथ होड़ करने में हमारे बच्चों को कितना वजन पड़ता है. पूना के कुछ प्रोफेसरों से मेरी बात हुई , उन्होने बताया कि चूंकि हम भारतीय विद्यार्थी को अंग्रेजी के मार्फत ज्ञान संपादित करना पड़ता है , इस्लिए उसे अपने बेशकीमती वर्षों में से कम से कम छह वर्ष अधिक जाना पड़ता, श्रम और संसाधन का घोर अपव्यय होता है. 1946 में ‘ हरिजन’ में गांधी जी लिखते हैं कि ‘ यह हमारी मानसिक दासता है कि हम समझते हैं कि अंग्रेजी के बिना हमारा काम नहीं चल सकता . मैं इस पराजय की भावना वाले विचार को कभी स्वीकार नहीं कर सकता’ अभाव है. आज वैश्विक ज्ञान के बाजार में हम हाशिए पर हैं और शिक्षा में सृजनात्मकता का बेहद अभाव बना हुआ है. अपनी भाषा और संंस्कृति को खोते हुए हम वैचारिक गुलामी की ओर ही बढते हैं.
हिंदी साहित्य सम्मेलन इंदौर के मार्च 1918 के अधिवेशन में बोलते हुए गांधी जी ने दो टूक शब्दों में आहवान किया था : ‘ पहली माता (अंग्रेजी) से हमें जो दूध मिल रहा है, उसमें जहर और पानी मिला हुआ है , और दूसरी माता (मातृभाषा ) से शुद्ध दूध मिल सकता है. बिना इस शुद्ध दूध के मिले हमारी उन्नति होना असंभव है . पर जो अंधा है , वह देख नहीं सकता . गुलाम यह नहीं जानता कि अपनी बेडियां किस तरह तोड़े . पचास वर्षों से हम अंग्रेजी के मोह में फंसे हैं . हमारी प्रज्ञा अज्ञान में डूबी रहती है . आप हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनने का गौरव प्रदान करें . हिंदी सब समझते हैं . इसे राष्ट्रभाषा बना कर हमें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए’ .
स्वतंत्रता मिलने के बाद भी हिंदी के साथ हीलाहवाली करते हुए हम अंग्रेजी को ही तरजीह देते रहे . ऐसा शिक्षित वर्ग तैयार करते रहे जिसका शेष देश वासियों से सम्पर्क ही घटता गया और जिसका संस्कृति का स्वाद देश से परे वैश्विक होने लगा . हम मैकाले के तिरस्कार से भी कुछ कदम आगे ही बढ गए. देशी भाषा और संस्कृति का अनादर जारी है. गांधी जी के शब्दों में ‘ भाषा माता के समान है . माता पर हमारा जो प्रेम होना चाहिए वह हममें नहीं है’ . मातृभाषा से मातृवत स्नेह से साहित्य , शिक्षा , संस्कृति ,
कला और नागरिक जीवन सभी कुछ गहनता और गहराई से जुड़ा होता है. इस वर्ष महात्मा गांधी का विशेष स्मरण किया जा रहा है . उनके भाषाई सपने पर भी सरकार और समाज सबको विचार करना चाहिए. अब जब नई शिक्षा शिक्षानीति को अंजाम दिया जा रहा है यह आवश्यक होगा कि देश को उसकी भाषा में शिक्षा दी जाय. मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयो: Mind is the cause of human suffering and liberation.
गिरीश्वर मिश्र
Girishwar Misra, Ph.D. FNA Psy, Special Issue Editor Psychological Studies (Springer)
Former National Fellow (ICSSR) Ex Vice Chancellor,Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya,Wardha (Mahaaraashtra)
Ex Head & Professor, Dept of Psychology, University of Delhi
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प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
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मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
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