मंगलवार, 31 अगस्त 2021

दिव्यांगों के सामूहिक विवाह के लिए विश्व वात्सल्य मंच ने दिए ९० हजार - डेली हिन्दी मिलाप - समाचार कतरन


 

प्रस्तुति : संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)

email: murarkasampatdevii@gmail.com

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 मीडिया प्रभारी,

 हैदराबाद.

मो.नं.09703982136.

दिव्यांग कन्याओं के विवाह के लिए समर्पित की निधि - स्वतंत्र वार्ता - समाचार कतरन

प्रस्तुति : संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)

email: murarkasampatdevii@gmail.com

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 हैदराबाद.

मो.नं.09703982136.

दिव्यांग कन्याओं के विवाह के लिए समर्पित की निधि - शुभ - लाभ - समाचार कतरन


 

प्रस्तुति : संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)

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मो.नं.09703982136.

विश्व वात्सल्य मंच ने नारायण सेवा संस्थान, उदयपुर, को दिव्यांग कन्याओं के विवाह हेतु समर्पित की निधि




















विश्व वात्सल्य मंच ने नारायण सेवा संस्थान, उदयपुर, को दिव्यांग कन्याओं के विवाह हेतु समर्पित की निधिhttps://mail.google.com/mail/u/0/images/cleardot.gif

विश्व वात्सल्य मंच, हैदराबाद, के तत्वावधान में दिव्यांग एवं निर्धन लोगों के सामूहिक विवाह के उपलक्ष्य में नारायण सेवा संस्थान उदयपुर, राजस्थान, के प्रभारी महेंद्र सिंह रावत एवं उपाध्यक्ष अलका चौधरी को विश्व वात्सल्य मंच की ओर से कोषाध्यक्ष सीता अग्रवाल के सैनिकपुरी स्थित निवास स्थान पर 90000 का चेक, आभूषण, वस्त्र एवं घरेलू सामान भेंट किए गए ।

        संस्था की संस्थापक अध्यक्ष श्रीमती संपत देवी मुरारका एवं प्रधान सचिव राजेश मुरारका द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार नारायण सेवा संस्थान उदयपुर राजस्थान में 11 सितंबर 2021 के दिन 21 दिव्यांग निर्धन लोगों का सामूहिक विवाह का आयोजन किया जा रहा है । इस विवाह के संदर्भ में मंच के सभी सदस्यों द्वारा 90000 का चेक एवं 11 साड़ियाँ, सोने का मंगलसूत्र, सोने का पेंडल, चांदी की बिछियांगैस स्टोव, दो हॉटकेस, जग, भगोने का सेट, टिफिन बॉक्स, घिसनी, लोटा, पेंट शर्ट जोड़ी, डबल बेड शीट, दो हार सेट आदि दिव्यांग कन्याओं के विवाह हेतु भेंट की गई । 

        इस अवसर पर मंच की कोषाध्यक्ष सीता अग्रवाल ने निधि समर्पणकर्ताओं की घोषणा की । इसमें स्निग्धा योतिकर, लक्ष्मी, शैलजा, मोना गुप्ता, सीता अग्रवाल, रानी शर्मा, सुशांता योतिकर, एम.  मधुरिमा, पद्मलता जड्डू, मि.श्रवण, मीना राज, मीना अग्रवाल, वसुधा अग्रवाल, जय लक्ष्मी बोज्जासरस्वती, वेणु गोपाल, ज्योति जुड़े, वेदा, ऐश्वर्या, लता अग्रवाल, श्रुति अग्रवाल, जयालक्ष्मी, वंदना नेवर शामिल हैं |  संपत देवी मुरारका ने अल्पाहार की व्यवस्था की ।

        इस कार्यक्रम में उदयपुर संस्थान की उपाध्यक्षा अलका चौधरी एवं आश्रम प्रभारी श्री महेंद्र सिंह रावत ने सभी समर्पणकर्ताओं का धन्यवाद किया एवं उपर्णों से सभी का स्वागत सत्कार किया । 

        इस अवसर पर जन संपर्क प्रमुख स्निग्धा योतिकर, कोषाध्यक्ष सीता अग्रवाल, प्रधान सचिव राजेश मुरारका, सह सचिव गीता अग्रवाल एवं एम. मधुरिमा, मीडिया प्रभारी जयालक्ष्मी बोज्जा, सदस्य रानी शर्मा, ज्योति जुड़े, वंदना नेवर, प्रतिभा, संपत देवी मुरारका, अलका चौधरी, महेंद्र सिंह रावत एवं अन्य उपस्थित  थें ।  एम. मधुरिमा ने आभार व्यक्त किया ।

प्रस्तुति : संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)

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शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

एल एफ डीसी में बेहतर राइटर कैसे बनें? विषय पर परिचर्चा संपन्न - ऋषभदेव शर्मा - शुभ लाभ - समाचार कतरन


प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारकाविश्व वात्सल्य मंच

murarkasampatdevii@gmail.com  

लेखिका यात्रा विवरण

मीडिया प्रभारी

हैदराबाद

                                                       मो.: 09703982136

[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] Fwd: कर एक पड़ाव को पार, उड़ान अब नए क्षितिज की ओर....

 कर एक पड़ाव को पार, उड़ान अब नए क्षितिज की ओर....

राजभाषा विभाग की 32 वर्षों की सेवा के उपरांत सेवा-निवृत्ति
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 दिवंगत पत्नी को श्रद्धांजलि          जन्मदिन कार्यक्रम आयोजन         जीवन के स्मृति चित्रों पर वीडियो फिल्म          बधाई देने पधारे मित्रगण

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                    कार्यालय के साथियों के साथ                              विदाई कार्यक्रम में सम्मान-पत्र                        साथियों - मित्रों  द्वारा सम्मान
  
सेवानिवृत्त होते अधिकारी  के उद्गार। 

 मेरा कार्यालय,  हमारा कार्यालय । पिछले बत्तीस वर्षो से आए दिन न जाने दिन में कितनी बार ये शब्द मुंह से निकलते रहे हैं। 30 जुलाई 2021 को सेवानिवृत्ति के बाद अब शायद ये शब्द सार्थक न रहेंगे। लेकिन फिर भी मुंह में तो रहेंगे, न चाहूँ तो भी। शादी के बाद, दूसरे घर जाने के बाद भी तो महिला जीवन-पर्यंत माता-पिता के घर को अपना घर ही कहती है। जिसे हृदय ने अपना माना हो वह फिर पराया कैसे हो सकता है? चवालीस साल पहले छोड़ा वह स्कूल (विद्या मंदिर ), जहाँ मैं पढ़ा था, आज भी वह मेरा स्कूल है। इकतालीस साल पहले छोड़े दिल्ली के शिवाजी कॉलेज के पास रिंग रोड से जब गाड़ी निकलती है तो बच्चों को बताता हूँ, यह मेरा कॉलेज है। दिल्ली विश्वविद्यालय कैंपस के पास से गुजरते हुए कला संकाय की ऐतिहासिक पत्थर की बिल्डिंग के ऊंचे-लंबे गलियारे और केंद्रीय पुस्तकालय की लाल दीवारें बुलाती हैं। विश्वविद्यालय के अनेक कार्यक्रम, विद्यार्थी राजनीति और तब के तमाम साथी, सब वहीं सजीव से खड़े दिखते हैं।

 मुंबई के निकट अंबरनाथ के पास से जब कभी मैं ट्रेन से वहाँ से गुजरा तो कभी ऐसा नहीं हुआ जब मुझे खपरैल के ब्लॉकों से बने केंद्रीय विद्यालय के वे दिन याद न आए हों, जहाँ मैं एक वर्ष तक अध्यापक रहा। 20 वर्ष की उम्र में वह मेरी पहली सरकारी नौकरी थी, जहाँ नन्हे-नन्हे मासूम बच्चे लगाव के चलते मुझसे अपने घर आने की जिद्द करते थे। 11वीं व बारहवीं के कुछ लड़के-लड़कियाँ मुझसे भी बड़े लगते थे। अब तो शायद वह स्कूल एक भवन में जा चुका है। उन नन्हे बच्चों के बच्चे भी उनकी तब की उम्र से बड़े हो चुके होंगे। चांदिनी चौंक और खारी बावली सहित पुरानी दिल्ली की बात आते ही 1982 से 1989 के बीच रौनक भरे बाजारों के बीच दुकानों के उपर स्थित बहुमंजिला स्कूल मस्तिष्क में जाग उठता है। दूध-जलेबी, रबड़ी, श्रावण में घेवर – फीणी, गर्मियों में फतेहपुरी की प्रसिद्ध लस्सी, सर्दियों में तिल की कुटी हुई फर्राशखाने की गज्झक और मालाईवाले कुल्लहड़ के गर्म दूध के साथ लाहौरी गेट की गर्म जलेबी की महक नथूनों में उतर जाती है। सुना है अब वह स्कूल बंद होने के कगार पर है। लेकिन तांगे – रिक्शे और सामान से लदी रेहड़ियों और खोमचों के शोरगुल के बीच स्कूल की वर्दी में ‘गुरूजी प्रणाम’ के स्वर मस्तिष्क के किसी कोने में गूंजायमान हो जाते हैं।  वह स्कूल, अध्यापक और तमाम विद्यार्थी, मैं इन्हें कैसे भुला सकता हूँ। 

 कुछ लोग कहते हैं कार्यालय का मोह सेवा-निवृत्ति से पहले ही छोड़ देना चाहिए। वह हमारा नहीं रहनेवाला। अगर यूँ कहा जाए तो दुनिया में हमारा कुछ भी नहीं रहनेवाला। तो भी जब तक जीते हैं, सबसे संबंध और मोह होता ही है। तो यहाँ मोह क्यों छोड़ देना चाहिए?  कुछ दिन के लिए जब हम कहीं जाते हैं और लौटते हैं, तो भी मोह तो लगता है। हम तस्वीरों में उसे अपने साथ लाते हैं। एल्बम में संजो कर रखते हैं।

 फिर जो स्थान इतने समय तक हमारी कर्मस्थली रहा हो, उससे मोह क्यों न हो? राजभाषा विभाग में हिंदी शिक्षण योजना और क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय में तो मेरे जीवन का सबसे बड़ा हिस्सा व्यतीत हुआ है। मेरा तो इस कार्यालय से दोहरा रिश्ता है, यह मेरा ही नहीं, मेरी दिवंगत पत्नी डॉ.  कामिनी गुप्ता का कार्यालय भी तो है। घर पर ही नहीं, अक्सर यहाँ भी साथ ही भोजन करते थे, साथ आते-जाते थे। जिन लोगों के साथ काम करते रहे हैं, किया है, वे सेवा मे हैं या सेवा निवृत्त है चुके हैं,  दुनिया में हैं या नहीं रहे, रिश्ते तो उनसे भी सदा ही रहेंगे। रिश्ते केवल उनसे नहीं हैं जिनसे मेरे बहुत मधुर संबंध थे, रिश्ते तो उनसे भी हैं और रहेंगे, जिन से संबंध बहुत मधुर नहीं रहे। जिंदगी है तो सब तरह के लोग भी होंगे, कुछ खट्टे – मीठे अनुभव भी होंगे। कभी मैं तो कभी दूसरे गलत रहे होंगे। कब कौन सही था या नहीं, इसका निर्णय करने वाला मैं कौन होता हूँ। यह तो आत्मविश्लेषण का विषय है। लेकिन वे भी मेरे कार्यालय का अभिन्न अंग हैं और रहेंगे। जब भी कार्यालय की बात आएगी तो उनकी बात भी स्वयंमेव आएगी।

 क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय, मुंबई, जहां मैंने दस वर्ष तक कार्य किया। कितनी योजनाएं बनीं। हर दिन एक नए कार्यक्रम के साथ शुरू होता था। कभी इस शहर, कभी उस शहर। कभी किसी नगर की बैठक, तो किसी केंद्रीय कार्यालय, बैंक या कंपनी का निरीक्षण, अनन्त भाग-दौड़।  हर साल सत्यनारायण की पूजा का आयोजन होता था। सम्मेलन के समय खासी गहमा-गहमी होती थी । वहाँ की यादों की भी एक दुनिया है। वह भी तो मेरा कार्यालय है और सदा ही रहेगा भी। और हाँ, भले ही केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो में कभी काम न किया हो,  लेकिन वह भी कभी अलग तो नहीं रहा। वहाँ भी कितने व्याख्यान दिए।  दोपहर भोजन के समय वहीं महफिल सजती थी और देश-दुनिया की तमाम समस्याओं पर चर्चा के माध्यम से उनके समाधान की तलाश होती थी। इन चर्चाओं में भी देश की चिंता ही केंद्र में होती थी।

 मेरे कार्यालय का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा वह है, जहाँ गए हुए बरसों गुजर गए। जिससे 15 साल पहले खाली कर दिया था। जिसे ढूंढते हुए पहली बार अप्रैल 1989 में नियुक्ति-पत्र संभाले मैं कार्यभार ग्रहण करने पहुंचा था। जी हाँ, मुंबई में बेलार्ड एस्टेट स्थिति कॉमर्स हाउस का तीसरा माला। वहाँ अब वीरानी पसरी है, भवन अदालती झमेलों में फंसा है। अब वहाँ हमारा कार्यालय नहीं रहा। लेकिन वे पत्थर की दीवारें  गवाह हैं, हजारों घटनाओं की। हर कोना अनेक घटनाओं का साक्षी बनकर स्मृति-कोष के किसी कोने में छिपा है। वह जीता जागता कार्यालय आज भी चिरस्थायी है, अनन्त यादों को समेटे, अपने समग्र यौवन के साथ। 

यहाँ अगर मैं चर्चगेट के निकट न्यू सीजीओ भवन के छठे तल पर स्थित प्रशिक्षण केंद्र का जिक्र न करूँ तो मन की बात अधूरी रहेगी। यहाँ मेरे सेवा में आने से पूर्व और बाद में न जाने कितनों ने पढ़ाया, कुछ समय मैंने भी पढ़ाया। मेरी पत्नी स्व. डॉ. कामिनी गुप्ता ने भी काफी समय  यहाँ पढ़ाया। तब एक निकट के केंद्र से मैं भी भोजन के लिए रोज वहाँ चला जाता था। साथ भोजन कर लेते थे। कितनी यादें समेटे था वह केंद्र। लेकिन एक दिन उस कक्ष का फर्नीचर कबाड़ में बेचकर उसे खाली करने का दायित्व भी मुझे सौंपा गया।  तब भी भोजनावकाश का समय हो रहा था। अतीत सजीव हो उठा। मुझे लगा कि सुबह की कक्षा के पश्चात वहाँ बैठी वह मेरा इंतजार कर रही है। लगा कामिनी कह रही हो, बहुत देर कर दी आने में। हृदय फटने लगा, उस दिन वह कक्ष खाली करते समय मेरे लिए अपने आंसू छिपाना कठिन हो गया था। ऐसे कितने ही केंद्र हिंदी शिक्षण योजना का इतिहास अपने भीतर समेटे हैं, क्या वे मेरे नहीं ?

 यदि मैं अपने कार्यालय को मुंबई या नवी मुंबई के किसी भवन और उसमें काम करने वालों तक ही समझूँ तो यह मेरी नासमझी होगी। अहमदाबाद,  वडोदरा,  पुणे, नागपुर, बेलगांव, मैसूर, बेंगलुरु और मैंगलुरु आदि पश्चिम क्षेत्र के ये कार्यालय भी तो मेरे कार्यालय का अभिन्न अंग हैं। 'पुणे में हमारा कार्यालय है।',  'बेंगलुरु में हमारा कार्यालय है।', इस प्रकार की बातें तो सदा मुंह में आएँगी ही। इसी प्रकार मुख्यालय, पृथ्वीराज रोड का प्रशिक्षण संस्थान, जहां अनेक बार साथियों के साथ प्रशिक्षण में शामिल हुए। परीक्षा शाखा, मध्योत्तर, दक्षिण, पूर्व और पूर्वोत्तर के हमारे क्षेत्रीय कार्यालय और उनके अंतर्गत देशभर में फैले अनेक केंद्र, जहां हमारे अनेक साथी हैं। इनमें से कुछ यहां से गए या वहां से यहां आए भी, वे भी मेरे ही कार्यालय का विस्तार हैं। वे पराए कैसे हो सकते हैं ?

मुंबई की ऊँची अट्टालिकाओं में स्थित चमकते वातानुकूलित सभा कक्षों से ले कर किसी गोदामनुमा स्थानों पर स्थित वे सभी प्रशिक्षण केंद्र, जहाँ कभी मैंने  पढ़ाया, वे कार्यालय और वहां के अधिकारी और कर्मचारियों जिनके साथ काफी समय बिताया, वे भी तो मेरे कार्यालय का हिस्सा हैं। वे अनेक सरकारी बैंक, उपक्रम और केंद्रीय कार्यालय और उनमें काम करनेवाले मित्रगण, जहाँ नराकास की विराकास की और अन्य राजभाषा की अनेक बैठकें की,  जिनके साथ सम्मेलन और कार्यक्रम आयोजित किए, व्याख्यान दिए जिनके साथ घूमे-फिरे, तफरी की। वे कहाँ मुझसे अलग हैं। इनमें कार्यालयों में अधिकारी – कर्मचारी बदलते रहे, कभी यहाँ, कभी वहाँ, कितनी बार मिलते रहे, साथ-साथ चलते रहे। किस-किस का नाम लूँ, प्रत्यक्ष न सही अप्रत्यक्ष ही सही, वे भी तो मेरे कार्यालय का हिस्सा हैं। सरकारी तौर पर अब भले ही इनसे मेरा कोई नाता न रहे,  लेकिन इन सभी से जो एक रिश्ता बन चुका है, वह कैसे खत्म हो सकता है ? जो पद और कार्यालय के संबंधों तक सीमित हो, तो फिर वह रिश्ता ही क्या ? अगर रिश्ता होता है  तो फिर वह तो अटूट होता है।

 जो कार्यालय प्रत्यक्ष दिख रहा है, वह तो ईंट, सीमेंट, लोहे आदि से बना है, वह सीमित है,  नश्वर है। हो सकता है कल कोई परवर्तन हो । यहाँ के बजाए कार्यालय किसी अन्य भवन में चला जाए। कल का बेलार्ड ऐस्टेट स्थित दफ्तर भी तो अब वहां नहीं रहा। वहाँ कितने वरिष्ठ और कनिष्ठ साथी आए और जाते रहे, यहाँ केंद्रीय सदन में भी यही सिलसिला चलता आ रहा है। उसी कड़ी में अब में भी कार्यालय की चारदीवारी से विदा ले रहा हूँ। अब मैं दैनिक गतिविधियों का हिस्सा नहीं रहूँगा। सरकारी बैठकों में भी न दिखूँगा, लेकिन देश की भाषाओं का जो बीड़ा उठाया है, उससे जो नाता जोड़ा है वह कैसे छूट सकता है । जिस कार्यालय की बात मैं कर रहा हूँ,  वह तो चिरस्थायी है, मन-मस्तिष्क में बसी अनेक यादों के साथ, हर तरह की यादों के साथ। मेरा वह कार्यालय बाहर नहीं मेरे भीतर है। उससे मुझे कोई कैसे जुदा कर सकता है। कोई कुछ भी कहे, कुछ उजले और कुछ धुंधले चलचित्रों के साथ मेरा कार्यालय मेरा था,  है और सदा मेरा ही रहेगा। जीवन की अंतिम सांस तक।


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बंधुवर अखिलेश श्रीवास्तव के उद्गार

वर्ष 1997 का एक दिन। मुंबई के कांदीवली स्थित मेरे कार्यालय में राजभाषा विभाग के निरीक्षण दल का आगमन। मेरे कार्यालय की राजभाषा संबंधी प्रगति के आकलन के समय दल के सबसे सक्रिय, सबसे मुखर सबसे ज्यादा प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले सदस्य से मेरा आमना सामना होता है, नाम डॉक्टर एम एल गुप्ता।

 सरोकारों की एकता कहें या विचारों का साम्य, जो भी कह ले तब शुरू हुआ प्रारंभिक परिचय प्रगाढ़ होते होते कब आत्मीय संबंधों में परिवर्तित होता चला गया पता ही नहीं चला। मेरे कार्यालय में आयोजित प्रशिक्षण में उनकी उनका लंबी अवधि का सानिध्य, उसी दौरान उनके भायंदर स्थित निवास पर जाने का अवसर स्वर्गीय भाभी जी से परिचय और फिर आत्मीय परिवारिक संबंधों का ऐसा सिलसिला जो स्मृतियों में आज तक यथावत जीवंत है।

कभी शाम को उनके निवास पर जाता तो शाम की चाय पर शुरू हुई हिंदी, राष्ट्रभाषा राजभाषा, सामयिक सामाजिक राजनीतिक सरोकारों की चर्चा रात के खाने के साथ ही समाप्त होती। स्वर्गीय भाभी जी क्या स्वयं भोजन परोसना, गरम-गरम रोटियां बनाकर देना और इस दौरान जारी चर्चा पर बीच-बीच में अपनी टिप्पणियां भी देते जाना न जाने कितनी स्मृतियां हैं लिखने बैठूं तो शायद पुस्तक का रूप ले ले।

हिंदी के प्रति उनका समर्पण जो न सिर्फ दुर्लभ है बल्कि अनुकरणीय और आदर्श भी है। यह हिंदी सेवियो की भावी पीढ़ियों के लिए प्रेरणा स्रोत रहेगा।

यशस्वी सेवाकाल की बधाई व भावी जीवन के लिए अनंत शुभकामनाएं डा. साब 💐

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मा. राजेश जैन, अपर महानिदेशक आकाशवाणी एनं दूरदर्शन, मुंबई की शुभकामनाएँ।

पको सफलता पूर्वक शासकीय सेवा पूर्ण करने के लिए हार्दिक बधाई एवं अनंत शुभकामनाएँ 

देश भर के केन्द्र सरकार के सभी कार्यालय जिन्हें आपके साथ काम करने का अनुभव प्राप्त हुआ है , उनके संबंधित अधिकारीगण निश्चित रूप से आपके व्यक्तित्व एवं हिन्दी भाषा के प्रति आपके प्रेम एवं समर्पण से भली भांति परिचित हैं एवं इस अवसर पर आपको मंगलकामनाएं प्रेषित कर रहे होंगे । मैं भी आपके सुखमय भविष्य के लिए अपनी हार्दिक शुभकामनाएं प्रेषित कर रहा हूं । जीवन का यह पड़ाव आपके लिए संभावनाओं के नए द्वार खोल दे एवं आपको अनेकों अवसर प्रदान करें ताकि आपके अनुभव का लाभ अधिक से अधिक कर्मचारियों को प्राप्त हो एवं आप भी नयी उर्जा के साथ समाज को अपना अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान  देते रहे , ऐसी शुभकामनाएँ देता हूं 💐


मैथिलीशरण गुप्त की सुन्दर रचना

     तप्त हृदय को , सरस स्नेह से,
     जो सहला दे , मित्र वही है।

     रूखे मन को , सराबोर कर,  
     जो नहला दे , मित्र वही है।

     प्रिय वियोग  ,संतप्त चित्त को ,
     जो बहला दे , मित्र वही है।

     अश्रु बूँद की , एक झलक से ,
     जो दहला दे , मित्र वही है।

मित्रता-दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ
🌹👏💐

वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई

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वैश्विक हिंदी सम्मेलन की वैबसाइट -www.vhindi.in
'वैश्विक हिंदी सम्मेलन' फेसबुक समूह का पता-https://www.facebook.com/groups/mumbaihindisammelan/
संपर्क - vaishwikhindisammelan@gmail.com

प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारकाविश्व वात्सल्य मंच

murarkasampatdevii@gmail.com  

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गुरुवार, 26 अगस्त 2021

[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] हिंदी के साथ अन्य भारतीय भाषाओं में इंजीनियरिंग की पढ़ाई। सराहनीय है पहल : पर कैसे होगी सफल ?- डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य

 


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हिंदी के साथ अन्य भारतीय भाषाओं में इंजीनियरिंग की पढ़ाई

सराहनीय है पहल : पर कैसे होगी सफल ?

- डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य' 

र्मनीरूसफ्रांसजापान और चीन सहित दुनिया के दर्जनों देशों में पूरी शिक्षा ही स्थानीय भाषाओं में दी जाती है। हाल ही में देश में आई नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी स्थानीय भारतीय भाषाओं में पढ़ाई पर जोर दिया है। अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआइसीटीई) ने फिलहाल नए शैक्षणिक सत्र से हिंदी सहित आठ भारतीय भाषाओं में इसे पढ़ाने की मंजूरी दे दी है। आने वाले दिनों में अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआइसीटीई) की योजना करीब 11 भारतीय भाषाओं में इसे पढ़ाने की है। इस बीच हिंदी के साथ इसे जिन अन्य सात भारतीय भाषाओं में पढ़ाने की मंजूरी दी गई हैउनमें मराठीबंगालीतेलुगुतमिलगुजरातीकन्नड़ और मलयालम शामिल हैं। अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद ने हिंदी सहित आठ स्थानीय भारतीय भाषाओं में इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों को शुरू करने की अनुमति के साथ ही इन सभी भाषाओं में पाठ्यक्रम को भी तैयार करने का काम शुरू कर दिया है। अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर अनिल सहस्रबुद्धे के अनुसार नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की सिफारिशों को आगे बढ़ाते हुए यह पहल की गई है। अभी तो सिर्फ हिंदी सहित आठ स्थानीय भारतीय भाषाओं में पढ़ाने की अनुमति दी गई है। आगे चलकर और 11 स्थानीय भाषाओं में भी इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम की पढ़ाई करने की सुविधा मिलेगी। फिलहाल इसके लिए सॉफ्टवेयर की मदद ली जा रही हैजो 22 भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने में सक्षम है। इसकी मदद से वह अंग्रेजी में मौजूद पाठ्यक्रम का तेजी से अनुवाद कर सकता है। अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआइसीटीई) ने हाल ही में अपनी तरह का यह नया सॉफ्टवेयर तैयार किया है।  


भारत सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति के अंतर्गत जहां मातृभाषा में शिक्षा के प्रावधान किए गए हैं, वहीं दूसरी ओर इंजीनियरिंग जैसी तकनीकी शिक्षा को जनभाषा में अर्थात भारतीय भाषाओं में उपलब्ध करवाना  एक अत्यधिक सराहनीय व साहसिक कदम है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का कहना था कि यदि देश में विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में दी जाती तो इस देश में इतने आविष्कारक और उच्च स्तरीय वैज्ञानिक होते  कि आविष्कारकों के नाम पर हम  जो दो - तीन नाम गिनवाते हैं, उन्हें तो कभी याद ही नहीं करते। देखा जाए तो सरकार की यह नीति महात्मा गांधी के सपनों को साकार करने का प्रयास है। उल्लेखनीय है कि विश्व के बीस सर्वाधिक विकसित देश वे हैं जहाँ शिक्षा और कामकाज उनकी अपनी भाषाओं में होता है। जबकि  बीस सबसे पिछड़े देश विदेशी भाषा के मोहताज हैं। 


लेकिन सच तो यह है कि स्वयं को गांधीवादी मानने वाली सरकारों ने महात्मा गांधी के चिंतन की चिंदी-चिंदी उड़ाते हुए बड़ी ही चालाकी से देश की व्यवस्था और शिक्षा की व्यवस्था का अंग्रेजीकरण किया। 1986 की  शिक्षा नीति ने तो छोटे-छोटे गांव तक और नर्सरी स्तर तक भी अंग्रेजी माध्यम पहुंचा दिया। इसके कारण अधिकांश विद्यार्थी विशेषकर ग्रामीण परिवेश के विद्यार्थी अपनी बुद्धिमत्ता के बावजूद बिछड़ने लगे।  सरकार ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी स्थानीय भारतीय भाषाओं में पढ़ाई पर जोर दिया है। सरकार का मानना है कि स्थानीय भाषाओं में पढ़ाई से बच्चे सभी विषयों को बेहद आसानी से बेहतर तरीके से सीख सकते हैं। जबकि अंग्रेजी या फिर किसी दूसरी भाषा में पढ़ाई से उन्हें दिक्कत होती है। इस पहल से ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों से निकलने वाले बच्चों को सबसे ज्यादा फायदा होगाक्योंकि मौजूदा समय में वह इन पाठ्यक्रमों के अंग्रेजी भाषा में होने के चलते पढ़ाई से पीछे हट जाते हैं। अपनी भाषाओं में शिक्षा मिलने के चलते विद्यार्थी रटने के बजाए समझेंगे और बेहतर कार्य कर सकेंगे।  प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी जी का यह कहना बिल्कुल सही है कि भारतीय भाषाओं में शिक्षा मिलने से ग्रामीण, आदिवासी, क्षेत्र के विद्यार्थियों और वंचित निर्धन वर्ग के विद्यार्थियों को विशेष लाभ मिलेगा।


अंग्रेजी माध्यम के कारण  मौलिक चिंतन के बजाय सभी क्षेत्रों में हमारे विद्यार्थी नकलची और रट्टू तोते बनने रहे हैं। शिक्षा का स्तर ज्ञान से नहीं बल्कि अंग्रेजी के ज्ञान से मापा जाने लगा है। अंग्रेजी का साम्राज्य देश में इस हद  तक फैल चुका है कि अब वे राजनीतिक दल  और समाजवादी नेता जो कभी हिंदी और भारतीय भाषाओं की पैरवी करते थे, भारतीय भाषाओं के प्रबल समर्थक और प्रखर समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया के लालू यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे कथित अनुयायी जो कभी हिंदी और भारतीय भाषाओं की आवाज बुलंद करते थे, अब वे और उनके वारिस भी इस विषय पर खामोश हैं।  कई तो विदेशों में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ कर आए हैं। वामपंथी भी कभी भारतीय भाषाओं के साथ नहीं रहे। तमाम राजनीतिक दल इस मुद्दे पर चुप्पी साध कर बैठे हैं। हिंदी अथवा भारतीय भाषाओं की बात करते ही राजनीतिक विरोध के स्वर मुखर होने लगते हैं। अब जबकि कई पीढ़ियां अंग्रेजी में पल - पढ़कर बड़ी हुई है तो ऐसे में भारतीय भाषाओं की बात करना राजनीतिक तौर पर भी कम जोखिम भरा नहीं है । इन परिस्थितियों में, अंग्रेजी के ऐसे वातावरण में शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा दिए जाने की पहल ज्ञान-विज्ञान और राष्ट्रीयता दोनों ही दृष्टि से अत्यंत सराहनीय व साहसिक निर्णय है। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के चलते नेताओं से तो यह अपेक्षा नहीं की जा सकती लेकिन सभी भारतीय भाषा प्रेमियों और मौलिकता के समर्थकों को इसका स्वागत करना ही चाहिए। 


लेकिन अब यक्ष प्रश्न यह है कि क्या भारतीय भाषाओं में शिक्षा की व्यवस्था और मान्यता के माध्यम से देश में लोग अपनी भाषाओं में पढ़ने लगेंगे? यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि करीब 75 साल में भारत का अंग्रेजीकरण किया जा चुका है। भारतीय भाषाओं के नाम पर जो कुछ भी हुआ है वह किसी नौटंकी से अधिक नहीं है। अब उच्च शिक्षा ही नहीं शिक्षा शब्द भी अंग्रेजी का पर्याय बन चुका है। ऐसे में यह पहल क्या एक शिगूफा बन कर तो नहीं रह जाएगी ? क्या अंग्रेजी के नक्कारखाने में यह पहल तूती की आवाज भी बन सकेगी? क्या इस पहल को अभिभावकों और विद्यार्थियों को प्रतिसाद मिल सकेगा?  हमें यहां अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल का उदाहरण भी ले लेना चाहिए जहां हिंदी माध्यम से प्रारंभ किए गए और फीस भी बहुत ही कम रखी गई। जहां एक और लोग लाखों रुपए डोनेशन  देकर और मोटी फीस देकर अंग्रेजी माध्यम के  इंजीनियरिंग आदि कॉलेजों में दाखिला लेते वहीं हिंदी माध्यम से शिक्षा के इन प्रयासों को कोई विशेष प्रतिसाद नहीं मिल पाता।  इसमें एक बड़ा कारण यह है कि पढ़ाई तो हो जाएगी लेकिन आगे नौकरी कैसे मिलेगी ? वहां तो अंग्रेजी का वर्चस्व है। नौकरी के लिए परीक्षा, साक्षात्कार आदि सब कुछ तो अंग्रेजी में ही होता है फिर उसमें यदि पता लगे कि विद्यार्थी ने पढ़ाई मातृभाषा माध्यम से की है तो क्या यह अंग्रेजी परस्त समुदाय मातृभाषा से पढ़ कर आए मेधावी बच्चों को भी स्वीकार करेगा ? यदि सरकार इस समस्या का कोई समाधान नहीं निकालती तो भारतीय भाषाओं के माध्यम से तकनीकी शिक्षा दिए जाने की यह पहल निरर्थक होकर रह जाएगी। 


इसलिए मेरा यह मत है कि शिक्षा और रोजगार के माध्यम की भाषा एक हो। दूसरी बात यह कि इस व्यवस्था को केवल सरकारी महाविद्यालयों तक सीमित न रखा जाए बल्कि हर जगह यह व्यवस्था होनी चाहिए।   सरकार को मातृभाषा में शिक्षा व्यवस्था के साथ-साथ मातृभाषा से पढ़कर आए विद्यार्थियों के रोजगार पर भी ध्यान देना होगा। सरकारी सेवाओं में मातृभाषा माध्यम को प्राथमिकता देनी होगी, निजी क्षेत्र को भी इसके लिए तैयार करना होगा। एक बार गाड़ी चल पड़ी तो फिर सरकारी मदद के बिना भी गाड़ी चलती रहेगी। लेकिन यह कोई सरल काम नहीं है इसके लिए सरकार की इच्छा शक्ति की शक्ति  की भी परीक्षा होगी और इसके लिए सुविचारित रणनीति भी बनानी होगी। 


हिंदी भाषी राज्यों के अतिरिक्त महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों की सरकारों को भी अपने राज्य की ग्रामीण व आदिवासी प्रतिभाओं को आगे लाने के लिए अपनी भाषाओं के माध्यम से शिक्षा और रोजगार के लिए खड़े होना चाहिए और प्रयास करने चाहिए।  और इन राज्यों में जो वर्ग अपनी भाषा की मुखर वकालत करता है यह उनकी परीक्षा का भी समय है। देखना है कि वे किस हद तक अपनी भाषाओं को समर्थन देकर आगे बढ़ाना चाहते हैं?  यह तो वक्त बताएगा कि  क्षेत्रीय भाषाओं की राजनीति करने वाले असल में किस हद तक अपनी भाषाओं में शिक्षा व रोजगार के साथ खड़े होते हैं ? अपनी भाषाओं को बचाने और बढ़ाने का इससे बेहतर मौका फिर शायद ही कभी मिल सके। आइए सब मिलकर इसके लिए हर स्तर पर यथासंभव प्रयास करें।

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प्रस्तुत कर्ता: संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)

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