भारतीय हिंदी लेखकों में भी किताब माफिया?
दिनेश शर्मा
प्रधानमंत्री और मानव संसाधन मंत्री क्या करेंगे हस्तक्षेप?
साहित्य अकादेमी की पूरी पुस्तक की सामग्री चोरी
Monday 29 June 2015 05:14:40 AM
नई दिल्ली। भारत का हिंदी साहित्य जगत भी इस समय देश-विदेश में पुस्तक और पुरस्कार माफियाओं से जूझ रहा है। प्रतिष्ठा और साहित्य सृजन के अनुकरणीय इतिहास से अच्छादित इसके उच्च शैक्षणिक संस्थानों में बैठे उच्चपदस्थ महानुभाव अपने और अपनों के लिए इस हद तक गिर चुके हैं कि अब उन्हें इसका भी पास नहीं रहा है कि जब देश और समाज के सामने उनके कारनामें खुलेंगे तो इंटरनेट पर बैठी भारतीय युवा पीढ़ी के सामने उनका क्या मान-सम्मान बचेगा? ईमानदारी से हिंदी साहित्य की सेवा में लगे भारतीय लेखकों और बुद्धीजीवियों को नहीं मालूम है कि उनके बीच के कुछ नामधारी लोग किस तरह हिंदी साहित्य की पीठ में छुरा भोंक रहे हैं, किस तरह विदेश में बैठे भारतीय हिंदी लेखकों की सामग्रियां चुराकर विदेशों में देश की फजीहत और भारत में पुरस्कार लूटकर अपना यशगान करा रहे हैं, किस तरह जोड़-तोड़ से वे देश के नामधारी हिंदी संस्थानों में जगह पाकर उनको खोखला करने में लगे हैं और किस तरह भारत की प्रिय हिंदी और उसको देश-दुनिया में सम्मान दिलाने वालों के सामने भ्रष्टाचार, अनाचार और जुगाड़ के कांटे बो रहे हैं। समय आ गया है कि हिंदी का शर्मनाक दोहन करने वालों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी बेनकाब करें और वास्तव में हिंदी के उत्थान के लिए कार्य कर रहे लोगों का मनोबल बढ़ाएं। यूं तो हिंदी को ही रौंद कर आगे बढ़ने के अनेक मामले खूब सुनने को मिलते हैं, किंतु विदेश में रहकर हिंदी के लिए बड़ा काम कर रही एक हिंदी लेखिका का मर्म यहां बड़ा ही प्रासंगिक है।
स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम को एक पत्र मिला है, जो किसी और ने नहीं, बल्कि नीदरलैंड में रह रहीं सुप्रसिद्ध अप्रवासी भारतीय हिंदी लेखिका डॉ पुष्पिता अवस्थी ने साहित्य अकादेमी और महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा को लिखा है, जिसका भारत के इन दोनों दिग्गज संस्थानों को कोई उत्तर देते नहीं बन रहा है। यह पत्र देश के पद्मभूषण, पद्मश्री जैसे सर्वोच्च सम्मानों और ख्याति प्राप्त संस्थाओं के भारी भरकम पुरस्कारों से लदे कई लेखकों और कवियों के दुःसाहसपूर्ण कृत्य, भ्रष्टाचार और नैतिक पतन से भरी उनकी कुटिलता को बेनकाब करता है। क्या यह बात आसानी से गले से उतरेगी कि भारत में प्रतियोगी परीक्षाओं में जिन महानुभावों की जीवनियां लिखकर हमारे बच्चे परीक्षा एवं प्रतियोगात्मक परीक्षा में पात्रता हासिल करते हैं, उनके मुख कितने उजले और मन कितने काले हैं? इससे ज्यादा शर्मनाक और क्या होगा कि डंके की चोट पर यह सच्चाई साबित हो रही है कि भारत के कई तथाकथित दिग्गज हिंदी लेखक एवं कवि दूर देशों में बैठे दूसरे नामचीन लेखकों की पूरी की पूरी सामग्री चुराकर अपने नाम से किताब लिखकर देश के जाने-माने लब्द्ध प्रतिष्ठित पुरस्कार पाए घूम रहे हैं। डॉ पुष्पिता अवस्थी की पीड़ा यह नहीं है कि भारत के इन लेखकों को देश के बड़े-बड़े पुरस्कार क्यों मिल रहे हैं, बल्कि पीड़ा यह है कि देश के ये बड़े नामधारी लेखक दूसरे लेखकों की सामग्रियों को चुरा रहे हैं और माफियाओं की तरह उनके मूल लेखकों को आंखे दिखा रहे हैं।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम पर हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा जब ऐसे कृत्य में लिप्त होगा तो भारत के बाकी विश्वविद्यालयों में हिंदी के नाम पर और कितना अनर्थ हो रहा होगा, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। अभी तक तो ज़मीन-जायदाद और राजनीति में लाक्षागृह सुनने में आए थे, मगर अब हिंदी साहित्य जगत भी इससे अछूता नहीं रह गया है। कॉपीराइट कानून की धज्जियां उड़ाते हुए इसमें नए ज़माने के किताब माफिया के रूप में सामने आए हैं। यह मामला अत्यंत गंभीर प्रकृति का है, जिसमें भयानक कदाचार है और अपराध भी है। यह केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के लिए स्वतः संज्ञान और जांच का विषय है, जिसमें बड़ो-बड़ों की प्रधानमंत्री कार्यालय, राष्ट्रपति भवन और देश के सर्वोच्च शिक्षण संस्थानों में इस महान पेशे की आड़ में सीधी घुसपैठ के फलस्वरूप दूसरों को कुचलकर निर्बाध सफलताएं प्राप्त करने के काले चिट्ठे सामने आएंगे। ये वो लोग हैं, जिनके कदम पड़ते ही सभी लोग शिष्टाचार और आदरपूर्वक खड़े हो जाते हैं। इनके पेशेवर कार्य घिनौने और उससे जुड़े समाज को लज्जित करने वाले हैं और देश के बाहर जो लोग राष्ट्र की छवि बनाने और उसकी प्रिय भाषा हिंदी के विकास के लिए खून पसीना बहा रहे हैं, उनका निर्ममता से मनोबल गिरा रहे हैं।
सात समंदर पार सूरीनाम जैसे देश में रोमन हिंदी को देवनागरी में लिपिबद्ध करने का परचम फहराने वाली एक अकेली हिंदी नेत्री डॉ पुष्पिता अवस्थी से जुड़ा यह घटनाक्रम उनको हिला देने वाला है और इसका एक निराशाजनक पक्ष यह है कि संबंधित भारतीय संस्थान और हुक्मरानों ने इसे पर्दाफाश करने के बजाए उसपर चुप्पी साध रखी है। डॉ पुष्पिता अवस्थी के भारत की साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष और सचिव एवं महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति डॉ गिरीश्वर मिश्र को इस संबंध में लिखे पत्र से तो यही सार निकलता है कि भारत के साहित्य संसार से जुड़े अनेक महानुभाव अब इस हद तक उतर आए हैं कि उन्हें सिर्फ अपनी और कुछ अपनों की परवाह है, उन्हें हिंदी भाषा और अपने देश की छवि की कोई चिंता नहीं है। भारत में इनके कृत्यों का शोर अभी भले ही नहीं सुनाई दे रहा है, अलबत्ता सूरीनाम, नीदरलैंड, मॉरीशस, दक्षिण अफ्रीका, फिजी, कनाडा, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया और इंगलैंड जैसे भारतवंशीय बहुल देशों में भारत के साहित्य चोरों की बहुत चर्चा हो रही है।
देश-दुनिया की विख्यात और प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में अपने समृद्धशाली लेखन से हर समय छाई रहने वाली डॉ पुष्पिता अवस्थी ने 11 जून 2015 को अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति और प्रति कुलपति को लिखे शिकायती पत्र में कहा है कि महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय से प्रायोजित भारत के लेखक विमलेश कांति वर्मा ने भावना सक्सेना की पुस्तक सूरीनाम का सृजनात्मक हिंदी साहित्य, राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली के सौजन्य से प्रकाशित कराई है, इस पुस्तक में सिर्फ शीर्षक की ही समानता नहीं है, बल्कि यह (डॉ पुष्पिता अवस्थी) उनकी पुस्तक की पूरी की पूरी सामग्री की चोरी नज़र आती है, इसी शीर्षक से उनकी पुस्तक 2012 में साहित्य अकादेमी नई दिल्ली की ओर से नेशनल बुक ट्रस्ट नई दिल्ली से प्रकाशित हो चुकी है। उन्होंने अपनी विभिन्न पुस्तकों का प्रकाशन विवरण प्रस्तुत करते हुए पत्र में लिखा है कि इससे पूर्व भी सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन के अवसर पर सूरीनाम में उनकी तीन पुस्तकें लोकार्पित हुईं और यही नहीं, राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित होकर सूरीनाम सम्मेलन के दौरान ही लेखकों और प्रतिभागियों को वितरित भी की गईं। सूरीनाम और सूरीनाम के सर्जनात्मक साहित्य पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनका उन्होंने अपने पत्र में उल्लेख किया है।
डॉ पुष्पिता अवस्थी ने लिखा है कि इस तरह स्पष्ट है कि सूरीनाम एवं सूरीनाम के सर्जनात्मक साहित्य पर उनका काम सुविस्तृत, अकादेमिक और मौलिक प्रकृति का है तथा उन्होंने इसे सूरीनाम राजदूतावास में प्रथम सचिव व भारतीय सांस्कृतिक केंद्र में बतौर हिंदी प्रोफेसर के रूप में वहां के लेखकों, भाषाकर्मियों के बीच विख्यात सूरीनाम साहित्यिक संस्था का निर्माण करते हुए, शब्दमित्र और हिंदीनामा जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के संपादन का काम करते हुए पांच वर्ष की सुदीर्घ अवधि में कठोर सर्जनात्मक साधना के फलस्वरूप यह संभव किया है तथा अभी भी नीदरलैंड में रहते हुए वह सूरीनाम एवं कैरेबियाई देशों सहित विश्व के अन्य देशों की हिंदी गतिविधियों से बखूबी जुड़ी हुई हैं। उन्होंने पत्र में लिखा है कि सूरीनाम के सांस्कृतिक एवं भाषाई साहित्य को सामने लाने का प्रयास उनसे पूर्व किसी ने भी, किसी भी रूप में नहीं किया है और अगर किया होता तो वह कहीं न कहीं तो दिखता। सूरीनाम हिंदी परिषद पारामारिबो-सूरीनाम के अध्यक्ष इ.ह. जानकी प्रसाद सिंह एवं पारामारिबो सूरीनाम के भूतपूर्व शिक्षामंत्री व. सांद्रीमान ने एक पत्र में इस क्षेत्र में उनके अनुकरणीय योगदान की चर्चा करते हुए इसकी पुष्टि भी की है।
डॉ पुष्पिता अवस्थी के इस पत्र की भावना व्यथा और तथ्यों से पता चलता है कि उनकी सामग्री का किस प्रकार हरण किया गया है। उन्होंने नाम लेकर लिखा है कि भारत में विमलेश कांति वर्मा एवं भावना सक्सेना ने उनकी किताब का हरण करते हुए और भाषाशैली में कुछ परिवर्तन करते हुए सूरीनाम का सृजनात्मक हिंदी साहित्य पुस्तक, राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली के सौजन्य से प्रकाशित कराई है। यह तब है, जब राधाकृष्ण प्रकाशन से भी उनकी छह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और राधाकृष्ण प्रकाशन ने जानकारी होते हुए भी वर्धा विश्वविद्यालय से इस पुस्तक के दूसरे नाम से प्रकाशन का प्रस्ताव मिलने पर वर्धा विश्वविद्यालय प्रशासन को सचेत नहीं किया कि यही पुस्तक साहित्य अकादेमी की भी है, जो राधाकृष्ण प्रकाशन का लेखक के साथ एक विश्वासघात भी है। डॉ पुष्पिता अवस्थी ने हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ गिरीश्वर मिश्र से इस बात पर भी कड़ा प्रतिवाद किया है कि उन्होंने समुद्रपार बसे साहित्यकार की कॉपीराइट के स्पष्ट उलंघन की शिकायत पर कोई ध्यान नहीं देते हुए विमल कांति वर्मा की यह किसी की नकल पुस्तक प्रकाशित की है। यह तब है जब इस पत्र के साथ-साथ उन्होंने विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति को दूरभाष से भी अवगत करा दिया था।
डॉ पुष्पिता अवस्थी ने पत्र में लिखा है कि विमलेश कांति वर्मा कोई मौलिक लेखक नही हैं तथा इनके समूचे लेखन का यही चरित्र रहा है और अपने संबंधों और चापलूसी के बल पर हिंदी विश्वविद्यालय के उच्चाधिकारियों को भ्रम में रखते हुए उन्होंने पुस्तकें प्रकाशित करा ली हैं। इसी तरह उन्होंने फिजी पर भी वहां के लेखक जोगेंद्र सिंह कॅवल की लिखी पुस्तकों से आधारभूत सामग्री को फेंट फॉंट कर अपनी पुस्तक छपवाई हैं। विदेश में बसे हिंदी के एक साहित्यकार और लेखक होने के नाते उन्होंने कुलपति से अनुरोध किया कि वे इस संबंध में अविलंब कार्रवाई करें, प्रकाशित पुस्तक की अंतर्वस्तु की सम्यक छानबीन किसी विशेषज्ञ से करवाएं एवं प्रकाशित पुस्तक के वितरण और बिक्री पर अविलंब रोक लगाएं। डॉ पुष्पिता अवस्थी ने इस पत्र की प्रतिलिपि अध्यक्ष साहित्य अकादेमी नई दिल्ली, निदेशक भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली, अध्यक्ष एवं निदेशक नेशनल बुक ट्रस्ट नई दिल्ली को भी कार्रवाई हेतु प्रेषित की, लेकिन अभी तक न केवल किसी की भी ओर से कोई कार्रवाई हुई है, अपितु इस संबंध में उनके पत्रों की प्राप्ति की सूचना तक नहीं भेजी गई।
स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम ने इस संबंध में मोबाइल नंबर-09810441753 पर विमलेश कांति वर्मा से उनका पक्ष जानना चाहा तो वे डॉ पुष्पिता अवस्थी की पुस्तक की नकल का कोई भी संतोषजनक उत्तर नहीं दे सके और कहने लगे कि एक जैसी दो किताबें हो सकती हैं। उन्होंने इस सवाल पर भी उत्तर नहीं दिया कि डॉ पुष्पिता अवस्थी की किताब आपसे पहले प्रकाशित हुई है और उसका पूरा कंटेंट आपकी किताब में कैसे है? उन्होंने तुरंत फोन काट दिया और वे दुबारा फोन पर नहीं आए। इसी प्रकार हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति डॉ गिरीश्वर मिश्र से उनके मोबाइल नंबर-09654022097 से संपर्क करने की कोशिश की गई, मगर काफी कोशिशों के बाद भी उनसे संपर्क नहीं हो सका। वर्धा विश्वविद्यालय से ही एक ने अपना नाम छिपाने की शर्त पर बताया कि विमलेश कांति वर्मा का यह कोई एक मामला नहीं है, अपितु उनके ऐसे कई मामले हैं और भारत में कई विश्वविद्यालयों में इस तरह के लेखक एक गैंग की तरह काम कर रहे हैं। वे विदेशी साहित्यकारों की पुस्तकों का मैटर चुराकर अपने या दूसरों के नाम से प्रकाशित कर झूंठी वाह-वाही लूट रहे हैं।
डॉ पुष्पिता अवस्थी जो कह रही हैं, वह एक गंभीरतम सच्चाई है और इसमें कई बड़े लोग श्रंखलाबद्ध रूप से एक-दूसरे के कृत्य में शामिल हैं। वर्तमान में हालात यह हैं कि साहित्य अकादेमी और देश के कई विश्वविद्यालयों में सक्रिय पुस्तक चोरों का खेल उनके आकाओं के संरक्षण में अपने चरम पर है। इनकी सांठगांठ किताबों की सामग्री चुराने से लेकर सर्वोच्च पुरस्कार समितियों तक से मानी जाती है। बहुत से ऐसे तथाकथित नामी लेखक और लेखिकाएं तो ऐसे हैं, जो केवल पुरस्कारों के चयन के समय ही पुस्तक लिखते या कृतियां चुराकर पुरस्कार हेतु सीधे प्रविष्टियां कराते हैं और कुछ समय बाद उनके नाम देश के महान साहित्यकारों, लेखकों और कवियों के बड़े पुरस्कारों की सूची में दिखाई देते हैं। इस समय तो पुरस्कारों से बड़ा मुद्दा विदेश में किताबों की चोरी का है, जिस पर लगभग सारे भारतीय संस्थान चुप्पी मारे बैठे हैं। इनका एक खेल यह भी है कि ये साहित्य सृजन और साहित्य सम्मेलनों के नाम पर लंबे विदेशी दौरे करते आ रहे हैं और विदेश में अपनी गंदगी फैलाने और किताबों की सामग्री की चोरी के अलावा कोई काम नहीं करते।
विदेशी लेखकों में आज अनेक भारतीय लेखकों की छवि बहुत धूमिल हो रही है और उनको उनके कृत्यों के कारण कोई सम्मान भी हासिल नहीं हो रहा है। धन्य है यह इंटरनेट युग, जिसमें इनके काले कारनामे पलक झपकते ही भारत में पता चलने लगे हैं और वह दिन दूर नहीं है, जब ये पुस्तक माफिया भारतीय लेखकों के सामने बेनकाब होंगे और चोरी की सामग्री पर इनके पुरस्कार इनके लिए नरक बन जाएंगे। इन सभी मामलों की उच्चस्तरीय और निष्पक्ष जांच होती है तो वर्धा से लेकर दिल्ली तक कई बड़े नामधारी लेखक, प्रकाशक और अधिकारी बेनकाब होंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी को इसका स्वतः संज्ञान लेकर, इसमें तुरंत हस्तक्षेप करके भारतीय साहित्य जगत को देश और विदेश में कलंकित होने और उसका सम्मान बर्बाद होने से बचाना चाहिए।
स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम को एक पत्र मिला है, जो किसी और ने नहीं, बल्कि नीदरलैंड में रह रहीं सुप्रसिद्ध अप्रवासी भारतीय हिंदी लेखिका डॉ पुष्पिता अवस्थी ने साहित्य अकादेमी और महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा को लिखा है, जिसका भारत के इन दोनों दिग्गज संस्थानों को कोई उत्तर देते नहीं बन रहा है। यह पत्र देश के पद्मभूषण, पद्मश्री जैसे सर्वोच्च सम्मानों और ख्याति प्राप्त संस्थाओं के भारी भरकम पुरस्कारों से लदे कई लेखकों और कवियों के दुःसाहसपूर्ण कृत्य, भ्रष्टाचार और नैतिक पतन से भरी उनकी कुटिलता को बेनकाब करता है। क्या यह बात आसानी से गले से उतरेगी कि भारत में प्रतियोगी परीक्षाओं में जिन महानुभावों की जीवनियां लिखकर हमारे बच्चे परीक्षा एवं प्रतियोगात्मक परीक्षा में पात्रता हासिल करते हैं, उनके मुख कितने उजले और मन कितने काले हैं? इससे ज्यादा शर्मनाक और क्या होगा कि डंके की चोट पर यह सच्चाई साबित हो रही है कि भारत के कई तथाकथित दिग्गज हिंदी लेखक एवं कवि दूर देशों में बैठे दूसरे नामचीन लेखकों की पूरी की पूरी सामग्री चुराकर अपने नाम से किताब लिखकर देश के जाने-माने लब्द्ध प्रतिष्ठित पुरस्कार पाए घूम रहे हैं। डॉ पुष्पिता अवस्थी की पीड़ा यह नहीं है कि भारत के इन लेखकों को देश के बड़े-बड़े पुरस्कार क्यों मिल रहे हैं, बल्कि पीड़ा यह है कि देश के ये बड़े नामधारी लेखक दूसरे लेखकों की सामग्रियों को चुरा रहे हैं और माफियाओं की तरह उनके मूल लेखकों को आंखे दिखा रहे हैं।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम पर हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा जब ऐसे कृत्य में लिप्त होगा तो भारत के बाकी विश्वविद्यालयों में हिंदी के नाम पर और कितना अनर्थ हो रहा होगा, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। अभी तक तो ज़मीन-जायदाद और राजनीति में लाक्षागृह सुनने में आए थे, मगर अब हिंदी साहित्य जगत भी इससे अछूता नहीं रह गया है। कॉपीराइट कानून की धज्जियां उड़ाते हुए इसमें नए ज़माने के किताब माफिया के रूप में सामने आए हैं। यह मामला अत्यंत गंभीर प्रकृति का है, जिसमें भयानक कदाचार है और अपराध भी है। यह केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के लिए स्वतः संज्ञान और जांच का विषय है, जिसमें बड़ो-बड़ों की प्रधानमंत्री कार्यालय, राष्ट्रपति भवन और देश के सर्वोच्च शिक्षण संस्थानों में इस महान पेशे की आड़ में सीधी घुसपैठ के फलस्वरूप दूसरों को कुचलकर निर्बाध सफलताएं प्राप्त करने के काले चिट्ठे सामने आएंगे। ये वो लोग हैं, जिनके कदम पड़ते ही सभी लोग शिष्टाचार और आदरपूर्वक खड़े हो जाते हैं। इनके पेशेवर कार्य घिनौने और उससे जुड़े समाज को लज्जित करने वाले हैं और देश के बाहर जो लोग राष्ट्र की छवि बनाने और उसकी प्रिय भाषा हिंदी के विकास के लिए खून पसीना बहा रहे हैं, उनका निर्ममता से मनोबल गिरा रहे हैं।
सात समंदर पार सूरीनाम जैसे देश में रोमन हिंदी को देवनागरी में लिपिबद्ध करने का परचम फहराने वाली एक अकेली हिंदी नेत्री डॉ पुष्पिता अवस्थी से जुड़ा यह घटनाक्रम उनको हिला देने वाला है और इसका एक निराशाजनक पक्ष यह है कि संबंधित भारतीय संस्थान और हुक्मरानों ने इसे पर्दाफाश करने के बजाए उसपर चुप्पी साध रखी है। डॉ पुष्पिता अवस्थी के भारत की साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष और सचिव एवं महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति डॉ गिरीश्वर मिश्र को इस संबंध में लिखे पत्र से तो यही सार निकलता है कि भारत के साहित्य संसार से जुड़े अनेक महानुभाव अब इस हद तक उतर आए हैं कि उन्हें सिर्फ अपनी और कुछ अपनों की परवाह है, उन्हें हिंदी भाषा और अपने देश की छवि की कोई चिंता नहीं है। भारत में इनके कृत्यों का शोर अभी भले ही नहीं सुनाई दे रहा है, अलबत्ता सूरीनाम, नीदरलैंड, मॉरीशस, दक्षिण अफ्रीका, फिजी, कनाडा, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया और इंगलैंड जैसे भारतवंशीय बहुल देशों में भारत के साहित्य चोरों की बहुत चर्चा हो रही है।
देश-दुनिया की विख्यात और प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में अपने समृद्धशाली लेखन से हर समय छाई रहने वाली डॉ पुष्पिता अवस्थी ने 11 जून 2015 को अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति और प्रति कुलपति को लिखे शिकायती पत्र में कहा है कि महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय से प्रायोजित भारत के लेखक विमलेश कांति वर्मा ने भावना सक्सेना की पुस्तक सूरीनाम का सृजनात्मक हिंदी साहित्य, राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली के सौजन्य से प्रकाशित कराई है, इस पुस्तक में सिर्फ शीर्षक की ही समानता नहीं है, बल्कि यह (डॉ पुष्पिता अवस्थी) उनकी पुस्तक की पूरी की पूरी सामग्री की चोरी नज़र आती है, इसी शीर्षक से उनकी पुस्तक 2012 में साहित्य अकादेमी नई दिल्ली की ओर से नेशनल बुक ट्रस्ट नई दिल्ली से प्रकाशित हो चुकी है। उन्होंने अपनी विभिन्न पुस्तकों का प्रकाशन विवरण प्रस्तुत करते हुए पत्र में लिखा है कि इससे पूर्व भी सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन के अवसर पर सूरीनाम में उनकी तीन पुस्तकें लोकार्पित हुईं और यही नहीं, राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित होकर सूरीनाम सम्मेलन के दौरान ही लेखकों और प्रतिभागियों को वितरित भी की गईं। सूरीनाम और सूरीनाम के सर्जनात्मक साहित्य पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनका उन्होंने अपने पत्र में उल्लेख किया है।
डॉ पुष्पिता अवस्थी ने लिखा है कि इस तरह स्पष्ट है कि सूरीनाम एवं सूरीनाम के सर्जनात्मक साहित्य पर उनका काम सुविस्तृत, अकादेमिक और मौलिक प्रकृति का है तथा उन्होंने इसे सूरीनाम राजदूतावास में प्रथम सचिव व भारतीय सांस्कृतिक केंद्र में बतौर हिंदी प्रोफेसर के रूप में वहां के लेखकों, भाषाकर्मियों के बीच विख्यात सूरीनाम साहित्यिक संस्था का निर्माण करते हुए, शब्दमित्र और हिंदीनामा जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के संपादन का काम करते हुए पांच वर्ष की सुदीर्घ अवधि में कठोर सर्जनात्मक साधना के फलस्वरूप यह संभव किया है तथा अभी भी नीदरलैंड में रहते हुए वह सूरीनाम एवं कैरेबियाई देशों सहित विश्व के अन्य देशों की हिंदी गतिविधियों से बखूबी जुड़ी हुई हैं। उन्होंने पत्र में लिखा है कि सूरीनाम के सांस्कृतिक एवं भाषाई साहित्य को सामने लाने का प्रयास उनसे पूर्व किसी ने भी, किसी भी रूप में नहीं किया है और अगर किया होता तो वह कहीं न कहीं तो दिखता। सूरीनाम हिंदी परिषद पारामारिबो-सूरीनाम के अध्यक्ष इ.ह. जानकी प्रसाद सिंह एवं पारामारिबो सूरीनाम के भूतपूर्व शिक्षामंत्री व. सांद्रीमान ने एक पत्र में इस क्षेत्र में उनके अनुकरणीय योगदान की चर्चा करते हुए इसकी पुष्टि भी की है।
डॉ पुष्पिता अवस्थी के इस पत्र की भावना व्यथा और तथ्यों से पता चलता है कि उनकी सामग्री का किस प्रकार हरण किया गया है। उन्होंने नाम लेकर लिखा है कि भारत में विमलेश कांति वर्मा एवं भावना सक्सेना ने उनकी किताब का हरण करते हुए और भाषाशैली में कुछ परिवर्तन करते हुए सूरीनाम का सृजनात्मक हिंदी साहित्य पुस्तक, राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली के सौजन्य से प्रकाशित कराई है। यह तब है, जब राधाकृष्ण प्रकाशन से भी उनकी छह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और राधाकृष्ण प्रकाशन ने जानकारी होते हुए भी वर्धा विश्वविद्यालय से इस पुस्तक के दूसरे नाम से प्रकाशन का प्रस्ताव मिलने पर वर्धा विश्वविद्यालय प्रशासन को सचेत नहीं किया कि यही पुस्तक साहित्य अकादेमी की भी है, जो राधाकृष्ण प्रकाशन का लेखक के साथ एक विश्वासघात भी है। डॉ पुष्पिता अवस्थी ने हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ गिरीश्वर मिश्र से इस बात पर भी कड़ा प्रतिवाद किया है कि उन्होंने समुद्रपार बसे साहित्यकार की कॉपीराइट के स्पष्ट उलंघन की शिकायत पर कोई ध्यान नहीं देते हुए विमल कांति वर्मा की यह किसी की नकल पुस्तक प्रकाशित की है। यह तब है जब इस पत्र के साथ-साथ उन्होंने विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति को दूरभाष से भी अवगत करा दिया था।
डॉ पुष्पिता अवस्थी ने पत्र में लिखा है कि विमलेश कांति वर्मा कोई मौलिक लेखक नही हैं तथा इनके समूचे लेखन का यही चरित्र रहा है और अपने संबंधों और चापलूसी के बल पर हिंदी विश्वविद्यालय के उच्चाधिकारियों को भ्रम में रखते हुए उन्होंने पुस्तकें प्रकाशित करा ली हैं। इसी तरह उन्होंने फिजी पर भी वहां के लेखक जोगेंद्र सिंह कॅवल की लिखी पुस्तकों से आधारभूत सामग्री को फेंट फॉंट कर अपनी पुस्तक छपवाई हैं। विदेश में बसे हिंदी के एक साहित्यकार और लेखक होने के नाते उन्होंने कुलपति से अनुरोध किया कि वे इस संबंध में अविलंब कार्रवाई करें, प्रकाशित पुस्तक की अंतर्वस्तु की सम्यक छानबीन किसी विशेषज्ञ से करवाएं एवं प्रकाशित पुस्तक के वितरण और बिक्री पर अविलंब रोक लगाएं। डॉ पुष्पिता अवस्थी ने इस पत्र की प्रतिलिपि अध्यक्ष साहित्य अकादेमी नई दिल्ली, निदेशक भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली, अध्यक्ष एवं निदेशक नेशनल बुक ट्रस्ट नई दिल्ली को भी कार्रवाई हेतु प्रेषित की, लेकिन अभी तक न केवल किसी की भी ओर से कोई कार्रवाई हुई है, अपितु इस संबंध में उनके पत्रों की प्राप्ति की सूचना तक नहीं भेजी गई।
स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम ने इस संबंध में मोबाइल नंबर-09810441753 पर विमलेश कांति वर्मा से उनका पक्ष जानना चाहा तो वे डॉ पुष्पिता अवस्थी की पुस्तक की नकल का कोई भी संतोषजनक उत्तर नहीं दे सके और कहने लगे कि एक जैसी दो किताबें हो सकती हैं। उन्होंने इस सवाल पर भी उत्तर नहीं दिया कि डॉ पुष्पिता अवस्थी की किताब आपसे पहले प्रकाशित हुई है और उसका पूरा कंटेंट आपकी किताब में कैसे है? उन्होंने तुरंत फोन काट दिया और वे दुबारा फोन पर नहीं आए। इसी प्रकार हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति डॉ गिरीश्वर मिश्र से उनके मोबाइल नंबर-09654022097 से संपर्क करने की कोशिश की गई, मगर काफी कोशिशों के बाद भी उनसे संपर्क नहीं हो सका। वर्धा विश्वविद्यालय से ही एक ने अपना नाम छिपाने की शर्त पर बताया कि विमलेश कांति वर्मा का यह कोई एक मामला नहीं है, अपितु उनके ऐसे कई मामले हैं और भारत में कई विश्वविद्यालयों में इस तरह के लेखक एक गैंग की तरह काम कर रहे हैं। वे विदेशी साहित्यकारों की पुस्तकों का मैटर चुराकर अपने या दूसरों के नाम से प्रकाशित कर झूंठी वाह-वाही लूट रहे हैं।
डॉ पुष्पिता अवस्थी जो कह रही हैं, वह एक गंभीरतम सच्चाई है और इसमें कई बड़े लोग श्रंखलाबद्ध रूप से एक-दूसरे के कृत्य में शामिल हैं। वर्तमान में हालात यह हैं कि साहित्य अकादेमी और देश के कई विश्वविद्यालयों में सक्रिय पुस्तक चोरों का खेल उनके आकाओं के संरक्षण में अपने चरम पर है। इनकी सांठगांठ किताबों की सामग्री चुराने से लेकर सर्वोच्च पुरस्कार समितियों तक से मानी जाती है। बहुत से ऐसे तथाकथित नामी लेखक और लेखिकाएं तो ऐसे हैं, जो केवल पुरस्कारों के चयन के समय ही पुस्तक लिखते या कृतियां चुराकर पुरस्कार हेतु सीधे प्रविष्टियां कराते हैं और कुछ समय बाद उनके नाम देश के महान साहित्यकारों, लेखकों और कवियों के बड़े पुरस्कारों की सूची में दिखाई देते हैं। इस समय तो पुरस्कारों से बड़ा मुद्दा विदेश में किताबों की चोरी का है, जिस पर लगभग सारे भारतीय संस्थान चुप्पी मारे बैठे हैं। इनका एक खेल यह भी है कि ये साहित्य सृजन और साहित्य सम्मेलनों के नाम पर लंबे विदेशी दौरे करते आ रहे हैं और विदेश में अपनी गंदगी फैलाने और किताबों की सामग्री की चोरी के अलावा कोई काम नहीं करते।
विदेशी लेखकों में आज अनेक भारतीय लेखकों की छवि बहुत धूमिल हो रही है और उनको उनके कृत्यों के कारण कोई सम्मान भी हासिल नहीं हो रहा है। धन्य है यह इंटरनेट युग, जिसमें इनके काले कारनामे पलक झपकते ही भारत में पता चलने लगे हैं और वह दिन दूर नहीं है, जब ये पुस्तक माफिया भारतीय लेखकों के सामने बेनकाब होंगे और चोरी की सामग्री पर इनके पुरस्कार इनके लिए नरक बन जाएंगे। इन सभी मामलों की उच्चस्तरीय और निष्पक्ष जांच होती है तो वर्धा से लेकर दिल्ली तक कई बड़े नामधारी लेखक, प्रकाशक और अधिकारी बेनकाब होंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी को इसका स्वतः संज्ञान लेकर, इसमें तुरंत हस्तक्षेप करके भारतीय साहित्य जगत को देश और विदेश में कलंकित होने और उसका सम्मान बर्बाद होने से बचाना चाहिए।
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