प्रस्तुति
: संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)
email: murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण,
मीडिया प्रभारी,
हैदराबाद.
मो.नं.09703982136.
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विश्व वात्सल्य
मंच ने श्रीकृष्ण अष्टलक्ष्मी मंदिर सोसाइटी को दी सहायता राशि
विश्व वात्सल्य मंच, हैदराबाद, के तत्वावधान में श्रीकृष्ण अष्टलक्ष्मी मंदिर सोसायटी, साईंपुरी, सैनिकपुरी, सिकंदराबाद, पुजारियों को लॉकडाउन के
कारण आजीविका चलाने हेतु ₹22000 की सहायता राशि प्रदान की गयी।
आज यहां संस्था की संस्थापक अध्यक्ष संपत देवी मुरारका एवं प्रधान सचिव राजेश
मुरारका द्वारा प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार लॉकडाउन में मंदिर के पट बंद होने के
कारण पुजारियों को खाने पीने की समस्या हो गई थी, इसी कारण उन्हें दो बार(12000+10000 चेक} आर्थिक सहायता दी। इस अवसर पर सीता अग्रवाल (कोषाध्यक्ष), दीपिका (कार्यकारी सदस्य) एवं बी प्रतिभा
(कार्यकारी सदस्य) उपस्थित थे। विश्व वात्सल्य मंच के सभी सदस्यों का सहयोग हेतु पुजारी ने आभार प्रदर्शित किया।
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: संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)
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हिन्दी के योद्धा : जिनका आज जन्मदिन है.-12
रामकथा के प्रथम अन्वेषक फादर कामिल बुल्के
फ़ादर कामिल बुल्के
ईसाई धर्म के प्रचार के लिए बेल्जियम से भारत आकर यहां की नागरिकता स्वीकार करने वाले, हिन्दी को अपनी माँ, राम को अपना आदर्श और तुलसी के प्रति अटूट श्रद्धा रखने वाले डॉ. फादर कामिल बुल्के (1.9.1909- 17.8.1982) रामकथा पर गंभीर शोध करने वाले पहले अनुसंधित्सु हैं. ‘रामकथा –उत्पत्ति और विकास’ आज भी रामकथा पर सर्वश्रेष्ठ शोध कार्य माना जाता है. अपनी मातृभाषा फ्लेमिश के अतिरिक्त अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, लैटिन, ग्रीक, संस्कृत और हिन्दी के विद्वान डॉ. बुल्के के सामने यदि कोई हिन्दी भाषी अंग्रेजी बोलता था तो वे नाराज हो जाते थे और हिन्दी में जवाब देते थे. वे 1950 से लेकर 1977 तक सेंट जेवियर्स कॉलेज राँची में हिन्दी एवं संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे.
‘अंगरेजी हिन्दी कोश’ उनकी दूसरी ऐसी महत्वपूर्ण कृति है जिसका आज भी कोई विकल्प नहीं है. साहित्य के अध्येताओं के लिए यह सबसे ज्यादा पसंद किया जाने वाला शब्दकोश है.
यह एक संयोग ही है कि लॉर्ड मैकाले के भारत आने के ठीक एक सौ वर्ष बाद 1935 में बुल्के मिशनरी काम से भारत आए. कामिल बुल्के का जन्म बेल्जियम के वेस्ट फ्लैंडर्स में नॉकके-हेइस्ट म्युनिसिपैलिटी के एक गाँव रम्सकपेल में 1909 में हुआ था. इनके पिता का नाम अडोल्फ और माता का नाम मारिया बुल्के था. उन्होंने लूवेन विश्वविद्यालय (लिस्सेवेगे) से सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री ली और उसके बाद 1930 में जेसुइट बन गए. बाद में जेसुइट सेमिनरी से लैटिन भाषा पढ़ने के बाद ब्रदर बने बुल्के ने अपना जीवन एक सन्यासी के रूप में बिताने निश्चय किया और कई महत्वपूर्ण संस्थाओं में अध्ययन करने के बाद 1935 में भारत आ गए. यहां उन्होंने विज्ञान के अध्यापक के रूप में सेंट जोसेफ कॉलेज दार्जीलिंग में और येसु संघियों के मुख्य निवास स्थान मनरेसा हाउस, रांची में अपना प्रवास किया. उन्होंने गुमला (वर्तमान झारखंड में) लगभग 5 वर्ष तक गणित पढ़ाया. 1941 में वे पुरोहित बने. इसके पूर्व उन्होंने 1940 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से ‘साहित्य विशारद’ की परीक्षा पास की थी. 1944 में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. किया और उसके बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1947 में हिन्दी में एम.ए. और 1950 में डॉक्टोरेट. 1951 में उन्होंने भारत की नागरिकता ग्रहण की.
भारत आने और अपने अध्ययन–अध्यापन की यात्रा के बारे वे स्वयं कहते हैं, “मेरी जन्मभूमि बेल्जियम के उत्तर में फ्लेमिश भाषा बोली जाती है और दक्षिण में फ्रेंच भाषा. फ्रेंच विश्व भाषा है. अत: समस्त बेल्जियम में उसका बोलबाला था. फ्रेंच, विश्वविद्यालीय तथा उच्च माध्यमिक विद्यालय में शिक्षण का माध्यम थी और उत्तर बेल्जियम के बहुत से मध्यवर्गीय परिवारों में भी फ्रेंच बोली जाती थी.
इस परिस्थिति के विरोध में फ्लेमिश भाषा का आन्दोलन प्रारंभ हुआ, जो मेरे विद्यार्थी जीवन के समय प्रबल होता जा रहा था. मैं भी उस आन्दोलन से सहानुभूति रखता था और इकतीस की उम्र में सन्यास लेने तक इसमें सक्रिय भाग लेता रहा.
मातृभाषा प्रेम का संस्कार लेकर मैं सन् 1935 ईं में राँची पहुंचा और यह देखकर दुख हुआ कि भारत में न केवल अंग्रेजों का राज है, बल्कि अंग्रेजी का ही बोलबाला है. मेरे देश की भांति उत्तर भारत का मध्यवर्ग भी अपनी मातृभाषा की अपेक्षा एक विदेशी भाषा को अधिक महत्व देता है. उसके प्रतिक्रिया स्वरूप मैंने हिन्दी पंडित बनने का निश्चय किया. यह निश्चय एक प्रकार से मेरे शोध कार्य की ओर प्रथम सोपान है.” ( हिन्दी चेतना, जुलाई -2009, पृष्ठ-31) बेहद कुशाग्र बुद्धि वाले कामिल बुल्के ने केवल पांच सालों में न केवल हिंदी बल्कि संस्कृत पर भी पूरा अधिकार कर लिया. उन्होंने अवधी, ब्रज, पाली, प्राकृत और अपभ्रंश की भी अच्छी जानकारी हासिल कर ली.
जब कामिल बुल्के का जेसुइट धर्मसंघ में प्रशिक्षण समाप्त हुआ, तो संघ के अधिकारियों से उन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए अनुमति मांगी और उन्हें उनकी रुचि के अनुरूप हिन्दी में एम.ए. करने की अनुमति मिल गयी. इसके लिए वे इलाहाबाद गए और एम.ए. में एडमीशन लिया. उस समय डॉ. धीरेन्द्र वर्मा विभागाध्यक्ष थे. जब वे एम.ए. द्वितीय वर्ष में थे तभी डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने उनकी प्रतिभा के पहचाना और हिन्दी में शोध करने के लिए प्रेरित किया. उन्ही के निर्देश पर डॉ. माताप्रसाद गुप्त के निर्देशन में राम कथा पर शोध के लिए उनका पंजीकरण हुआ. वे लिखते हैं, “रामकथा पर शोध –कार्य प्रारंभ करने की प्रेरणा मुझे इन तीन तत्वों से मिली - हिन्दी-प्रेम, तुलसी के प्रति श्रद्धा तथा डॉ. धीरेन्द्र वर्मा की उदारता.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ-31)
‘रामकथा : उत्पति और विकास’ में संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, बंगला, तमिल आदि सभी प्राचीन और आधुनिक भारतीय भाषाओं में उपलब्ध रामविषयक विपुल साहित्य का ही नहीं, वरन् तिब्बती, वर्मी, इंडोनेशियाई, थाई आदि भाषाओं में उपलब्ध समस्त राम साहित्य का अत्यंत वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन किया गया है. इसके प्रकाशन के साथ ही फादर बुल्के की गणना भारत विद्या और हिन्दी के प्रतिष्ठित विद्वान के रूप में होने लगी.
डॉ. फादर बुल्के का शोध- प्रबंध हिन्दी माध्यम में प्रस्तुत हिन्दी विषय का पहला शोध- प्रबंध भी है. जिस समय फादर बुल्के इलाहाबाद में शोध कर रहे थे, उस समय विश्वविद्यालय के सभी विषयों के शोध- प्रबंध केवल अंग्रेजी में ही प्रस्तुत करने का विधान था. फादर बुल्के के लिए अंग्रेजी में शोध- प्रबंध प्रस्तुत करना सरल भी था, किन्तु यह बात उनके हिन्दी स्वाभिमान के विपरीत थी. उन्होंने आग्रह किया कि उन्हे हिन्दी में शोध- प्रबंध प्रस्तुत करने की अनुमति प्रदान की जाय. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डॉ. अमरनाथ झा ने उनके आग्रह पर शोध- संबंधी नियमावली में संशोधन कराया और उन्हे अनुमति दी. इसके बाद तो अन्य उत्तर भारतीय विश्वविद्यालयों में भी आधुनिक भारतीय भाषाओं में शोध- प्रबंध प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाने लगी. डॉ. बुल्के को 1950 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से डी.फिल. की उपाधि मिली. इसी वर्ष उनकी नियुक्ति सेंट जेवियर्स कॉलेज राँची के हिन्दी-संस्कृत विभाग के अध्यक्ष पद पर हो गई और वे वहां इस पद पर अवकाश ग्रहण करने अर्थात 1977 तक रहे.
अपना शोध-प्रबंध जमा करने के बाद भी डॉ. बुल्के इसी विषय पर अगले 18 वर्ष तक काम करते रहे. उनकी इस कृति के बारे में उनके गुरु डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने लिखा है, “ इसे रामकथा संबंधी समस्त सामग्री का विश्वकोश कहा जा सकता है. वास्तव में यह शोध- प्रबंध अपने ढंग की पहली रचना है. हिन्दी क्या, किसी भी यूरोपीय या भारतीय भाषा में इस प्रकार का दूसरा अध्ययन उपलब्ध नहीं है.” हिन्दी परिषद, इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने स्वयं इसे प्रकाशित करके इसकी गुणवत्ता पर मुहर लगा दी.
रामकथा और तुलसी की भक्ति के बारे में डॉ. बुल्के ने लिखा है, “वास्तव में रामकथा आदर्श जीवन का वह दर्पण है, जिसे भारतीय प्रतिभा शताब्दियों तक परिष्कृत करती रही. इस प्रकार रामकथा भारतीय आदर्शवाद का उज्जवलतम प्रतीक बन गई है. वाल्मीकि के परवर्ती रामकाव्य के कवियों में तुलसी का स्थान अद्वितीय है. उन्होंने वाल्मीकि और लोकसंग्रह का पूरा-पूरा निर्वाह किया है और उस रामकथा के सोने में भगवद्भक्ति की सुगंध जगा दी है.
तुलसीदास ने भगवद्भक्ति के विषय में जो संदेश दिया है, वह वाल्मीकि के नैतिक आदर्श की भांति विश्वजनीन है. इष्टदेव के प्रति अनन्य आत्म-समर्पण के साथ- साथ अपने दैन्य की तीव्र अनुभूति तुलसी की भगवद्भक्ति की प्रमुख विशेषता है. उन्होंने कहीं भी कर्मकाँड पर बल नहीं दिया, कहीं भी मन्दिर में होने वाली पूजा के लिए अनुरोध नहीं किया. भक्तिमार्ग की नींव नैतिकता है और अपनी उक्त प्रमुख विशेषता के कारण वह सब संप्रदायों के ऊपर उठकर मानव मात्र के लिए उपयुक्त है.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ- 32)
उन्होंने एक जगह लिखा है, “अव्याहतानुयोगी मुनिजन: अर्थात् साधु से कोई भी प्रश्न पूछा जा सकता है. संस्कृत की इस उक्ति के अनुसार लोग मुझसे ये नितान्त व्यक्तिगत प्रश्न पूछने में संकोच नहीं करते. “ विद्वान होते हुए भी आपका ईसा में इतना दृढ़ विश्वास कैसे ? विदेशी होते हुए भी हिन्दी तथा भारतीय संस्कृति से इतना प्रेम कैसे ? ईसाई होते हुए भी तुलसी पर इतनी श्रद्धा कैसे ? इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए जब मैं अपने जीवन पर विचार करता हूं, तो मुझे लगता है कि ईसा, हिन्दी और तुलसीदास- ये वास्तव में मेरी साधना के तीन प्रमुख घटक हैं और कि मेरे लिए इन तीन तत्वों में कोई विरोध नहीं. बल्कि गहरा संबंध है.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ-33)
अपनी तुलसी भक्ति के बारे में उन्होंने लिखा है, “1938 में मैने ‘रामचरितमानस’ और ‘विनयपत्रिका को प्रथम बार आद्योपान्त पढ़ा. उस समय तुलसीदास के प्रति मेरे हृदय में जो श्रद्धा उत्पन्न हुई और बाद में बराबर बढ़ती गई, वह भावुकता मात्र नहीं है. साहित्य तथा धार्मिकता के विषय में मेरी धारणाओं से इस श्रद्धा का गहरा संबंध है.” (उपर्युक्त, पृष्ठ 34)
फादर कामिल बुल्के का दूसरा ऐतिहासिक कार्य ‘अंगरेजी हिन्दी कोश’ है. उन्होंने पहले अन्य भाषा- भाषियों की सुविधा के लिए ‘ए टेक्निकल इंग्लिश हिन्दी ग्लॉसरी’ लिखा और उसकी लोकप्रियता को देखते हुए बाद में ‘अंग्रेजी- हिन्दी कोश’ तैयार किया जो 1968 में प्रकाशित हुआ. आज भी यह कोश साहित्यिक अभिरुचि के लोगों में सर्वाधिक प्रचलित कोश है. इसके विषय मे विष्णु प्रभाकर ने लिखा है, “मुझे यह कोश अबतक के सभी ऐसे कोशों में सबसे उपादेय और सही लगा.”( अंगरेजी- हिन्दी कोश के फ्लैप से ) और इलाचंद जोशी ने लिखा है,”यह कोश न केवल हिन्दी और अंग्रेजी के नए पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा वरन् हम जैसे पुराने घिसे हुए लेखकों के लिए भी बड़े काम की चीज सिद्ध होगा.... स्वयं मुझे अपने निबंधों के लेखन में इससे बड़ी सहायता मिली है.” (अंगरेजी-हिन्दी कोश के फ्लैप से )
फादर बुल्के का विश्वास था कि ज्ञान- विज्ञान के किसी भी विषय की संपूर्ण अभिव्यक्ति हिन्दी में संभव है और अंग्रेजी पर आश्रित बने रहने की धारणा निरर्थक है. उनका दृढ़ विश्वास था कि हिन्दी निकट भविष्य में ही समस्त भारत की सर्वप्रमुख भाषा बन जाएगी.
अपने कॉलेज मंच से भाषण देते हुए उन्होंने कहा था, “ संस्कृत राजमाता है, हिन्दी बहूरानी है और अंग्रेजी नौकरानी है. पर नौकरानी के बिना भी काम नहीं चलता.” वे कहा करते थे कि दुनिया भर में शायद ही कोई ऐसी विकसित साहित्य भाषा हो जो हिन्दी की सरलता की बराबरी कर सके. अपनी मातृभाषा फ्लेमिश से भी उन्हें अत्यधिक अनुराग था. डॉ. बुल्के इस बात के गवाह हैं कि जो व्यक्ति अपनी मातृभाषा से प्यार करता है वही दूसरे की मातृभाषा से भी प्यार कर सकता है.
लंबे समय तक फादर बुल्के के संपर्क में रहने वाले डॉ. दिनेश्वर प्रसाद के शब्दों में, “ फादर बुल्के उन विदेशी सन्यासियों में थे, जो भारत आकर भारतीय से अधिक भारतीय हो गए थे. उन्होंने यहां की जनता के जीवन से अपने को एकाकार कर लिया था. उन्हे देखकर कोई भी व्यक्ति यह अनुभव कर सकता था कि सन्यास का अर्थ जीवन और जगत का निषेध न होकर स्वत्व का निषेध है और स्व का ऐसा विस्तार, जिसमें पूरी दुनिया के लिए ममत्व भरा हुआ है.” ( हिन्दी चेतना, डॉ. कामिल बुल्के विशेषांक, जुलाई 2009, पृष्ठ-19)
उनके द्वारा रचित छोटी बड़ी पुस्तकों की संख्या 29 है. जिसमें प्रमुख हैं, ‘रामकथा : उत्पत्ति और विकास’, ‘हिंदी-अंगरेजी लघुकोश’, ‘अंगरेजी-हिंदी कोश’, ‘रामकथा और तुलसीदास’, ‘मानस –कौमुदी’, ‘ईसा जीवन और दर्शन’, ‘एक ईसाई की आस्था’, ‘मुक्तिदाता’, ‘नया विधान’, ‘नीलपक्षी’ आदि.
इसके अलावा भी उनके सैकड़ों शोध- निबंध विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं. वे ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद’, ‘काशी नागरी प्रचिरिणी सभा’ और ‘बेल्जियन रॉएल अकादमी’ के सम्मानित सदस्य थे.
निस्संदेह डॉ. फादर कामिल बुल्के ने भारत और पश्चिमी जगत को भावात्मक रूप से जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया. भारत सरकार ने साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में किए गए उनके योगदान के लिए उन्हें पद्मभूषण से सम्मनित किया.
17 अगस्त 1982 को गैंगरीन के कारण एम्स, दिल्ली में इलाज के दौरान उनका निधन हो गया. सेंट जेवियर्स कॉलेज, राँची के प्रांगण में स्थित उनके आवास व पुस्तकालय को ‘डॉ. फादर बुल्के शोध संस्थान’ के नाम से विकसित किया गया है. इस पुस्तकालय और शोध -केन्द्र के प्रभारी ने मुझे बताया था कि इसका संचालन उनकी पुस्तक ‘अंगरेजी हिन्दी कोश’ से मिलने वाली रॉयल्टी से होता है.
‘फादर कामिल बुल्के : भारतीय संस्कृति के अन्वेषक’ शीर्षक से शैल सक्सेना ने फादर बुल्के पर एक पुस्तक लिखी है और डॉ. दिनेश्वर प्रसाद ने साहित्य अदकादमी के लिए ‘भारतीय साहित्य के निर्माता’ सिरीज के अंतर्गत उनपर एक विनिबंध लिखा है.
हरिवंशराय बच्चन ने फादर बुल्के के ऊपर एक कविता लिखी है. कविता निम्न है-
“फादर बुल्के तुम्हें प्रणाम"
जन्मे और पले योरुप में, पर तुमको प्रिय भारत धाम.
रही मातृभाषा योरुप की, बोली हिन्दी लगी ललाम.
ईसाई संस्कार लिए भी, पूज्य हुए तुमको श्रीराम.
तुलसी होते तुम्हें पगतरी के हित देते अपना चाम.
सदा सहज श्रद्धा से लेगा मेरा देश तुम्हारा नाम
फादर बुल्के तुम्हें प्रणाम.”
आज डॉ. फादर कामिल बुल्के की 111वीं जन्मतिथि है. इस अवसर पर हम हिन्दी भाषा और राम- कथा पर किए गए उनके असाधारण शोध- कार्य का स्मरण करते हैं और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.
प्रो. अमरनाथ
(लेखक कोलकोता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)
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वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो.: 09703982136
भारतीय भाषाएँ : दशा, दिशा और भविष्य
(नवनीत के लिए अगस्त, २०१९ में लिखित, सितंबर अंक में प्रकाशित)
राहुल देवसारी भारतीय भाषाएं अपने जीवन के सबसे गंभीर संकट के मुहाने पर खड़ी हैं। यह संकट अस्तित्व का है, महत्व का है, भविष्य का है। कुछ दर्जन या सौ लोगों द्वारा बोली जाने वाली छोटी आदिवासी भाषाओं से लेकर 45-50 करोड़ भारतीयों की विराट भाषा हिंदी तक इस संकट के सामने अलग-अलग अंशों में लेकिन लगभग अटल और अपरिहार्य दिखते लोप के सामने निरुपाय खड़ी दिखती हैं।भाषाओं का यह संकट अपने दीर्घावधि निहितार्थों और बहुआयामी प्रभावों में भारतीय सभ्यता का संकट बन जाता है। कारण सीधा है। भाषा और संस्कृति,राष्ट्र, राष्ट्बोध और राष्ट्रीयता का गर्भनाल जैसा संबंध है। भाषा इनकी गर्भनाल है। भाषा के बिना किसी समाज/समूह की संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती। संस्कृति की सबसे बड़ी, सबसे प्रभावी और शक्तिशाली वाहिका भाषा ही होती है। भाषा में ही संस्कृति के सबसे महत्वपूर्ण उपादान, उसकी चिन्तन-आध्यात्मिक-ज्ञान-साहित्य-शास्त्रीय-लोक संपदा निर्मित, संचारित और प्रवाहित होती है। संस्कृति के अन्य रूप- साहित्य, ललित कलाएं, गीत संगीत, स्थापत्य, वेशभूषा, खानपान, पर्व त्यौहार, सामाजिक रीतियां, परंपराएं, लोकाचार आदि मुख्यतः भाषा के कारण और माध्यम से ही प्रकट होते हैं। 100 साल पहले 1918 में चेन्नई में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति स्थापित करने वाले महात्मा गांधी और उसके 40 साल बाद भारत के संविधान निर्माताओं ने भाषा संबंधी प्रावधान बनाते समय इसकी दूर-दूर तक कल्पना नहीं की थी कि जिन महान उद्देश्यों, राष्ट्रनिर्माण के जिन सपनों को सामने रखकर उन्होंने यह पुरुषार्थ किए थे, भारतीय राष्ट्र और उसके भविष्य का जो चित्र उन्होंने अपने सामने रखा था उसका साकार रूप 70 साल में ही इतना अलग, इतना विकृत हो जाएगा। लेकिन हमारी आंखों के सामने आज जो दृश्य है और निकट भविष्य में आकार लेता दिखाई दे रहा है वह इतना विकराल है, गहरे संस्कृतिमूलक आयामों में राष्ट्र निर्माताओं की कल्पना के इतना विपरीत है कि विश्वास नहीं होता।ब्रिटिश साम्राज्यवाद की दासता से मुक्त अपनी मौलिक अंतःप्रेरणा और साभ्यतिक आभा के आलोक में भारत एक बार फिर चमचमाकर खड़ा होगा, अपना नवनिर्माण करेगा वह सपना आज अंग्रेज़ी के ऐसे भाषायी साम्राज्यवाद की जकड़ में है जो दिनोंदिन मज़बूत होती जा रही है। १५० वर्षों के प्रयासों के बाद भी १५% भारतीयों की कार्यभाषा बन सकी, अपने भक्तों के सम्मोहन से प्राण वायु पाती अंग्रेज़ी इस देश की ८५% प्रतिभा, उद्यमिता के उच्चतम विकास के आगे पत्थर की दीवार की तरह खड़ी है। अंग्रेजी़ न जानने के कारण उच्च शिक्षा, ऊंचे अवसरों, रोज़गारों से वंचित करोड़ों युवा प्रतिभाएं आज रोज़ कुंठित, अपमानित होने, अपने आत्मसम्मान, आत्मविश्वास को तिल तिल कर मरते देखने, पिछड़ जाने के लिए अभिशप्त हैं। अंग्रेज़ी से वंचित होना दोयम दर्जे का भारतीय होना है। केवल किसी भारतीय भाषा में जीने-काम करने वाला व्यक्ति अंग्रेज़ी वालों के सामने दीन हो जाता है। इस आत्मदैन्य को अपनी बातचीत में अधिक से अधिक अंग्रेज़ी शब्दों, अभिव्यक्तियों को ढूंसता हिन्दुस्तानी ही आज प्रतिनिधि हिन्दुस्तानी है।वर्तमान से अब ज़रा भविष्य में चलते हैं। सन २०५० की कल्पना कीजिए। तब तक हमारा भारत विश्व की एक बड़ी आर्थिक महाशक्ति बन चुका होगा। भारतीय प्रतिभा, उद्यमशीलता और हमारी बुनियादी लोकतांत्रिकता विश्वमंच पर भारत का अटल उदय सुनिश्चित कर चुके हैं। चरम गरीबी, कुपोषण, भुखमरी, शैक्षिक-आर्थिक पिछड़ापन बड़ी हद तक मिट चुके होंगे। आम भारतीयों का जीवन स्तर, सुविधाएं काफी ऊपर आ चुके होंगे। देश के ५०-६०% भाग का शहरीकरण हो चुका होगा। आधुनिक सुख सुविधाएं, तकनीकें यंत्र, साधन गांव-गांव तक पहुंच चुके होंगे। सारा देश डिजिटल जीवन पद्धति को बहुत बड़ी हद तक अपना चुका होगा। ब्रॉडबैंड और उसके माध्यम से मिलने वाली अनंत सेवाएं आम हो चुके होंगे।अब कल्पना के घोड़े दौड़ाइए और सोचिए - उस भारत के अधिकतर नागरिक अपने जीवन के सारे प्रमुख काम किस भाषा में कर रहे होंगे? पूरे देश में शिक्षा, प्रशासन, व्यापार, शोध, पत्रकारिता, स्वास्थ्य, न्याय जैसे हर बड़े क्षेत्र में किस भाषा का प्रमुखता से उपयोग हो रहा होगा? वह देश भारत होगा, भिंडिया या सिर्फ़ इंडिया?उस इंडिया में संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हमारी बड़ी 22 और 16 सौ से अधिक छोटी भाषाओं-बोलियों की स्थिति क्या होगी? कहां होंगी वे? होंगी भी कि नहीं?मेरा अपना आकलन है कि रहेंगी तो जरूर लेकिन गरीबों की गरीब भाषाएं बनकर। हाशियों की भाषा बन कर। गालियों की भाषा बन कर। गीत-संगीत, मनोरंजन, फिल्में ये भाषाओं में बचे रहेंगे हालांकि इनमें भी तब तक आधी से ज्यादा अंग्रेजी प्रवेश कर चुकी होगी। आज बनने वाली हिंदी फिल्मों में आधी से ज्यादा के शीर्षक अब अंग्रेजी के होते हैं। उनके संवादों में हिंदी नहीं हिंग्लिश ज्यादा होती है। पूरी तरह अंग्रेजी में बनने वाली फिल्में और नेटफ्लिक्स जैसे आधुनिक मंचों पर भारतीय अंग्रेजी धारावाहिक आम हो चले हैं। यह प्रक्रिया बढ़ती ही जाएगी।भाषाई अखबारों, फिल्मों और धारावाहिकों का विस्तार हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैचों का आंखों देखा विवरण भी अब हिंदी व भाषाओं में होने लगा है। इस विस्तार पर मुग्ध भाषायी मीडिया और साहित्यकार अपनी भाषाओं पर किसी तरह के संकट की बात को अरण्य रोदन कह देते हैं। यह दूरदृष्टिहीनता है। भविष्य देखना है तो बच्चों की ओर देखना चाहिए। बच्चों की जो पीढ़ियां अधिकाधिक अंग्रेजी माध्यम से पढ़कर बड़ी होंगी वे क्या भाषाई अखबारों, साहित्य, पुस्तकों, टीवी समाचारों की पाठक- दर्शक होंगी? हिंदी के कितने लेखकों, पत्रकारों, राजभाषा अधिकारियों के बच्चे हिंदी माध्यम में पढ़ते हैं? इसलिए आज यह जो विस्तार दिख रहा है अगले 20-25 साल का खेल है। उसके बाद ऊपर से नीचे तक अंग्रेजी का ही वर्चस्व हर क्षेत्र में दिखेगा।संसार में लगभग 6000 भाषाओं के होने का अनुमान है। भाषा शास्त्रियों की भविष्यवाणी है कि 21वीं सदी के अंत तक इनमें केवल 200 भाषाएं जीवित बचेंगी। इनमें भारत की सैकड़ों भाषाएं होंगी। भारत की आदिवासी भाषाओं में 196 तो अभी यूनेस्को के अनुसार ही गंभीर संकटग्रस्त भाषाएं हैं। संकटग्रस्त भाषाओं की इस वैश्विक सूची में भारत सबसे ऊपर है। यूनेस्को का भाषा एटलस 6000 में से 2500 भाषाओं को संकटग्रस्त बताता है। यूनेस्को के पूर्व महानिदेशक कोचिरो मत्सूरा ने कहा था "एक भाषा की मृत्यु उसे बोलने वाले समुदाय की अमूर्त विरासत, परंपराओं और वाचिक अभिव्यक्तियों का नष्ट हो जाना है।"भारत की अनुमानित 1957 में कम से कम 1416 लिपिहीन मातृभाषाएं हैं। ये सब आसन्न संकट में हैं। पर भारत के प्रभु और बुद्धिजीवी वर्ग तथा सामान्य जन को इन छोटी भाषाओं की तो क्या अपनी बड़ी भाषाओं की भी चिन्ता और उनके संकट को देखने समझने, बचाने में कोई रुचि नहीं है।ये वे विशाल, १० लाख से ज्यादा जनसंख्या वाली भाषाएँ हैं जिन्हें भारत के 90% लोग बोलते बरतते हैं।किसी भी समाज में भाषा के नियामक-निर्णायक तत्व क्या हैं? भाषा और समावेशी, समतामूलक, लोकतांत्रिक विकास का क्या संबंध है? भाषा और शिक्षा का क्या संबंध है? भाषा का राष्ट्र, राष्ट्र भाव और राष्ट्र निर्माण से क्या संबंध है? राष्ट्र बोध के केंद्रीय महत्व के इन बिंदुओं पर स्वतंत्रता के बाद भारत में सिर्फ एक बार 1967 में उच्चतम स्तर पर समग्रता से विचार मंथन हुआ था राष्ट्रीय उच्चतर अध्ययन संस्थान, शिमला में। उसके बाद उस तरह का कोई विचार कुंभ भाषाओं की बदलती स्थितियों, चुनौतियों और भविष्य पर हुआ हो ऐसा मेरी जानकारी में नहीं है।इसलिए कोई आश्चर्य नहीं है कि विरल भाषिक समृद्धि और विविधताओं के भारत के पास 70 साल में भी अपनी कोई भाषा नीति नहीं है, न ही उसको बनाने का कोई गंभीर प्रयास किया गया है। अब भी अगर वह नहीं बनाई गई तो अपनी इस अमूल्य और आधारभूत सांस्कृतिक संप्रभुता से दो-तीन पीढ़ियों में ही वंचित होकर हम पश्चिम, मुख्यतः अमेरिका के सांस्कृतिक, बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक उपनिवेश बन जाएंगे।भाषा मनुष्य की श्रेष्ठतम संपदा है। सारी मानवीय सभ्यताएं भाषा के माध्यम से ही विकसित हुई हैं। आदिम समाज तो हो सकते हैं लेकिन आदिम भाषाएं नहीं होतीं। संचार के वाचिक और लिखित माध्यम रूप में यह एक समाज के भावनात्मक जीवन और संस्कृति का सर्वोत्तम उद्घोष है। एक सांस्कृतिक संस्थान होने के कारण यह अपने बोलने बरतने वालों को एक जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में पहचान और अद्वितीयता देती है। जातीयता का एक प्रबल कारक होती है। समाज के सभी क्षेत्रों में- प्रबंधन, प्रशासन, वैज्ञानिक सूचनाओं, शिक्षा और शोध का माध्यम हो या ज्ञान निर्माण का, भाषा विकास का सबसे शक्तिशाली उपकरण है।भाषा के विकास को हम उन भूमिकाओं से परिभाषित कर सकते हैं जिन्हें वह अपने समुदाय में निभाती है और जिन क्षेत्रों में वह प्रमुखता से इस्तेमाल की जाती है। किसी समुदाय में कोई भाषा कितनी प्रतिष्ठा पाती है यह सीधा इस बात पर निर्भर करता है कि वह भाषा अपने समुदाय की कितनी तरह की अभिव्यक्ति-आवश्यकताओं को पूरा करती है - जैसे व्यापार, अर्थतंत्र, तकनीकी, नवाचार, शोध, मौलिक वैज्ञानिक चिंतन, उद्यमिता, प्रबंधकीय निर्णय आदि। एक बहुभाषी और बहुजातीय समाज में उसकी आधिकारिक भाषा/भाषाएँ सभी सभी वर्गों को तभी स्वीकार्य होती हैं जब वे शिक्षा, आजीविका, व्यवसाय, शोध, तकनीक, नवाचार, विकास और प्रशासनात्मक, प्रबंधकीय निर्णय प्रक्रियाओं की प्रमुख भाषा होती है।भाषाओं के संकट से भी बड़ा संकट है उसको न देख पाना। कमोबेश यह समस्या सारे भाषा समूहों के साथ है। लेकिन हिंदी वालों के साथ तो रोग की हद तक है। बड़े-बड़े हिंदी के विद्वान और पत्रकार प्रतिप्रश्न करते हैं कि जब हिंदी अखबारों की प्रसार संख्या बढ़ रही है, हिंदी में सबसे ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं, हिंदी फिल्म और टीवी उद्योग बढ़ रहा है तब हिंदी के सामने संकट कैसे हो सकता है?संक्षिप्त उत्तर यह है। अब हम वाचिक युग में नहीं लिखित और डिजिटल युग में हैं। इसलिए भाषा का बोली रूप उसे बनाए रखने और बढ़ाने के लिए अपर्याप्त है। यह देखने की बजाय कि हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं को समझने-बोलने वालों की संख्या कितनी बढ़ रही है जो हमें देखना चाहिए वह यह है कि उस भाषा को अपनी इच्छा से पढ़ने-लिखने और सभी गंभीर कार्य क्षेत्रों में व्यवहार करने वाले लोग बढ़ रहे हैं या घट रहे हैं? उस भाषा माध्यम के विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या घट रही है या बढ़ रही है? ज्ञान ग्रहण, ज्ञान निर्माण, भविष्य निर्माण, न्याय,विज्ञान, प्रशासन, व्यापार, प्रबंधन, शोध आदि जीवन के निर्णायक क्षेत्रों में उस भाषा का प्रयोग घट रहा है या बढ़ रहा है?सबसे बड़ा प्रश्न जिसे पूछते ही आपके सामने अपनी भाषा का भविष्य साकार खड़ा हो जाएगा यह है - आपकी भाषा की मांग कितनी है? है कि नहीं? घट रही है या बढ़ रही है? इस कसौटी पर हिंदी सहित सारी भारतीय भाषाओं को कसें तो उत्तर बिल्कुल साफ है। आज देश के छोटे से छोटे गांव में गरीब से गरीब व्यक्ति अपने बच्चों के लिए सिर्फ एक भाषा मांग रहा है - अंग्रेजी। किसी भी भारतीय भाषा की मांग नहीं है भारत में। इस बाजार युग में जिस चीज की मांग नहीं है वह कैसे चलेगी, कैसे बचेगी?अभी देश के 30 से 40% बच्चे अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में पढ़ रहे हैं। भले ही कितनी अधकचरी अंग्रेजी वहां पढ़ाई जाती हो, खुद शिक्षकों को ठीक से आती हो या नहीं, यह निर्विवाद रूप से सबका अनुभव है कि जो बच्चा बचपन से एक बार अंग्रेजी माध्यम में पढ़़ गया वह कभी अपने परिवार और परिवेश की, विरासत की भाषा का नहीं होता। उसमें अपनी मातृभाषा/परिवेश भाषा से प्रेम, लगाव, गर्व की जगह एक हेयभाव और नापसंदगी पैदा होती जाती है जो आयु के साथ बढ़ती ही रहती है। अपनी भाषा से यह दूरी उसे भाषा से परिचित तो बनाए रखती है लेकिन उसमें कुछ भी गंभीर पढ़ने वाला और काम करने वाला नहीं रहने देती। भारत के हर मध्यवर्गीय परिवार की यही स्थिति है।10 साल पहले के एक सरकारी सर्वेक्षण के अनुसार भारत की सभी भाषा-माध्यम विद्यालयों में प्रवेश दर हर साल घट रही थी। सिर्फ दो भाषाएं अपवाद थीं- अंग्रेजी और हिंदी। अंग्रेजी में यह वार्षिक वृद्धि दर 250% से अधिक थी। हिंदी में लगभग 35%। अब जब हिंदीभाषी राज्यों में भी सरकारें हिंदी-माध्यम विद्यालय बंद या बदल कर उन्हें अंग्रेजी-माध्यम करती जा रही है तो हिंदी का भविष्य स्पष्ट है। ठीक यही चीज़ हर प्रदेश में हो रही है।यूनेस्को के कहने पर विश्व के श्रेष्ठ भाषाविदों ने किसी भी भाषा की जीवंतता और संकटग्रस्तता नापने के लिए 9 कसौटियां निर्धारित की हैं। पहली है, एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी के बीच उस भाषा का अंतरण, जाना कितना हो रहा है? दूसरी कसौटियों में प्रमुख हैं ज्ञान विज्ञान के आधुनिक क्षेत्रों में उस भाषा में काम हो रहा है या नहीं, घट रहा है या बढ़ रहा है? वह भाषा नई तकनीक और आधुनिक माध्यमों को कितना अपना रही है? उस भाषा के विविध रूपों का दस्तावेजीकरण कितना और किस स्तर का है? उस समाज की महत्वपूर्ण राजकीय/अराजकीय संस्थाओं की उस भाषा के बारे में नीतियां और रुख़ कैसे हैं? अंतिम लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण कसौटी है उस भाषा समुदाय का अपनी भाषा के प्रति रुख़ क्या है, भाव क्या है?इनमें से किसी भी कसौटी पर किसी भी भारतीय भाषा को तोल लीजिए तुरंत समझ में आ जाएगा कि भविष्य के संकेत संकट की ओर इशारा करते हैं या विकास-विस्तार की ओर।एक बार फिर २०५० पर चलते हैं। उस वैश्विक महाशक्ति, आधुनिक, वैश्वीकृत, संपन्न-सबल इंडिया में जब हर नागरिक अपने जीवन का हर महत्वपूर्ण काम सिर्फ अंग्रेजी में कर रहा होगा, उसमें भारत, भारतीयता और भारतीय सभ्यता ने ५०००-६००० वर्ष की अपनी अविच्छिन्न यात्रा में जो समूची साहित्यिक-सांस्कृतिक-ज्ञान-लौकिक-आध्यात्मिक संपदा अर्जित की है वह इस संपदा की निर्मात्री भाषाओं के बिना कैसे जीवंत और जीवित रहेगी, अगली पीढ़ियों तक कैसे पहुंचेगी? क्या अंग्रेज़ी यह कर सकती है? रंगरूप में भारतीय लेकिन दिलो-दिमाग, जीवन शैली, सोच-संस्कार से अमेरिका के उन नकलची नागरिकों का भारत-बोध, अपनी साभ्यतिक ऊंचाईयों-विरासत की स्मृति, सांस्कृतिक संप्रभुता का अहसास कैसा होगा?कम से कम मुझे स्पष्ट दिखता है कि समूची भारतीय सभ्यता लोप, विस्मृति और भयानक हाशियाकरण की कगार पर खड़ी है। उसके पास शायद सिर्फ दो पीढ़ियों का समय है बचने के लिए। यानि हमारी और हमारे बच्चों की पीढ़ी आज अगर चाहे, राजसत्ता को बुद्धि आ जाए, समूचा राष्ट्र संकल्पबद्ध हो, राष्ट्रीय और निजी महत्व के हर क्षेत्र में भारतीय भाषाओं को स्थापित करने में जुटे तो इस प्रक्रिया को हम रोककर उलट सकते हैं। वरना शैशव से ही अंग्रेजी/अंग्रेज़ियत में पली, पढ़ी और बढ़ी पीढ़ियां चाहेंगी भी तो इस संपदा और सभ्यता को पुनर्जीवित करना उनके लिए असंभव नहीं तो असंभव जैसा जरूर होगा।यहां महत्वपूर्ण हो जाती है प्रत्येक भाषा में काम करने,, लिखने वाले साहित्यकारों-लेखकों-विद्वानों- बुद्धिजीवियों-शिक्षाविदों, मीडिया, पत्रकारों और संपूर्ण नागर समाज की भूमिका। यही वे वर्ग हैं जो अपने अपने क्षेत्रों में, अपने भाषा समाज में एक विमर्श उत्पन्न करते हैं, चिंतन को आगे बढ़ाते हैं, महत्वपूर्ण चिंताओं,संकटों और सरोकारों के प्रति समाज को जागरूक करते हैं।कमाल यह है कि ऐसे अभूतपूर्व प्राणांतक संकट से देश का लगभग समूचा नियंता प्रभु वर्ग, नीति निर्माता, बुद्धिजीवी, शिक्षाविद, राजनीतिक दल, संसद, विधानसभाएं, सरकारें, मीडिया और व्यापक नागर समाज अनभिज्ञ और इसलिए उदासीन दिखते हैं। इस विराट सभ्यतामूलक संकट का मुख्य कारण, उस का सबसे बड़ा स्रोत सीधा और स्पष्ट है - अंग्रेज़ी । और उसके प्रति हमारा शर्मनाक दासतापूर्ण और शर्मनाक सम्मोहन।भारतीय चरित्र इजराइली चरित्र जैसा नहीं है जिसने 2000 साल से मृत पड़ी हिब्रू को आज वैज्ञानिक शोध, नवाचार और आधुनिक ज्ञान निर्माण की श्रेष्ठतम वैश्विक भाषाओं में एक बना दिया है। जिसके बल पर 40 लाख की जनसंख्या वाला इजरायल एक दर्जन से ज्यादा विज्ञान के नोबेल पुरस्कार जीत चुका है। सारे इस्लामी देशों की शत्रुता के बावजूद अपनी पूरी अस्मिता, धमक और शक्ति के साथ अजेय बना विश्व पटल पर विराजमान है। विश्व गुरु बनने के सपने देखता भारत चाहे तो इजराइल से प्रेरणा ले सकता है।वैश्विक हिंदी सम्मेलन द्वारा आयोजित ई-संवाद में मा. राहुल देव जी ने नई शिक्षा नीति की बारीकियों को बहुत ही प्रभावी व सरल तरीके से प्रस्तुत किया । वैश्विक हिंदी सम्मेलन द्वारा 'नई शिक्षा नीति और भारतीय भाषाएँ' विषय पर आयोजितई-संवाद का वीडियो नीचे दिया गया है।
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प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
murarkasampatdevii@gmail.com
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मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
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