बुधवार, 28 नवंबर 2018

हिंदी बनें राष्ट्रभाषा अभियान की सभा आयोजित | एम एल गुप्ता आदित्य व्यवस्थापक


भारतीय भाषा सम्मान यात्रा की व्यवस्था के लिए बिजय कुमार जैन अपने साथियों के साथ हैदराबाद पहुंचे
हैदराबाद में होगी ३१ दिसम्बर २०१८ को हिंदी बनें राष्ट्रभाषा अभियान की सभा आयोजित |
दिनांक २८ नवंबर २०१८ को हम सभी हैदराबाद पहुंचे हैदराबाद में हम सभी जैन मंदिर के प्रांगण में यहां के स्थानीय समाजसेवी अरुण मुथा जैन के नेतृत्व में हम सभी सुरेंद्र बाबू लुनिया से मुलाकात की और उन से निवेदन किया कि हम हैदराबाद में ३१ दिसंबर २०१८ से संध्या को पहुंचेंगे हमारे साथ भारतीय भाषा सम्मान यात्रा में शामिल करीब ५०० लोग होंगे और यहां के स्थानीय भारतीय भाषा सैनियों के साथ हमारी एक सभा होगी, आम सभा में हम लोगों से कहेंगे कि हर इंसान पहले अपनी मातृभाषा को प्यार करता है, हर एक को राष्ट्रभाषा से प्यार करना चाहिए कारण यह है कि भारत के किसी भी कोने में जाकर हम राष्ट्रभाषा के द्वारा अपनी रोजी-रोटी कमा सकते हैं हमारा नारा है, पहले मातृभाषा फिर राष्ट्रभाषा। बाबूजी ने हमें कहा कि हम यहां के स्थानीय हिंदी महाविद्यालय या कुलपाक तीर्थ में व्यवस्था करने की पूरी कोशिश करेंगे हमने उनसे कहा कि आपका यह सहयोग भारतीय भाषा संस्कृति संवर्धन के इतिहास में मील का पत्थर साबित होगा और हमें विश्वास है कि जनवरी महीने में आदरणीय महामहिम राष्ट्रपति जी के पास पहुंच कर निवेदन करेगें कि सभी भारतीय भाषाओं का सम्मान बढ़ाया जाए और भारत की राष्ट्रभाषा घोषित हो यह है १२५ करोड़ लोगों के अरमान, साथ ही हम महामहिम से निवेदन करेंगे कि इंडिया का नाम जो अंग्रेजो के द्वारा हम पर थोेपा गया उसे भारत के नाम से संबोधित किया जाए हमें विश्वास है कि आदरणीय महामहिम हमारे निवेदन पर कार्रवाई करेंगे।
 -जय भारत जय भारतीय संस्कृति
बिजय कुमार जैन ‘हिंदी सेवी’



एम एल गुप्ता आदित्य


प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
murarkasampatdevii@gmail.com  
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो.: 09703982136

11 वर्षीय पूर्वी शर्मा ने एथेंस ग्रीस में जीते दो रजत पदक



विश्व वात्सल्य मंच, हैदराबाद, की सदस्या अमिता शर्मा की 11 वर्षीय युवा बेटी पूर्वी शर्मा ने कुमाइट इवेंट एथेंस, ग्रीस  मैं आयोजित डब्ल्यू के यू  अंतर्राष्ट्रीय कराटे चैंपियनशिप में दो रजत पदक जीते।
            विश्व वात्सल्य मंच की संस्थापक अध्यक्ष संपत देवी मुरारका एवं प्रधान सचिव राजेश मुरारका ने प्रेस विज्ञप्ति में बताया कि पूर्वी शर्मा  11 सदस्यों की टीम के सबसे कम उम्र की प्रतिभागी है,  जिसमें 8 सेनानियों दो आधिकारिक और एक कोच शामिल है।  एकल प्रतियोगिता में पहला रजत पदक और 12 साल के बच्चों के समूह के साथ प्रतियोगिता में दूसरा रजत पदक जीत कर भारत का नाम रोशन किया। हैदराबाद की संस्था विश्व वात्सल्य मंच गौरवान्वित हुआ। मंच की ओर से पूर्वी शर्मा को हार्दिक बधाई एवं मंगलकामनाएं।  


प्रस्तुति : संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)
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विश्व वात्सल्य मंच की और से ग्रेस चिल्ड्रेन होम में बच्चों में अल्पाहार का वितरण किया गया |स्वतंत्र वार्ता समाचार पत्र की कतरन


प्रस्तुति : संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)
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विश्व वात्सल्य मंच की और से ग्रेस चिल्ड्रेन होम में बच्चों में अल्पाहार का वितरण किया गया | डेली हिंदी मिलाप समाचार पत्र की कतरन

प्रस्तुति : संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)
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[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] Fwd: राष्ट्रभाषा का सवाल सुलझाना होगा - गिरीश्वर मिश्र, झिलमिल में- नीलू गुप्ता को नागरी लिपि सम्मान, विशाल भारतीय भाषा सम्मान यात्रा के लिए तैयारी यात्रा





राष्ट्रभाषा का सवाल सुलझाना होगा
गिरीश्वर मिश्र
 इस बात से शायद ही किसी को असहमति हो कि समाज को अपने काम चलाने के लिये भाषा की जरूरत लाजिमी है . भाषा से न केवल विचार की अभिव्यक्ति होती हैपारस्परिक संवाद होता है,ज्ञान का संरक्षण और पीढियों के बीच संचार होता है बल्कि स्वास्थ्य न्याय बाजार व्यापार शिक्षा और प्रशासन आदि के रोजमर्रे के कामों में भी भाषा का उपयोग अनिवार्य है. यानी समाज अपने  कामों  को भाषा के जरिए ही अंजाम देता है. इन सारे कामों का जीवन में महत्व इतना अधिक है कि  भाषा का होना हमारे अस्तित्व से एकाकार हो उठता है इतना कि भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका  जैसे कुछ एक अपवादों को छोड़ दें तो बड़े छोटे अधिकांश देशों का नाम उन देशों की भाषाओं  से अभिन्न रूप से जुड़ा होता है .  वैसे तो कहा जाता है नाम में क्या रखा है ‘ परन्तु भाषा का नाम समुदायों और देशों  पहचान  बन जाता  है. चीन जापानजर्मनी फ्रांस स्वीडन इंग्लैंड आदि नाम मूलत: भाषाओं से जुड़े हुए हैं और समाज का जातिगत बोध और स्वाभिमान दर्शाते हैं .
भाषा हमारे अनुभव जगत का  समानांतर चित्रण करती चलती  है और अमूर्त प्रतीकों की सहायता से एक प्रतिरूप खड़ा  करती है जिसे ग्रहण करना सुकर होता है . साथ ही भाषा हमें दुनिया को देखने का एक नजरिया भी देती है और उसी के सहारे हमें दुनिया का दर्शन होता है. भाषा जो भी दिखाती या छुपाती है वहीं तक हमारी दुनिया भी विस्तृत या सीमित होती है. इसलिए भारतीय चिंतन में ठीक ही कहा गया-“सर्वं शब्देन भासतेअर्थात हमें सब  कुछ शब्द से ही दिखता हैऐसे में  अपनी  भाषा के उपयोग का अवसर यदि किसी व्यक्तिसमुदाय और समाज को सशक्त बनाता है तो उससे वंचित करना उस समाज को कई तरह से विपन्न भी कर देता है.  लम्बे समय के लिए ऐसा होना पूरे समाज को असमर्थ बना देता है . इस तरह भाषाई भेदभाव आर्थिक-सामाजिक शोषण का एक सभ्य और सेकुलर तरीका बन जाता है जिसके प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दूरगामी परिणाम होते हैं जिनका असर आनुवंशिक न होते हुए भी आनुवंशिक से किसी भी तरह कम नहीं होते. भाषा  की गुलामी के परिणाम पीढी-दर-पीढी संक्रमित हो कर आगे चलते रहते हैं .
भारत की भाषाई स्थिति अपनी विविधता और उपलब्धि के लिए विश्व के भाषा के विद्वानों के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं है. पाणिनि का अष्टाध्यायी’ वैश्विक स्तर पर भाषाविज्ञान का  गौरव का विषय है यहां की अनेक भाषाएं साहित्य और शब्द भंडार की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध हैं और अनेक आपस में कई तरह से सम्बंधित भी हैं. इन सभी भाषाओं का भारत  में  लम्बा इतिहास भी है. यह स्वाभाविक है कि प्रयोग की दृष्टि से भाषाओं के क्षेत्र भिन्न होते हैं . अनेक भारतीय भाषाएं संस्कृत मूल की हैं और उनके बीच निकट का रिश्ता है. परन्तु औपनिवेशिक युग में अंग्रेजी भाषा को अंग्रेजों ने भारतीयों की मानसिक रूप से हत्या करने का औंजार बनाया और अंग्रेजी का साम्राज्य स्थापित किया . गांधी जी के शब्दों में कहें तो मेकाले ने “शिक्षा की जो बुनियाद डालीवह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी”. अंग्रेज बहुत हद तक अपने लक्ष्य को पाने में सफल भी हो गए. विचारनीति और सिद्धांत का जो सांचा ढाल कर उन्होने हमको मुहैया कराया गया वह इस कदर मन मस्तिष्क पर चढा कि हम मूल भारत के विचार से अपरिचित होते चले गए और जानबूझ कर अपने आप  को विस्मरण का शिकार बनाते चले गए. दूसरी ओर अंग्रेजी चाल-ढाल बानक और विचार को सहज और श्रेष्ठ भी करार देने लगे . हिंद स्वराज में गांधी जी का मार्मिक वाक्य कि ‘ अंग्रेजी शिक्षा  को लेकर हमने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है. अंग्रेजी शिक्षा से दम्भ राग जुल्म वगैरा बढे हैं  . अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए लोगों  ने प्रजा को ठगने उसे परेशान करने  में कुछ भी उठा  नहीं रखा है’ आज का भी सत्य है .  सन 1941 में रचनात्मक कार्यक्रम’ में गांधी जी लिखते हैं कि ‘ हमने अपनी मातृ भाषाओं के मुकाबले अंग्रेजी  से ज्यदा  मुहब्बत रखी जिसका  नतीजा यह हुआ कि पढे  लिखे और राज नैतिक दृष्टि से जागे हुए ऊंचे तबके के लोगं के साथ आम लोगों का रिश्ता बिल्कुल टूट  गया और उन दोनों  के बीच खाई बन गई . यही वजह है कि  हिंदुस्तान की भाषाएं  गरीब बन गई हैं और उन्हें पूरा पोषण नहीं मिला .  दूसरी ओर सरकारी  प्रश्रय में अंग्रेजी को  जीवन के मूलभूत  में इस तरह स्थापित किया गया कि उसके औचित्य को लेकर किसी तरह की शंका न उठे. यह सब ऐसे ढंग से हुआ कि हमें इसकी अस्वाभाविकता  का पता तक नहीं चला. अंग्रेजी का वर्चस्व ह्मारी नियति के साथ ऐसे जड़ा गया कि उसका कोई विकल्प ही न रहे. हम लाचार होकर उसी का प्रयोग बनाए रखने पर विवश हो गए और इस फांस से निकलने का कोई मार्ग ही नहीं सूझ रहा है . उदाहरण के लिए पूरे समाज से जुड़ा हुआ न्याय का क्षेत्र लें.   आज भी उच्च और उच्चतम न्यायालय के लिए कानूनी कारवाई अंग्रेजी में ही करने की बाध्यता अनिवार्य रखी गई है. लोक तंत्र की आत्मा के विरुद्ध इस व्यवस्था से न्याय पाना (संवैधानिक रूप से!) मंहगासबकी पहुंच से बाहर और अनिवार्य रूप से  भेद-भाव करने वाला बना हुआ  है.
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि राष्ट्र के र्निमाण के लिए समाज को उसकी अपनी भाषा के सार्थक और समर्थ उपयोग का अवसर एक स्वाभाविक और अनिवार्य शर्त होती है. जैसा कि हम सब भलीभांति जानते हैं औपनिवेशिक काल में अंग्रेजी भाषा को प्रशासन, ज्ञानकानूनी व्यवस्थास्वास्थ्य आदि जीवन के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में स्थापित कर बढावा दिया गया. इस पूरी प्रक्रिया में सहस्राब्दियों पुरानी समूची भारतीय ज्ञान परम्परा को पारलौकिक’  गैर आधुनिक और इसलिए अप्रासंगिक करार देते हुए विस्थापित और बहिष्कृत सा कर दिया गया. नई शिक्षा ने ज्ञानार्जन को नौकरी के अधीन कर दिया . अब स्थिति यह हो रही है कि विश्वविद्यालयों से अपेक्षा की जा रही है कि वे उद्योग धंधों से पूछ-पूछ कर पाठ्यक्रम बनाएं . परीक्षा पास करने के साथ प्लेसमेंट हो इसके लिए यह बेहद जरूरी है. ज्ञानकेंद्र की उत्कृष्टता अंतत: उस केंद्र के छात्रों को मिलने  वाले पैकेज पर ही निर्भर करती है.   
स्वराज की लड़ाई के बाद देश को राजनैतिक स्वतंत्रता तो मिली पर वैचारिक स्वाधीनता को खो कर. कदाचित  वैचारिक स्वतंत्रता पाना प्रकट रूप में स्वतंत्रता संग्राम का हमारा उद्देश्य भी नहीं था. बापू ने 1909 में लिखित हिंद स्वराज’ में जरूर सभ्यता-विमर्श करते हुए हमारा ध्यान इस ओर भी खींचा था और तीस साल के बाद उसके दूसरे संस्करण के समय भी   अपने  विचारों में कोई परिवर्तन लाने की जरूरत नहीं समझी  थी परंतु प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने इस तरह की पूरी सोच को ही दकियानूसी मानते हुए सिरे से खारिज कर दिया था और दूसरी ओर आगे बढ गए थे . हमारा मानसिक संस्कार खंडित होता रहा और सोचने-विचारने की उधार की कोटियां हाबी हो कर हम पर राज्य करने लगीं. फलतः भारत में उच्च शिक्षा के जो केंद्र विकसित हुए वे ज्ञान की पाश्चात्य धारा को ही श्रेष्ठतर मानते हुए उसे ही अकुंठ भाव से आत्मसात करने में  अपनी कृतार्थता समझने लगे. अनेक शिक्षा आयोगों की संस्तुतियों के बावजूद हमारी मानसिक गुलामी की यह प्रवृत्ति बरकरार रही और हम सभी तरह के मौलिक प्रश्नों से कन्नी काटते रहे और शिक्षा क्षेत्र की समस्याएं और विकट होती चली गईं.  गांधी जी कह्ते थे कि अंग्रेजी की मोहिनी के वश हो कर हम लोग हिंदुस्तान को अपने ध्येय की ओर आगे बढने  से रोक रहे हैं. वे मानते थे कि’ समूचे हिंदुस्तान के साथ व्यवहार  करने के लिए हम को भारतीय भाषाओं में से एक ऐसी भाषा  की जरूरत है जिसे आज ज्यादा से ज्यादा तादात में लोग जानते हों  और बाकी लोग जिसे झट से सीख सकें. इसमें शक नहीं कि हिंदी ही ऐसी भाषा है. आज देश पूज्य बापू की डेढ सौवीं जयंती मना रहा है . इस अवसर पर भाषा के लम्बित सवाल पर विचार करना और औपनिवेशिक मानसिकता से उबर कर अंग्रेजी के घोषित साम्राज्यवाद से मुक्ति  एक सच्ची कार्यांजलि होगी. 
प्रो. गिरीश्‍वर मिश्र कुलपति  
महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय /
दूरभाष/Tel.: +91-7152-230904 एवं  230907,  फैक्स/Fax : +91-7152-230903 
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भाषा को लेकर सुधांशु त्रिवेदी जी के विचारोत्तेजक वीडियो   के लिए लिंक पर क्लिक करें।

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39हिंदी के प्रयोग-प्रसार अच्छी जानकारी.jpg

श्रीमती नीलू गुप्ता की पुस्तक ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ कहानी संग्रह का विमोचन 23 नवम्बर को  ‘नागरी लिपि परिषद’ कार्यालय में हुआ
नीलू गुप्ता काव्य गौरव से सम्मानिततथा  नीलू गुप्ता नागरी लिपि सम्मान से सम्मानित।

  

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भारतीय भाषाओं के लिए मुंबई से दक्षिण भारत होते हुए दिल्ली के लिए निकलने वाली विशाल भारतीय भाषा सम्मान यात्रा के लिए तैयारी यात्रा 
 





वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई



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प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
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मंगलवार, 27 नवंबर 2018

विश्व वात्सल्य मंच द्वारा गरबा-डांडिया आयोजित स्वतन्त्र वार्ता समाचार कतरन



प्रस्तुति : संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)
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विश्व वात्सल्य मंच का गरबा-डांडिया आयोजित डेली हिंदी मिलाप - समाचार कतरन


प्रस्तुति : संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)
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विश्व वात्सल्य मंच द्वारा ग्रेस चिल्ड्रन होम में बच्चों को नाश्ता वितरित किया







विश्व वात्सल्य मंच हैदराबाद के तत्वावधान में ग्रेस चिल्ड्रेन होम H. N.  37-70/A-57, जे जे नगर कॉलोनी, नेरेडमेट, सिकंदराबाद, में बच्चों को नाश्ता वितरित किया गया ।
       संस्था की संस्थापक अध्यक्ष संपत देवी मुरारका एवं प्रधान सचिव राजेश मुरारका ने यहां जारी प्रेस विज्ञप्ति में उक्त जानकारी दी। नाश्ते में माजा, बिस्किट, चॉकलेट एवं मूंग दाल भेंट स्वरूप दिए गए ।कार्यक्रम में संपत देवी मुरारका, राजेश मुरारका, कोषाध्यक्ष सीता अग्रवाल,  परामर्शदाता मदन देवी पोकरणा, कार्यकारी सदस्य गीता अग्रवाल एवं दीपिका उपस्थित रहे।
प्रस्तुति : संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)
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शनिवार, 24 नवंबर 2018

[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] Fwd: भारत में भाषा का मसला



             भारत में भाषा का मसला                           
                                  -विजयलक्ष्मी जैन

                  हम हिंदी भाषी, हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाना चाहते हैं। हमारी इस भावना का अ-हिन्दीभाषी व्यक्ति या राज्य विरोध करें तो हमें पीड़ा होती है। हमें लगता है कि हिन्दी बहुसंख्यक लोगों की भाषा है इसलिए पूरे देश को उसे राष्ट्रभाषा के रूप में निर्विरोध स्वीकार कर लेना चाहिए। ऐसी अपेक्षा रखने से पूर्व हमें हिन्दीभाषी राज्यों में, हिन्दीभाषी क्षेत्रों में, हिन्दी भाषी लोगों के व्यवहार में हिन्दी की स्थिति पर दृष्टिपात कर लेना समीचीन है। 
                सभी हिन्दी भाषी क्षेत्रों से हिन्दी और अन्य भारतीय भाषा माध्यम के विद्यालय अधिकांशतः विलुप्त हो चुके हैं। ऊंचे चमाचम भवनों में महंगी से महंगी सुविधाओं से सज्जित अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय धड़ल्ले से चल रहे हैं। यहां तक कि ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यालय भी। भले ही उनमें पढ़ाने वाले शिक्षकों को अंग्रेजी ठीक से न आती हो। अंग्रेजी माध्यम के महंगे से महंगे विद्यालयों में अपने बच्चों को प्रवेश दिलाने के लिए होड़ लगी हुई है। माता-पिता इसके लिए जी तोड़ मेहनत करते हैं। वह इसके लिए कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं। कुछ भी करने के लिए तैयार हैं लेकिन हिन्दी माध्यम के विद्यालयों में कोई मुफ्त में भी अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहता। हिन्दी माध्यम के शासकीय विद्यालयों में भी  प्राथमिक कक्षाओं से ही अंग्रेजी सिखाने की तैयारी शासकीय स्तर पर भी जोर शोर से चल रही है। अंग्रेजी पढ़ाने के लिए शिक्षक नहीं है लेकिन अन्य विषयों के शिक्षकों को 20 दिन का क्रैश कोर्स करवा कर अंग्रेजी पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है। निम्न आय वर्ग के परिवार भी अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम के विद्यालयों में पढ़ाना नहीं चाहते। मध्य प्रदेश सरकार ने सभी निजी विद्यालयों के लिए यह अनिवार्य कर दिया है कि वह अपने विद्यालयों में निम्न आय वर्ग के बच्चों के लिए प्रत्येक कक्षा में 25% स्थान आरक्षित रखें और प्रवेश परीक्षा लेकर योग्य विद्यार्थियों को नि:शुल्क प्रवेश और शिक्षा दें। माता पिता का व्यवहार परिवार में और सामाजिक रुप से भी ऐसा है जो बच्चों को हिन्दी को हेय दृष्टि से और अंग्रेजी को अभिमान की दृष्टि से देखना सिखाता है। सामाजिक वातावरण ऐसा है कि जो व्यक्ति अंग्रेजी बोलना, समझना, लिखना, पढ़ना नहीं जानता वह स्वयंमेव ही हीनता बोध से ग्रस्त हो जाता है। अंग्रेजी बोलने वालों के समक्ष उसका आत्मविश्वास अपने आप ही डांवांडोल हो जाता है। युवा वर्ग में हिन्दी माध्यम से पढ़कर भारत में रहने का सपना कोई नहीं देखता। सभी को अंग्रेजी माध्यम से पढ़कर इंग्लैंड, अमेरिका जाकर बस जाने के, वहां की स्वच्छंद जीवन शैली में जीने के सपने ही आते हैं। मध्य प्रदेश के बड़े शहरों के बाजारों पर दृष्टि डालें तो दुकानों, कार्यालयों, घरों, संस्थानों के नामपट पर अधिकांशतः जो भाषा दृष्टिगोचर होती हैै वह हिंदी नहीं है, पूरी निर्लज्जता से विराजमान अंग्रेजी है, जिसकी लिपि मिश्र लिपि है जिसमें अंग्रेजी के कुछ शब्द देवनागरी लिपि में और हिंदी के कुछ शब्द रोमन लिपि में लिखे जाते हैं। ऐसी लिपि लिखने के नित्य नूतन आकर्षक प्रयोग हिन्दीभाषी क्षेत्रों के बाजारों में दिखाई पड़ते हैं। ऐसी विचित्र लिपि की दृश्यमानता के कारण ग्रामीण क्षेत्र से आने वाले लोग भी इन नामपटों को पढ़-पढ़ कर धीरे-धीरे अंग्रेजी शब्दावलियों से परिचित और अभ्यस्त होते जा रहे हैं। कितना आसान और प्यारा तरीका है, विदेशी भाषा सीखने, सिखाने का। व्यवसायियों के सभी अभिलेख जैसे देयक पंजी, रोकड़ पंजी आदि अंग्रेजी में है क्योंकि कंप्यूटराइज्ड अभिलेख रखने की बाध्यता के कारण वह अंग्रेजी में काम करने के लिए बाध्य हैं। हिन्दी में अभिलेख रखना भी चाहें तो हिन्दी में कंप्यूटर संचालित करने वाले प्रशिक्षित कामगार नहीं मिलते। मिलें भी तो बहुत महंगे मिलते हैं। हिन्दी भाषी क्षेत्र होते हुए भी सभी उद्यमी व्यावसायिक संस्थान अपने उत्पादों की पैकेजिंग पर, प्रचार में और पारस्परिक व्यावसायिक संव्यवहार में अधिकांशतः अंग्रेजी भाषा का ही प्रयोग करने लगे हैं। बच्चों के खिलौनों और युवाओं के वस्त्रों पर अंकित भाषा इसका प्रमाण है। विशेषकर ऐसे उद्यमी जिनका संबंध विदेश व्यापार से है, वह सारा संव्यवहार अंग्रेजी में ही करते हैं।
               बोलचाल में, लोक व्यवहार में जो भाषा हिन्दी भाषी क्षेत्रों में प्रचलित है वह ना तो हिन्दी है, ना अंग्रेजी। दोनों की खिचड़ी अच्छे से पक रही है। लोक व्यवहार में दोनों भाषाएं इतनी गड्डमड्ड हो गई हैं कि स्थानीय लोगों को पता ही नहीं है कि वह कौन सा शब्द अंग्रेजी बोल रहे हैं, भले ही उच्चारण गलत हो। प्रचलित अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी समानार्थी उनके शब्दकोष में हैं ही नहीं। जो माता-पिता अंग्रेजी नहीं समझते उनका अपने अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों से संवाद लगभग असंभव हो गया है। बच्चे तो इसकी परवाह नहीं करते लेकिन इस संवाद हीनता के कारण माता-पिता कितने तनाव से गुजरते हैं, यह वही जानते हैं। फिर भी हिन्दी माध्यम पर लौटने को तैयार नहीं हैं।

                   हिन्दी माध्यम के समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में कम से कम एक पृष्ठ अंग्रेजी भाषा में आने लगा है जिसमें न केवल पाठ्य सामग्री अंग्रेजी में होती है अपितु इस पृष्ठ के एक कोने में अंग्रेजी भाषा सिखाने का प्रबंध भी परीक्षा के अनिवार्य प्रश्न की तरह विद्यमान होता है। हिन्दी भाषी  रेडियो और टीवी चैनल धड़ल्ले से अंग्रेजी मिश्रित भाषा का उपयोग करते हैं जिससे धीरे-धीरे लोगों के व्यवहार में, बोली में, अंग्रेजी शब्दों की भरमार होती चली जा रही है। यह सब हो रहा है संचार माध्यमों की मिल्कीयत के बड़े अंशों के धारी विदेशी आकाओं के इशारे पर जिन्होंने शायद आपस में मिलकर यह तय कर रखा है कि अन्य सभी भाषाओं का सर्वनाश कर पूरे विश्व को अंग्रेजी भाषी बनाना है। अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए विदेशी सहायता की मोहताज़ हमारी सरकारें इन आकाओं के समक्ष नतमस्तक हैं। निर्माता चाहे देसी हो या विदेशी, निर्माण चाहे भारत में हुआ हो लेकिन हर उत्पाद पर "मेड इन इंडिया" "मेक इन इंडिया" अंकित मिलेगा। "भारत में निर्मित" कहीं अपवादस्वरूप लिखा दिख जाए तो दिल के बहलाने को काफी है। हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र जी मोदी के प्रारंभिक व्यवहार से ऐसा लगता था कि वह हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए, लोक भाषा बनाने के लिए वे कटिबद्ध हैं लेकिन दस-पांच विदेश यात्राओं के बाद उनके सुर भी ऐसे बदले कि अब केन्द्र सरकार की हर योजना के शीर्षक में ढीट "इंडिया" अट्टहास कर हमारा मुँह चिढ़ाता है। हिन्दी के पक्ष में आभियान चलाने वालों को जुलूस, धरने या गिरफ्तारी में साथ देने को चार साथी नहीं मिलते।
किस मुँह से हम हिन्दी भाषी हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने की मांग करते हैं?
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वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
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