sgsgurgaon15@gmail.com
हिंदी प्रतिष्ठापन के लिए
सांस्कृतिक गौरव संस्थान के पत्र ।
पत्रांक-2283-2286 दिनांक-29/08/2017
सेवा में,श्री मनोहर लाल जी,माननीय मुख्यमंत्री, हरियाणासिविल सचिवालय, सेक्टर-1, चंडीगढ़ (हरियाणा)विषय :- हरियाणा सरकार के मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, संगठनों आदि की ‘वेबसाइटें’ हिंदी में न होकर अंग्रेजी में होना ।संदर्भ :- शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास का दिनांक-27 जुलाई, 2017 का पत्र संख्या शि.सं.उ.न्यास/के.स./15/2016-17महोदय,हरियाणा सरकार के मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, संगठनों आदि की वेबसाइटें अंग्रेजी में हैं और चूँकि हरियाणा की जनता हिंदी अच्छी तरह जानती है, इसलिए जनहित में और हरियाणा सरकार की प्रतिष्ठा बचाए रखने के लिए वेबसाइटें हिंदी में होनी आवश्यक हैं । कृपया अविलम्ब जाँच कराने का कष्ट करें और सब वेबसाइटें जनहित में हिंदी में सुलभ कराने की उचित व्यवस्था कराने की कृपा करें । इस सम्बंध में की गई कार्रवाई की जानकारी भिजवाने का कष्ट करें । सादर,
सादर,
भवदीय,
(डॉ.महेश चन्द्र गुप्त)
मुख्य परामर्शदाता
प्रतिलिपि :-
1. सचिव, हरियाणा लोक सेवा आयोग, ब्लॉक-बी, सेक्टर-4, पंचकुला-134109
2. सचिव, हरियाणा कर्मचारी चयन आयोग, बेज़ संख्या-67-70, सेक्टर-2, पंचकुला-134151
3. श्री दीनानाथ बत्रा जी, अध्यक्ष, शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, सरस्वती बाल मंदिर, जी ब्लॉक, नारायण विहार, नई दिल्ली-110028
------------------------------ ------------------------------ ------------------------------ ------------------------------ ------------------------------ ------------------------------ --------
पत्रांक-2273-2278 दिनांक-29/08/2017सेवा में,डॉ. जितेन्द्र सिंह जी,माननीय कार्मिक एवं प्रशिक्षण राज्यमंत्री, भारत सरकारनॉर्थ ब्लॉक, नई दिल्ली-110001विषय :- कर्मचारी चयन आयोग द्वारा ली जाने वाली संयुक्त उच्चतर माध्यमिक स्तर (CHSL: 10+2) तथा संयुक्त स्नातक स्तर (CGL) की परीक्षाओं के पाठ्यक्रमों में संशोधन ।संदर्भ :- शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास का दिनांक-28 जुलाई, 2017 का पत्र संख्या शि.सं.उ.न्यास/के.स./6/2016-17महोदय,आपकी सेवा में शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के उक्त पत्र की छायाप्रति भेजी जा रही है । यह जानकर आश्चर्य और क्षोभ का अनुभव हुआ है कि कर्मचारी चयन आयोग द्वारा संयुक्त स्नातक स्तर तथा संयुक्त उच्चतर माध्यमिक स्तर की परीक्षाओं के पाठ्यक्रमों में संसद के दोनों सदनों में दिसम्बर, 1967में पारित सर्वसम्मत संकल्प दिनांक-18 जनवरी, 1968 के प्रावधानों की अन्देखी करके अंग्रेजी को वरीयता देने का अनर्थ किया जा रहा है । जिस प्रकार प्रधानमंत्री जी ने स्वदेश और दुनियाभर में हिंदी को भारी सम्मान दिया है और हिंदी के प्रयोग की प्रेरणा दी है, उसके आलोक में अंग्रेजी के अंकों की वृद्धि प्रतिगामी कदम है ।संसदीय राजभाषा समितियों की अनुशंसाओं के आधार पर राष्ट्रपति जी के आदेशों में भी परीक्षाओं में अंग्रेजी के प्रश्न-पत्र के विकल्प में हिंदी का प्रश्न-पत्र होना है, इसलिए अंग्रेजी के प्रश्न-पत्र के विकल्प में उतने ही अंकों का हिंदी का प्रश्न-पत्र रखा जाए ।विशाल हिंदी भाषी क्षेत्र की और अन्य अनेक राज्यों की उपेक्षा करके अंग्रेजी को अधिक महत्व देना देश और जनहित में उचित नहीं है । यथाशीघ्र सुधार की कृपा करें ।इस सम्बंध में की गई कार्रवाई की जानकारी भिजवाने का कष्ट करें । सादर,
भवदीय,
(डॉ. महेश चन्द्र गुप्त)मुख्य परामर्शदाता
प्रतिलिपि :-1. श्री प्रभास कुमार झा जी, सचिव, राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, भारत सरकार, एनडीसीसी-2 भवन, जयसिंह मार्ग, कनॉट प्लेस, नई दिल्ली- 1100012. श्री दीनानाथ बत्रा जी, अध्यक्ष, शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, सरस्वती बाल मंदिर, जी ब्लॉक, नारायण विहार, नई दिल्ली-1100283. श्री जगदीश नारायण राय जी, महामंत्री, उपभोक्ता भाषा समिति वाराणसी, बी. 32/50 ए नरिया, साकेत नगर, प्लाट नं. 30 के पास,वाराणसी-221005 (उ०प्र०)4. डॉ. अमरनाथ शर्मा जी, प्रोफेसर, हिंदी विभाग, कोलकाता विश्वविद्यालय, EE-164/402, सेक्टर-2, साल्टलेक, कोलकाता-7000915. अध्यक्ष, कर्मचारी चयन आयोग, केन्द्रीय कार्यालय परिसर, बी-ब्लॉक, लोदी रोड, नई दिल्ली-110003------------------------------ ------------------------------ ------------------------------ ----
झिलमिललिंक पर जा कर अमरनाथ की रचनाओं में पढ़ा जा सकता है।यहां पुस्तक 'हिन्दी जाति की समस्याएं' शीर्षक से उपलब्ध है।--------------------------------------------------------------------स्वाधीनता स्वधर्म की पुकार है - गिरीश्वर मिश्र
(लेख संलग्न है।)
स्वाधीनता स्वधर्म की पुकार है
- गिरीश्वर मिश्र
“स्वाधीनता” यानी अपनी अधीनता. सुनने में कुछ अजीब ही लगता है. क्या अपनी अधीनता भी हो सकती है ?
यदि हो सकती है तो किस तरह
? यह एक खांटी भारतीय शब्द है जो
अंग्रेज़ी का मुंह नहीं जोहता . ‘फ़्रीडम’और ‘इंडिपेंडेंस’ इसके क़रीब नहीं पहुँचते . ‘सेल्फ़ रूल’ ज़रूर इसका कुछ अर्थदेता है पर आधा-अधूरा. अधीनता तो शायद इस सृष्टि की प्रक्रिया में ही निहित है जो एक अनिवार्य क़िस्म के परस्परावलंबन की ओर संकेत करतीहै . पूरी
सृष्टि में अस्तित्व सापेक्षिक है कोई भी चीज पूरी तरह निरपेक्ष अस्तित्व की नहीं
है. स्वाधीनता से अभिप्राय किसी और का नहीं ख़ुद अपना अपनेऊपर नियंत्रण से है . जब अधीनता होती है तो जिसके अधीन होती है उसी की चलती है . पराधीनता या परतंत्रता का यही आशय है कि कोई अन्य है जोनियंत्रित कर रहा है . नियंत्रित करने का अर्थ है निर्णय लेना , मार्ग तय करना और विकल्प निर्धारित करना .जब यह काम हम ख़ुद नहीं करते कोई औरकरता है तो हम पराधीन होते हैं . जब
यह कार्य हम स्वयं करते हैं तो स्वाधीनता की स्थिति बनती है.
इस प्रकार नियंत्रण का केंद्र कहाँ पर स्थित है यह स्वाधीनता
और पराधीनता की स्थितियों को निश्चित करता है. जब
नियंत्रण किसी और के हाथिन में होता है तो उसकी इच्छा प्रबल होती है ,
उसकी वरीयताएँ , पसंद
और नापसंद नियंत्रण के स्वरूप और दिशा को तय करते हैं.
उपर्युक्त दृष्टि से देखने पर भारत वर्ष अंग्रेजी साम्राज्य के
अधीन लम्बी अवधि तक पराधीन बना रहा . पराधीनता
या गुलामी के इस दौर में हमारे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रकट
और अप्रकट दोनों ही रूपों में अंग्रेजी घुसपैठ हुई .
वेश-भूषा , खान-पान
आदि भौतिक पक्ष में ही नहीं बल्कि हमारे विचारों , सपनों
, आवश्यकताओं आदि पर भी पहरा बैठ गया और हमें सोचने समझने के विषय और
तरीके भी बदले गए . अर्थात मूर्त और अमूर्त
दोनों ही स्तरों पर हमें नए सांचे में ढाला गया .
ज्ञान , कर्म और इच्छा तीनों
स्तरों पर हमारा काया-कल्प शुरू हुआ और अंग्रेजों के कूच करने और भारत से जाने के
समय हम उनके मानस पुत्र सरीखे हो चुके थे. पीढी
दर पीढ़ी हमने उनकी शिक्षा-दीक्षा में कुछ पाठ पढ़े. बौद्धिक
'क्लोनिंग' कुछ इस तरह की हुई कि हम
हम न रह सके. यह बदलाव पूरी भारतीय
सभ्यता को निकृष्ट घोषित करने की योजना के तहत हुआ था और इसकी जगह यूरोप की
अंग्रेजी सभ्यता को श्रेष्ठ स्थापित करने और उसका वर्चस्व स्थापित करने की दृष्टि
से किया गया था. अंग्रेजी राज्य का औचित्य
ठहराने के लिए यह जरूरी था. इस तरह अंग्रेजों ने अपने
ढंग से मुक्ति दिलाने का श्रेय लिया . उन्होंने
भारतीय विचार , व्यवस्था ,
ज्ञान आदि सब को ओछा द्दिखाया और अंग्रेजी पद्धति को विकल्प के रूप
में उपस्थित किया और शासक होने के नाते स्थापित भी किया.
यह 'ट्रांस्पप्लान्टेशन' आधुनिकता
और वैज्ञानिकता के आकर्षक पॅकेज में किया गया ताकि उनकी वर्चस्ववादी मंशा छिपी रहे
. मैकाले की 'मिनिट्स'
पढ़ कर कोई भी इस साजिश का अनुमान लगा सकता है .
स्वाधीन चिंतन की शक्ति को अंग्रेज जानते थे और उन्होंने भरपूर जोर
लगाकर इसे नष्ट किया .
अंग्रेजों की साजिश थी कि जब तक यहाँ की विश्व दृष्टि नहीं
बदली जायगी तब तक उनकी दाल नहीं गलेगी . इसलिए
कि जब अंग्रेज यहाँ पहुंचे थे तो यहाँ की शिक्षा की व्यवस्था का अपना आकार और
पहचान थी. धर्मपाल जी ने बड़े विस्तार
से सप्रमाण यह सिद्ध किया है कि स्थापित शिक्षा के वृक्ष को किस तरह समूल उखाड़
फेकने का सफल उपक्रम अंग्रेजों द्वारा किया गया. इसका
स्थायी परिणाम यह हुआ कि हमारी शिक्षा और ज्ञान की यात्रा पिछड़ गई .
हमारा काम भी बदल गया . ज्ञान
की खोज के बदले ज्ञान का अनुगमन ही मुख्य हो गया. ज्ञान
पैदा करने का कम तो यूरोपियन (और
अब अमरीकी मनीषियों ) का है .
उनकी रफ़्तार इतनी तेज है कि भारतीय विश्वविद्यालयों की आज की
अधिकांश पढाई प्रायः उनका पीछा करते करते ही खप जाती है.
थक हार कर जो कुछ होता है वह भोडा अनुकरण होता है.
उनसे आगे जाना तो संभव ही नहीं है क्योंकि जब तक हम उन तक पहुंचते
तब तक वे कहीं और पहुँच जाते हैं. हम
दोयम के दोयम ही रह जाते हैं और इस हाल में फिलहाल कोई परिवर्तन नहीं आने वाला है .
खेल उनका है , नियम
उनका है और तो और खेल उनके लिए है पर हम उसे खेल रहे हैं -
बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना ! हमारी
शिक्षा का बहुत सारा अंश अपने उद्धार और विकास के लिए नहीं बल्कि
विक्वसित देशों जैसा दिखने के लिए है क्योंकि हम भारत को ,
उसकी समस्याओं को समझें या न समझें पश्चिम के ज्ञान और ज्ञानियों
जैसा दिखना- दिखाना जरूरी मान बैठे हैं
. हमने अपनी शिक्षा व्यवस्था में भी वैसा ही दिखने और करने को
अंगीकार कर लिया है चाहे उसकी व्यवस्था हो या न हो . उदहारण
के लिए सेमेस्टर की प्रणाली के लिए अध्यापन और मूल्यांकन की व्यवस्था चक चौबंद
होनी चाहिए. पर पूरे देश में
महाविद्यालय और विश्व विद्यालयों की बाढ़ आ रही है पर न अध्यापक है और न कोई अन्य
अपेक्षित आधार संरचना ही . इसका
परिणाम है कि शिक्षा की गुणवत्ता घट रही है.
आधुनिक या समकालीन होने के
लिए हमने यह जरूरी करार दिया है कि हमारे मानक और प्रतिमान विदेशी हो.
हमारे सन्दर्भ विन्दु वही हैं . आज
हम विश्व स्तर की शिक्षा संस्था का सपना बुन रहे हैं पर इसका अर्थ विदेशी
विश्व विद्यालय को टक्कर देना है न कि ऐसा भारतीय विश्वविद्यालय या संसथान रचना है
जो अपनी विशिष्टता के लिए पूरे विश्व को आकर्षित करे और जिसमे भारत की मौलिकता
झलके, जो भारत की नब्ज पकड़ सके .
उल्लेखनीय है कि सदियों पहले प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय में
पढ़ने के लिए विदेश से विद्यार्थी आते थे. आज
कई साल हो गए हमने नया नालंदा विश्व विद्यालय खोला है पर जो पाट्यक्रम वहां चले
हैं उसका नालंदा या भारत की पहचान से कोई लेना देना नहीं .
व आधुनिक ज्ञान विज्ञानं के किसी पश्चिमी पाठ्यक्रम जैसे ही हैं.
नालंदा की कोई अपनी छाप नहीं है. आज
वैश्वीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में नव साम्राज्यवाद की नई कथा लिखी जा रही
है जिसमें व्यापक स्तर पर पश्चिमी वर्चस्व के नए दांव पेंच लगाये जा रहे हैं.
ज्ञान का राजनैतिक अनुबंधन (पोलिटिकल
कंडिशनिंग ) एक बड़ा सच है और हम
अभी तक तय नहीं कर सके हैं कि हमें क्या करना है.
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
प्रस्तुत कर्ता; संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
email: murarkasampatdevii@gmail.com
.लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो. नं. ०९७०३९८२१३६
धन्यवाद
जवाब देंहटाएं