विदेशों में राष्ट्रभाषा की प्रभुविष्णुता
प्रो. पुष्पिता अवस्थी
नीदरलैंड देश में ग्रीष्मावकाश को समर वैकेंसी और ग्रीष्म समय को ‘समर टाइद’ कहते हैं क्योंकि इस भाषा में समय के लिए टाइद शब्द का प्रयोग होता है। ग्रीष्म ऋतु के शुरू होते ही ग्रीष्म समय और अवकाश का खुमार यहां के जीवन में शुमार हो जाता है । उसका एक कारण यह भी है कि यूरोपीय धरती पर ग्रीष्म का प्रकोप प्रचंड नहीं होता है। फूलों - फलों के साथ हरियाली अपने चरम सौंदर्य के साथ लहराती रहती है । 20 से 30 डिग्री के बीच दिन का तापमान रहता है और रात में 10 डिग्री के आसपास तापमान में गिरावट आती है साथ ही सूर्यास्त भी रात्रि 9:00 बजे के बाद ही होता है बादल भी जब -तब आकाश में क्रीडा करने चले आते हैं । लुभावनी ऋतु की धूप-छांव आनंददयी होती है जिससे सैलानी होने का यह अवकाश इस समय जीवन के भुजपाश में और अधिक विस्तार ले लेता है। ऐसे समय में यूरोपीय देशों के महत्वपूर्ण शहरों, समुद्र तटों और पर्वतीय अंचलों में ग्रीष्मकालीन महोत्सव आयोजित होते हैं । जंगलों और पहाड़ों के आसपास के गांवों के प्राकृतिक वैभव में जीने - खेलने के लिए यूरोपीय परिवार अपने कैंपर्स और केरेफिन लेकर पहुंच जाते हैं । मनोरंजक और आनन्द का टेंट खुल जाता है । सब कुछ मनोरम मादकता में तब्दील होने लगता है । यूरोप के समुद्रतटीय गांवों और शहरों की जैसे बांछें ही खिल जाती है। रेस्तरां की काया टेरेस के रूप में सड़कों तक पसर आती है । ऐसे में राष्ट्र भाषाओं के वैभव का वर्चस्व देखते ही बनता है। गहरे अर्थों में महसूस होता है कि राष्ट्रभाषा ही राष्ट्र होती है और उसकी शक्ति जिसे एक व्यक्ति में, एक बच्चे से लेकर रोलेटर चला कर रेंगते हुए वृद्धों में महसूस की जा सकती है।
दरअसल राष्ट्रभाषा से ही राष्ट्र की पहचान बनती है और उसी से उस देश के नागरिकों की अस्मिता बनती है। क्योंकि देश-भाषा में ही देश का प्रतिनिधित्व होता है । जिस तरह से भाषा से देश की पहचान होती है उसी तरह देश से भाषा की पहचान बनती है। दोनों में समाहित होने का संबंध है।
भाषा में संस्कृति के स्रोत अनुस्यूत ( पिरोए) रहते हैं जिसमें हमारे राष्ट्र की अभिव्यक्ति के सूत्र समाहित होते हैं। हम सब की आकांक्षाओं के स्वप्न भाषा में ही अपनी आंखें खोलते हैं । किसी भी दूसरे देश की वास्तविक नागरिकता उस देश की भाषा के जानकार होने पर ही संभव होती है । यही कारण है कि किसी भी दूसरे देश की संस्कृति को जीने और जीतने का सुख उस देश की भाषा सीखने पर ही संभव हो पाता है। यूरोप के जर्मनी, फ्रांस, इटली, स्पेन, पुर्तगाल, नार्वे, डेनमार्क और पोलैंड जैसे देशों की अपनी राष्ट्रभाषा है। और उन्हीं भाषाओं में इन देशों का राजकाज और शिक्षा - संस्कृति संचालित होती है। यद्यपि इन देशों में विश्व के कई देशों के धर्म, जाति, संप्रदाय और संस्कृति के लोग रह रहे हैं पर वह उसी देश की राष्ट्रभाषा को अपनाए हुए अपना जीवन जीविका जीते हैं इसलिए वह राष्ट्र भी अपने राष्ट्र परिवार के नागरिक की तरह उन्हें अपनाए रहता है। नीदरलैंड सहित यूरोप के किसी भी देश में जीविका और जीवन में अंग्रेजी का कोई प्रवेश नहीं है। कोई अख़बार और पत्रिका अंग्रेजी में प्रकाशित नहीं होती है। सड़क बस रेल यात्रा की सारी सूचनाएं उस देश की अपनी राष्ट्रभाषा में लिखी रहती हैं । दरअसल अंग्रेजी प्रवेश न होने के कारण ही यूरोपीय कैरिबियाई और लातिन अमेरिकी देशों की अपनी भाषाएं और उनका सांस्कृतिक चरित्र बचा हुआ है । राष्ट्रभाषा के वजूद से ही राष्ट्र के एकत्व की छवि बनती है । भाषा के दर्पण में संगठित राष्ट्र का देदीप्यमान स्वरूप उभरता है। होटल रेस्तरां के स्वागत कक्ष में पहुंचते ही उस देश का ही नागरिक यदि यात्री के रूप में अपने देश की भाषा में संवाद करता है तो स्वागत डेस्क की बाला के चेहरे में अपरिचय के बावजूद मुस्कुराहट थिरकने लगती है और उसकी मुस्कुराहट को देखते ही आगंतुक यायावर की थकान भी बगैर प्रयास के उतर जाती है इस तरह नाम और अजनबी लोगों के बीच भी राष्ट्र-भाषा अपनी तरह से आत्मीय रिश्ता रच देती है जो बिल्कुल ही सहज ढंग से घटित होता है और अनपेक्षित रहता है ऐसी ही मनोरम स्थितियां यूरोपीय देशों के रेस्तरां में घटित होती हैं लेकिन यूरोपीय देशों में यदि दूसरे देश, जाति, धर्म, संस्कृति और समाज के लोग रहते हैं तो वे उस देश की राष्ट्रभाषा को अपनाए ही हुए हैं तो वे उस राष्ट्र परिवार के सदस्य अपने तरीके होते हैं। ऐसे में यात्रा के सुख में करिश्माई आनंद के चमत्कार की अनुभूति होती है। और ऐसा लगता है राष्ट्रभाषा में सच्ची जादुई शक्ति होती है हर देश की भाषा में ईश्वरीय शक्ति होती है और सच्चे अर्थों में वह किसी भी भाषा के समानांतर प्रभावशाली भी होती है । तभी तो यूरोपीय कैरिबियाई देश - द्वीप और लातिन अमेरिकी देशों में रहने वाले नागरिक फिर वह नीग्रो, पाकिस्तानी, या किसी भी देश, जाति, धर्म के ही क्यों न हो । लेकिन यदि वह उस देश का पासपोर्टधारी है और उस देश की राष्ट्रभाषा को अपने जीवन में अपनाए हुए संवाद करता है तो उसे वहां की सुरक्षा, संरक्षण और अपनापन स्वत: ही हासिल है।
साथ ही यात्राओं के दौरान मेरा यह भी अनुभव रहा है कि जिस देश में व्यक्ति वास करता है यदि वहां की भाषा को ही अनवरत अपने जीवन में प्रयोग में लाता है तो फिर वह किसी भी देश, जाति, धर्म, समाज और संस्कृति का विस्थापित व्यक्ति होने के बावजूद उसे उस देश द्वारा सम्मान और आत्मीयता प्राप्त होती है । वस्तुतः राष्ट्रभाषा के समक्ष रंग, जाति और धर्म का कोई भेद कारगर नहीं हो पाता है। जेनेटिक कोड पर आधारित ये सारे भेद भी राष्ट्रभाषा प्रयोग के अवसरों पर भी बेअसर हो जाते हैं। या यूं मानें कि राष्ट्रभाषा भवन में आते ही सारे भेद स्वत: तिरोहित हो जाते हैं। और कुछ भी दूसरे होने से पहले वे उस राष्ट्र के होते हैं जहां की भाषा वे बोलते और लिखते हैं। गंभीरता से सोचा जाए तो आधुनिक समय में राष्ट्रभाषा ही ऐसी पारसमणि है जो सबको एक असर और चमक में रंग देती है और उसके आचरण से उस देश की राष्ट्रभाषा की संस्कृति की सुगंध आने लगती है क्योंकि गंभीर अर्थों में भाषा ही संस्कृति है संस्कृति को हम भाषा द्वारा पहचानते और अपनाते हैं।
हॉलैंड देश में सूरीनामी हिंदुस्तानियों द्वारा डच भाषा अपनाए होने के कारण वे डच हैं लेकिन हिंदी भाषा परिवार की सूरीनामी हिंदी (हिंदुस्तानी) अपनाए होने के कारण वे भारतीय भी हैं। उन्हें भाषा की ओर से दोनों देशों की नागरिकता प्राप्त है और दोनों ही देश उन्हें अपना अपना नागरिक मानते हैं । इस तरह राजनीतिक, सामाजिक और देश के घर पर डच भाषा अपनाए होने के कारण नीदरलैंड देश की नागरिकता तो हासिल है ही, साथ ही सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर हिंदुस्तानी भाषी होने के कारण उन्हें भारतीय होने का गौरव भी प्राप्त है क्योंकि उनके घर,परिवार, धर्म, संस्कृति और जीवन की भाषा हिंदुस्तानी है और वे हिंदुस्तानी के रूप में ही जाने पहचाने जाते हैं। वस्तुतः पूरे विश्व में हिंदुस्तानी और हिंदी भाषा परिवार की बोली बोलने वाले नागरिकों की भाषा के कारण हिंदुस्तानी और भारतीय होने की पहचान है । यूरोपीय, कैरीबियाई और लातिन अमेरिकी देशों में भाषा को लेकर कोई छल – कपट नहीं है । इसलिए भाषा को लेकर दोगले चरित्र के लोग इन देशों में नहीं हैं । जबकि भारत और विश्व के अन्य देशों में भारतीय लोग मंचों, मीडिया, पत्रकारों और कैमरा तक तो स्वयं को राष्ट्रभाषा हिंदी तक से जुड़े रहते हैं लेकिन उनके प्रभाव से हटते ही अंग्रेजी या अपनी अन्य भाषाओं में संवाद करने लगते हैं। जिस तरह से पात्र अपने चरित्र अनुसार संवाद बोलता है, वैसे ही ये राष्ट्रभाषा हिंदी को मात्र मंच और मीडिया के अवसरों पर उपयोग में लाते हैं । नीदरलैंड सहित यूरोप के किसी भी देश की राष्ट्रभाषा को लेकर कोई दिवस भी नहीं है। राष्ट्रभाषा सप्ताह और पखवाड़े का तो कोई सवाल ही नहीं है। और न ही किसी भी भाग में इसका कोई पद या अधिकारी ही है। एशिया में भी भारत के अलावा शायद ही ऐसा कोई देश हो जहां अंग्रेजी भाषा का जानलेवा वर्चस्व हो जिससे राष्ट्रभाषा और प्रदेश भाषाओं के प्राण संकट में पड़ जाते हों। अंग्रेजी भाषा से होने वाले नुकसान को यूरोप के भाषाविद् ठीक से पहचानते हैं । इसलिए अपनी भाषा - संस्कृति की रक्षा निमित्त अंग्रेजी और अंग्रेजीयत से कोसों दूर रहते हैं ।
इंग्लैंड स्कॉटलैंड, आयरलैंड, दक्षिण अफ्रीका, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया ब्रिटिश गयाना, त्रिनिदाद एंड टोबैगो आदि देशो के अलावा अन्य देशों में अंग्रेजी का प्रभाव नहीं के बराबर है । इसलिए भारत का अधिकतर बुद्धिजीवी वर्ग इन्हीं देशों में अपना प्रभुत्व बनाने के लिए प्रयत्नशील रहता है। उन देशो में बसने के लिए भाषा और संस्कृति का संघर्ष भी नहीं है लेकिन जापान हो या चीन , इंडोनेशिया हो या थाईलैंड, वर्मा हो या फीजी, यूरोप हो या रूस, कैरिबियाई देश हों या दक्षिण अमेरिका के देश, ब्राजील, बेनेजुएला, फ्रेंच गयाना, अर्जेंटीना, चिली आदि इन सभी देशों की अपनी राष्ट्रभाषा है । वे अपने देश की राष्ट्रभाषा में ही जीते हैं। उसी में उनकी शिक्षा होती है । उसीमें यह नौकरी करते हैं । उनकी भाषा घर से ले कर कार्यालय तक उनके साथ रहती है। उसी भाषा में वे नाचते- गाते और उत्सव मनाते हैं और उसी में सपने भी देखते हैं।
अतः स्पष्ट है कि राष्ट्र की एक भाषा ही पूरे राष्ट्र को एक संस्कृति प्रदान करती है और उसी के बल पर पूरे देश को एकरूपता में पिरोती है। जिसके आधार पर राष्ट्र विश्व में अन्य देशों के साथ आंखें मिलाता है । वस्तुतः राष्ट्रभाषा राष्ट्र से नागरिकों को इस सीमा तक आबद्ध करती है कि नागरिक गहरे अर्थों में राष्ट्र का जामा पहन लेता है और वह उसके जीवन की पहचान बन जाता है। राष्ट्र के नाम से ही राष्ट्रभाषा का नाम निर्मित हो जाता है। उदाहरण के लिए स्पेन की स्पेनिश, फ्रांस की फ्रेंच, जर्मनी की जर्मन रूस की रशियन। स्थिति यह है कि राष्ट्र भाषा से ही राष्ट्र की पहचान होती है । यही कारण है कि एक समय में हिंदुस्तान राष्ट्र की भाषा हिंदुस्तानी थी। और डेढ़ सौ साल पहले जीविका निमित्त हिंदुस्तान से दूसरे देशों में पहुंचाए गए हिंदुस्तानियों की अपनी संवाद भाषा आज भी हिंदुस्तानी ही है। लेकिन हिंदुस्तान ने अपना नाम इंडिया रख कर अपनी राष्ट्रभाषा की पहचान भी खो दी है।
इन देशों की राष्ट्रभाषा एक होने का दूसरा सकारात्मक परिणाम यह भी देखने को मिलता है कि यहां की उपभोग की समस्त सामग्री फिर वह चाहे तकनीकी हो या सुपर मार्केट की हो उन सब पर सारी सूचनाएं उस देश की राष्ट्रभाषा में ही अंकित होती है, जिस देश में वे बिकती हैं। यहां तक कि होम्योपैथिक औषधियां जिनके वैश्विक स्तर पर एक ही नाम है लेकिन उनके संदर्भ में सारी सूचनाएं जिस देश में वे बिकती है उसी भाषा में लिखी होती हैं। उसी तरह से नीविया, डोव जैसी कॉस्मेटिक क्रीम तथा जीलेट क्रीम और ब्लेड के साथ भाषा का व्यापारिक रिश्ता है । व्यापार तो उपयोगकर्ताओं के बीच में ही होता है इसलिए उन्हीं की भाषा में होना अनिवार्य और आवश्यक भी है ।
इस तरह से एक राष्ट्रभाषा से सिर्फ राष्ट्र की संस्कृति को ही एक पहचान नहीं मिलती है अपितु उस राष्ट्र की वस्तुओं के व्यापार की भी उस राष्ट्र के भीतर विश्वसनीय पहचान बनती है। राष्ट्र की भाषा का आना जिस तरह से व्यक्ति की शक्ति होता है उसी तरह से राष्ट्र की भी अक्षत शक्ति होती है इसलिए अक्षय भी। राष्ट्रभाषा के व्यवहार में आते ही उसमें वह जादुई शक्ति का संचरण प्रारंभ हो जाता है कि पूरा राष्ट्र एक होने लगता है, सारे भेद गिरने लगते हैं और राष्ट्भाषा के अपनाने और बोलने में व्यक्ति उस देश के समभाव का अपना आत्मीय आदमी हो जाता है। उसे उस देश के सारे अधिकार मिल जाते हैं । वह देश उसका अपना हो जाता है और वह देश का होता है । राष्ट्रभाषा ही अपने राष्ट्र की और उसकी सीमाओं की वास्तविक पहरेदार है। सैनिक यदि हथियारों द्वारा सरहदों पर सीमा की रक्षा करता है तो राष्ट्रभाषा राष्ट्र के भीतर अंतरंग और आंतरिक शक्ति की रक्षा करती है । साथ ही देश के भीतर संस्कृति के अंदर आने वाली दरारों से देश को बचाए रखती है। विदेशों में वहां के नागरिकों के द्वारा अपनाए जाने के कारण ही राष्ट्रभाषाएं अपने देश की अस्मिता और शक्ति को संरक्षित किए हुए हैं, फिर वे चाहे फ्रांस हो जर्मन या फिर नीदरलैंड ।
प्रो. पुष्पिता अवस्थी,
निदेशक हिंदी यूनिवर्स फाउंडेशन, नीदरलैंड
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प्रवासी जन-जीवन की गाथा : 'छिन्नमूल'
आउट लुक में प्रकाशित छिन्नमूल उपन्यास की समीक्षा नीचे दी गई है।साथ ही टिप्पणी के लिए नीचे लिंक भी दिया गया है।
“ सूरीनाम में रहने वाले प्रवासियों की संघर्ष की गाथा है छिन्नमूल ”प्रवासी भारतीय लेखकों में पुष्पिता अवस्थी का नाम प्रतिष्ठा से लिया जाता है। पहली बार किसी प्रवासी भारतीय लेखिका ने सूरीनाम और कैरेबियाई देश को उपन्यास का विषय बनाया है और गिरमिटिया परंपरा में सूरीनाम की धरती पर आए मेहनतकश पूर्वी उत्तर प्रदेश के मजदूरों यानी भारतवंशियों की संघर्षगाथा को शब्द दिए हैं। यह उन लोगों की कहानी है जो अपनी जड़ों से कटे हैं, जिन्होंने पराए देश में अपनी संस्कृति, अपने धर्म और विश्वास के बीज बोए और पराई धरती को खून-पसीने से सींच कर पल्लवित किया। सूरीनाम पर इससे पहले डच भाषा में उपन्यास लिखे गए पर वे प्राय: नीग्रो समाज के संघर्ष को उजागर करते हैं। सरनामी भाषा में भी कुछ उपन्यास लिखे गए पर वे सर्वथा डच सांस्कृतिक आंखों से देखे गए वृत्तांत हैं। यह उपन्यास एक तरफ हिंदुस्तानी संस्कृति के दोगले चेहरों की असलियत अनावृत करता है तो दूसरी तरफ एक सौ साठ बरस के अंतराल में यहां पनपी सूरीनाम हिंदुस्तानी संस्कृति को भी उद्घाटित करता है। अतीत में जब पाल वाले जहाजों से हिंदुस्तानी यहां लाए गए थे तो उन पर गोरे डच कोड़े बरसाते थे, आज यहां उन्हीं हिंदुस्तानियों की आबादी 42 प्रतिशत है। सब कुछ छोड़ कर आए भारतवंशियों का अब हिंदुस्तान से संपर्क लगभग कट गया है। वे लौटना भी चाहें तो असंभव है। सूरीनाम की भारतवंशी संस्कृति और सरनामी हिंदी से सुपरिचित, भारतवंशियों के रहन-सहन, जीविका,पारिवारिक संबंधों को गहरे जीने एवं महसूस करने वाली पुष्पिता अवस्थी ने न केवल सूरीनाम के भौगोलिक परिवेश, जन-जीवन और पर्यावरण को पूरी समझ के साथ उकेरा है बल्कि भारतवंशियों के हालात और नीग्रो की लुटेरी प्रवृत्तियों तक को भी बहुत गहराई से विश्लेषित किया है।मुख्य किरदार ललिता सूरीनाम में पार्टी में देर रात अकेले होने और बारिश के जबर्दस्त आसार को देखते हुए घर पहुंचने की विकलता और सूरीनाम के लुटेरे परिवेश को देखते हुए भय से ग्रस्त है। ललिता का घर दूर है लेकिन उसे वहीं रहने वाला रोहित जो एक व्यवसायी है, चुटकियों में भयमुक्त कर देता है। कार में लिफ्ट देने के साथ ही अपनी सज्जनता का परिचय देने वाले रोहित के प्रति धीरे-धीरे ललिता में लगाव पैदा होता है। इस बीच वह एक ऑपरेशन के लिए अस्पताल में दाखिल होती है। इस दौरान रोहित न सिर्फ देखभाल करता है बल्कि उसे अस्पताल से अपने घर ले आता है। रोहित मूलत: भारतवंशियों की संतान है जो कभी दो-तीन पीढ़ियों पहले सूरीनाम आए थे और अब उनका हालैंड में कारोबार है। दो दिल कैसे उत्तरोत्तर एक होते जाते हैं, परिस्थितियां कैसे खूबसूरती से इसे संभव करती हैं, यह लेखिका ने बताया है।कालांतर में, रोहित का अपने पुरखों की याद को संरक्षित करने के लिए सूरीनाम में पुरखों की जमीन पर स्कूल और मंदिर आदि के निर्माण में लगना उसका और ललिता का साझा स्वप्न बन जाता है। इसी बहाने ललिता सूरीनामी जीवन, भारतवंशियों की सांस्कृतिक परंपराओं, पारस्परिक रिश्तों, संबंधों में आते हुए पश्चिमी आधुनिकता के प्रभावों तथा अपने को न बदलने की एक जिद्दी धुन लिए सूरीनामी भारतवंशियों को अपने विवेक और अध्ययन में गहरे पोसती हैं। ऊंची तालीम और कारोबार के लिए सूरीनामियों की पहली पसंदीदा जगह हालैंड है। इसलिए हालैंड के डच और भारतीय समाज पर भी तमाम टिप्पणियां यहां संवादों और किस्सागोई में समेटी गई हैं। हालैंड के भारतीय और डच भाषी समाज में सेक्स और यौनिकता के प्रति खुलेपन को भी बेबाकी से चित्रित किया गया है। जहां बिना विवाह किए रहने की छूट है तथा समाज में मर्दवादी दृष्टि का बोलबाला है।किस्सागोई का केंद्र यों तो सूरीनाम और हालैंड ही है पर इसके नैरेटिव में कैरेबियाई देशों के हवाले भी आए हैं। जैसे लेखिका कहती है, ‘‘सूरीनाम की धरती ही नहीं, ब्रिटिश गयाना, फ्रेंच गयाना, वेनेजुएला, पेरु, चिली और ब्राजील आदि के जंगल या यूं कहें पूरे दक्षिण अमेरिका के जंगलों को देखकर ऐसा लगता है कि पृथ्वी का यह हिस्सा आज भी कुंआरी कन्या की तरह है। जंगल आज भी मौलिक रूप में जीवित हैं जिसे भोगवादी आंखों ने अभी तक स्पर्श नहीं किया है। यूं मानो इसे अभी सिगरेट की तरह सुलगाकर पिया नहीं है।’’ इस तरह यह उपन्यास केवल ललिता और रोहित के प्रेम और दाम्पत्य की दास्तान ही नहीं, नीदरलैंड और सूरीनामी समाज, संस्कृति और भारतवंशियों के प्रति सूरीनामी प्रशासन के रवैए का भी संजीदा आख्यान बन गया है जिसे पुष्पिता अवस्थी ने अपने प्रवासी भारतीय मन-मिजाज के अनुरूप भाषायी आकर्षणों के साथ लिखा है। वृत्तांतों में रिपोर्ताज की महक है पर किस्सागोई आहत नहीं होती। - ओम निश्चल
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प्रस्तुत कर्ता: संपत देवी
मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो.नं. 09703982136
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