शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] हिन्दी के ‘महामना’ : पंडित मदन मोहन मालवीय - प्रो. अमरनाथ। झिलमिल में- भारतीय भाषाओं के समर्थक पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के जन्मदिन पर उन्हें सादर नमन

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हिन्दी के योद्धा : जिनका आज जन्मदिन है-27
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हिन्दी के महामना : पंडित मदन मोहन मालवीय

- प्रो. अमरनाथ


हमारे देश की दशा के सुधार और उन्नति के लिए हमारा सबसे बड़ा साधन विद्या है. यह अमृत है, जिसके सेवन करने से हमारे भाई-बहन फिर बलवान, धर्मवान, ज्ञानवान और धनवान हो सकते हैं. प्रजा में विद्या का प्रचार उसकी मातृभाषा के द्वारा ही हो सकता है. जिस प्रान्त में जो भाषा प्रचलित है, उस प्रान्त में उसी भाषा के द्वारा ऊँची से ऊँची शिक्षा देने का प्रबंध होना चाहिए. अंग्रेजी के द्वारा हमारा बहुत उपकार हुआ है, किन्तु हम अंग्रेजी के द्वारा पढ़े हुए लोगों को उचित था कि अबतक प्रत्येक प्रान्त की भाषा की ऐसी उन्नति करते कि उसी के द्वारा ऊँची जाति की शिक्षा हो सकती, क्योंकि बिना ऐसी शिक्षा के जातीय जीवन का वृक्ष न हरा- भरा और पुष्ट हो सकता है न रक्षित रह सकता है. इसलिए सब प्रकार से देशी भाषाओं का, विशेषकर हिन्दी भाषा का  प्रचार करना हमारा धर्म है.” उक्त अंश एशिया के सबसे बड़े आवासीय विश्वविद्यालय अर्थात बीएचयू के संस्थापक महान शिक्षाविद् भारतरत्न महामना पंडित मदन मोहन मालवीय( 25.12.1861-12.11.1946)  के द्वारा राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को लिखे एक पत्र का है जिसे गाँधी जी ने इंदौर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए 28 मार्च 1918 को पढ़कर सुनाया था. 


मालवीय जी का जन्म प्रयागराज में एक सामान्य परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम पं. ब्रजनाथ और माँ का नाम मूना देवी था. वे कुल सात भाई- बहनों में पाँचवीं संतान थे. उनकी आरंभिक शिक्षा प्रयागराज और बी.ए. की पढ़ाई कलकत्ता विश्वविद्यालय में हुई.

1886 मे कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन हुआ था जिसकी अध्यक्षता दादभाई नौरोजी ने की थी. मदन मोहन मालवीय ने इस अधिवेशन में भाग लिया था. उस समय उनकी उम्र मात्र 25 वर्ष थी किन्तु उनमें राष्‍ट्रीय चेतना इतनी विकसित थी कि‍ उन्‍हें सभा को संबोधि‍त करने का अवसर मिला था और उनके भाषण का व्यापक प्रभाव पड़ा था.


मालवीय जी के भाषण का असर अधिवेशन में मौजूद कालाकांकर के महाराजा रामपाल सिंह पर भी पड़ा और प्रभावित होकर महाराज ने उनसे साप्ताहिक समाचार पत्र हिंदुस्तान का संपादक बनने और उसका प्रबंधन संभालने की पेशकश की. ढाई वर्ष तक संपादक के पद की जिम्मेदारी संभालने के बाद वे एल.एल.बी. की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद वापस चले आए. 1891 में उन्होंने अपनी कानून की पढ़ाई पूरी की और पहले इलाहाबाद जिला न्यायालय और उसके दो वर्ष बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे. राष्‍ट्रीय आंदोलन में अपना पूर्ण योगदान देने के उद्देश्‍य से मालवीय जी ने 1909 में वकालत छोड़ दी और लीडर अखबार निकालने लगे. यद्यपि उस समय वे इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय में पंडित मोतीलाल नेहरू और सर सुन्दरलाल जैसे प्रथम श्रेणी के वकीलों में गि‍ने जाते थे. वर्ष 1907 में मालवीय जी ने ‘‘अभ्युदय‘‘ नामक हिंदी साप्ताहिक समाचार पत्र शुरू किया और 1915 में इसे दैनिक समाचार पत्र में तब्दील कर दिया. इतना ही नहीं, कुछ दिन बाद उन्होंने मर्यादा पत्रिका का प्रकाशन किया और इसके बाद 1924 में दिल्ली आकर उन्होंने हिन्दुस्तान टाइम्स को सुव्यवस्थित किया. बाद में वे लाहौर गए और वहाँ से विश्वबंद्य निकाला.

      मालवीय जी ने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेकर 35 साल तक कांग्रेस की सेवा की. उन्हें सन्‌ 1909, 1918, 1930 और 1932 में कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया था. एक वकील के रूप में उनकी सबसे बड़ी सफलता चौरी चौरा कांड के अभियुक्तों को फांसी से बचा लेने की थी. चौरी-चौरा कांड में 170 भारतीयों को सजा-ए-मौत देने का ऐलान किया गया थालेकिन महामना ने अपनी योग्यता और तर्क के बल पर 151 लोगों को फांसी के फंदे से छुड़ा लिया था. 


        शिक्षा के क्षेत्र में मालवीय जी का सबसे बड़ा योगदान काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना है. उन्होंने एक ऐसा विश्वविद्यालय बनाने का संकल्प लिया थाजिसमें प्राचीन भारतीय परंपराओं को कायम रखते हुए देश-दुनिया में हो रही तकनीकी प्रगति की भी शिक्षा दी जाए. अंतत: उन्होंने अपना यह प्रण पूरा भी किया और 1916 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय अस्तित्व में आ गया.

मालवीय जी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना में भी मुख्य भूमिका निभाई. उन्होंने 1910 में काशी में आयोजित प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की थी. इस सम्मेलन में देश भर से तीन सौ से भी अधिक प्रतिनिधि तथा प्रमुख समाचार पत्रों के संपादक सम्मिलित हुए थे. उनका अध्यक्षीय भाषण अत्यंत प्रभावशाली था. इस निमित्त उसी समय एक कोष की स्थापना की गयी जिसमें तुरन्त 3524 रुपये संग्रहित हो गये. स्वयं मालवीय जी ने अपने अंशदान के रूप में ग्यारह हजार रुपये देने की घोषणा की. पं. श्याम बिहारी मिश्र ने मालवीय जी के संबंध में कहा था ``हिन्दी की जो उन्नति आज दिखाई देती है उसमें मालवीय जी का उद्योग मुख्य कहना चाहिए. इस अवसर पर हमें दूसरा सभापति इनसे बढ़कर नहीं मिल सकता था. अपने अध्यक्षीय भाषण में मालवीय जी ने हिन्दी अपनानेसरल हिन्दी का प्रयोग करने तथा अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्द ग्रहण करने की अपील की.

 जब मालवीय जी ने अदालतों और स्कूलों में हिन्दी और नागरी की स्थापना के लिए प्रयास आरंभ किया था, उन दिनों यद्यपि हि‍न्‍दी के सबसे बड़े वि‍रोधी सर सैयद अहमद खाँ का निधन हो चुका था किन्तु उनके अनुयायियों ने मोर्चा सँभाल लिया था. इस मुद्दे पर लॉर्ड कर्जन का झुकाव भी उर्दू और फारसी लिपि की ओर ही था. ऐसी परिस्थिति में मालवीय जी ने रात-दिन मेहनत करके नागरी के पक्ष में प्रमाण और आँकड़े इकट्ठे कि‍ए.  उन्होंने हि‍न्‍दी भाषा और नागरी लि‍पि‍ की सुन्‍दरतासहजता और उपयोगि‍ता के पक्ष में जनमत तैयार किया. अपने मित्र पंडि‍त श्रीकृष्ण जोशी के साथ मि‍लकर और अपने पास से रूपये खर्च करके तमाम तथ्य एकत्रित करके उन्होंने एक बेहतरीन पुस्‍तिका तैयार की जिसका शीर्षक रखा, ‘कोर्ट कैरेक्‍टर एण्‍ड प्रायमरी एजुकेशन इन नार्थ वेस्‍टर्न प्रौवि‍न्‍सेज’.


 मालवीय जी ने इस पुस्तिका के साथ एक प्रार्थना-पत्र लेकर 2 मार्च सन् 1898 ई. को अयोध्‍या नरेश महाराजा प्रताप नारायण सि‍हं, मांडा के राजा रामप्रसाद सि‍हंडॉ. सुन्‍दर लाल आदि‍ के साथ गवर्नमेंट हाउस प्रयाग में छोटे लाट साहब सर एन्‍टोनी मेक्‍डॉनेल से मि‍ले. उनका श्रम सफल हुआ और उनकी लगभग सारी माँगें मान ली गईं. परिणामस्वरूप 18 अप्रैल सन् 1900 ई. को मैक्‍डॉनेल ने एक वि‍ज्ञप्‍ति‍ (गवर्नमेंट गजट) जारी की जि‍ससे अदालतों में तथा शासकीय कार्यों में हिन्दी और नागरी को भी स्‍थान मि‍ल गया. अब सभी लोग अपनी अर्जीशि‍कायत की दरखास्‍त हि‍न्‍दी अथवा फारसी में दे सकते थे. अदालतोंशासकीय कार्यालयों को निर्देश दे दि‍या गया कि‍ सभी कागजात जैसे सम्‍मन आदिजो सरकार की ओर से जनता के लि‍ए नि‍काले जायेंगे वे दोनों लि‍पि‍यों यानी नागरी और फारसी में लि‍खे अथवा भरे होंगे. सरकार ने इसके साथ ही यह भी ऐलान कर दि‍या कि‍ आगे कि‍सी भी व्‍यक्‍ति‍ को तभी सरकारी नौकरी मि‍ल सकेगी जब वह हि‍न्‍दी भाषा का भी जानकार हो. जो कर्मचारी हि‍न्‍दी नहीं जानते थे उन्‍हें एक साल के भीतर हि‍न्‍दी सीखने को कहा गया अन्‍यथा वे नौकरी से अलग कर दि‍ए जायेंगे. इस प्रकार मालवीय जी के अथक प्रयास से हि‍न्‍दी का प्रवेश संयुक्‍त प्रान्‍त की अदालतों में हो पाया.


प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन ( 10,11,12 अक्टूबर 1910 ) के अपने अध्यक्षीय संबोधन में उन्होंने कहा था,

यह सत्य है कि कुछ लोग अपनी मातृभाषा में काम करते हैंकिन्तु ऐसे लोग कितने हैंमेरा यह प्रस्ताव नहीं है मेरा यह निवेदन है कि जो हुआ वह हुआअब क्या करना चाहिए ? आपको यह आवश्यक है कि सरकारी दफ्तरों से जो नकलें दी जाती हैंउनको आप हिन्दी में लेंजो डिगरियाँ तजबीजें आदि मिलती हैंउनको आप हिन्दी में लें. यह सब आपके लिये आवश्यक है.


इसी तरह 15 अप्रैल 1919 को मालवीय जी ने इलाहाबाद के उच्च न्यायालय में हिन्दी को कार्यालयी व अदालती भाषा बनाने के लिए जमकर बहस की. इस दिन उन्होने अदालत में काली पोशाक पहनने से मना कर दिया था और श्वेत वस्त्र धारण करके आए थे. उनकी बहस से न्यायाधीश बहुत प्रभावित हुए और देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी को अदालतो में स्वीकृति दे दी.


    इसके पूर्व 1882 ई्. में अंग्रेजों ने एक शि‍क्षा कमीशन बैठाया था जिसका उद्देश्‍य‍ यह सुझाव देना था कि शि‍क्षा का माध्‍यम क्‍या हो और शि‍क्षा कैसे दी जायेइस आयोग में साक्ष्‍य के लिए महामना पंडित मदनमोहन मालवीय तथा भारतेन्‍दु हरि‍श्‍चन्‍द्र चुने गए थे। ‘भारतेन्‍दु’ अस्‍वस्‍थता के कारण आयोग के सम्‍मुख उपस्‍थि‍त  नहीं हो पाए. उन्‍होंने अपना लि‍खि‍त बयान आयोग को भेजा था. परन्‍तु मालवीय जी आयोग के सामने उपस्‍थि‍त हुए थे. उन्‍होंने अपने बयान में इस बात पर जोर दि‍या था कि‍ शि‍क्षा समस्‍त क्षेत्रों में दी जाय और वह हि‍न्‍दी भाषा में हो.


मालवीय जी के कुशल नेतृत्व में ‘हि‍न्‍दी साहि‍त्‍य सम्‍मेलन’ की शाखाएं धीरे- धीरे पूरे देश में खुल गईं और इसके माध्‍यम से देश के अहि‍न्‍दी भाषी क्षेत्र के लोगों को हि‍न्‍दी पढ़ने व सीखने का अवसर मि‍ला. अपने स्‍वभाव के अनुरूप मालवीय जी ने हि‍न्‍दी साहि‍त्‍य सम्‍मेलन की स्‍थापना के बाद आगे चलाने के लि‍ए इसे राजर्षि पुरूषोत्‍तम दास टण्‍डन को सौंप दि‍या.


महात्मा गाँधी ने मालवीय जी के हि‍न्‍दी-प्रचार की प्रशंसा करते हुए कहा था ‘’सबसे पहला अधि‍वेशन सन् 1910 में हुआ था. उसके सभापति‍ मालवीय जी महाराज ही थे. उनसे बढ़ कर हि‍न्‍दी-प्रेमी भारत वर्ष में हमें कहीं नहीं मि‍लेगा. कैसा अच्‍छा होता यदि‍ वह आज भी इस पद पर होते. उनका हि‍न्‍दी प्रचार-क्षेत्र भारतव्‍यापी हैउनका हि‍न्‍दी का ज्ञान उत्‍कृष्‍ट है.’’

काशी हि‍न्‍दू वि‍श्‍ववि‍दयालय में हि‍न्‍दी को सर्वप्रथम एक वि‍षय के रूप में मान्‍यता दिलाने वाले मालवीय जी ही थे. हि‍न्‍दी साहि‍त्‍य के पुरोधा बाबू श्यामसुंदर दास, आचार्य रामचन्‍द्र शुक्‍लपं. अयोध्‍या सि‍हं उपाध्‍याय ‘हरि‍औध’ आदि‍ इसी वि‍श्‍ववि‍दयालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग के रत्‍न थे. इन्हें विश्वविद्यालय में चुनकर लाने का श्रेय मालवीय जी को ही है.

हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन में अपना अध्यक्षीय वक्तव्य रखते हुए हिन्दी के स्वरूप को लेकर उन्होंने जो कहा था उससे हिन्दी के प्रति उनकी समझ और निष्ठा का सहज ही अनुमान हो जाता है. वे कहते हैं कि, "उसे फारसी-अरबी के बड़े- बड़े शब्दों से लादना जैसे बुरा हैवैसे ही अकारण संस्कृत शब्दों से गूँथना भी अच्छा नहीं. और भविष्यवाणी की कि एक दिन यही भाषा राष्ट्रभाषा होगी."

मालवीय जी को हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इंदौर अधिवेशन में शामिल होना था किन्तु वे शामिल न हो सके थे. उनकी अनुपस्थिति में महात्मा गाँधी ने स्वयं उनका पत्र 28 मार्च 1918 को  सम्मेलन में पढ़कर सुनाया था. इस पत्र से हिन्दी के विषय में मालवीय जी के दृष्टिकोण को आसानी से समझा जा सकता है. पत्र का अंश है,

मेरा तो यह मत है कि हिन्दी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए. बहुत अंश में वह अब भी है. उर्दू, हिन्दी का एक विशेष रूप मात्र है. और कठिन संस्कृत, अरबी या फारसी के शब्द उसमें न लाए जाएं तो जो लोग उसको एक रूप में समझ सकते हैं वह दूसरे में भी समझ सकेंगे.” (उद्धृत, हिन्दी : राष्ट्रभाषा से राजभाषा तक, विमलेश कान्ति वर्मा, पृष्ठ-52)

पं. जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है, मालवीय जी ने अपना सारा वजन हिन्दुस्तानियत पर, भारतीयता पर डाला........ उस समय भी बहुत सारे लोग थे, बड़े विद्वान लोग थे, संस्कृति के बड़े पंडित लोग भी थे. पर जहाँ तक मेरा विचार है, राजनीतिक नेताओं में बड़े नेताओं में मालवीय जी ही शायद इस मामले में सबसे आगे थे. वे रोकते थे अंग्रेजियत की बाढ़ को, पर विरोध करके नहीं बल्कि अपने काम से, अपने विचारों से और कोशिश करते थे अपनी संस्कृति को बचाने की. ( उद्धृत, मदनमोहन मालवीय, अशोक कौशिक, भूमिका से)

मालवीय जी ने ही कांग्रेस के सभापति के रूप में सुझाया था कि सत्यमेव जयते को भारत का राष्ट्रीय उद्घोष वाक्य स्वीकार किया जाय. उन्होंने हरिद्वार में हर की पौड़ी पर गंगा आरती का आयोजन किया जो आज तक चल रहा है.

प्रयागराज, लखनऊ, दिल्ली, देहरादून, भोपाल और जयपुर जैसे शहरों में मालवीय नगर के नाम से मोहल्ले हैं. उनके नाम पर आईआईटी खड़गपुर, आईआईटी रुड़की, बिड़ला प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान संस्थान पिलानी आदि में छात्रावासों के नाम हैं.  मदनमोहन मालवीय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय गोरखपुर तथा मालवीय राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान जयपुर का नामकरण उन्हीं के नाम पर किया गया है. 2001 में भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक-टिकट जारी किया और 24 दिसंबर 2014 को भारत सरकार ने उन्हें भारत रत्न जैसे सर्वोच्च सम्मान से विभूषित किया.

( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)

 

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भारतीय भाषाओं के समर्थक पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी 
के जन्मदिन पर उन्हें सादर नमन !

25 दिसंबर के दिन पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का भी जन्म हुआ। 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर में जन्में अटल जी राजनेता होने के साथ एक बड़े कवि भी  थे और हिंदी के प्रबल सेनानी भी थे। हैं। जमीन से उठकर शिखर के आसमान पर पहुंचने के पीछे अटल जी को काफी संघर्ष करना पड़ा था। अपने इस जीवन संघर्ष को उन्होंने अपनी कविताओं में बड़ी संजीदगी से उतारा है। उनके जन्मदिन के अवसर पर हम अपने काव्य पाठकों के सामने अटल जी की एक प्रसिद्ध कविता पेश कर रहे हैं। आशा है यह कविता आप में ऊर्जा और आशा का संचार करेंगी।


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वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई

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प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारकाविश्व वात्सल्य मंच

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लेखिका यात्रा विवरण

मीडिया प्रभारी

हैदराबाद

                                                    मो. 09703982136                                                             

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