-- (वैश्विक ई-संगोष्ठी भाग-4)
'चिंदी-चिंदी' होती हिंदी'
हिंदी क्षेत्र की बोलियों को अष्टम अनुसूची में स्थान ???
प्रोफेसर कृष्ण कुमार गोस्वामी व अन्य के विचार
प्रोफेसर कृष्ण कुमार गोस्वामी, दिल्ली,
प्रिय डॉ. आदित्य,
आपने भारतीय भाषाओं के परिप्रेक्ष्य में ‘हिन्दी: भाषा बनाम साहित्य’ के संबंध में जो विश्व मंच खड़ा किया है उसके लिए साधुवाद। मैं स्वयं कई वर्षों से इस विषय पर संघर्ष कर रहा हूँ। आपने यह विषय उठा कर एक बहुत बड़ा सारस्वत कार्य किया है। यही आशा है कि आपका यह सद्प्रयास सफल होगा। इसमें कोई दो राय नहीं है कि हिन्दी भाषा को साहित्य का पर्याय आज भी माना जाता है। अभी तक विद्वान भाषा और साहित्य में अंतर नहीं कर पा रहे। अगर कोई साहित्यकार भाषा संबंधी एक-आध टिप्पणी या लेख लिखता है तो वह स्वत: भाषाविद या भाषाविज्ञानी भी हो जाता है, क्योंकि वे भाषा को साहित्य का एक छोटा-सा अंश मानते हैं। अगर कोई भाषाविज्ञानी या भाषा विशेषज्ञ साहित्य संबंधी लेख लिखता है तो उसे साहित्यकार की श्रेणी में नहीं रखा जाता जैसे कि वह साहित्य के लिए अछूत हों। वे यह नहीं जानते कि भाषा ही साहित्य का सशक्त और प्राणवान उपादान है। भाषा के गर्भ से ही साहित्य का जन्म होता है। वस्तुत: साहित्य एक भाषिक कला है जिसमें भाषा ही सौंदर्य को साकार रूप प्रदान करती है और फिर साहित्य का सृजन होता है। भाषा के सिवा अन्य कोई माध्यम भी तो नहीं है जिससे साहित्य की रचना हो सके। भाषा ऐसा सशक्त माध्यम है जिसमें उसका अपना समाज, संस्कृति, परंपरा, जीवन-शैली आदि समाहित हैं। यह तो संगीत का नाद है जो हमारा रसास्वादन करता है।
भाषा के दो मुख्य पक्ष हैं – एक का संबंध मानव की सौंदर्यपरक अनुभूतियों के आलंबन से होता है और दूसरे पक्ष का संबंध भाषा के प्रयोजनपरक आयामों से जुड़ा है। भाषा के सौंदर्यपरक आयाम में भाषा सर्जनात्मक होती है, जिसका विकास साहित्य की भाषा के रूप में होता है। यह भाषा-रूप कविता, नाटक, उपन्यास, कहानी, आलोचना आदि विभिन्न साहित्यिक विधाओं में निखर कर आता है। इसके साथ-साथ यह भाषा देश-विशेष या क्षेत्र-विशेष के सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों को अपने भीतर समेटे होती है। भाषा के दूसरे पक्ष का संबंध हमारी सामाजिक आवश्यकताओं और जीवन की उस व्यवस्था से होता है जो व्यक्तिपरक होकर समाजपरक भी होता है। यह भाषा का प्रकार्यात्मक आयाम है जिसका प्रयोग किसी प्रयोजन-विशेष या कार्य-विशेष के संदर्भ में होता है। यह भाषा प्रशासन व्यवस्था, मानविकी तथा तकनीकी एवं वैज्ञानिक क्षेत्रों में आविष्कारोन्मुखी हो कर देश या राष्ट्र के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सामान्य प्रयोजन के लिए यह भाषा हमारे रोज़मर्रा के जीवन में सामान्य बोलचाल के रूप में प्रयुक्त होती है और विशिष्ट प्रयोजनों – साहित्य, विज्ञान, चिकित्सा, वाणिज्य, इंजीनियरी, प्रौद्योगिकी, विधि, बैंकिंग, प्रशासन आदि में विशिष्ट वर्ग द्वारा और विशिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उपयोग की जाने वाली भाषा (रूप) विशिष्ट भाषा होती है। इसकी अपनी शब्दावली और अपनी संरचना होती है। यही बात हिन्दी भाषा पर भी पूरी तरह लागू होती है। हिन्दी के अधिकतर साहित्यकार अपने-आप को भाषाविद और भाषा विशेषज्ञ भी मानते हैं चाहे उनका भाषा संबंधी कोई योगदान न हो लेकिन कोई भाषा विशेषज्ञ साहित्य में अगर कोई कार्य करता भी हो उसे साहित्य जगत में स्थान नहीं मिलता। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है।
यहाँ यह बताना आवश्यक है कि अब हिन्दी भाषा के कार्य-क्षेत्र में विस्तारीकरण हो रहा है। आज के आधुनिकीकरण और भूमंडलीकरण के युग में हिन्दी भाषा का भी आधुनिकीकरण तथा भूमंडलीकरण हो रहा है। हमें इसका पूरा लाभ उठाना चाहिए। यदि हम लोगों ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया तो यह न केवल हिन्दी के लिए घातक होगा बल्कि भारतीय भाषाओं के लिए भी हानिकारक होगा। केवल मंच पर हास्य कविताएं या चुटकले देने पर काम नहीं होगा। आजकल अधिकतर साहित्य स्तरीय नहीं है। प्रकाशक भी साहित्यिक रचनाएँ प्रकाशित करने की जगह प्रयोजनपरक, वैज्ञानिक, प्रौद्यगिकी संबंधी साहित्य प्रकाशित करने में रुचि लेने लगे हैं। आदित्य जी,आपका प्रस्ताव अच्छा है कि इस संबंध में भी एक भाषा अकादमी का गठन होना अपेक्षित है जो हिन्दी को रोजगारपरक बनाने के लिए काम करे। सत्तर के दशक में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) ने भाषा के प्रयोजनपरक और संप्रेषणपरक आयामों के पाठ्यक्रमों को प्रारंभ किया था जिसमें प्रयोजनमूलक हिन्दी पाठ्यक्रम बड़े ज़ोर-शोर से चले थे जो अब निस्तेज और ढीले हो गए हैं, क्योंकि साहित्य के लोग इसके पक्ष में नहीं थे। इसी संदर्भ में यह बता दूँ कि वर्ष 2006 में हमने प्रगत संगणक विकास केंद्र (C-DAC), नोएडा में एम.टेक (भाषा प्रौद्योगिकी) पाठ्यक्रम म.गा.अं.हिं. विश्वविद्यालय, वर्धा के संयुक्त तत्वावधान में चलाने का प्रयास किया था। यह पाठ्यक्रम दो वर्ष तक अच्छी तरह चला भी जिसमें हिन्दी को कक्षा तथा परीक्षा का मुख्य माध्यम रखा गया। लेकिन दो वर्ष के बाद इसे बंद करना पड़ा क्योंकि न तो सरकार से कोई सहयोग मिला और न ही विश्वविद्यालय तथा सी-डैक से। सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी साहित्य के ग्रंथ भी हिन्दी में लिखने-लिखाने के प्रयास किए गए, उसकी हमने एक परियोजना भी बनाई किंतु वह सफल नहीं हो पाई। अधिकतर लोगों ने उदासीनता दिखाई। केवल सी-डैक के तत्कालीन वैज्ञानिक श्री वी.एन. शुक्ल का ही सहयोग मिला। इस प्रकार भारत की राजभाषा हिन्दी के विकास और प्रसार में ऐसी बाधाएँ आती रहती हैं, अन्य भारतीय भाषाओं के बारे में क्या कहा जा सकता है?
आदित्य जी, हिन्दी को जब तक साहित्य के अतिरिक्त अन्य विषयों के साथ नहीं जोड़ा जाए गा तब तक हिन्दी कभी विश्व के मंच पर नहीं आ सकेगी। भूमंडलीकरण में अंग्रेज़ी का वर्चस्व बढ़ता जाएगा और हिन्दी पिछड़ती जाएगी। यदि हिन्दी को वाणिज्य-व्यापार,उद्योग, सूचना प्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों में स्थान नहीं मिलेगा और उसे रोजगारपरक नहीं बनाया जाएगा तो हिन्दी कभी विश्व में अपना महत्वपूर्ण स्थान नहीं बना पाएगी। इसलिए हमें पहले अपने देश में संघर्ष करना होगा। राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी को विकसित करने में कठिनाई हो रही है। विदेश में मुझे हिन्दी के प्रति कहीं कोई दुर्भावना दिखाई नहीं दी, सद्भावना ही मिली है । हिन्दी में काम करते हुए लोग प्रसन्न होते हैं। अत: विश्व में कोई समस्या नहीं है। हमें एक अभियान चलाने की आवश्यकता है जो आपके गूगल समूह या वैश्विक हिन्दी सम्मेलन के नेतृत्व में हो और उसमें हिन्दी के प्रति निष्ठा रखने वाले लोग ही शामिल किए जाएँ, राजनीति वाले नहीं। युवक अधिक संख्या में हों तो अच्छा रहे गा।
आपका यह कहना भी सही है कि देवनागरी लिपि के स्थान पर रोमन लिपि की वकालत हो रही है। वास्तव में एक षड्यंत्र हो रहा है,विशेषकर अंग्रेजी समाचारपत्र समूहों के द्वारा। कुछ समाचारपत्रों में अंग्रेजी के कुछ लेखक अपने लेखों से रोमन लिपि के समर्थन में दुष्प्रचार कर रहे हैं। वे नहीं जानते कि देवनागरी लिपि विश्व की सभी लिपियों में सर्वाधिक वैज्ञानिक है। भारतीय भाषाओं के लिए देवनागरी पूर्णतया सार्थक और उपयुक्त है। इसकी प्राचीन परंपरा है और यह इस समय संविधान की आठवीं सूची में उल्लिखित 22 भाषाओं में दस भाषाओं में इस्तेमाल होती है। रोमन लिपि हिन्दी और अन्य भाषाओं के लिए किसी भी दृष्टि से न तो उपयुक्त है और न ही प्रयोजनीय। रोमन तो अंग्रेजी की लिपि होते हुए भी उसके लिए सार्थक भूमिका नहीं निभा रही है, भारतीय भाषाओं के लिए कहाँ से निभा पाएगी। वर्ष 1892 से समय-समय पर आवश्यकताओं के अनुरूप इसमें सुधार भी होते रहे हैं। इसके विकास के लिए नागरी लिपि परिषद, नई दिल्ली काफी अरसे से काम कर रहा है। इधर विश्व नागरी विज्ञान संस्थान, गुड़गांव-दिल्ली भी सूचना प्रौद्योगिकी के परिप्रेक्ष्य में देव नागरी के विकास के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। वर्ष 2012 में विश्व नागरी विज्ञान संस्थान के प्रयास से भारतीय मानक ब्यूरो (BIS – पूर्व ISI) ने देवनागरी लिपि के मानक रूप को मान्यता दी है। यह मानक रूप केंद्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा स्वीकृत लिपि पर आधारित है जिसे ब्यूरो ने एक राष्ट्रीय समिति गठित कर विचार-विमर्श के बाद पारित कराया और लोकार्पण किया। इसी संदर्भ में मेरा यह अनुरोध है कि हमें भी देवनागरी लिपि के विकास और प्रचार-प्रसार के लिए एकजुट होकर काम करना चाहिए जिसमें अन्य संस्थाओं का भी सहयोग लिया जाए।
अंत में आदित्य जी मैं यह कहना चाहूँगा कि आपने साहित्य और भाषा का जो मुद्दा उठाया है वह बहुत ही प्रासंगिक और सार्थक है। मैं आपके इस अभियान का पूरी तरह समर्थन करता हूँ। मेरी शुभ कामनाएँ आपके साथ हमेशा रहेंगी।
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सुभाष चंद्र लखेड़ा
अगर किसी वृक्ष की जड़ें सूख रही हों, उनको पानी और दूसरे जरूरी तत्व न मिल रहे हों और उस वृक्ष के रखवाले, उसे चाहने वाले सिर्फ उसकी पतियों पर रंग पोत रहे हों तो उस वृक्ष
का सूखना तय है। सोचिये जरूर - क्या हम लोग हिंदी के ' भाषा वृक्ष ' के साथ ये सब तो नहीं कर रहे हैं ?
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श्याम स्नेही
snehishyam@gmail.com
वर्तमान में माँ भारती के माथे की बिंदी हिंदी को चिन्दी-चिन्दी करने में सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं कि साथ सरकार का भी भरपूर सहयोग रहा है तब ही तो हिंदी बदाहाल है
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डॉ. एम.एल गुप्ता 'आदित्य'
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
वेबसाइट- वैश्विकहिंदी.भारत / www.vhindi.in
प्रस्तुत कर्ता:
संपत देवी मुरारका
अध्यक्षा, विश्व वात्सल्य मंच
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
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