- (वैश्विक ई-संगोष्ठी भाग-5)
'चिंदी-चिंदी' होती हिंदी'
हिंदी क्षेत्र की बोलियों को अष्टम अनुसूची में स्थान ???
प्रोफेसर कृष्ण कुमार गोस्वामी, अशोक चक्रधर के विचार
आदित्यजी, यह इस देश का दुर्भाग्य है कि यहाँ लोग छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए अपनी ही भाषा की चिंंदी - चिंंदी करने पर आमादा हैं। जो लोग हिंदी क्षेत्र की बोलियों को संविधान की अष्टम अनुसूची में शामिल करवाने की बात कर रहे हैं, ऐसा नहीं है कि उन्हें उस बोली की बहुत चिंता है ज्यादातर लोग निहित स्वार्थों के कारण ऐसा कर रहे हैं। बृजभाषा जो मेरी बोली भी है, यदि इसे अष्टम अनुसूची में शामिल नहीं किया गया तो क्या उसमें साहित्य रचना पर कोई प्रतिबंध है। अब वह हिंदी साहित्य का अभिन्न अंग है पूरे देश में हिंदी साहित्य में पढ़ाई जाती है। मैथिली को अलग भाषा बना दिया गया जबकि विद्यापति आज भी हिंदी साहित्य में पढ़ाए जाते हैं। उसे हिंदी से अलग कर के तो उसका भारी नुकसान होगा ।
लेकिन जो लोग इस माँग के जरिए बोली विशेष के लोगों को लामबंद कर अपने राजनैतिक हित साधना चाहते हैं, या इसके जरिए बोली के नाम पर अपनी दुकानें चमकाना चाहते हैं उनका उद्देश्य ही अलग है। ऐसी हरकतों के चलते ही हिंदी को संयक्त राष्ट्रसंघ की भाषा बनने में सफलता नहीं मिली, संख्या कम पड़ गई ।
अगर हम चीन का उदाहरण लें, जिनकी भाषा मंदारियन है, वहाँ भी हमारी तरह अनेक बोलियाँ वगैरह हैं। लेकिन लाभ-लोभ के चलते अलगाव की बात वहाँ नहीं है । सब मंदारियन को पूरे देश की भाषा मानते हैं। मैं समझता हूँ कि अगर आज किसी बोली को अष्टम अनुसूची में स्थान देने की बात हुई तो न जाने कितने क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा और लाभ-लोभवादी डंडा-झंडा लेकर खड़े हो जाएँगे।
में इसे अनावश्यक व दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूँ।
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अशोक चक्रधर
प्रोफेसर कृष्ण कुमार गोस्वामी,
प्रो. अमर नाथ ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी की अस्मिता और अस्तित्व पर कुठाराघात करने के षड्यंत्र का जो उल्लेख किया है, वह वास्तव में चिंताजनक है। प्रो. अमर नाथ ने बहुत ही सुलझे हुए ढंग से जो तथ्य रखे हैं वे हममें जागरूकता पैदा करते हैं कि अब हमें इस ओर गंभीरता से विचार करना होगा। हिन्दी विरोधियों में विदेशियों की अपेक्षा हमारे अपने ही लोग अधिक हैं जो हिन्दी को खंड-खंड करने में लगे हुए हैं। इससे न केवल हिन्दी को नुकसान होगा बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं को भी होगा जो भारत के लिए अत्यंत घातक होगा। इससे देश के भी खंडित होने की आशंका है। वास्तव में यह भी एक प्रकार का राष्ट्रद्रोह है।
हम लोग भारत की भाषायी स्थिति से या तो परिचित नहीं हैं या हम जानबूझकर इसकी अवहेलना कर रहे हैं। हमें इस बारे में सतर्क और सचेत होना है। मैं यहाँ पहले भारत की भाषायी स्थिति पर और उसमें हिन्दी की विशिष्टता और उसकी बोलियों पर संक्षेप में अपनी बात भाषावैज्ञानिक दृष्टि से करूंगा ताकि यह स्पष्ट हो सके कि संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाएँ पहले ही अधिक हैं तथा अन्य बोलियों को सम्मिलित करने से हमारी राजभाषा और राष्ट्रभाषा हिन्दी की व्यापकता और श्रेष्ठता पर कितना आघात पहुंचेगा।
भारत एक बहुभाषी देश है लेकिन ये सभी भाषाएँ एक कड़ी में पिरोई हुई हैं और इन में ‘परस्पर सातत्य‘ है, टूटन नहीं। इसी प्रकार हर भाषा की बोलियों में भी यही स्थिति मिलती है। हिन्दी भाषी क्षेत्र में मैथिली से ले कर खड़ीबोली, राजस्थानी, ब्रज, अवधी, पहाड़ी आदि तक की बोलियों में भी टूटन नहीं, सातत्य मिलता है। निकट की बोलियों में एक-दूसरे के प्रति बोधगम्यता है जो उन्हें एक ही भाषा के अंतर्गत लाने में सहायक हैं।
भाषाविज्ञान की दृष्टि से भाषा और बोली में कोई अंतर नहीं माना जाता। संरचना के स्तर पर भाषा जहां ध्वनि-संयोजन, शब्द-संपदा,व्याकरणिक व्यवस्था आदि विभिन्न घटकों और उनकी विभिन्न इकाइयों में संबंध स्थापित कर अपना संश्लिष्ट रूप ग्रहण करती है, वहाँ वह विभिन्न सामाजिक स्थितियों से भी संबंध स्थापित करती है। साथ ही, वह विविध प्रयोजनों और संदर्भों में भी प्रयुक्त होती है। इसलिए भाषा और बोली के प्रयोग में तीन निश्चित संदर्भ सामने आते हैं और वे हैं रूपपरक, ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ। रूपपरक दृष्टि से बोली भाषा का क्षेत्रीय-प्रभेदक शैली-रूप है। इसे एक निश्चित शब्द-समूह और व्याकरणिक संरचना द्वारा पहचाना जाता है। भाषा की विविधता जब उसके प्रयोक्ताओं के भौगोलिक क्षेत्र अथवा स्थान का परिणाम होती है तब वह क्षेत्रीय बोली कहलाती है।
ऐतिहासिक दृष्टि से भाषा और बोली का एक ही परिवार होता है। मूल अर्थात स्रोत भाषा को भाषा की संज्ञा दी जाती है और उससे उत्पन्न भाषा को बोली कहते हैं। सुप्रसिद्ध भाषाविज्ञानी सुनीतिकुमार चटर्जी ने इसी दृष्टि से हिन्दी, बंगला, मराठी आदि आधुनिक भाषाओं को संस्कृत की बोलियों के रूप में माना है। इधर जॉर्ज ग्रियर्सन ने पारिवारिक संबंधों के आधार पर हिन्दी क्षेत्रों को दो उपवर्गों में विभाजित किया - शौरसेनी अपभ्रंश से व्युत्पन्न पश्चिमी हिन्दी और अर्धमागधी अपभ्रंश से उद्भूत पूर्वी हिन्दी। इसी प्रकार पश्चिमी हिन्दी उपवर्ग की खड़ीबोली, हरियाणवी,ब्रज, बुंदेली, कनौजी पाँच बोलियाँ हैं और पूर्वी हिन्दी की अवधी, बघेली और छतीसगढ़ी तीन बोलियाँ हैं। ग्रियर्सन ने बिहारी, राजस्थानी और पहाड़ी को हिन्दी से अलग रखा। बिहारी उपभाषा की भोजपुरी, मगही और मैथिली बोलियाँ हैं, राजस्थानी उपभाषा की मारवाड़ी, मालवी, ढूंढारी और मेवाती बोलियाँ हैं जबकि पहाड़ी की पूर्वी पहाड़ी (नेपाली), मध्यवर्ती पहाड़ी ( गढ़वाली, कुमाँयूनी) और पश्चिमी पहाड़ी (हिमाचली) बोलियाँ हैं। ग्रियर्सन का यह वर्गीकरण भ्रामक और अवैज्ञानिक है। वास्तव में ग्रियर्सन ने ऐतिहासिक दृष्टि से व्याकरणिक समानता को देखा और उसके कारण परस्पर बोधगम्यता तथा साहित्य और संस्कृति के आधार पर उनकी जातीय अस्मिता को ध्यान में रखा, किंतु उन्होंने भाषा और बोली के विभेदक लक्षणों की ओर ध्यान नहीं दिया। बंगला और असमिया में व्याकरणिक समानता और परस्पर बोधगम्यता के कारण काफी निकटता मिलती है, किंतु जातीय अस्मिता और जातीय बोध के कारण उनमें भिन्नता मिलती है। बिहारी और हिन्दी को व्याकरणिक समानता और परस्पर बोधगम्यता का यह विभाजन मानदंड स्वीकार्य नहीं हो पाया, क्योंकि इस मानदंड से हिन्दी और पंजाबी, पंजाबी और हिमाचली तथा असमिया और बंगला एक ही भाषा की दो बोली होतीं। यही स्थिति तमिल और मलयालम तथा बंगला और उड़िया पर भी लागू होती है। इसके अतिरिक्त हिन्दी, बंगला और मैथिली का यह विवाद भी नहीं उठता कि मैथिली हिन्दी की बोली है या बंगला की। हिन्दी तथा बिहारी, राजस्थानी और पहाड़ी भाषाओं में जातीय अस्मिता के साथ-साथ व्याकरणिक समानता और बोधगम्यता काफी हद तक मिल जाती है। इस लिए बिहारी, राजस्थानी,पहाड़ी आदि भाषाओं को हिन्दी से अलग भाषा नहीं माना जा सकता। ग्रियर्सन का इनको हिन्दी से अलग रखना उसके अपने मानदंड के विरोध में जा पड़ता है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि बिहारी, राजस्थानी, पहाड़ी कई बोलियों का समुच्चय या उपवर्ग है। बिहारी में भोजपुरी, मैथिली और मगही बोलियाँ हैं, राजस्थानी में ढूंढारी, मेवाती, मालवी और मेवाड़ी हैं, पहाड़ी में गढ़वाली, कुमायूनी और हिमाचली आते है। पहाड़ी उपवर्ग की हिमाचली भी काँगड़ी, माड़ियाली, चंबयाली, कूलवी, सिरमौरी, क्योथली, बघाटी आदि बोलियों या उपबोलियों का समुच्चय है। इन उपवर्गों को कुछ विद्वानों ने उपभाषा का नाम दिया है जो अपने-आप में गलत है। कुछ लोगों ने हिन्दी भाषा को भी बोलियों का एक समुच्चय माना है,लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम कि यह समुच्चय राजस्थानी और हिमाचली आदि जैसा नहीं है। यह समुच्चय एक ऐसी कुठाली (मेल्टिंग पॉट) की तरह है जिसमें सभी बोलियाँ और अन्य भाषाएँ इस प्रकार घुलमिल गई हैं कि इसकी अपनी सत्ता है और अपना स्वरूप और अस्तित्व है। यद्यपि हिन्दी अपनी आधारभूमि खड़ीबोली का मानक रूप है तो इस मानक रूप के विकास में खड़ीबोली की बोलीगत विशेषताएँ लुप्त हो गई हैं और यह हिन्दी खड़ीबोली से उतनी ही अलग जा पड़ी है जितनी वह भोजपुरी, अवधी, राजस्थानी, ब्रज, छतीसगढ़ी आदि बोलियों से। हाँ, हिन्दी के विकास और संवर्धन में इन बोलियों और अन्य भाषाओं के योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
समाज भाषाविज्ञान की दृष्टि से हिन्दी एक ओर किसी विशाल समुदाय की जातीय अस्मिता का प्रतीक बनती है और दूसरी ओर उसका प्रयोग उन छोटे-छोटे समुदायों के परस्पर संपर्क के रूप में होता है जिनकी मातृभाषा या प्रथम भाषा इससे भिन्न होती है। इसमें ध्वनि-संरचना, शब्द-संपदा और व्याकरणिक-व्यवस्था के स्तर पर पाए जाने वाले अंतर के आधार पर भाषा और बोली में भेद नहीं किया जाता। उदाहरण के लिए,भोजपुरीभाषी अपनी पहचान बनाए रखने के लिए अपनी मातृभाषा का नाम बतला देता है किंतु किसी अन्य भाषाभाषी के पूछने पर व्यापक संदर्भ में अपने को ‘हिंदी भाषी‘ कहलाना उपयुक्त समझता है। इस दृष्टि से भाषा और बोली का आधार किसी भाषाभाषी समाज की संप्रेषण व्यवस्था और उसकी जातीय चेतना है। इसकी प्रकृति सांस्थानिक है जो अपने-आप में गतिशील होती है। सामाजिक विकास अथवा परिवर्तन के दौरान उसकी प्रकृति और क्षेत्र में भी परिवर्तन होता रहता है, इसीलिए उस समाज की भाषा कभी ‘भाषा‘ का रूप धारण कर लेती है और कभी ‘बोली‘का। भाषा कभी-कभी अपनी अस्मिता किसी अन्य भाषा के साथ जोड़ देती है और वह उसकी बोली बन जाती है। मध्य काल में ब्रज भाषा साहित्यिक संदर्भ में भाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी, किंतु आज खड़ी बोली हिन्दी की आधार भूमि है और ब्रज भाषा हिन्दी की बोली के स्तर पर आ गई है। यही स्थिति राजस्थानी, अवधी, मैथिली और खड़ीबोली पर भी लागू हो सकती है। वस्तुत: जब कोई बोली साहित्य की श्रेष्ठता और शासन के बल पर अपनी अस्मिता बनाती है तब यह बोली जातीय पुनर्गठन की सामाजिक प्रक्रिया के दौरान सांस्कृतिक पुनर्जागरण, राजनैतिक पुनर्गठन और आर्थिक पुनर्व्यवस्था के कारण अन्य बोलियों की तुलना में अधिक महत्व प्राप्त कर लेती है। यह बोली अपने व्यवहार-क्षेत्र को पार कर अक्षेत्रीय और सार्वदेशिक हो जाती है। इसका प्रयोग क्षेत्र बढ़ जाता है और मानकीकरण की प्रक्रिया में उसमें आंतरिक संसक्ति आने लगती है।
यहाँ यह स्पष्ट करना असमीचीन न होगा कि क्षेत्रीय संदर्भ में भाषा अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत होती है जबकि बोली सीमित। प्रयोजनमूलक क्षेत्र में भाषा बहुमुखी और बहुआयामी होती है जबकि बोली अपेक्षाकृत सीमित प्रयोजनों में प्रयुक्त होती है। भाषा का प्रयोग लिखित साहित्य,शिक्षा, प्रशासन आदि विभिन्न व्यवहार-क्षेत्रों में अधिक होता है जबकि बोली का कम। भाषा का प्रयोग सर्जनात्मक साहित्य में प्राय: मिलता है जबकि बोली में लोक साहित्य की रचना अपेक्षाकृत अधिक होती है। भाषा अपेक्षाकृत अधिक मानक और आधुनिक होती है जबकि बोली में सापेक्षतया अधिक विकल्प मिलते हैं। भाषा का प्रयोग प्राय: औपचारिक संदर्भों में होता है जबकि बोली का सामान्यत: अनौपचारिक संदर्भों में होता है। इसीलिए भाषा विभिन्न बोलियों में संपर्क भाषा का काम करती है। किंतु इसमें दो राय नहीं कि बोली की भी अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता होती है चाहे वह सीमित रूप में ही क्यों न हो। यही कारण है कि हिन्दी का प्रयोग जनपदीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भों में हो रहा है जबकि राजस्थानी, भोजपुरी, ब्रज, अवधी आदि बोलियाँ अधिकतर जनपदीय संदर्भ में अपनी भूमिका निभा रही हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि आज के भूमंडलीकरण के युग में अंग्रेज़ी और वह भी अमेरिकन अंग्रेज़ी के बाद अन्य भाषाओं की तुलना में हिन्दी आगे है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि विश्व की मुख्य तीन भाषाएँ अंग्रेज़ी, चीनी और हिन्दी मानी गई हैं। कुछ विद्वानो ने तो हिन्दी बोलने वालों की संख्या सबसे अधिक मानी है, लेकिन अब कुछ लोग अपने स्वार्थ के लिए हिन्दी की बोलियों को हिन्दी से अलग करने का प्रयास कर रहे हैं। वे अपनी भाषाओं, जो वस्तुत: बोली ही हैं, को संविधान की अष्टम अनुसूची में लाकर उसे हिन्दी से अलग कर रहे हैं। हमने पहले भी सन 2004 में एक गलती की थी जब हिन्दी की एक बोली मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया जो भाषावैज्ञानिक, शैक्षिक और तार्किक दृष्टि से उचित नहीं था वरन नितांत राजनैतिक दृष्टि से था। कोंकणी और डोगरी को भी संविधान में रखना बिलकुल उचित नहीं था। ये भी एक प्रकार से मराठी और पंजाबी की बोलियाँ हैं। इससे यह नुकसान हुआ कि अब विभिन्न बोलियों के बोलने वाले अपनी बोलियों के लिए बवाल खड़ा कर रहे हैं। यह तो वही बात सिद्ध हो रही है जैसे कुछ सिरफिरे लोग धर्म, जाति, प्रांतीयता, आदि के आधार पर देश को खंडित करने में लगे हुए हैं, उसी प्रकार कुछ लोग भाषा का सहारा ले कर भारत को तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं ताकि उनकी स्वार्थ-सिद्धि हो। उन्हें यह नहीं मालूम कि चीनी भाषा के अंतर्गत मंदारिन, हाका, कैनोनी, ताईवानी आदि अनेक बोलियाँ हैं लेकिन इन सब को चीनी भाषा के रूप में ही स्वीकार किया जाता है।
उर्दू को भी संविधान में शामिल करने में कोई औचित्य नहीं था। यह भी हिन्दी की एक शैली है। हिन्दी की तीन मुख्य शैलियाँ हैं – संस्कृतनिष्ठ शैली, अरबी-फारसी मिश्रित शैली अर्थात उर्दू और सामान्य बोलचाल की शैली अर्थात हिंदुस्तानी। भाषाविज्ञान की दृष्टि से इसे भाषात्रय (ट्राईग्लासिया) कहते हैं। अब एक और चौथी शैली का उद्भव हो रहा है अंग्रेज़ी मिश्रित शैली अर्थात हिंगलिश। उर्दू को हिन्दी से अलग कर हिन्दी की शक्ति को आघात पहुंचाया गया है। इसी कारण कुछ विद्वान उर्दू को हिन्दी से अलग मानते हैं। उनका मत है कि उर्दू प्रारंभ से ही संविधान में उल्लिखित अलग भाषा है और उसके तत्कालीन राजनैतिक कारण थे। चलिए, हम यह तर्क तो स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन आज की स्थिति में यह तर्क कारगर नहीं होगा जिसके के आधार पर अगर हिन्दी की बोलियाँ या शैलियाँ बोलने वाले लोगों को हिन्दी से अलग किया जाए तो हम समझ सकते हैं कि हिन्दी की स्थिति क्या रहेगी? भारत की जनगणना 2001 के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या 1,02,86,10,328 थी जिनमें हिन्दी को मातृभाषा या प्रथम भाषा बोलने वालों की संख्या 42,20,48,642 थी जो भारत की कुल जनसंख्या का 41.03 प्रतिशत है । उर्दू बोलने वालों की संख्या 5,15,36,111 थी जो कुल जनसंख्या का 5.01 है। इसी प्रकार मैथिली बोलने वालों की संख्या 1,21,79,122 थी जो कुल जनसंख्या का 1.18 है। यदि इन सब को जोड़ दिया जाए तो हिन्दी बोलने वालों की संख्या 47.22 होती है। द्वितीय और विदेशी भाषा के रूप में भी हिन्दी बोलने वालों की संख्या देश-विदेश में बहुत अधिक है। मैथिली की तरह अगर अन्य बोलियों की संख्या को भी घटा दिया गया तो हिन्दी के राजभाषा के दर्जे पर भी सवाल उठ सकता है। यही नहीं संविधान में इतनी भाषाएँ आ जाएंगी तो देश पर कितना आर्थिक बोझ पड़ जाएगा, स्तरीय साहित्य में कमी आएगी, भाषायी विवाद बढ़ेगा, लेखकों तथा साहित्यकारों में पुरस्कारों की होड़ लग जाएगी, आदि अनेक समस्याएँ खड़ी हो जाएँगी।
सभी हिन्दी लेखकों, साहित्यकारों, विद्वानों, भाषाविदों, अध्यापकों, विद्यार्थियों से हमारी अपील है कि वे इस मुद्दे के विरोध में बुलंद आवाज़ उठाएँ। संविधान कि आठवीं अनसूची में कुच्छ बोलियों को शामिल करने के मुद्दे को बार-बार उठाया जाता है और भारत सरकार के राजभाषा विभाग में समय-समय पर संविधान की आठवीं अनुसूची में अपनी-अपनी बोलियों और भाषाओं को शामिल करने के बारे में प्रस्ताव भेजे जाते हैं तथा दबाव डाला जाता है। यह नितांत अनुचित, राष्ट्र-विरोधी और आपाराधिक है, इसे बंद कराया जाए। वैश्विक हिन्दी सम्मेलन के संयोजन में इस पर एक विस्तृत बहस हो ताकि ऐसे मामलों को हतोत्साहित किया जाए ताकि हमारे भारत की अखंडता पर ऐसे स्वार्थी लोगों की कुदृष्टि न पड़े।
प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी
महासचिव और निदेशक, विश्व नागरी विज्ञान संस्थान,
1764, औट्रम लाइन्स, डॉ. मुखर्जी नगर (किंग्ज़्वे कैंप), दिल्ली – 110009
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डॉ. एम.एल गुप्ता 'आदित्य'
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
वेबसाइट- वैश्विकहिंदी.भारत / www.vhindi.in
वैश्विक हिंदी सम्मेलन की वैबसाइट -www.vhindi.in
'वैश्विक हिंदी सम्मेलन' फेसबुक समूह का पता-https://www.facebook.com/groups/mumbaihindisammelan/
संपर्क - vaishwikhindisammelan@gmail.com
प्रस्तुत कर्ता: संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)
संपर्क - murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
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