मंगलवार, 31 अगस्त 2010
साहित्य की अनुपम दीपशिखा : अमृता प्रीतम
(आज अमृता प्रीतम जी की जयंती (31 अगस्त) है। अमृता प्रीतम मेरी मनपसंदीदा लेखिकाओं में से हैं. उन पर मेरा एक लेख आज ब्लागोत्सव 2010 में रविन्द्र प्रभात जी द्वारा प्रकाशित है. रविन्द्र जी का आभार. इस आलेख को यहाँ भी आप लोगों हेतु प्रस्तुत कर रहा हूँ।)
वह दिसम्बर की कड़कड़ाती सर्दियों की रात थी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उस समय मैं बी0ए0 कर रहा था कि अचानक दिल्ली से आए मेरे एक मित्र कमरे पर पधारे। छोटा सा कमरा और एक ही बेड...... सो संकोचवश मैंने मित्र से कहा कि आप आराम से सो जाइये, क्योंकि मेरी रात को पढ़ने की आदत है। कुछ ही देर में वे खर्राटे लेते नजर आये और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा सोच रहा था कि, आखिर रात कैसे गुजारूं क्योंकि रात में पढ़ने का तो एक बहाना मात्र था। इसी उधेड़बुन में मेरी निगाह मित्र के बैग से झांकती एक किताब पर पड़ी तो मंैने उसे बाहर निकाल लिया और यह किताब थी- अमृता प्रीतम का आत्मकथ्यात्मक उपन्यास ‘रसीदी टिकट’। ‘रसीदी टिकट’ को पढ़ते हुए कब आँखों ही आँखों में रात गुजर गयी, पता ही नहीं चला। ईमानदारी के साथ स्वीकारोक्ति करूं तो फिर ‘रसीदी टिकट’ मेरी सहचरी बन गयी। तब से आज तक के सफर में जिंदगी न जाने कहाँ से कहाँ पहुँच गयी, पर ‘रसीदी टिकट’ अभी भी मेरी अमानत में सुरक्षित है।
अमावस पूर्व 31 अक्टूबर, 2005 की शाम ..... पटाखों के शोर के बीच अचानक टेलीविजन पर खबर देखी कि- अमृता प्रीतम नहीं रहीं। ऐसा लगा कोई अपना नजदीकी बिछुड़ गया हो। दूसरे कमरे में जाकर देखा तो मानो ‘रसीदी टिकट’ को भी अमृता जी के न रहने का आभास हो गया हो.... स्याह, उदास व गमगीन उस ‘रसीदी टिकट’ पर कब आँसू की एक बूंद गिरी, पता ही नहीं चला। ऐसा लगा मानो हम दोनों ही एक दूसरे को ढांढस बंधाने की कोशिश कर रहे हों।
1919 का दौर..... गाँधीजी के नेतृत्व में इस देश ने अंग्रेजी के दमनकारी रौलेट एक्ट का विरोध आरम्भ कर दिया था। ब्रिटिश सरकार की चूलें हिलती नजर आ रही थीं। इसी दौर में उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द ने, जो कि उस समय गोरखपुर में एक स्कूल में अध्यापक थे, एक अंग्रेज स्कूल इंस्पेक्टर को अपने घर के सामने सलाम करने से मना कर दिया। उनका तर्क था- “मैं जब स्कूल में रहता हूँ तब मैं नौकर हूँ बाद में अपने घर का बादशाह हूँ” ऐसे ही क्रांतिकारी दिनों में पंजाब के गुजराँवाला (अब पाकिस्तान में) में 31 अगस्त 1919 को अमृता प्रीतम का जन्म हुआ था। मात्र 11 वर्ष की अल्पायु में, जबकि उन्होंने दुनिया को अपनी नजरों से समझा भी नहीं था माँ का देहावसान हो गया। कड़क स्वभाव के लेखक पिता के सान्निध्य में अमृता का बचपन लाहौर में बीता और शिक्षा -दीक्षा भी वहीं हुयी। लेखन के प्रति तो उनका आकर्षण बचपन से ही था पर माँ की असमय मौत ने इसमें और भी धार ला दी। अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में उन्होंने माँ के अभाव को जिया है- “सोलहवां साल आया-एक अजनबी की तरह। घर में पिताजी के सिवाय कोई नहीं था- वह भी लेखक जो सारी रात जागते थे, लिखते थे और सारे दिन सोते थे। माँ जीवित होतीं तो शायद सोलहवां साल और तरह से आता- परिचितों की तरह, सहेलियों-दोस्तों की तरह, सगे-संबंधियों की तरह, पर माँ की गैरहाजिरी के कारण जिंदगी में से बहुत कुछ गैरहाजिर हो गया था। आस-पास के अच्छे-बुरे प्रभावों से बचाने के लिए पिताजी को इसी में सुरक्षा समझ में आई कि मेरा कोई परिचित न हो। न स्कूल की कोई लड़की, न पड़ोस का कोई लड़का।”
अमृता जी की प्रथम कविता इंडिया किरण में छपी तो प्रथम कहानी 1943 में कुंजियाँ में। मोहन सिंह द्वारा प्रकाशित पत्रिका पंज दरया ने अमृता की प्रारम्भिक पहचान बनाई। सन~ 1936 में अमृता की प्रथम किताब छपी। इससे प्रभावित होकर महाराजा कपूरथला ने बुजुर्गाना प्यार देते हुए दो सौ रूपये भेजे तो महारानी ने प्रेमवश पार्सल से एक साड़ी भिजवायी। इस बीच जीवन यापन हेतु 1937 में उन्होंने लाहौर रेडियो ज्वाइन कर लिया। जब देश आजाद हुआ तो उनकी उमz मात्र 28 वर्ष थी। वक्त के हाथों मजबूर हो वो उस पार से इस पार आयी और देहरादून में पनाह ली। इस बीच 1948 में वे उद्घोषिका रूप में आल इण्डिया रेडियो से जुड़ गयीं। पर विभाजन के जिस दर्द को अमृता जी ने इतने करीब से देखा था, उसकी टीस सदैव स्मृति पटल पर बनी रही और रचनाओं में भी प्रतिबिम्बित हुयी। बँटवारे पर उन्होंने लिखा- “पुराने इतिहास के भीषण अत्याचारी काण्ड हम लोगों ने भले ही पढ़े हुये थे, पर फिर तब भी हमारे देश के बंटवारे के समय जो कुछ हुआ, किसी की कल्पना में भी उस जैसा खूनी काण्ड नहीं आ सकता.... मैने लाशें देखी थीं लाशें जैसे लोग देखे थे।” बँटवारे की टीस और क्रंदन को वे कभी भी भुला नहीं पायीं। जिस प्रकार प्रणय-क्रीड़ा में रत क्रौंच पक्षी को व्याध द्वारा बाण से बींधने पर कौंची के करूण शब्द सुन विचलित वाल्मीकि अपने को रोक न पाये थे और बहेलिये को शाप दे दिया था, जो कि भारतीय संस्कृति का आदि “लोक बना, ठीक वैसे ही पंजाब की इस बेटी की आत्मा लाखों बेटियों की क्रंदन सुनकर बार-बार द्रवित होती जाती थी।....... और फिर यूं ही ट्रेन-यात्रा के दौरान उनके जेहन में वारिस भाह की ये पंक्तियाँ गूंज उठीं - भला मोए ते, बिछड़े कौन मेले.....। अमृता को लगा कि वारिस भाह ने तो हीर के दु:ख को गा दिया पर बँटवारे के समय लाखों बेटियों के साथ जो हुआ, उसे कौन गायेगा। फिर उसी रात चलती हुयी ट्रेन में उन्होंने यह कविता लिखी- "अज्ज आख्यां वारिस भाह नूँ, किते कबरां बिच्चों बोलते अज्ज किताबे-इश्क दा कोई अगला वरका खोल।इक रोई-सी धी पंजाब दी, तूं लिख-लिख मारे बैनअज्ज लक्खां धीयां रोंदियां, तैनूं वारिस भाह नूं कहन।"
यह कविता जब छपी तो पाकिस्तान में भी पढ़ी गयी। उस दौर में इसका इतना मार्मिक असर पड़ा कि लोग इस कविता को अपनी जेबों में रखकर चलते और एकांत मिलते ही निकालकर पढ़ते व रोते.......मानो यह उन पर गुजरी दास्तां को सहलाकर उन्हें हल्का करने की कोशिश करती। विभाजन के दर्द पर उन्होनें ‘पिंजर’ नामक एक उपन्यास भी लिखा, जिस पर कालान्तर में फिल्म बनी।
अमृता प्रीतम ने करीब 100 रचनायें रचीं, जिनमें कविता, कहानी, उपन्यास, यात्रा संस्मरण और आत्मकथा शामिल है ।उनकी रचनाओं में पाँच बरस लम्बी सड़क, उन्चास दिन, कोरे कागज, सागर और सीपियाँ , रंग का पत्ता, अदालत, डॉक्टर देव, दिल्ली की गलियाँ, हरदत्त का जिन्दगीनामा, पिंजर (उपन्यास), कहानियाँ जो कहानियाँ नहीं हैं, कहानियों के आँगन में, एक शहर की मौत, अंतिम पत्र, दो खिड़कियाँ, लाल मिर्च (कहानी संग्रह ), कागज और कैनवस, धूप का टुकड़ा, सुनहरे (कविता संग्रह ), एक थी सारा, कच्चा आँगन (संस्मरण), रसीदी टिकट, अक्षरों के साये में, दस्तावेज (आत्मकथा) प्रमुख हैं। अन्य रचनाओं में एक सवाल, एक थी अनीता, एरियल, आक के पत्ते,यह सच है, एक लड़की: एक जाम, तेरहवां सूरज, नागमणि, न राधा-न रूक्मिणी, खामोशी के आँचल में, रात भारी है, जलते-बुझते लोग, यह कलम-यह कागज-यह अक्षर, लाल धागे का रिश्ता इत्यादि प्रमुख हैं। उन्होंने पंजाबी कविता की अन्तराष्ट्रीय स्तर पर एक अलग पहचान कायम की पर इसके बावजूद वे पंजाबी से ज्यादा हिन्दी की लेखिका रूप में जानी जाती थीं। यहाँ तक कि विदेशों में भी उनकी रचनायें उतने ही मनोयोग से पढ़ी जाती थीं। एक समय में तो राजकपूर की फिल्में देखना और अमृता प्रीतम की कवितायें पढ़ना सोवियत संघ के लोगों का शगल बन गया था। अमृता जी की रचनाओं में साझी संस्कृति की विरासत को आगे बढ़ाने और समृद्ध करने का पुट शामिल था। सन~ 1957 में साहित्य अकादमी पुरस्कार ('सुनहरे’ कविता संकलन पर) पाने वाली वह प्रथम महिला रचनाकार बनीं तो 1958 में उन्हें पंजाब सरकार ने पंजाब अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया। 1982 में ‘कागज के केनवास’ के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया तो पद्मश्री और पद्मविभूषण जैसे सम्मान भी उनके आँचल में आए। 1973 में दिल्ली विश्वविद्यालय ने अमृता को डी0 लिट की आनरेरी डिग्री दी तो पिंजर उपन्यास के फ्रेंच अनुवाद को फ्रांस का सर्वश्रे’ठ साहित्य सम्मान भी प्राप्त हुआ। 1975 में अमृता के लिखे उपन्यास ‘धरती सागर और सीपियाँ’ पर कादम्बरी फिल्म बनी और कालान्तर में उनके उपन्यास ‘पिंजर’ पर चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने एक फिल्म का निर्माण किया। पचास के दशक में नागार्जुन ने अमृता की कई पंजाबी कविताओं के हिन्दी अनुवाद किए। अमृता प्रीतम राज्यसभा की भी सदस्य रहीं। विभाजन ने पंजाबी संस्कृति को बाँटने की जो कोशिश की थी, वे उसके खिलाफ सदैव संघर्ष करती रहीं और उसे कभी भी विभाजित नहीं होने दिया। पंजाबी साहित्य को समृद्ध करने हेतु वे ‘नागमणि’ नामक एक साहित्यिक मासिक पत्रिका भी निकालती थीं।
आज स्त्री विमर्श , महिला सशक्तिकरण , नारी स्वातंत्रय और लिव-इन-रिलेशनशिप जैसी जिन बातों को नारे बनाकर उछाला जा रहा है, अमृता जी की रचनाओं में वे काफी पहले ही स्थान पा चुकी थीं। शायद भारतीय भाषाओं में वह प्रथम ऐसी जनप्रिय लेखिका थीं, जिन्होंने पिंजरे में कैद छटपटाहट की कलात्मक अभिव्यक्तियों को मुखर किया। ज्वलंत मुद्दों पर जबरदस्त पकड़ के साथ-साथ उनके लेखन में विद्रोह का भी स्वर था। उन्होंने परम्पराओं को जिया तो दकियानूसी से उन्हें निजात भी दिलायी। आधुनिकता उनके लिए फैशन नहीं जरूरत थी। यही कारण था कि वे समय से पूर्व ही आधुनिक समाज को रच पायीं। ऐसा नहीं है कि इन सबके पीछे मात्र लिखने का जुनून था वरन~ बँटवारे के दर्द के साथ-साथ अपने व्यक्तिगत जीवन की रूसवाइयों और तन्हाइयों को भी अमृता जी ने इन रचनाओं में जिया। ‘अमृता प्रीतम’ शीर्षक से लिखी एक कविता में उन्होंने अपने दर्द को यूं उकेरा- एक दर्द था जो सिगरेट की तरह मैंने चुपचाप पिया है सिर्फ कुछ नज्में हैं - जो सिगरेट से मैंने राख की तरह झाड़ी हैं। कभी-कभी तो उनकी रचनाओं को पढ़कर समझ में ही नहीं आता कि वे किसी पात्र को जी रही हैं या खुद को। उन्होंने खुद के बहाने औरत को जिया और उसे परिवर्तित भी किया। ठेठ पंजाबियत के साथ रोमांटिसिज्म का नया मुहावरा गढ़कर दर्द को भी दिलचस्प बना देने वाली अमृता कहीं न कहीं सूफी कवियों की कतार में खड़ी नजर आती हैं। उनकी रचना ‘दिल्ली की गलियाँ’ में जब कामिनी नासिर की पेंटिग देखने जाती है तो कहती है- “तुमने वूमेन विद फ्लॉवर , वूमेन विद ब्यूटी या वूमेन विद मिरर को तो बड़ी खूबसूरती से बनाया पर वूमेन विद माइंड बनाने से क्यों रह गए।निश्चितत: यह वाक्य पुरुष वर्ग की उस मानसिकता को दर्शाता है जो नारी को सिर्फ भावों का पुंज समझता है, एक समग्र व्यक्तित्व नहीं। सिमोन डी बुआ ने भी अपनी पुस्तक ‘सेकेण्ड सेक्स’ में इसी प्रश्न को उठाया है। ‘लिव-इन-रिलेशनशिप एक ऐसा मुद्दा है जिस पर अमृता जी ने समय से काफी पहले ही लेखनी चलायी थी। अपनी रचना ‘नागमणि’ में अलका व कुमार के बहाने उन्होंने खुद को ही जिया है, जो बिना विवाह के एक अनजान गाँव में साथ रहते हैं और वह भी बिना किसी अतिरिक्त हक व अपराध-बोध के। स्वयं अमृता जी का जीवन भी ऐसी ही दास्तां थी। वे प्रेम के मर्म को जीना चाहती थीं, उसके बाहरी रूप को नहीं। इसीलिए तमाम आलोचनाओं की परवाह किए बिना उन्होंने अपने परम्परागत पति प्रीतम सिंह को तिलांजलि देकर चित्रकार इमरोज (असली नाम इन्द्रजीत ) को अपना हमसफर बनाया और आलोचनाओं का जवाब अपने लेखन को और भी धारदार बनाके दिया। नतीजन, भारत ही नहीं विश्व स्तर पर उनकी रचनाओं की मांग बढ़ने लगी।
विवाद और अवसाद अमृता के साथ बचपन से ही जुड़े रहे। माँ की असमय मौत ने उनके जीवन को अंदर तक झकझोर दिया था। इस घटना ने उनका इश्वर पर से विश्वास उठा दिया। जिन्दगी के अवसादों के बीच जूझते हुए उन्होंने कई महीनों तक मनोवैज्ञानिक इलाज भी कराया। डॉक्टर के ही कहने पर उन्होंने अपनी परेशानियों और सपनों को कागज पर उकेरना आरम्भ किया। इस बीच अमृता ने फोटोग्राफी , नृत्य, सितार वादन, टेनिस....... न जाने कितने शौकों को अपना राहगीर बनाया। उनका विवाह लाहौर के अनारकली बाजार में एक बड़ी दुकान के मालिक सरदार प्रीतम सिंह से हुआ पर वो भी बहुत दिन तक नहीं निभ सका। इस बीच शमा पत्रिका हेतु उनके उपन्यास डा0देव के इलेष्ट्रेशन बना रहे चित्रकार इमरोज से 1957 में मुलाकात हुयी और 1960 से वे साथ रहने लगे। इमरोज के बारे में अमृता ने लिखा कि- “मंैने अपने सपने को कभी उसके साथ जोड़कर नहीं देखा था, लेकिन यह एक हकीकत है कि उससे मिलने के बाद फिर कभी मैंने सपना नहीं देखा।” अपने उपन्यास ‘दिल्ली की गलियाँ’ में नासिर के रूप मेंं उन्होंने इमरोज को ही जिया था। अगर इमरोज के साथ उनका सम्बंध विवादों में रहा तो ‘हरदत्त का जिन्दगी नामा’ नाम के कारण ‘जिन्दगीनामा’ की लेखिका कृ’णा सोबती ने उनके विरूद्ध अदालत का दरवाजा भी खटखटाया। अपने अन्तिम दिनों में अमृता अतिशय आध्यात्मिकता, ओ”ाो प्रेम, मिस्टिसिज्म का शिकार हो गई थीं पर अन्तिम समय तक वे आशावान और उर्जावान बनी रहीं। अपने अन्तिम दिनों में उन्होंने इमरोज को समर्पित एक कविता ‘फिर मिलूंगी’ लिखी-
"तुम्हें फिर मिलूंगी
कहाँ? किस तरह? पता नहीं।
शायद तुम्हारी कल्पनाओं का चित्र बनकर
तुम्हारे कैनवस पर उतरूंगी
सर फिर तुम्हारे कैनवस के ऊपर
एक रहस्यमयी लकीर बनकर
खामोश तुम्हें ताकती रहूँगी।"
ऐसा था अमृता जी का जीवन...... एक ही साथ वे मानवतावादी, अस्तित्ववादी, स्त्रीवादी और आधुनिकतावादी थीं। जब विभाजन के दर्द को वे जीती हैं तो मानवतावादी, जब तमाम दुख-दर्दों और आलोचनाओं से परे स्वत:स्फूर्त वे स्व में से उद~भूत होती हैं तो अस्तित्ववादी, जब पुरुष की दकियानूसी मानसिकता पर चोट कर उसे स्त्री को समग्र व्यक्तित्व रूप में अपनाने की बात कहती हैं तो स्त्रीवादी एवं जब समय से आगे परम्पराओं के विपरीत अपने हमसफर को बिना किसी बंधन के समाज में स्वीकारती हैं तो आधुनिकतावादी रूप में उनका व्यक्तित्व सामने आता है। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा कि- “मरी हुयी मिटटी के पास, किसी जमाने में, लोग पानी के घड़े या सोने-चाँदी की वस्तुएं रखा करते थे। ऐसी किसी आव”यकता में मेरी कोई आस्था नहीं है-पर हर चीज के पीछे आस्था का होना आव”यक नहीं होता, चाहती हूँ इमरोज मेरी मिटटी के पास मेरा कलम रख दे।’’ पर किसे पता था कि साहित्य की यह अनुपम दीपशिखा एक दिन दीपावली की पूर्व संध्या पर अंधेरे में गुम हो जाएगी और छोड़ जाएगी एक अलौकिक शमां , जिसकी रोशनी में आने वाली पीढियां दैदीप्यमान होती रहेंगीं।
प्रस्तुत कर्त्ता : संपत देवी मुरारका
कहाँ? किस तरह? पता नहीं।
शायद तुम्हारी कल्पनाओं का चित्र बनकर
तुम्हारे कैनवस पर उतरूंगी
सर फिर तुम्हारे कैनवस के ऊपर
एक रहस्यमयी लकीर बनकर
खामोश तुम्हें ताकती रहूँगी।"
ऐसा था अमृता जी का जीवन...... एक ही साथ वे मानवतावादी, अस्तित्ववादी, स्त्रीवादी और आधुनिकतावादी थीं। जब विभाजन के दर्द को वे जीती हैं तो मानवतावादी, जब तमाम दुख-दर्दों और आलोचनाओं से परे स्वत:स्फूर्त वे स्व में से उद~भूत होती हैं तो अस्तित्ववादी, जब पुरुष की दकियानूसी मानसिकता पर चोट कर उसे स्त्री को समग्र व्यक्तित्व रूप में अपनाने की बात कहती हैं तो स्त्रीवादी एवं जब समय से आगे परम्पराओं के विपरीत अपने हमसफर को बिना किसी बंधन के समाज में स्वीकारती हैं तो आधुनिकतावादी रूप में उनका व्यक्तित्व सामने आता है। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा कि- “मरी हुयी मिटटी के पास, किसी जमाने में, लोग पानी के घड़े या सोने-चाँदी की वस्तुएं रखा करते थे। ऐसी किसी आव”यकता में मेरी कोई आस्था नहीं है-पर हर चीज के पीछे आस्था का होना आव”यक नहीं होता, चाहती हूँ इमरोज मेरी मिटटी के पास मेरा कलम रख दे।’’ पर किसे पता था कि साहित्य की यह अनुपम दीपशिखा एक दिन दीपावली की पूर्व संध्या पर अंधेरे में गुम हो जाएगी और छोड़ जाएगी एक अलौकिक शमां , जिसकी रोशनी में आने वाली पीढियां दैदीप्यमान होती रहेंगीं।
प्रस्तुत कर्त्ता : संपत देवी मुरारका
संपत देवी मुरारका
अध्यक्षा, विश्व वात्सल्य
मंच
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
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