शिक्षा नीति के संबंध में लिखे गए पत्र
प्रस्तावित राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर सुझाव/आपत्ति भेजने के लिए ई-मेल: nep.edu@gov.in
सेवा मेंमाननीय श्री प्रकाश जावड़ेकर जीमानव संसाधन विकास मंत्रीभारत सरकार--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
माननीय महोदय,
नई शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं व संस्कृति आदि से संबंधित सुझाव विचारार्थ सादर प्रस्तुत हैं।
संघ की राजभाषा हिंदी व राज्यों की भाषाओं का शिक्षण : -
1. भारत के संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार हिंदी संघ की राजभाषा है और अनुच्छेद 351 में यह निदेश है कि संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके ।
2. संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित राजभाषा संकल्प – 1968 में भी संसद द्वारा यही संकल्प व्यक्त किया गया है - “जबकि संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार संघ की राजभाषा हिंदी रहेगी और उसके अनुच्छेद 351 के अनुसार हिंदी भाषा का प्रसार, वृद्धि करना और उसका विकास करना ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम हो सके, संघ का कर्तव्य है ।“
इसलिए भारत के संविधान के निदेशानुसार एवं संसद द्वारा पारित संकल्प की पूर्ति के लिए हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाने और हिंदी को भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने के लिए यह आवश्यक है कि भारत संघ के सभी भागों में विद्यार्थियों को प्राथमिक स्तर से दसवीं तक निजी
व सरकारी सभी स्कूलों में एक विषय के रूप में हिंदी भाषा अनिवार्य रूप से पढ़ाई जाए। भारत की एकता- अखंडता व राष्ट्रीय संपर्क भाषा के रूप में सुदृढ़ करने के लिए भी यह आवश्यक है।
3. संविधान के अनुच्छेद - 345 में राज्यों के विधान-मंडलों द्वारा विधि द्वारा, उस राज्य में प्रयोग होने वाली भाषाओं में से किसी एक या अधिक भाषाओं को या हिंदी को उस राज्य के सभी या किन्हीं शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा या भाषाओं के रूप में अंगीकार करने का उपबंध है। संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित राजभाषा संकल्प – 1968 खंड 2 में कहा गया है कि –‘जबकि संविधान की आठवीं अनुसूची में हिंदी के अतिरिक्त भारत की 21 मुख्य भाषाओं का उल्लेख किया गया है, और देश की शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक उन्नति के लिए यह आवश्यक है कि इन भाषाओं के पूर्ण विकास हेतु सामूहिक उपाए किए जाने चाहिए ।‘ अत: जनता को जनतांत्रिक अधिकारों तथा राज्य की सांस्कृतिक विरासत के विकास व संरक्षण के लिए भी राज्य की भाषा अथवा भाषाओं का शिक्षण आवश्यक है।
4. चूंकि संस्कृत भारत की अधिकांश भाषाओं की जननी है और तमाम भारतीय भाषाओं के बीच अटूट संबंध स्थापित करती है । संस्कृत में भारत के प्राचीन ज्ञान-विज्ञान, आध्यात्म व साहित्य सहित महान वाड्मय निहित है। संस्कृत भारतीय सांस्कृतिक विरासत का मूल आधार भी है इसलिए स्कूल/कॉलेजों में संघ व राज्य की राजभाषा के अतिरिक्त संस्कृत शिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए। उल्लेखनीय है कि संस्कृत में उपलब्ध उच्च स्तरीय दुर्लभ ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धता के चलते विकसित देशों सहित अनेक विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ाई जाती है। लेकिन भारत में ही संस्कृत शिक्षा को समुचित महत्व न मिलने से भारत इस ज्ञान का समुचित लाभ नहीं उठा सका।
5. राजभाषा संकल्प – 1968 खंड 3 में देश के विभिन्न भागों में जनता में संचार की सुविधा हेतु यह आवश्यक माना गया है कि भारत सरकार द्वारा राज्य सरकारों के परामर्श से तैयार किए गए त्रि-भाषा सूत्र को सभी राज्यों में कार्यान्वित करने के लिए प्रभावी उपाय करने को कहा गया है जिसमें हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी तथा अंग्रेजी के अतिरिक्त एक आधुनिक भारतीय भाषा के, दक्षिण भारत की भाषाओं में से किसी एक को तरजीह देते हुए, और अहिंदी भाषी क्षेत्रों में प्रादेशिक भाषाओं एवं अंग्रेजी के साथ साथ हिंदी के अध्ययन के लिए उस सूत्र के अनुसार प्रबन्ध किया जाना चाहिए। हिंदी के साथ-साथ इन सब भाषाओं के समन्वित विकास हेतु भारत सरकार द्वारा राज्य सरकारों के सहयोग से एक कार्यक्रम तैयार किया जाएगा और उसे कार्यान्वित किया जाएगा ताकि वे शीघ्र समृद्ध हों और आधुनिक ज्ञान के संचार का प्रभावी माध्यम बनें । इसलिए विद्यार्थियों के लिए हिंदी व अंग्रेजी के अतिरिक्त राज्य की राजभाषा अनिवार्यत: पढ़ाई जानी चाहिए । भाषा शिक्षण की उक्त व्यवस्था निजी स्कूलों आदि पर भी लागू की जानी चाहिए ।
भारतीय संस्कृति व देश की एकता अखंडता के संदर्भ में भारतीय भाषा शिक्षण : -
6. भाषा और संस्कृति का चोली - दामन का साथ है। भाषा जब आती है तो अपनी संस्कृति साथ ले कर आती है और जब जाती है तो अपनी संस्कृति भी साथ लेती जाती है। अगर पहली कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाई जाए या प्रारंभ से ही अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दी जाए और साथ ही भारतीय संस्कृति के संरक्षण की बात की जाए तो यह विरोधाभासी होगा। भाषा अपने साथ अपनी संस्कृति को भी स्थापित करती है। नर्सरी कक्षा से ही अंग्रेजी को घुट्टी में घोल कर पिलाने से भारतीय भाषा और संस्कृति का निरंतर क्षय हुआ है।भारतीय राष्ट्रीयता का आधार इसकी सामासिक संस्कृति है, जिसकी निरंतरता भारतीय भाषाओं से है। इसलिए संघ व राज्यों की भाषाओं का अनिवार्य शिक्षण देश की एकता अखंडता की दृष्टि से भी आवश्यक है।
7. यह भी सत्य है कि जब तक देश में उच्च शिक्षा, विशेषकर विज्ञान व प्रौद्योगिकी की शिक्षा में तथा रोजगार के तमाम क्षेत्रों में अंग्रेजी का वर्चस्व रहेगा अभिभावकों की प्रारंभ से अंग्रेजी शिक्षा व अंग्रेजी माध्यम की माँग बनी रहेगी इसलिए इन बातों को उच्च-शिक्षा व रोजगार से जोड़ कर ही आगे बढ़ना होगा।
विदेशी भाषा शिक्षण : -
8. देश में पिछले कुछ वर्षों में अनेक स्कूलों में स्कूल स्तर पर संघ की राजभाषा हिंदी या राज्य की भाषा के स्थान पर विदेशी भाषा का विकल्प दिया जाने लगा है। जिसमें अधिक अंक पाने के आकर्षण का समावेश होता है, जबकि स्कूल स्तर पर फ्रेच/जर्मन आदि विदेशी भाषाएँ पढ़ने से न तो उन भाषाओं का विशेष ज्ञान होता है न ही वह किसी काम आता हैं। यह पता लगाया जाना चाहिए कि अब तक स्कूल स्तर पर विदेशी भाषा शिक्षण से कितने प्रतिशत विद्यार्थियों को रोजगार मिला है या अन्य कोई लाभ हुआ है। अत: स्कूल स्तर पर संघ की या राज्य की भाषा के स्थान पर विदेशी भाषा का विकल्प नहीं दिया जाना चाहिए।
9. वे विद्यार्थी जो गंभीरतपूर्वक विदेशी भाषाएं सीखना चाहते हैं उनके लिए देश के सभी विश्वविद्यालयों में विदेशी भाषा विभागों के अतर्गत स्तरीय विदेशी भाषा-शिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए और इसे प्रोत्साहित भी किया जाना चाहिए।
मातृभाषा माध्यम से शिक्षण : -
10. देश-दुनिया के सभी विचारकों व शिक्षाविदों का यह मानना है कि मात़ृभाषा में शिक्षा व्यक्ति के विकास के लिए सर्वश्रेष्ठ है। प्राय: सभी विकसित देशों में शिक्षा का माध्यम उनकी अपनी भाषाएं हैं और इसके विपरीत विदेशी भाषा माध्यम वाले ज्यादातर देश अविकसित या विकासशील श्रेणी में हैं। ज्ञान-विज्ञान में शीर्ष देशों ने भी मातृभाषा के माध्यम से ही विकास का सफर तय किया है। लेकिन भारत में ठीक इसके उलट हुआ है। स्वतंत्रता के पश्चात भी देश में ज्यादातर बच्चे मातृभाषा में ही शिक्षा पाते थे लेकिन उच्च शिक्षा व रोजगार को अंग्रेजी के वर्चस्व के बढ़ने के चलते धारा उलटी बहने लगी। पूरे देश में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की बाढ़ मातृभाषा व राजभाषा माध्यम के स्कूल - कॉलेजों को लीलती जा रही है।
11. भारत सरकार द्वारा विज्ञान-प्रौद्योगिकी सहित विभिन्न क्षेत्रों में नए विचारों नवोन्मेष (Innovation) और नए आविष्कारों पर जोर दिया जा रहा है। यह एक महत्वपूर्ण व सराहनीय कदम है । यहाँ उल्लेखनीय है कि मौलिक चिंतन हमेशा अपनी भाषा में ही होता है ऐसे में अंग्रेजी भाषा माध्यम से शिक्षण के जरिए नवोन्मेष ( Innovation) की अपेक्षा करना संगत प्रतीत नहीं होता। अत: दीर्घकालीन नीति के द्वारा भारतीय भाषाओं के माध्यम से उच्च शिक्षा व रोजगार के रास्ते खोलते हुए राज्य की भाषाओं व संघ की भाषा के माध्यम से शिक्षा की व्यवस्था करना आवश्यक है ।
12. प्राथमिक स्तर पर विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षण बच्चों के विकास व सीखने की स्वभाविक प्रक्रिया को कुंद कर उनंहे नकलची बनाने की ओर प्रवृत्त करता है। ऐसी शिक्षा व्यवस्था से नवोन्मेष ( Innovation) या आविष्कारों की विशेष संभावना नहीं होती। किसी देश के विकास के लिए इससे बड़ी त्रासदी नहीं हो सकती। इसलिए देश में प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा अनिवार्य की जानी चाहिए। यह व्यवस्था सरकारी / निजी अथवा अल्पसंख्यक श्रेणी आदि सभी तरह के स्कूलों पर समान रूप से लागू होनी चाहिए।
अंग्रेजी भाषा - शिक्षण में पाठ्य-सामग्री : -
13. यह देखने में आया है कि नर्सरी स्तर से ले कर सभी स्तरों पर अंग्रेजी भाषा-शिक्षण में पाश्चात्य संस्कृति को परोसा जाता है। कविताओं व गीतो कहानियों व अन्य पाठ्यसामग्री में भारत की ऋतुएं, मौसम, नदियाँ, पहाड़, नृत्य, संगीत, पर्व, परंपराएँ, इतिहास, पौराणिक गाथाएँ, संत और महापुरुष न हो कर पाश्चात्य देशों के होते हैं। पाठ्य-सामग्री में भारतीय संस्कृति की झलक तक नहीं मिलती । इससे विद्यार्थियों का झुकाव बचपन से ही भारतीय संस्कृति के बजाए पाश्चात्य संस्कृति की ओर होने लगता है और वे पाश्चात्य संस्कृति को भारतीय संस्कृति को बेहतर मानने लगते हैं। यह भारतीय संस्कृति ही नहीं बल्कि भारत की राष्ट्रीय अस्मिता के भी अनुकूल नहीं है। अत: सुझाव है कि अंग्रेजी भाषा शिक्षण में विशेषकर स्कूल स्तर पर पाठ्य सामग्री में पाश्चात्य संस्कृति के स्थान पर राज्य व राष्ट्र की संस्कृति का समावेश किया जाए । इसके लिए भारत के अंग्रेजी के उनेक अच्छे लेखक व उनका साहित्य है। उक्त पाठ्य-सामग्री सभी तरह के स्कूलों पर समान रूप से लागू होनी चाहिए।
भाषा- प्रौद्योगिकी शिक्षण : -
भारतीय भाषाओं के प्रयोग किए जाने की सबसे बड़ी बाधा भाषा- प्रौद्योगिकी के उपकरणों में भारतीय भाषाओं की सुविधा का या उसकी जानकारी शिक्षण / प्रशिक्षण तथा अनुसंधान को प्रोत्साहित न किया जाना है। इसलिए इस संबंध में शिक्षा-व्यवस्था में निम्नलिखित कदम शीघ्र उठाए जाने की आवश्यकता है।
14. कंप्यूटरों व मोबाइल आदि उपरकणों पर भारतीय भाषाओं में कार्य के लिए भारत सरकार द्वारा निर्धारित अत्यधित सरल और वैज्ञानिक इन्स्क्रिप्ट कुंजी-पटल उपलब्ध है। स्कूल – कॉलेज आदि में इसकी जानकारी न होने के कारण देवनागरी सहित भारतीय भाषाओं को रोमन लिपि में लिखने का चलन तेजी से बढ़ा है। इस मामूली से प्रशिक्षण के अभाव में ज्यादातर भारतवासी अपनी मातृभाषा को अपनी भाषा की लिपि के बजाए रोमन लिपि में लिखते हैं। इसके कारण देवनागरी सहित अधिकांश भारतीय भाषाओं की लिपियाँ का प्रयोग तेजी से घट रहा है। रोमन लिपि में इनके उच्चारण को ठीक प्रकार अभिव्यक्त करने की क्षमता न होने के कारण भारतीय भाषाओं पर भी इनका अत्यधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। यह एक अत्यंत गंभीर समस्या है। इसलिए देश के सभी स्कूलों में माध्यमिक स्तर पर सूचना-प्रौद्योगिकी विषय के अंतर्गत हिंदी अथवा राज्य की भाषा में इन्स्क्रिप्ट कुंजी-पटल का प्रशिक्षण दिया जाए। जिसे कम समय में अभ्यास से उचित गति के साथ सीखा जा सकता है। इसे परीक्षा का अंग भी बनाया जाए ताकि गंभीरतापूर्वक से पढ़ा व पढाया जाए। इससे किसी भी कंप्यूटर आदि पर भारतीय भाषा में मोबाइल आदि पर कार्य किया जा सकता है।
उल्लेखनीय है कि केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड( सी.बी.एस.सी.) की डॉ. ओम विकास की अध्यक्षता में सूचना-प्रौद्योगिकी व कंप्यूटर शिक्षा के लिए गठित पाठ्यक्रम समिति ने भी कई बार ऐसी सिफारिश की हैं। यह प्रशिक्षण निजी अथवा सरकारी सभी स्कूलों के पाठ्यक्रम में समान रूप से शामिल होना चाहिए।
15. सूचना-प्रौद्योगिकी शिक्षा से जुड़े सभी शिक्षा संस्थानों में भारतीय भाषाओं से संबंघित भाषा-प्रोद्योगिकी सुविधाओं व विकास कार्यों का समावेश किया जाना चाहिए। इसी प्रकार प्रौद्योगिकी अनुसंधान व विकास कार्यों में भी भारतीय भाषाओं में कार्य सुविधाओं पर कार्य का समावेश होना चाहिए ताकि प्रौद्योगिकी विकास की प्रक्रिया में भारतीय – भाषाएं पिछड़ न जाएँ ।
16. स्नातक व स्नातकोत्तर स्तर पर भाषा-शिक्षण के अंतर्गत भाषा हेतु उपलब्ध सूचना प्रौद्योगिकी को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए ताकि भाषा में स्नातक या स्नातकोत्तर स्तर की शिक्षा पानेवाले विद्यार्थी भाषा-प्रौद्योगिकी के प्रयोग में भी पारंगत हों।
विधि शिक्षा : -
17. जनता को अपनी भाषा में कानूनी प्रक्रिया की सुविधा व न्याय मिल सके इसके लिए विधि शिक्षा के लिए संघ/राज्य की भाषा में विधि की शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। उल्लेखनीय है कि विधि शिक्षा भारतीय भाषाओं में न होने के कारण निचली अदालतों में स्थानीय भाषा के प्रावधान के बावजूद कार्य भारतीय भाषाओं में नहीं हो पाता ।
देश –प्रेम की भावना का विकास : -
18. आज से पच्चीस-तीस वर्ष पूर्व तक बच्चे जो आज प्रौढ़ या वृद्ध हो चले हैं वे देश-प्रेम की भावना से ओत- प्रोत होते थे क्योंकि उस समय पाठ्य पुस्तकों में देश-प्रेम की पाठ्य-सामग्री प्रचुर मात्रा में होती थी। बाद में विशेषकर अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूलों की बाढ़ के पश्चात बाद धीरे-धीरे पाठ्य पुस्तकों से देश-प्रेम की पाठ्य-सामग्री गायब होती गई। इसके परिणामस्वरूप बाद की पीढ़यों में देश-प्रेम की वैसी भावना अब कम ही देखने को मिलती है। इसलिए योजनाबद्ध तरीके से स्कूली पाठ्यक्रम में विशेषकर प्राथमिक व माध्यमिक कक्षाओं में देश-प्रेम की भावना जागृत करनेवाली पाठ्य-सामग्री का समावेश किया जाए ।
19. इसी प्रकार पहले बच्चों को अनेक देश-प्रेम के गीत व कविताएँ याद होती थीं लेकिन अब यह देखने में आता है कि प्राय: बच्चों को देश-प्रेम के गीत व कविताएँ बिल्कुल नहीं आती। इसलिए सरकारी व निजी स्कूल सभी के लिए प्रतिदिन कक्षाएँ प्रारंभ होने के पूर्व प्रार्थना के समय राष्ट्रगान और देश-प्रेम के कोई दो गीतों का देश की भाषाओं मे गायन अनिवार्य किया जाए। इसी प्रकार स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस आदि राष्ट्रीय त्यौहारों पर भी भारतीय भाषाओं में देश-प्रेम के गीतों, कविताओं के गायन, एकांकी, नाटक आदि मंचन के कार्यक्रम आदि आयोजित किए जाने संबंधी दिशा-निर्देश जारी किए जाएँ। अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूल अक्सर इससे बचते हैं अत: उन पर कड़ी नजर रखी जाए कि वे ऐसे निर्देशों का पालन सुनिश्चित करें।
भवदीय,
डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
मान्यवर,मैं डॉ. गुप्ता "आदित्य" ने भी इस सम्बन्ध में अपने जिन विचारों को सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन करके अत्यन्त विस्तार से स्पष्ट किया है , मुझे उनमें भारत की आने वाली पीढ़ियों के लिये औचित्य और उनके उज्ज्वल भविष्य के दर्शन होते हैं , साथ ही देश के स्वाभिमान और गौरव को भी दिशा मिलती प्रतीत होती है ।बच्चों को प्रारंभ से उनकी मातृभाषा में ही शिक्षा दिये जाने से उनका ज्ञान और अपनी भाषा के प्रति प्रेम सहज ही विकसित होगा । तीसरी कक्षा से संस्कृत और आठवीं कक्षा के बाद अंग्रेज़ी एक विषय के रूप में पढ़ाई जाए । अंग्रेज़ी की ऊटपटाँग लम्बी लम्बी स्पेलिंग्स को रटने में बालकों की मानसिक शक्ति व्यर्थ ही व्यय हो जाती है , जबकि भारत की पूरी जनसंख्या में से बहुत कम प्रतिशत उच्च शिक्षा के स्तर तक पहुँचते हैं और उससे भी कम विदेश जाते हैं । विदेश जाने के इच्छुक छात्र पृथक रूप से जैसे जर्मन, फ़्रेंच आदि भाषाओं का शिक्षण लेते हैं , वैसे ही वे अपनी अंग्रेज़ी को भी समृद्ध सकते हैं। अत: सभी विश्वविद्यालयों में विदेशी भाषाओं के शिक्षण की सुविधा होनी चाहिये।संस्कृत हमारी संस्कृति की , धर्म और दर्शन की भाषा होने पर भी उपेक्षित रही है । विदेशों में अनेक विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ाई जारही है। अमेरिका में नासा ( NASA )ने भी इसे महत्त्व दिया है ।कम्प्यूटर्स के लिये संस्कृत को सर्वश्रेष्ठ भाषा घोषित किया गया है ।नीदरलैण्ड ने संस्कृत अपने स्कूलों में अनिवार्यता दी है। लंदन के सेंट जेम्स स्कूल में और आयरलैंड के भी कुछ स्कूलों में संस्कृत अनिवार्य है ,किन्तु भारत में इसे अनिवार्य करते ही इसे भगवा नीति कहकर या आर.एस.एस.की नीति का शोर मचाकर विरोध किया जाता है । सच्चाई ये है कि हमने दासता की मानसिकता को अभी त्यागा नहीं है । स्वदेशी भाषा और संस्कृति की अपेक्षा विदेशी भाषा और संस्कृति को अपनाने में ही हम अपनी शान समझते हैं । संस्कृत का शिक्षण बेंगलूरु की संस्था"संस्कृत भारती "के पाठ्यक्रम के अनुसार होगा तो सरलता से सीखी जा सकेगी ।सारांश यह है कि बालकों के समुचित विकास हेतु अपनी भाषा में ही प्रारंभ से शिक्षा होनी चाहिये । सारे भारत को एकता के सूत्र में बाँधने के लिये सर्वाधिक प्रयोग में आने वाली भाषा हिन्दी - देवनागरी लिपि में पूरे देश में अनिवार्य होनी चाहिये । रोमन में लिखी हिन्दी ने भाषा के स्वरूप यानी कि शब्दों के उच्चारण को विकृत कर दिया है । देवनागरी लिपि संस्कृत और हिन्दी - दोनों ही भाषाओं के लिये उपयोगी होगी ।आशा है कि नई शिक्षा नीति के निर्धारण में इन सभी तथ्यों पर ध्यान दिया जाएगा ।।सादर,डॉ. शकुन्तला बहादुरअवकाशप्राप्त प्राचार्यालखनऊ विश्वविद्यालयीय महिला पी.जी. कॉलेज,लखनऊपता : 11559 Raintree Spring Ct.Cupertino, CA 95014U.S.A.
email <shakunbahadur@yahoo.com>
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
महोदयनयी शिक्षा नीति के सन्दर्भ में मैं अपने निम्नलिखित दो सुझाव प्रस्तुत कर रही हूँ -1. भारत के लगभग सभी राज्यों के वासी ,सांस्कृतिक ,धार्मिक, या साहित्यिक क्षेत्रों में यहाँ की प्राचीनतम भाषा संस्कृत से , जुड़ाव रखते हैं ,.उनकी भाषाओँ के साहित्य और सामान्य उक्तियों में भी वे प्रभाव अनेक रूपों में मुखर होते हैं.यह पारस्परिक जुड़ाव आगत पीढ़ियों में सक्रिय रहे और सार्थक भूमिका निभा सके इसके लिये वे संस्कृत की लिपि से परिचित रहें और उसे इच्छानुसार व्यवहार में ला सकें, यह प्रयत्न शिक्षा प्रणाली में वांछनीय है . वह लिपि देवनागरी है ,जो हिन्दी, मराठी अनेक भाषाओं में प्रयुक्त होती है और संसार की सर्वाधिक वैज्ञानिक और समर्थ लिपि मानी जा रही है . शिक्षा-प्रणाली में आरंभिक स्तरों से ही छात्रों के लिये इसकी यह व्यवस्था हो .ज्ञान और विद्याओं की विभिन्न शाखाओं के साथ साहित्य ,कला ,नीति आदि विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्राचीन धरोहर से जुड़ना,अपने मूल से संयुक्त रहने के साथ हमारे राष्ट्र-जीवन में एकात्मता और आत्म-गौरव का संचार करेगा .2. शिक्षा प्रणाली में अध्ययन के साथ सामाजिक- जीवन से जुड़ाव और उससे सहानुभूति- सहभागिता की भावना जगाना का बहुत आवश्यक है. अतः वाँछित है कि कक्षाओं और कोर्स के साथ हर छात्र के लिये समाज सेवा हेतु निश्चित घंटों का कार्य आश्यक हो . जिसमें वह स्वयं चिकित्सालय ,अनाथालय आदि अन्य सेवागृहों में जाकर ज़रूरतमंद लोगों की सहायता करे . इसमें केवल शिक्षा संस्थान का नहीं छात्र के पालकों और परिवार का भी उचित सहयोग रहे .इस प्रकार प्रारंभ से ही बृहत्तर समाज से जुड़ कर वे उसके प्रति संवेदनशील हों और उनेहें अपने दायित्व का भान हो .इस प्रकार एक उत्तरदायी नागरिक बनने की दिशा प्राप्त करें.मैं विश्वविद्यालयीन शिक्षा के साथ माध्यमिक एवं प्रारंभिक शिक्षा से जुड़ी रही हूँ और भारत के अनेक राज्यों का शैक्षिक अनुभव ले चुकी हूँ ,इसलिये मुझे अपने दोनों सुझाव सामने रखना आवश्यक लग रहा है .कृपया इन पर उचित विचार करें. कामना यही है हमारे राष्ट्र का भविष्य उज्ज्वल हो !भवदीया ,- प्रतिभा सक्सेना.(डॉ.प्रतिभा सक्सेना).
----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
क्रमश: शेष पत्र अगली पोस्ट द्वारा प्रस्तुत किए जाएँगे ।
भाषा
दैनिक अपडेट ⋅ 22 जुलाई 2016
समाचार
नई दिल्ली। प्रशासनिक काम काज में हिन्दी के इस्तेमाल की हिमायत करते हुए केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने कहा कि ...
अप्रासंगिक के रूप में फ्लैग करें |
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
वेबसाइट- वैश्विकहिंदी.भारत / www.vhindi.in
वैश्विक हिंदी सम्मेलन की वैबसाइट -www.vhindi.in
'वैश्विक हिंदी सम्मेलन' फेसबुक समूह का पता-https://www.facebook.com/groups/mumbaihindisammelan/
संपर्क - vaishwikhindisammelan@gmail.com
प्रस्तुत कर्ता: संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें