शिक्षा नीति के संबंध में सुझाव - भाग -3
कृपया सुझाव आदि उपर्युक्त ई मेल पते पर 31 जुलाई तक अवश्य भेज दें।मानसिक गुलामी को बनाए रखने वाले तंत्र के रूप में ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’खुला पत्र / ज्ञापनअश्विनी कुमार 'सुकरात' अध्यक्षजनभाषा जनशिक्षा अधिकार मंच ,नई दिल्ली23/07/2016सेवा में,1. माननीय राष्ट्रपति महोदय, राष्ट्रपति भवन, नई दिल्ली ।2. माननीय प्रधानमंत्री महोदय, प्रधानमंत्री कार्यालय, साऊथ ब्लाक , नई दिल्ली ।3. माननीय कैबिनेट मंत्रीगण, प्रधानमंत्री कार्यालय, साऊथ ब्लाक , नई दिल्ली ।4. माननीय मानव संसाधन मंत्री, मानवसंसाधन मंत्रालय, नई दिल्ली ।5. माननीय सांसदगण लोकसभा, संसद भवन, नई दिल्ली ।6. माननीय सांसदगण राज्यसभा, संसद भवन, नई दिल्ली ।7. माननीय याचिका समिति, लोकसभा, संसद भवन, नई दिल्ली ।8. माननीय याचिका समिति, राज्यसभा, संसद भवन, नई दिल्ली ।9. माननीय नेता प्रतिपक्ष, लोकसभा, संसद भवन, नई दिल्ली ।10. माननीय नेता प्रतिपक्ष, राज्यसभा, संसद भवन, नई दिल्ली ।दिल्ली 110001 (भारत)विषय :- शिक्षा को अंग्रेजी माध्यम के बोझ से मुक्त करने एवं परिवेश की भाषाओं में केजी से पीजी/पीएच़डी तक समान-सार्थक औपचारिक शिक्षा व्यवस्था, कानून-न्याय व्यवस्था और रोजगार व्यवस्था को लागू कराने की मांग को लेकर संविधान के अनुच्छेद 348, 343(1) & (2), 351,147 में व्यापक संशोधन की मांग ।महोदय,नई शिक्षा नीति आने वाली है इस सन्दर्भ में राष्ट्रपति महोदय, प्रधानमंत्री महोदय, मानव संसाधन समेत समेत समस्त कैबिनेट एवं राज्यमंत्री, याचिका समिति (राज्यसभा), याचिका समिति (लोकसभा), नेता प्रतिपक्ष, समस्त माननीय सासंदों को इस विषय पर लिखे पत्र को पुनः भेज रहा हूँ ।महोदय, अंग्रेजी का विरोध एक भाषा के रूप में कतई नहीं है | यहाँ बदलाव एवं/या सुधार एवं/या परिवर्तन की मांग अंग्रेजी माध्यम व्यवस्था के अनिवार्य की है जो संविधान के अनुच्छेद 348 के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट की भाषा माध्यम को निर्धारण करने से शुरू होकर.. एवं यु पी एस सी , एस एस बी, के माध्यम से गली के नुक्कड़ तक के गैर मान्यता प्राप्त स्कूलों तक पहुँचती है... इस अंग्रेजी माध्यम के व्यवस्था की नाभि ...संविधान का अनुच्छेद 348 ही है... जिसका संरक्षण 343(1)&(2), 351 अनुच्छेद कर रहे है |अतः संसोधन की मांग यही से की जाने की जरुरत है...दुनियाभर के श्रेष्ठ शिक्षाविदों के साथ शिक्षा पर शोध करने वाली एनसीईआरटी के अनुसार भी बच्चों के सीखने का सर्वोत्तम माध्यम बच्चे के परिवेश की भाषा ही है। संविधान का अनुच्छेद 350क भी प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की व्यवस्था की बात करता है। पर इसके बावजूद गली-गली में इंग्लिश मीडियम स्कूल खुल रहे है। हमारे माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी माता पिता को स्कूली शिक्षा माध्यम को चुनने के फैसले को देने वाले निर्णय में माना कि बच्चे के सीखने का सर्वोत्म माध्यम मातृभाषा ही है। पर लोग, माननीय सर्वोच्च न्यायालय की इस नेक नसीहत को नजर अंदाज करते हुए अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में ठूस रहे है। अभिभावक चाहे महल का हो या स्लम का, हर एक की पहली पसंद इंग्लिश मीडियम स्कूल हो गयी है। परिणाम आज गली-गली में इंग्लिश मीडियम स्कूल खुल रहे है। पर सवाल यह पैदा होता है कि इस इंग्लिश मीडियम शिक्षा व्यवस्था में बच्चे कुछ सीख भी पाते है ? साथियों ! शिक्षा का अर्थ मनुष्य की चेतना को जागृत कर ज्ञान को व्यवहारिक बनाना है। वही हमारे बच्चे बीना व्यवहारिक अर्थ समझें रटते चले जाते है। वे रट-रट कर केजी से पीजी तक पास कर जाते है। पर मौलिक ज्ञान सृजन नहीं कर पाते। यह अंग्रेजी माध्यम व्यवस्था का ही परिणाम है कि हमारे विद्यार्थियों की पढ़ने की रूचि पाठ्यपुस्तक तक ही सिमट कर रह गयी है। हमारे बच्चों ने ‘रटने’को ही ‘ज्ञान’ समझ लिया है और ‘अंग्रेजी बोलने की योग्यता को (इंग्लिश स्पीकिंग)’ को ही ‘शिक्षा’ । विद्यार्थी वर्ग आज सिर्फ उतना पढ़ता है जितना की परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए काफी है। डिग्री ही ज्ञान है इसका परिणाम यह निकला है कि डिग्री प्राप्त करों- चाहे रटों, नकल करों या खरीद लो। - इंग्लिश मीडियम शिक्षा की बदौलत शिक्षित नहीं कुशिक्षित हो रहा है- हमारा समाज । हमारे बच्चे स्कूल में रटे ज्ञान का स्कूल के बाहर के बाहर की दूनियां के साथ तालमेल नहीं बैठा पाते । ये अंग्ररेजी का ही परिणाम है कि हमारे बच्चे रेव पार्टियों, उदंडता एवं अशिष्ट प्रवितृ का शिकार होते जा रहे है। हमारे बच्चे मानक भाषा ही सीखे इसके लिए आज हमारे घरों में हमनें अपनी बोली में बात-चीत करना तक बंद कर दिया है। अंग्रेजीदां बनने की चाह ने इस देश को अपने मोहपाश में इस कदर जकड़ा रखा है कि समाज का हर तबका अपना सब कुछ दांव पर लगा कर अपनी भाषा का शुद्धिकरण चाह रहा है। भोजपुरी, मैथली,बांगड़ी बोलने वाले बैकवर्ड कहलाएंगे और दो लाईन अंग्रेजी में गिट-पिटाए नहीं कि मॉर्डन हो जाएंगे। अंग्रेजीदां बन हर कोई गिट-पिटाना चाहता है। पर वह यह नहीं जानता की 100 में से 99.99% इसमें असफल ही होगे । यह अंग्रेजी ही इस देश के लोगों को शिक्षा, न्याय और रोजगार से दूर रखने का काम करती है। माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में माना कि देश की आम जनता कोर्ट की इस नास़ीफ भाषा- अंग्रेजी को नहीं समझ पाती । कोर्ट में आज अनेकों मामले अंग्रेजी की वजह से लंबित पड़े है और हजारों लोग सिर्फ सिर्फ वकीलों का मुहँ ताकने को मजबूर है। अंनुच्छेद 348 के अनुरूप माननीय उच्च न्यायालय की भाषा अंग्रेजी होने की वजह से तमाम संवैधानिक एवं उच्च पदों की भाषा भी अंग्रेजी हो जाती है। इसका परिणाम यह निकलता है कि अधिकारी से लेकर चपड़ासी तक के सभी पदों में अंग्रेजी का घुसपैठ हो जाता है। जैसा पद वैसी अंग्रेजी । ये रोजगार के अवसरों में अंग्रेजी की अनिवार्यता ही है जिसने हर एक को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए मजबूर किया है। हमारे देश की संविधान निर्माताओं ने अंग्रेजी को एक अल्प अवधि के लिए ही लागू किया था । उन्हें अनुमान था कि संविधान लागू होने के 15 वर्ष के अन्दर हिन्दी देश के सभी राज्यों में स्वीकार कर ली जाएगी और फिर देश में काम काज की भाषा अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी हो जाएगी । पर तमिलनाडु में हुए विरोध के चलते हिन्दी कामकाज की अधिकारिक भाषा नहीं बन पायी । तमिलनाडु आज भी तमिल को उच्चन्यायालय की अधिकारिक भाषा बनवाने के लिए तरस रहा है। अंग्रेजी व्यवस्था की वजह से भारत में कहने भर को लोकतंत्र रह गया है। पर ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ की वजह से शासन प्रशासन के स्तर पर होने वाली कार्यवाही जनता के समझ के बाहर है। जनता न तो मूलतः अंग्रेजी में लिखे कानून को समझ पाती है, न ही उसके आधार पर चलने वाली प्रशासनिक प्रक्रिया को और न ही उसके कलिष्ट हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं में हुए अनुवाद को ही । शोध आधारित विशलेषण के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि भारतीय संविधान की धारा 348 की वजह से ही गली-गली में अंग्रेजी माध्यम के अधकचरे स्कूल खुल रहे है। बच्चा हो या बड़ा, हर एक अपने परिवेश की बोली में ही अपने आप को सहजता से अभिव्यक्त कर पाता है। मातृभाषा परिवेश पर निर्भर करती है न कि मजहब़, वंश, जाति आदि पर। अंग्रेजी जैसी गैर परिवेश की भाषा में तो बस हम रटी रटायी बात ही उगल सकते है। मौलिक चिंतन नहीं कर सकते है। ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ ने सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था को तोता तैयार करने की फैक्ट्री में तब्दील कर दिया है। जिस से निकला तथाकथित शिक्षित वर्ग रटी रटाई बातो को ही उगलता है। जिस तेजी से अंग्रेजीयत का काला साया हमारे समाज पर पसर रहा है, उसका आने वाले 10-15 सालों में प्रभाव यह निकलने वाला है कि ‘का’,’की’ जैसे शब्दों के अलावा कोई भी शब्द भारतीय सांस्कृतिक बोलियों के नहीं रह जाएगे । भारतीय भाषाओं के शब्दकोश अजायब घर में रखे जाने वाली विलुप्त धरोहर भर बन कर रह जाएगी । रोम और युनान की तो सभ्यताएं ही मिटी पर यहाँ तो पूरी की पूरी संस्कृति ही विलुप्त होने के कगार पर खड़ी है। (नोट:- संस्कृति = संचित ज्ञान )अतः भारत सरकार एवं संसद से हम निम्न आग्रह करते है। :-
- 343 (1) हिन्दी के स्थान पर समस्त भारतीय जन-भाषाएं(भाषा एवं बोलियाँ) 343(1) धारा हिन्दी को राजभाषा घोषित करती है जिसे भ्रम वस लोग राष्ट्रभाषा भी समझ लेते है। इस धारा का महान योगदान यह है कि इसने हमारे देश को हिन्दी – गैर हिन्दी नामक दो कृत्रिम राष्ट्रियताओं में विभक्त कर दिया है। या यूँ कहे कि भाषा और क्षेत्र के आधार पर अनेकों राष्ट्रियताओं को पैदा कर दिया है। ‘हिन्दी राष्ट्रभाषा है कि नहीं’, हिन्दुतानी भाषा-भाषी की आपसी इस लड़ाई में संविधान की धारा 343(2) के माध्यम से अंग्रेजी का वर्चस्व स्थापित हो जाता है। एक रोज हिन्दी को पूरा देश स्वीकार करेगा उस रोज हिन्दी अंग्रेजी का स्थान लेगी, यह एक ऐसी मिथक कल्पना है, जो कभी पूरी होती नहीं दिखती। हम आपसे पूछते है कि यदि हिन्दी राष्ट्रभाषा है तो तमिल, तेलगू, कश्मीरी,गुजराती, बंगाली आदि क्या गैर राष्ट्र भाषा है ? सच्चाई तो यह है कि हिन्दी को राजभाषा बनाने वाली संविधान की धारा 343(1) की वजह से ही गैर हिन्दी परदेशों में हिन्दी के प्रति नफरत पनपी है। वर्ना समस्त भारतीय भाषाओं के मिश्रण से ‘हिन्दुस्तानी-फेविकोल’(अमीर खुसरों से लेकर गांधी तक की मिली जुली हिन्दुस्तानी) तैयार होने की प्रबल संभावना है। आज हमें दो में से एक को चुनना है। एक भाषा अनेक देश । अनेक भाषा एक देश । हमारी संस्कृति विविधता में एकता की है। अतः 343(1) के स्थान पर भारतीय संविधान के आठवीं अनुसूची में शामिल समस्त भारतीय भाषाएं एवं आठवीं अनुसूची में समस्त भारतीय बोली-भाषाओं को शामिल किया जाए ।
II. हिन्दी-उर्दू को एक भाषा माना जाए । लिपी भाषा नहीं होती है। लिपियांत्रण को बढ़ावा दिया जाए । समस्त भारतीय लिपियों में भी हिन्दी-उर्दू/हिन्दवी/हिन्दुस्तानी आदि को लिखा जाए एवं उसके विपरीत भी । देवनागरी/रोमन/फारसी/ समेत समस्त भारतीये लिपियों का इस प्रकार विस्तार किया जाए कि भारत की सभी भाषाओं को एक से ज्यादा लिपियों लिखा जा सके ।
III. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343(2) एवं 348 के प्रवाधान से अंग्रेजी के स्थान पर समस्त भारतीय भाषाओं (आठवीं अनुसूचि) को शामिल किया जाए । त्वरित न्याय के लिए देश के हर एक जोन में सर्वोच्च न्यायालय स्थापित हो जो उस क्षेत्र में बोली जाने वाली सभी बोलियों में न्याय की व्यवस्था करे । सभी राज्यों के उच्चन्यायालय अनिवार्यतः उस राज्य में बोली भाषाओं में ही कामकाज करे । हर राज्य में सर्वोच्च न्यायालय की शाखा खोली जाए । जो उस राज्य की बोली भाषा में काम काज करे ।IV. हिन्दी-उर्दू अर्थात हिन्दवी/हिन्दुस्तानी का काम भारत की समस्त भाषाओं में समन्वय का हो । पर किसी भी भाषा को थोपे न । परिवेश के अनुरूप इस मिली जूली हिन्दूस्तानी के कई-कई स्वरूप उत्पन्न हुए है। जैसे मराठी-हिन्दी-उर्दू-संस्कृत/हिन्दवी/हिन्दुस्तानी (मुम्बईया-हिन्दी), गुजराती-हिन्दी-उर्दू-संस्कृत/हिन्दवी/हिन्दुस्तानी, तमिल-हिन्दी-उर्दू-संस्कृत/हिन्दवी/हिन्दुस्तानी, नागामीश-हिन्दी-उर्दू-संस्कृत/हिन्दवी/-हिन्दुस्तानी, आदि । भाषा नदियों के समान होती है। नदी में पानी के बहाव की दर में परिवर्तन आता रहता है, वैसे ही भाषा में भी परिवर्तन आता रहता है। संगम पर दो नदियों की धारां अलग अलग जान पडती है पर मिल कर एक विशाल नदी का रूप ले लेती है। सरकार भाषाई मामले में हस्तक्षेप न करे तो भारत की भाषाओं को मिल कर एक होने की प्रबल संभावना है। अतः अनुच्छेद 351 में संशोधन हो । भारत सरकार हिन्दी के प्रसार की जगह सरकार ‘हम भारत के लोगों’ की मिली जुली भाषा को अपना ले । शब्द किसी भाषा विशेष की बपौती नहीं होते है। भाषीक परिवेश में जाकर शब्द उसके अनुरूप ढ़ल जाते है। अतःअंग्रेजी एवं अन्य भाषाओं से आए तकनीकी शब्दों को अपनाया जाए। राजभाषा विभाग जबरदस्ती का हिन्दी अनुवाद एवं कृत्रिम हिन्दी को पैदा करने का काम बंद कर दे और समस्त राजभाषा अधिकारियों को वीआरएस दिया जाए । सरकार से विशेष अनुरोध है कि राजभाषा विभाग को तुरंत से तुरंत बंद कर दिया जाए।V. अनुच्छेद 147 को समाप्त किया जाए । जो ब्रिटेन की संसद के द्वारा 1947 से पूर्व पास किये गये कानूनों को ही मान्य नहीं करता अपितु अंग्रेजों के समय की व्यवस्था को भी बनाए रखता है।VI. केजी से पीएचडी तक परिवेश के भाषा माध्यमों में समान समान स्कूली और विश्वविद्यालयी शिक्षा एवं रोजगार का अधिकार नागरिकों को दिया जाए । वर्तमान शिक्षा बोर्डों को भंग कर, संकुन के सिद्धान्त पर सांस्कृतिक शिक्षा बोर्ड सह विश्वविद्यालयों की स्थापना की जाए ।VII. पीएससी, एसएससी, डीएसएसएसबी समेत सभी रोजगार के लिए नैकरियों की परीक्षा का आयोजन करने वाली संस्थाएं अपनी परीक्षाओं का आयोजन अनिवार्यतः भारतीय जनभाषाओं में ही करे।अंग्रेजी की अनिवार्यता पूर्णतः समाप्त की जाए। आईआईटी, आईआईएम समेत समस्त बेहतर माने जाने वाले उच्च शिक्षा संस्थानों/विश्वविद्यालयों की परीक्षा ही नहीं अपितु शिक्षा भी हो भारतीय भाषा माध्यमों में ही हो तथा इन संस्थाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता अर्थात अंग्रेजी का आरक्षण पूर्णतः समाप्त हो ।VIII. जब तक भाषाई समता लागू नहीं होती तब तक गैर-अंग्रेजी माध्यम के विद्यार्थियों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यार्थियों के समतुल्य लाने के लिए सभी प्रकार की विश्वविद्यालयी एवं प्रतियोगिता परीक्षाओं में 5% का अतिरिक्तांक दिये जाए । विश्वविद्यालय एवं सरकारी सेवाओं की 75% सीटे सरकारी स्कूलों एवं गैर-अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने एवं परीक्षा देने वाले भारतीये भाषा के विद्यार्थियों के लिए अनिवार्यतः आरक्षित की जाएं। एक भाषा परिवेश से दूसरे भाषा परिवेश में जाने पर विद्यार्थी को उस भाषा परिवेश के विद्यार्थियों के समतुल्य लाने हेतु अतरिक्तांक भी दिया जाए ।आपकाअश्विनी कुमार,
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शिक्षा नीति विमर्श में भाषा ही एक मात्र मुद्दा नहीं है। अन्य पक्षों पर भी चिंतन आवश्यक है। जैसे-1) शिक्षा समग्र भारतीय संस्कृति की समझ विकसित करने वाली हो।2) रोजगार मूलक हो। ऐसी हो कि अधिकांश विद्यार्थी कक्षा बारहवीं तक कोई न कोई रोजगार करने योग्य हो जाए ताकि प्रत्येक को उच्च शिक्षा की बाध्यता न रह जाए।3) ऐसी हो कि किसी भी स्तर पर शिक्षा प्राप्त करने के लिए ऋण न लेना पडे।4) नौकर नहीं मालिक बनने की भावना और योग्यता विकसित करने वाली हो।5) शिक्षित होकर विदेश में बस जाने की प्रवृति पर लगाम लगाने वाली हो।6) सत्य, न्याय और ईमानदारी की भावना को विकसित करे तो ही शिक्षा सार्थक है।विजयलक्ष्मी जैनmatrubhashahindi@gmail.com__________________________________________________डॉ. "आदित्य " गुप्ता महोदय,डॉ. अमरनाथ जी एवं श्रीमती नीलू गुप्ता जी ने एक ही समय में संस्कृत और इंग्लिश की शिक्षा में विकल्प का सुझाव दिया है। मेरा विचार है कि फिर तो सभी इंग्लिश की ओर दौड़ जाएँगे । संस्कृत , जो अनेक भारतीय भाषाओं की जननी है , और जिसे इंग्लैंड, आयरलैंड तथा नीदरलैण्ड आदि देशों के स्कूलों में अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है , जिसे NASA ने भी महत्त्व दिया है और कम्प्यूटर के लिये सर्वश्रेष्ठ भाषा घोषित हो चुकी है - वह अपने ही देश में तिरस्कृत और अपमानित होकर धीरे धीरे अजनबी भाषा बन जाएगी । ये स्थिति अत्यन्त दु:खद होगी । अपनी संस्कृति , धर्म, दर्शन , आयुर्वेद आदि का ज्ञान धीरे धीरे अंधकार में चला जाएगा और विलुप्त हो जाएगा ।संस्कृत से इंग्लिश की कोई समानता नहीं है । संस्कृत पाँचवी कक्षा से अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाई जाए और इंग्लिश आठवीं के बाद ऐच्छिक विषय होना चाहिये । जो उसे पढ़ना चाहें,वे सहज भाव से उसे पढ़ें और आगे जिस दिशा में जाना हो , वहाँ जाएँ । मैंने स्वयं एम.ए. ( संस्कृत ) के बाद दो वर्षों का डिप्लोमा जर्मन भाषा में करके जर्मन गवर्मेंट की फ़ेलोशिप प्राप्त की । तब जर्मनी जाकर इंडॉलोजी में शोध कार्य किया । इसी प्रकार लोग फ़्रेंच आदि भाषाएँ सीखकर विदेशों में अध्ययन करते हैं । कोई परेशानी नहीं होती है ।अत: मेरा सुदृढ़ विचार है कि संस्कृत को अनिवार्य किया जाए । उसके साथ इंग्लिश का विकल्प बिल्कुल न रक्खा जाए । वरना स्थिति ज्यों की त्यों रह जाएगी । नई शिक्षा नीति बनाने का कोई लाभ नहीं होगा ।शकुन्तला बहादुर,कैलिफ़ोर्नियाshakunbahadur@yahoo.com__________________________________________________
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प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी
मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
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लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
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