विलंब हेतु क्षमाप्रार्थी,
स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण विलंब हुआ.
स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण विलंब हुआ.
( अनुरोध : नई शिक्षा नीति के संबंध में अपने सुझाव 31 जुलाई 2016 तक nep.edu@gov.in पर ई मेल करें और अधिकाधिक करवाएँ।)
नई शिक्षा नीति - 2016 के संबंध में कुछ और आपत्तियाँ, सुझाव और विचार ।
प्रेमपाल शर्मा .पूर्व संयुक्त सचिव /Executive Director,
रेल मंत्रालय .दिल्ली . mob---09971399046,www.prempalsharma.com
१ .अपनी भाषा में शिक्षा का माध्यम कम से कम १० वी तक अनिवार्य बनाया जाए . प्रारूप में केवल पाचंवी तक और वो भी ऐच्छिक कहा गया है.यह गलत है. अपनी भाषा को पीछे ले जायेगा जैसे कि अभी हो रहा है .क्या अन्तर है पुरानी नीति और इसमें ?
2. अंग्रेजी , यदि राज्य सरकारें चाहें तो छटवी क्लास से केवल एक विषय के रूप में पढाई जाये . माध्यम के रूप में रूप में तो कतई अनिवार्य न हो .जो निजी स्कूल जबर्दुस्ती से अंग्रेजी लादते हैं ,उनके खिलाफ दंड का प्रावधान हो .
३.अपनी भाशा और उसका साहित्य दसवी तक पढ़ाना अनिवार्य हो .अगली पीढियां तभी अपने देश ,समाज ,संस्कृति, और उसकी समस्याओं को समझेंगी .प्रोफेसर कोठारी ने सत्तर के दशक में ऐसे सिफारशें की थी लेकिन उन्हें लागु नहीं किया गया .
४. प्रोफेसर कोठारी ने ( १९६४-६६ )उच्च शिक्षा में अपनी भाषाओं के माध्यम की सिफारश की थी .संसद ने भी मान लिया था उसे आगे बढाया जाये .
५ फिर वैज्ञानिक ,तकनिकी विषयों की शिक्षा का माध्यम भी अपनी भाषाएँ हो ---पांच वर्ष के समय में .
६. दसवी तक की शिक्षा का स्तर और सुविधाएँ समान हो (Common School System )
७, UPSC के माध्यम से कॉलेज ,viswvidhylay, आदि की भरती का कदम सराहनीय है .इसे यथा शीघ्र लागु किया जाये .
८ .NO डिटेंशन नीति में सुधार की सिफारिशें अच्छी हैं .
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राष्ट्रीय शिक्षा नीति के संबंध में मेरे अपने विचार....
डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा
पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार
विचार बिंदु 1
इस विषय पर विचार करने से पूर्व हमें यह समझना होगा कि शिक्षण के संदर्भ में ‘माध्यम’ और ‘विषय’ दो अलग-अलग मुद्दे हैं. खास तौर पर प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने से बालक की मौलिक रचनात्मक प्रतिभा को विकसित करने में निश्चय ही मदद मिलती है. इसमें विवाद की कतई गुंजाइश नहीं है, लेकिन अनिवार्य विषय के रूप में अंग्रेज़ी की पढ़ाई बंद कर दी जाए, इस विचार से मैं कतई सहमत नहीं हूँ. भारत जैसे विकासशील देश में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को बढ़ावा देने के लिए अंग्रेज़ी आवश्यक ही नहीं, अपरिहार्य भी है. जिस भाषा में इंटरनैट पर 81 प्रतिशत विषय वस्तु अंग्रेज़ी में सुलभ हो और चिकित्सा, इंजीनियरी और कंप्यूटर विज्ञान जैसे आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकें मूलतः अंग्रेज़ी में सुलभ हों, वहाँ छात्रों को इस भाषा के ज्ञान से वंचित रखना भी बेमानी है. मुझे जानकारी मिली है कि महाराष्ट्र में ऐसे कई विद्यालय हैं, जिनमें शिक्षा का माध्यम मराठी है, लेकिन अंग्रेज़ी की पढ़ाई अनिवार्य विषय के रूप में की जाती है, वहाँ के छात्र-छात्राएँ अंग्रेज़ी माध्यम से आयोजित की जाने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ने वाले छात्रों से कहीं आगे निकल जाते हैं. वास्तव में पुस्तकालय भाषा (Library Language) के रूप में अंग्रेज़ी भाषा का उपयोग हमारे विद्यार्थियों के लिए बहुत लाभप्रद सिद्ध हो सकता है.
प्रस्ताव
भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि कम से कम प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो, ताकि विद्यार्थियों की मौलिक रचनात्मक प्रतिभा का विकास हो,लेकिन पुस्तकालय भाषा (Library Language) के रूप में अंग्रेज़ी की उपादेयता को देखते हुए अनिवार्य विषय के रूप में अंग्रेज़ी भाषा के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था प्राथमिक स्कूलों में की जाए ताकि हमारे छात्र-छात्राएँ आरंभ से ही आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन में अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ने वाले विद्यार्थियों से आगे ही रहें.
क. मैं सहमत हूँ.
ख. मैं सहमत नहीं हूँ.
ग. विशेष टिप्पणी, यदि आवश्यक समझें.
विचार बिंदु 2
देश में भावात्मक एकता और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को बढ़ावा देने के लिए सन् 1968 में संसद के दोनों सत्रों ने आम सहमति से त्रिभाषा सूत्र (Three Language Formula) से संबंधित संकल्प पारित किया था. इस संकल्प में स्कूली शिक्षा में मुख्यतः हिंदी, अंग्रेज़ी और क्षेत्रीय भाषा को अनिवार्यतः पढ़ाने की बात को स्वीकार किया गया था, लेकिन कदाचित् शिक्षा राज्य का विषय होने के कारण न तो हिंदी प्रदेशों में और न ही हिंदीतर प्रदेशों में इसका अनुपालन किया गया. बिहार और उ.प्र. जैसे हिंदीभाषी राज्यों में त्रिभाषा सूत्र को पहली हिंदी, दूसरी हिंदी और तीसरी भी हिंदी के रूप में ही स्वीकार किया गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि इन राज्यों के छात्र प्रतियोगी परीक्षाओं में पिछड़ने लगे. और तो और. हिंदी अधिकारी जैसे पदों के लिए भी वे योग्य नहीं पाए गए, क्योंकि अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद के लिए भी अंग्रेज़ी की जानकारी अपेक्षित थी. हिंदी पत्रकारिता के लिए भी उन्हें योग्य नहीं पाया गया, क्योंकि समाचार एजेंसियों से मूल अंग्रेज़ी में प्राप्त समाचारों को समझने के लिए भी अंग्रेज़ी का ज्ञान अपेक्षित था. कुछ ही वर्षों में ही इनका मोहभंग हो गया और अब हाल यह है कि वे केवल अंग्रेज़ी ही पढ़ना-पढ़ाना चाहते हैं. दोनों ही अतिवादी दृष्टिकोण हैं. वस्तुतः शिक्षा में संतुलित दृष्टि अपेक्षित है.
हिंदीतर प्रदेशों ने कुछ समझदारी से काम लिया. उन्होंने हिंदी को तो हटा दिया, लेकिन शिक्षा का माध्यम मातृभाषा को रखने के साथ-साथ अंग्रेज़ी की पढ़ाई अनिवार्य विषय के रूप में जारी रखी.
राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रारूप में संस्कृत की पढ़ाई भी अनिवार्य विषय के रूप में रखने का सुझाव दिया गया है. त्रिभाषा सूत्र (Three Language Formula) में हिंदी और अंग्रेज़ी के अलावा क्षेत्रीय भाषा के रूप में मुख्यतः दक्षिण भारतीय भाषाओं में से किसी एक भाषा को पढ़ाने की बात की गई थी, लेकिन मेरी विनम्र राय है कि हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी और अंग्रेज़ी के साथ-साथ सांस्कृतिक विरासत की भाषाओं के रूप में संस्कृत या उर्दू पढ़ाने की बात की जा सकती है.
जहाँ तक जर्मन, फ्रेंच, स्पेनिश आदि आधुनिक भाषाओं को पढ़ाने के बात है. उसे उच्च शिक्षा के समय पढ़ाया जा सकता है.
प्रस्ताव
सन् 1968 में संसद के दोनों सत्रों ने आम सहमति से पारित त्रिभाषा सूत्र (Three Language Formula) में कुछ संशोधन करते हुए निम्नलिखित व्यवस्था की जाए.
हिंदीभाषी राज्यों में
कम से कम प्राथमिक शिक्षा में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा रखा जाए.
पहली भाषाः मातृभाषा के रूप में हिंदी
दूसरी भाषाः आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और पुस्तकालय भाषा के रूप में अंग्रेज़ी
तीसरी भाषाः संस्कृत, उर्दू या हिंदी से इतर भारत की कोई भी क्षेत्रीय भाषा
अहिंदीभाषी राज्यों में
कम से कम प्राथमिक शिक्षा में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा रखा जाए.
पहली भाषाः मातृभाषा के रूप में संबंधित राज्य की राजभाषा
दूसरी भाषाः आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और पुस्तकालय भाषा के रूप में अंग्रेज़ी
तीसरी भाषाः संस्कृत, उर्दू या संबंधित राज्य की राजभाषा से इतर भारत की कोई भी क्षेत्रीय भाषा
क. मैं सहमत हूँ.
ख. मैं सहमत नहीं हूँ.
ग. विशेष टिप्पणी, यदि आवश्यक समझें.
विचार बिंदु 3
राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रारूप में छात्र-छात्राओं में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के लिए गणित, विज्ञान और अंग्रेज़ी की शिक्षा पहली कक्षा से आरंभ करने का प्रस्ताव किया गया है. आज के वैज्ञानिक युग में गणित और विज्ञान जैसे विषयों में आरंभ से ही बच्चों की रुचि जागृत करना आवश्यक है, लेकिन साथ ही यह भी आवश्यक है कि वे कंप्यूटर, स्मार्ट फ़ोन जैसे उपकरणों में अपनी मातृभाषा के साथ-साथ अंग्रेज़ी में टाइप करना भी जानते हों.
प्रस्ताव
छात्र-छात्राओं में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के लिए गणित और विज्ञान की शिक्षा पहली कक्षा से आरंभ की जाए. साथ ही उन्हें कंप्यूटर, स्मार्ट फ़ोन जैसे उपकरणों में अपनी मातृभाषा के साथ-साथ अंग्रेज़ी में भी टाइप करने का शिक्षण दिया जाए ताकि वे इंटरनैट जैसे सशक्त माध्यम का उपयोग अपना सामान्य ज्ञान बढ़ाने के लिए भी कर सकें. युनिकोड के आगमन के बाद अंग्रेज़ी के साथ-साथ सभी भारतीय भाषाओं में सर्च, सॉर्ट आदि सुविधाओं का उपयोग सहजता से किया जा सकता है. अगर वे कंप्यूटर, स्मार्ट फ़ोन जैसे उपकरणों में अपनी मातृभाषा के माध्यम से टाइप करना नहीं सीख पाते तो वे इंटरनैट के उपयोग के लिए भी मात्र अंग्रेज़ी पर ही निर्भर रहेंगे.
क. मैं सहमत हूँ.
ख. मैं सहमत नहीं हूँ.
ग. विशेष टिप्पणी, यदि आवश्यक समझें.
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प्रवीण जैन, 201 ए, आदीश्वर सोसाइटी,
29 जून 2016 को मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा जारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रारूप केवल अंग्रेज़ी में सार्वजनिक किया गया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लिए बनाया गया विशेष वेबपेज भी केवल अंग्रेजी http://mhrd.gov.in/nep-new में बनाया गया है. एक विदेशी भाषा में इसे जारी करने का उद्देश्य क्या है? क्या केवल ज्यादा अंग्रेजी पढ़े लिखे मुट्ठी भर लोग ही इस पर अपनी राय देने के अधिकारी हैं?
क्या सचमुच सरकार चाहती है कि केवल वही लोग सुझाव दें जो अंग्रेजी समझ सकते हैं? यह बात सरकारी अधिकारियों के बर्ताव से सही भी लगती है कि वे नीतियों के निर्माण में आम जनता की भागीदारी नहीं चाहते हैं इसलिए सभी नीति-नियम कानून एक फिरंगी भाषा में जारी किए जाते हैं ताकि आम जनता सुझाव देने से वंचित रह जाए।
परन्तु यह राजभाषा कानून एवं राष्ट्रपति जी के आदेशों का उल्लंघन भी है, जिसमें कहा गया है कि सरकारी नीतियों के प्रारूप आम जनता के सुझाओं के लिए अनिवार्य रूप से राजभाषा में जारी किए जाएँ।
मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि जनता के सुझावों के शिक्षा नीति'16 का प्रारूप अविलम्ब भारतीय भाषाओं में उपलब्ध करवाएँ ताकि भारत के नागरिक अपने सुझाव दे सकें। जब तक प्रारूप भारतीय भाषाओं में तैयार नहीं हो जाता है,सुझाव देने की अंतिम तिथि को आगे बढ़ाया जाए.
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निर्मल कुमार पटौदी
भारत' की अस्मिता पर 'इण्डिया' का अस्तित्व पूरी तरह से छा जाय, इस लक्ष्य को साकार करने के लिए हमारी केंद्र सरकार और प्रदेशों की सरकारों की ओर से अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से निरंतर योजनाबद्ध क़दम उठाए गये हैं। इस विषय में निति निर्धारण और अमल की भूमिका शिखर पर विराजित उच्च शासकीय अधिकारियों ने निभाई है। हमारे स्वाधीन राष्ट्र में क़ानून विदेशी भाषा में निर्मित किये गये हैं। सर्वोच्च न्यायालय का सम्पूर्ण कार्य विदेशी भाषा अँग्रेजी में चलाया गया है। वादी-प्रतिवादियों को मालुम नहीं होता है कि उनकी ओर से क्या बहस हुई है,निर्णय में न्याय मूर्ति ने क्या लिखा है ? संसद में जो व्यक्ति चुनाव जीत कर पहुँचे हैं, उनमें से अधिसंख्य ने अपने मतदाताओं की भाषाओं में विचार प्रकट नहीं किए हैं। जिस भाषा में बोल कर चुनाव में वोट माँगे, उस भाषा में संसद में बोलने की नैतिकता परिलक्षित नहीं हुई है। सवाल यह है कि विदेशी भाषा अँग्रेजी में मतदाताओं से मत माँग कर चुनाव जितने वालों की संख्या अपवाद स्वरूप एक या दो ही हो सकती है। यह लोकतंत्र का खुला उपहास है। सबसे बड़ी विडम्बना यह हुई है कि स्वाधीनता के बाद ६७ वर्ष हो जाने पर भी स्वाधीन राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षा नीति नहीं बनाई जा सकी है।
शिक्षा प्रणाली में ग़रीब और अमीर बालकों के बीच भेदभाव की दीवार मज़बूत होती गई हैं। ग़रीबों के सभी बालकों को शिक्षा ग्रहण करने के लिए न पर्याप्त विद्यालय खोले जा सके हैं और न ही जिन्होंने ने विद्यालय का दरवाज़ा देखा है, उनके लिए सुयोग्य शिक्षकों का प्रबंध किया जा सका है। निर्धनों के बालकों को जिस भाषा में पढ़ाया गया है, उस भाषा में उनके लिए ऊँची सेवाओं के द्वार प्रवेश के लिए विदेशी भाषा अँग्रेजी की मज़बूत दीवार खड़ी करके बंद कर दिये गये हैं। सम्पन्न वर्ग के बालकों के लिए प्रारंभ से ही विदेशी भाषा अँग्रेजी माध्यम के निजी और पब्लिक स्कूलों की श्रंखलाओं का विस्तार का वातावरण पनपाया गया है। निर्धनों के बालक असुविधाओं और अभावों के बीच पढ़ने को विवश किए गए हैं। निजी शिक्षा के केंद्र मुनाफा कमाने की दुकानें अर्थात व्यवसायिक रूप धारण किए हुए हैं। है। शिक्षा हो गयी है। उसमें मौलिक ज्ञान, चरित्र निर्माण, नैतिकता, जीवन मूल्य और राष्ट्र प्रेम का सर्वथा अभाव है। शिक्षा-प्रणाली में स्वाधीन राष्ट्र की अपनी विरासत के आधार पर नागरिक का निर्माण हो, इस बुनियादी तथ्य को अनदेखा किया गया है। शिक्षा का आधार मानव को संसाधन बना कर उसका मशीनीकरण कर दिया कर दिया गया। वह मात्र मसाला लगाया हुआ बेजान मुर्दा हो गयी है। उसमें मौलिक चिंतन का अभाव होता है। सोचनीय सवाल यह है कि स्वाधीनता के बाद ओलम्पिक में हमारी स्थिति छोटे-छोटे राष्ट्रों की तुलना में दयनीय है ?
विश्व के १५०-२०० विश्वविद्यालयमों में हमारा क्रम क्यों नगण्य है ? नोबल पुरस्कारों में स्वाधीनता के बाद हमारी उपलब्धि क्या गर्व करने लायक है ? क्या हमारे शिक्षा संस्थानों में अंतरराष्ट्रीय स्तर अनुसंधान, शोध का वातावरण है। अपराधों की भरमार के लिए क्या शिक्षा-प्रणाली दोष पूर्ण नहीं हैं। स्वाधीनता के बाद हमने 'विदेशी भाषा और संस्कृति का पोषण कर के 'इण्डिया' का अनुपयोगी, कृत्रिम,बेजान ढाँचा गढ़ा है। भारत जो कभी सोने की चीढ़िया था, उसे पुन: स्थापित करने की ज़रा भी चेष्टा नहीं की जा सकी है।
तमिलनाडु में सी बी एस सी में से भारत की प्रथम संवैधानिक भाषा हिंदी को हटा दिया गया है। कक्षाओं में अँग्रेजी और तमिल का स्थान रखा गया है। हिंदी ग़ायब है। वहाँ के विद्यालयों के बालक का हिंदी अभाव में देश से सामंजस्य कैसे होगा ? राजनीति के स्वार्थ में राष्ट्रीय ताना बाने को स्वाह किया जा रहा है। परस्पर एकता की भावना की तहस नहस की जा रही है। संविधान में प्रदत्त समान अधिकार के सिद्धांत की बलि चढ़ा दी गयी है।
तमिलनाडु में सी बी एस सी में से भारत की प्रथम संवैधानिक भाषा हिंदी को हटा दिया गया है। कक्षाओं में अँग्रेजी और तमिल का स्थान रखा गया है। हिंदी ग़ायब है। वहाँ के विद्यालयों के बालक का हिंदी अभाव में देश से सामंजस्य कैसे होगा ? राजनीति के स्वार्थ में राष्ट्रीय ताना बाने को स्वाह किया जा रहा है। परस्पर एकता की भावना की तहस नहस की जा रही है। संविधान में प्रदत्त समान अधिकार के सिद्धांत की बलि चढ़ा दी गयी है।
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अनिल कुमार साहू
शिक्षा राज्यों का विषय है फिर भी सभी राज्यों की शिक्षा पद्धति/पाठ्यक्रम में एक विषय हिंदी 12वीं कक्षा तक अनिवार्य रूप से पठन-पाठन की व्यवस्था हो।
प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी
मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
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