शिक्षा नीति के संबंध में सुझाव - भाग - 4
क्या आप भी भारतीय भाषा - संस्कृति के पक्षधर हैं ? यदि हाँ तो कृपया सुझाव आदि उपर्युक्त ई मेल पते पर शीघ्र भेजें।श्री प्रकाश जावेड़कर,माननीय मानव संसाधन विकास मंत्री,मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकारनई दिल्ली – 110001विषय: राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2016महोदय,आपके मानव संसाधन विकास मंत्री नियुक्त होने पर मैं आपका अभिवादन करता हूँ। आशा करता हूँ कि आप जैसे कर्मठ और परिश्रमी व्यक्ति के नेतृत्व में यह मंत्रालय शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन लाएगा। आपके मंत्रालय ने शिक्षा नीति पर जो विचार और प्रस्ताव माँगे हैं उन्हें मैं आपके पास बिंदुओं के रूप में भेज रहा हूँ। यदि आवश्यकता पड़ती है तो मैं इन प्रस्तावों को विस्तार से लिखूँगा और चर्चा करूँगा। अन्य प्रस्ताव भी भेजे जा सकते हैं। आशा करता हूँ कि आप इन पर सकारात्मक रूप से विचार करेंगे।आपके मंत्रालय ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2016 का प्रारूप केवल अंग्रेज़ी में भेजा है। यदि इसे हिन्दी में भी भेजा जाता तो अत्यंत प्रसन्नता होती। दूसरा, इस शिक्षा नीति के निर्माण में शिक्षाविदों की अपेक्षा नौकरशाहों को अधिक तरजीह दी गई है। नौकरशाह प्रशासनिक कार्यों में तो दक्ष हो सकते हैं, किंतु शिक्षा की बारीकियों से वे प्राय: अनभिज्ञ होते हैं। इसलिए शिक्षा नीति समिति में शिक्षाविदों और शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे विद्वानों को अधिक स्थान दिया जाना चाहिए। अस्तु! मेरे प्रस्ताव निम्नलिखित बिंदुओं में इस प्रकार हैं:1. शिक्षा नीति का निर्माण करते हुए हम लक्ष्य (0bjective), साधन (Instrument) और केंद्रक (Locus) में सही भेद नहीं कर पाते। वास्तव में शिक्षा का केंद्रक विद्यार्थी ही होता है। शिक्षक, शिक्षण-सामग्री, शिक्षण-विधि आदि अनेक तत्व शिक्षा के साधन हैं जो निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक होते हैं। लक्ष्य के संदर्भ में पुराने और नए मूल्यों के ज्ञान के साथ-साथ विद्यार्थी में अंतर्दृष्टि भी उत्पन्न करना है ताकि बालक अपने भावी जीवन में उनका उपयोग कर सके। उसका बहुमुखी और बहुप्रयोजनी विकास हो सके और उसमें अपने सामाजिक-सांस्कृतिक तथा व्यक्तिपरक आवश्यकताओं के प्रति समझदारी पैदा हो सके।2. समाज और राष्ट्र की अपेक्षाओं के परिप्रेक्ष्य में हम शिक्षा में कई आधारभूत प्रश्नों की उपेक्षा कर जाते हैं। इसमें एक प्रश्न भाषा भी है। यदि अर्थशास्त्र, इतिहास, भूगोल, भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र आदि विषयों को अपनी मातृभाषा से न जोड़ कर शिक्षा देते हैं तो विद्यार्थी उसके संप्रेष्य कथ्य को न तो अपनी संकल्पनात्मक भूमि पर उतार पाएगा और न ही उसे अपने भीतर आत्मसात कर पाएगा। यही कारण है कि आज के लगभग सभी शिक्षाविदों और दार्शनिकों का यह मानना है कि शैक्षिक उद्देश्य की असफल परिणति अथवा गलत उपलब्धि के पीछे मूलत: भाषा की असफल सिद्धि अथवा गलत प्रयोग है। कोठारी आयोग (1964-66) ने भी उच्च शिक्षा में अपनी भाषाओं को लाने की जो संस्तुति की थी, उसे न तो गंभीरता से लिया गया और न ही उनका कार्यान्वयन पूरी तरह से हुआ। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2016 के प्रारूप के मद 4.11 में भाषा के बारे में केवल सांकेतिक रूप से बात की गई है।3. इसलिए मातृभाषा/प्रथम भाषा अर्थात भारत में हिन्दी और भारतीय भाषाओं को विषय के रूप में तो पढ़ाया जाए लेकिन शिक्षा-माध्यम (Medium of Instruction) के रूप में अनिवार्य रूप से हों। वस्तुत: मातृभाषा पालने की भाषा होती है जिससे व्यक्ति की अपनी अस्मिता प्राप्त करने में सहायता मिलती है, अपने समाज और राष्ट्र के साथ उसका समाजीकरण होता है। इसके साथ ही मातृभाषा विद्यार्थी के सामाजिक एवं सांस्कृति विकास में सहायक तो होती ही है, बौद्धिक चेतना का अवलंब भी बनती है और राष्ट्रीय भावना का संवाहक भी। साथ ही शिक्षा की गुणवत्ता में भी वृद्धि होगी।4. शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेज़ी को अनिवार्य न बनाया जाए। यदि बनाना ही है तो प्राथमिक स्तर पर नहीं, उच्च स्तर पर विषय के रूप में रखा जा सकता है लेकिन शिक्षा-माध्यम के रूप में कतई नहीं। शिक्षा-माध्यम के रूप में अंग्रेज़ी से विद्यार्थियों की बौद्धिक और संकल्पनात्मक शक्तियों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा और उनकी रचनात्मक प्रतिभा का विकास भी नहीं होगा।5. उच्च शिक्षा में मातृभाषा/प्रथम शिक्षा की अनिवार्यता तो है ही, साथ ही व्यावसायिक शिक्षा (Professional Courses) में हिन्दी या भारतीय भाषाओं का प्रयोग किया जाए। विश्व के अधिकतर देशों में व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में अपने-अपनी भाषाएँ शिक्षा-माध्यम के रूप में प्रयुक्त होती हैं, न की अंग्रेज़ी। इससे उनके अनुसंधान और वैज्ञानिक तकनीकों का संवर्धन ही हुआ है और विश्व में उन्हें पूरी मान्यता भी मिली है।6. उच्च शिक्षा और व्यावसायिक शिक्षा की शिक्षण-सामग्री या पुस्तकें हिन्दी और भारतीय भाषाओं में तैयार कराई जा सकती हैं। उच्च शिक्षा की अनेक पुस्तकें विभिन्न राज्यों की ग्रंथ अकादमियाँ तैयार करती हैं। उनमें सुधार की अत्यंत आवश्यकता के साथ उनको प्रोत्साहन देने की भी ज़रूरत है। व्यावसायिक शिक्षा के लिए राष्ट्रीय शिक्षा अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) जैसा कोई परिषद स्थापित किया जाए जिसमें चिकित्सा, इंजीनियरिंग, प्रौद्योगिकी, भाषा प्रौद्योगिकी, विधि, वाणिज्य, प्रबंधन आदि पाठ्यक्रमों के लिए शिक्षण-सामग्री का मौलिक लेखन, अनुवाद और अनुसृजन हिन्दी और भारतीय भाषाओं में कराया जाए। कुछ विश्वविद्यालयों को भी यह कार्य सौंपा जा सकता है। इससे हमारे प्रधान मंत्री मोदी जी के डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया, मेक-इन-इंडिया आदि अभियान पूरी तरह सफल होंगे।7. साक्षरता अभियान अथवा सर्व शिक्षा अभियान (Universal Education campaign) कई वर्षों से मंद गति में चल रहा है। इसे पुन: बढ़ावा दिया जाए। साक्षरता अभियान में व्यक्ति को अपनी भाषा में बोलने और समझने की दक्षता के साथ-साथ पढ़ने और लिखने के कौशलों का विस्तार करना मुख्य लक्ष्य होता है किंतु आधुनिक संदर्भ में साक्षरता के अंतर्गत अन्य प्रयोजनमूलक और प्रकार्यात्मक विषयों की अभिव्यक्ति में क्षमता पैदा करना है ताकि वह अपनी अभिव्यक्ति में बौद्धिक विकास के साथ-साथ अपने व्यवसाय संबंधी आवश्यकताओं के लिए मौखिक और लिखित दोनों स्तरों पर सार्थक भूमिका निभा सके।8. स्कूली शिक्षा में भी क्रांतिकारी परिवर्तन लाने की नितांत आवश्यकता है। राज्य सरकारों के सहयोग से सरकारी स्कूलों के शैक्षिक स्तर और उसकी अधिसंरचना (Infrastructure) में सुधार लाने से ही शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ेगी। हमें इसके उदाहरण फ़िनलैंड,नीदरलैंड, स्वीडन आदि अनेक देशों में मिल जाते हैं। इन देशों की शिक्षा प्रणाली एक आदर्श है जिसका प्रयोग हम भारतीय परिप्रेक्ष्य में कर सकते हैं।9. निजी स्कूलों की व्यवस्था को (Private School System) निरुत्साहित करने की आवश्यकता है। इससे सरकारी स्कूलों की अक्षमता की गलत धारणा पैदा होती है, विद्यार्थियों में अमीरी-गरीबी जैसी सम-विषम की भावना पैदा होती है और निजी स्कूलों के प्रबंधकों की मनमानी से शैक्षिक, सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक आदि कई समस्याएँ खड़ी होती रहती हैं।10. समूचे देश में समान शिक्षा प्रणाली (Common School System) दसवीं कक्षा तक अनिवार्य रूप से लागू हो। इसके पाठ्यक्रम,सिलेबस, पाठ्यचर्या आदि एक-समान हो। पाठ्यक्रमों में एकरूपता होने से शिक्षा सुचरू रूप से तो चले गा ही, साथ ही विद्यार्थियों में किसी राज्य के पाठ्यक्रम से तुलना करने की आवश्यकता नहीं होगी।11. स्कूलों में खेल-कूद (Sports) पर अधिक बल दिया जाए। उन्हीं स्कूलों को मान्यता दी जाए जिनके पास निर्धारित मानदंड के अनुसार खेल का मैदान हो। इससे विद्यार्थियों में खेल-भावना के साथ अनुशासन की भावना भी पैदा होगी तथा उनका स्वास्थ्य भी बना रहेगा।12. स्कूली शिक्षा से ही स्वास्थ्य शिक्षा को भी अपने पाठ्यक्रम में रखने की नितांत आवश्यकता है। इससे बालकों में स्वास्थ्य,स्वच्छता आदि के प्रति जागरूकता पैदा होगी। इसमें योग विद्या सभी के लिए अनिवार्य की जाए।13. बच्चों के लिए विद्यालय-पूर्व शिक्षा अर्थात नर्सरी शिक्षा से ही नैतिक शिक्षा की व्यवस्था की जाए। उन्हें जो बालगीत (rhymes) पढ़ाए जाएँ वे भारतीय संस्कृति के हों, न कि पाश्चात्य संस्कृति के। यह भी तभी हो सकता है, यदि प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा/प्रथम भाषा में दी जाती है।14. स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों में नैतिक शिक्षा और भारतीय संस्कृति को स्थान मिलना ज़रूरी हो गया है। इससे विद्यार्थियों में राष्ट्रीय भावना पैदा होने के साथ-साथ बड़ों-बुज़ुर्गों, परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति नैतिक, भावनात्मक आदि दायित्व-बोध पैदा होगा।15. भारत के विश्वविद्यालयों में भी सुधार और परिवर्तन लाने की ज़रूरत है। दुख है कि हमारी विश्वविद्यालयीय शिक्षा में अभी तक कोई उपयोगी सुधार नहीं हुआ। कई दशाब्दियों से वही घिसी-पिटी प्रणाली चल रही है। इसी लिए हमारे विश्वविद्यालय विश्व के 200 श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में अपना स्थान नहीं बना पाए।16. स्कूली शिक्षा से विश्वविद्यालयीय शिक्षा तक विद्यार्थियों के लिए कम-से-कम तीन वर्ष की एन. सी. सी. और सैन्य शिक्षा अनिवार्य हो। इससे विद्यार्थियों को अपने समय का सदुपयोग करने का अवसर तो मिलेगा ही, अनुशासन की भावना भी पैदा होगी और देश को जब कभी उनकी आवश्यकता पड़ेगी तो वे देश के लिए हितकर और उपयोगी होंगे।17. विश्वविद्यालयों में दीर्घावकाश (Summer & Winter Vacations) के दौरान विद्यार्थियों के लिए कौशल विकास कार्यक्रम (Skill Development Programme), व्यावसायिक प्रशिक्षण (Vocational Training), तकनीकी शिक्षा आदि अनेक अल्पकालिक शिविर या कार्यक्रम आयोजित किए जाएँ।18. स्कूली, महाविद्यालयीय, विश्वविद्यालयीय अध्यापकों के लिए भी अल्पकालिक या गहन नवाचार (Short term or Intensive Innovation) कार्यक्रम या शिविर आयोजित तो किए जाते हैं (नई शिक्षा नीति में भी इसका ज़िक्र है) लेकिन उनके प्रति गंभीरता दिखाई नहीं देती। केवल औपचारिकता निभाई जाती है। वास्तव में शिक्षा प्रणाली ने और अध्यापकों के विषयों में जो नए अनुसंधान,नए परिवर्तन, नए ज्ञान या नई खोजें हुई हों उनकी अद्यतन जानकारी बहुत कम दी जाती है। इसपर ध्यान देना आवश्यक है ताकि शिक्षा का गुणात्मक सुधार हो सके। इसी संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय आदान-प्रदान योजना के अंतर्गत विदेश के विश्वविद्यालयों या शैक्षिक संस्थानों में शिक्षकों को विशेष ज्ञान के लिए भी भेजा जा सकता है।19. स्कूली अध्यापकों की भर्ती के लिए कुछ राज्यों में भर्ती परिषद गठित किए गए हैं, लेकिन उनकी कार्य- प्रणाली दोषपूर्ण है। इसमें क्रांतिकारी सुधार लाने और परिवर्तन करने की नितांत आवश्यकता है। इसी प्रकार महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों,विशेषकर केंद्रीय विश्वविद्यालयों के अध्यापकों की नियुक्ति या भर्ती के लिए संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) जैसा आयोग गठित किया जाए ताकि अध्यापकों का चयन सही रूप से हो सके।20. शोधार्थियों के शोध-कार्य को गुणात्मक और नवीनतम बनाने के प्रयास किए जाएँ। अधिकतर अध्यापक न तो उस विषय से परिचित होते हैं, न ही वे स्वयं उस विषय का अध्ययन करते हैं और इसी लिए शोधार्थी का मार्गदर्शन नहीं कर पाते। कई बार विद्यार्थी बेचारा इधर-उधर भटकता रहता है। इसके अतिरिक्त शोध-कार्य के दौरान शोधार्थी को कुछ जूनियर कक्षाएँ दी जाएँ अथवा उन्हें कुछ ऐसा कार्य दिया जाए जो उनके भावी जीवन में उपयोगी हो सके। इससे उसे अनुभव तो प्राप्त होगा, उसके खाली समय का सदुपयोग होगा।21. स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों, विशेषकर शोधार्थियों को आसानी से पुस्तक उपलब्ध कराने की भी व्यवस्था की जाए। अंतर-पुस्तकालय प्रणाली चलाई जा सकती है। संचार के युग में डिजिटल लाइब्रेरी पद्धति बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है। इसमें नेशनल लाइब्रेरी आफ इंडिया का सहयोग लिया जा सकता है।प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी (दिल्ली)फोन: 0-9971553740, 011-45651396----------------------------------------------------------------------------------------------मान्यवरवंदे मातरम।० १. प्रकृति गर्भ से ही जीव को शिक्षित करना प्रारम्भ कर देती है। माता प्रथम गुरु होती है अत:, माँ द्वारा उपयोग की जाती भाषा जातक की मातृभाषा होती जिसके शब्दों और उनके साथ जुडी संवेदना को शिशु गर्भ से ही पहचानने लगता है। विश्व के सभी शिक्षा-शास्त्री और मनोवैज्ञानिक एकमत हैं कि शिशु का शिक्षण मातृ भाषा में होना चाहिए। दुर्योगवश भारत में राजनैतिक स्वतंत्रता मिलने के तुरंत बाद अंग्रेजभक्त नेता, दल और प्रशासनिक अधिकारी सत्ता पर आ गए और मातृभाषा तथा राजभाषा उपेक्षित होकर पूर्व संप्रभुओं की आंग्ल भाषा शिक्षा पर थोप दी गयी। वर्तमान में सबसे पहली प्राथमिकता शिक्षा के माध्यम के रूप में पहला स्थान मातृभाषा फिर राज भाषा हिंदी को देना ही हो सकता है। अंग्रेजी का भाषिक आतंक यदि अब भी बना रहा तो वह भविष्य के लिए घातक और त्रासद होगा।०२. शिक्षा की दो प्रणालियाँ शैशव से ही समाज को विभक्त कर देती हैं। अत:, निजी शिक्षण व्यवस्था को हतोत्साहित कर क्रमश; समाप्त किया जाए। राष्ट्रीय एकात्मकता के लिये भाषा, धर्म, क्षेत्र, लिंग या अभिभावक की आर्थिक स्थिति कुछ भी हो हर शिशु को एक समान शिक्षा प्राथमिक स्तर पर दी जाना अपरिहार्य है। इस स्तर पर मातृ भाषा, राजभाषा, गणित, सामान्य विज्ञान (प्रकृति, पर्यावरण, भौतिकी, रसायन आदि), सामान्य समाज शास्त्र (संविधान प्रदत्त अधिकारों व् कर्तव्यों की जानकारी, भारत की सभ्यता, संस्कृति, सर्व धर्म समभाव, राष्ट्रीयता, मानवता, वैश्विकता आदि), मनोरंजन (साहित्य, संगीत, नृत्य, खेल, योग, व्यायाम आदि), सामाजिक सहभागिता व समानता (परिवार, विद्यालय, ग्राम, नगर, राष्ट्र, विश्व के प्रति कर्तव्य) को केंद्र में रखकर दी जाए। बच्चे में शैशव से ही उत्तरदायित्व व् लैंगिक समानता का भाव विकसित हो तो बड़े होने पर उसका आचरण अनुशासित होगा और अनेक समस्याएँ जन्म ही न लेंगीं।०३. माध्यमिक शिक्षा का केंद्र बच्चे के प्रतिभा, रूचि, योग्यता, आवश्यकता और संसाधनों का आकलन कर उसे शिक्षा ग्रहण करने के क्षेत्र विशेष का चयन करने के लिए किया जाना चाहिए। प्राथमिक शिक्षा के विषयों में कुछ अधिक ज्ञान देने के साथ-साथ शारीरिक-मानसिक सबलता बढ़े तथा अभीष्ट दिशा का निर्धारण इसी स्तर पर हो तो कैशोर्य समाप्त होने तक बच्चे में उत्तरदायित्व के प्रति जागरूकता व् उत्सुकता होगी, साथ ही सामने एक लक्ष्य भी होगा। जिस बच्चे में किसी खेल विशेष की प्रतिभा हो उसे उस खेल विशेष का नियमित तथा विशिष्ट प्रशिक्षण उपलब्ध करा सकनेवाली संस्था में प्रवेश दे कर अन्य विषय पढ़ाए जाए। इसी तरह संगीत, कला, साहित्य, समाजसेवा, विज्ञान आदि की प्रतिभा पहचान कर स्वभाषा में शिक्षण दिया जाए। हर विद्यालय में स्काउट / गाइड हो ताकि बच्चों में चारित्रिक गुणों का विकास हो।०४. उच्चतर माध्यमिक स्तर पर हर बच्चे की प्रतिभा के अनुरूप क्षेत्र में उसे विशेष शिक्षण मिले। इस स्तर पर यह भी पहचान जाए कि किस विद्यार्थी में उच्च शिक्षा ग्रहण करने की पात्रता और चाहत है तथा कौन आजीविका अर्जन को प्राथमिकता देता है? जिन विद्यार्थियों में व्यावहारिक समझ अधिक और किताबी ज्ञान में रूचि कम हो उन्हें रोजगारपरक शिक्षा हेतु पॉलिटेक्निक और आई. आई. टी. में भेजा जाए जबकि किताबी ज्ञान में अधिक रूचि रखनेवाले विद्यार्थी स्नातक शिक्षा हेतु आगे जाएँ। हर विद्यार्थी में चारित्रिक विकास के लिए स्काउट / गाइड अनिवार्य हो।०५. विद्यार्थी स्नातक पाठ्यक्रम हेतु खुद विषय न चुने अपितु मनोवैज्ञानिक परीक्षण कर उसकी सामर्थ्य और उसमें छिपी सम्भावना का पूर्वानुमान कर उसे दिशा-दर्शन देकर उसके लिये सर्वाधिक उपयुक्त विषय, उस विषय के योग्यतम शिक्षक जिस संस्थान में हों वहाँ उसे प्रवेश दिया जाए। हर विद्यार्थी को एन. सी. सी. लेना अनिवार्य हो ताकि उसमें आत्मरक्षण, अनुशासन तथा चारित्रिक गुण विकसित हों। आपदा अथवा संकट काल में वह अपनी और अन्यों की रक्षा करने के प्रति सजग हो।०६. शालेय शिक्षा की अंतिम परीक्षा में प्राप्त अंकों के आधार पर ही स्नातक कक्षाओं में प्रवेश हो। सभी चयन परीक्षाएँ तत्काल बंद कर दी जाएँ तो इन के आयोजन में व्यर्थ खर्च होनेवाली विशाल धनराशि, स्टेशनरी, कार्य घंटे, इनके आयोजन में हो रहा भ्रष्टाचार (उदाहरण व्यापम, बिहार का फर्जीवाड़ा आदि) अपने आप समाप्त हो जायेगा तथा अभिभावक को पैसों की दम पर अयोग्य को बढ़ाने का अवसर न मिलेगा। इससे शालेय स्तर पर गंभीरता से पढ़ने और अनुशासित रहने की प्रवृत्ति भी होगी।०७. स्नातक स्तर पर विषय का अद्यतन ज्ञान देने के साथ-साथ विद्यार्थी की शोध क्षमता का आकलन हो। जिनकी रुचि व्यवसाय में हों वे इसी स्तर पर संबंधित विषय के प्रबंधन, कानूनों, बाज़ार, अवसरों और सामग्रियों आदि पर केंद्रित डिप्लोमा कर व्यवसाय में आ सकेंगे। इससे उच्च शिक्षा स्तर पर अयोग्य विद्यार्थियों की भीड़ कम होगी और योग्य विद्यार्थियों पर अधिक ध्यान दिया जा सकेगा।०८. स्नातकोत्तर कक्षाओं में वही विद्यार्थी प्रवेश पायें जिन्हें शिक्षण अथवा शोध कार्य में रूचि हो। प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक, स्तर तक अध्यापन हेतु स्नातक शिक्षा तथा अध्यापन शास्त्र में विशेष शिक्षा आवश्यक हो। स्नातकोत्तर कक्षाओं में अध्यापन हेतु शोध उपाधि अपरिहार्य हो।०९ शोध निदेशक बनने हेतु शोध उपाधि के साथ पाँच वर्षीय अध्यापन अनुभव अनिवार्य हो जिसमें ७५% विद्यार्थी उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण हुए हों।१०. तकनीकी (अभियांत्रिकी / चिकित्सा / कृषि ) शिक्षा- इन क्षेत्रों में उच्चतर माध्यमिक परीक्षा में प्राप्तांकों के आधार पर विद्यार्थी को प्रवेश दिया जाय। प्रतियोगिता परीक्षाएँ समाप्त की जाएँ ताकि विशाल धनराशि, लेखा सामग्री एवं ऊर्जा का अपव्यय और भ्रष्टाचार समाप्त हो। विद्यार्थियों को उपलब्ध स्थान के अनुसार मनपसन्द शाखा तथा स्थान समाप्त होने पर उपलब्ध शाखा में प्रवेश लेना होगा। निजी अभियांत्रिकी महाविद्यालयों को शासन ने रियायती दर पर बहुमूल्य भूमि और अन्य सुविधाएँ उपलब्ध कराई हैं। इनके प्रबंधक प्राध्यापकों को न्यूनतम से काम पारिश्रमिक देकर उनका शोषण कर रहे हैं। कम वेतन के कारण विषय के विद्वान् शिक्षक यहाँ नहीं हैं। औसत अंक लेकर उत्तीर्ण हुआ विषय का पूरा ज्ञान नहीं रखता तो वह विद्यार्थी को पूरा विषय कैसे पढ़ा सकता है? फलत: सा; दर साल अभियांत्रिकी उपाधिधारकों का स्तर निचे गिर रहा है। माननीय प्रधानमंत्री जी इस सन्दर्भ में कई बार चिंता व्यक्त कर चुके हैं। जिन निजी शैक्षणिक संस्थाओं के विद्यालय / महाविद्यालय घाटे में बताये जा रहे हैं उनसे शासन मूल कीमत देकर भूमि तथा वर्तमान मूल्यांकन के आधार पर भवन वापिस लेकर वहाँ अभियांत्रिकी या अन्य विषयों के शिक्षण संस्थान चलाए या भवनों का कार्यालय आदि के लिए उपयोग कर ले।१ १. तकनीकी शिक्षा का स्तर उठाने के लिये सभी परीक्षाएँ ऑन लाइन हों। प्रश्नों की संख्या अधिक रखी जाए ताकि नकल करना या प्रश्नोत्तरी किताबों से पढ़ने की प्रवृत्ति घटे और विषय की मुख्य पाठ्यपुस्तक से पूरी तरह पढ़े बिना उत्तीर्ण होना संभव न रहे। किसी विषय में शिक्षा प्राप्त युवा उसी क्षेत्र में सेवा या व्यापार कार्य करें। किसी पद के लिए निर्धारित से काम या अधिक योग्यता के उम्मीदवार विचारणीय न हों क्यों कि ऐसा न होने पर सामान योग्यताधारकों को समान अवसर के नैसर्गिक सिद्धांत का पालन नहीं हो पाता।१२. प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारी तकनीकी क्षेत्र के कार्यों का प्रबंधन, मार्गदर्शन और नियंत्रण करते हैं इसलिए इन पदों के लिए तकनीकी शिक्षाधारी ही सुपात्र हैं। तकनीकी शिक्षा के पाठ्यक्रम में सम्बंधित विषय से जुड़े अथवा कार्यक्षेत्र में प्रयुक्त होनेवाले कानूनों, प्रबंधन शास्त्र, लेखा शास्त्र तथा प्रशासन कला से जुड़े प्रश्न पत्र जोड़े जाएँ ताकि तकनीकी स्नातक कार्य क्षेत्र में इनसे जुडी जिम्मेदारियों को सुचारू रूप से वहन कर सकें। तकनीकी उपाधि के समान्तर प्रबंधन और प्रशासन की उपाधि का अध्ययन कराया जा सकें तो ५ वर्ष की समयावधि में दो उपाधिधार युवक को अवसर प्राप्ति अधिक होगी।१३. शासकीय कार्य विभागों में ठेकेदारी हेतु अभियांत्रिकी में स्नातक होना अनिवार्य हो ताकि गैर तकनीकी ठरकेदारों से कार्य की गुणवत्ता न गिरे।१४. अभियांत्रिकी पाठ्यक्रमों में मानक संहिताओं को सम्मिलित किया जाए। नेशनल बिल्डिंग कोड आदि विद्यार्थियों को रियायती मूल्य पर अनिवार्यत: दिए जाएँ।१५. अभियंताओं की सर्वोच्च संस्थाओं इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स, इन्डियन जियोटेक्निकल सोसायटी, इंडियन अर्थक्वैक सोसायटी आदि की मदद से पाठ्यक्रमों का पुनर्निर्धारण हो। पूरे देश में एक समान पाठ्यक्रम हो।१६. इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स के केंद्रों में सदस्य अनुभवी अभियंता होते हैं उनके कौशल और ज्ञान का उपयोग शासकीय योजनाओं के प्रस्ताव बनाने, कार्यों के पर्यवेक्षण, मूल्यांकन, संधारण आदि में किया जा सकता है। सेवानिवृत्त अभियंताओं की योग्यता का लाभ देश और समाज के लिये लिया जा सकता है।१७. प्राकृतिक आपदाओं तथा संकट काल का सामना करने विशेष प्रविधियों की आवश्यकता होती है। ऐसे समय में हर नागरिक की भूमिका महत्वपूर्ण तथा अन्यों की जीवन बचने में महत्वपूर्ण होती है। सभी पाठ्यक्रमों में आपदा प्रबंधन तथा सामान्य स्वास्थ्य रक्षा सम्बन्धी सामग्री जोड़ी जाए।१८. सभी पाठ्यक्रमों में शिक्षा का माध्यम हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाएँ हों। अंग्रेजी की भूमिका क्रमश: समाप्त की जाए।मुझे आशा ही विश्वास है की सुझावों पर विचार कर समुचित निर्णय लिए जायेंगे। इस सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का सहयोग कर प्रसन्नता होगी।एक नागरिकअभियंता संजीव वर्मा 'सलिल'अधिवक्ता उच्च न्यायालय मध्य प्रदेशसमन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१----------------------------------------------------------------------------------------------
आदरणीय बंधु/बहिन,हरनंदी कहिन, पर्यावरण संरक्षण समर्पित, हिंदी मासिक पत्रिका, जुलाई 2016 ( E - Copy) आपके सम्मुख है।पर्यावरण संरक्षण की दिशा में हमारा ये प्रयास आपको कैसा लगता है अथवा कोई लेख, कविता, कार्टून आदि जिसने आपको प्रभावित किया हो, के विषय में दो लाइन लिख भेजें।एक स्वस्थ वार्तालाप के लिए दोनों पक्षों से विचारों का आदान-प्रदान अत्यंत आवश्यक है।कृपया, हरनंदी कहिन की E - Copy अपने मित्रों के साथ साझा कर पर्यावरण संरक्षण की भावना समाज में प्रसारित करें।रचनाकारों से विनम्र निवेदन है कि उपरोक्त पत्रिका में पर्यावरण संरक्षण व संतुलित जीवन विकास की भावना से प्रेरित लेख, संस्मरण, कहानी, व्यंगचित्र, कलाचित्र, कविता, दोहे, स्लॉगन आदि पत्रिका के अगामी अंकों में निःशुल्क प्रकाशन हेतु भेज पर्यावरण संरक्षण में अपना अमूल्य योगदान दें।कृपया लेख, कहानी आदि – 900 या 1800 शब्द, संस्मरण – 500,900 या 1800 शब्द, कविता आदि – 40-60 शब्दों में ही भेजें।आपकाप्रशांत वत्स, प्रकाशकहरनंदी कहिन,
प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी
मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
murarkasampatdevii@gmail.com
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मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
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