यात्रा क्रम तृतीय भाग - पर्यटन से बढ़ाये अनुराग
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[पुस्तक विवरण- यात्रा क्रम तृतीय भाग, संपत देवी मुरारका, प्रथम
संस्करण नवंबर २०१४, पृष्ठ १८०+३०, मूल्य ३००/-, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, प्रकाशन तारा बुक एजेंसी, सिद्ध गिरि बाग़, वाराणसी, लेखिका संपर्क- ४-२-१०७ / ११० प्रथम तल, श्रीकृष्ण मुरारका पैलेस, बड़ी चोवडी, सुल्तान बाजार, हैदराबाद, ९४४१५११२३८।]
संस्करण नवंबर २०१४, पृष्ठ १८०+३०, मूल्य ३००/-, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, प्रकाशन तारा बुक एजेंसी, सिद्ध गिरि बाग़, वाराणसी, लेखिका संपर्क- ४-२-१०७ / ११० प्रथम तल, श्रीकृष्ण मुरारका पैलेस, बड़ी चोवडी, सुल्तान बाजार, हैदराबाद, ९४४१५११२३८।]
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हिंदी साहित्य में यात्रा वृत्तांत अथवा पर्यटन साहित्य को स्वतंत्र विधा के रूप में मान्य किये जाने के बाद भी उतना महत्व नहीं मिला जितना मिलना चाहिए। इसके कारण हैं- १. रचनाकारों का गद्य-पद्य की अन्य विधाओं की तुलना में इस विधा को कम अपनाना, २. इस विधा में रचनाकर्म के लिये सामग्री जुटाना कठिन, व्यय साध्य तथा समय साध्य होना, ३. यात्रा वृत्त लिखने के लिये भाषा पर अधिकार, अभिव्यक्ति क्षमता तथा समृद्ध शब्द भंडार होना, ४. यात्रा के समय पर्यटन स्थल की विशेषता, उसके इतिहास, महत्त्व, समीपस्थ सभ्यता-संस्कृति आदि के प्रति, रूचि, समझ, सहिष्णुता होना, ५. विषय वस्तु को विस्तार और संक्षेप में कह सकने की क्षमता और समझ, ६. वर्ण्य विषय का वर्णन करते समय सरसता और रूचि बनाए रखने की सामर्थ्य जिसे कहन कह सकते हैं, ७. प्राय: लम्बे वर्णों के कारण अधिक पृष्ठ संख्या और अधिक प्रकाशन व्यय को वहन कर सकने की क्षमता, ८. स्थान-स्थान पर जाने का चाव, ९. पर्यटन साहित्य सम्बन्धी मानकों का अभाव, १०. पर्यटन साहित्य पर परिचर्चा, कार्यशाला, संगोष्ठी, स्वतंत्र पर्यटन पत्रिका, पर्यटन साहित्य रच रहे रचनाकारों का कोई मंच/ संस्था आदि का न होना तथा ११. पर्यटन साहित्य को पुरस्कृत किये जाने, पर्यटन साहित्य पर शोध कार्य आदि का न होना।
विवेच्य कृति यात्रा क्रम तृतीय भाग की लेखिका श्रीमती संपत देवी मुरारका साधुवाद की पात्र हैं कि उक्त वर्णित कारणों के बावजूद वे न केवल पर्यटन करते रहीं अपितु सजगता के साथ पर्यटित स्थानों का विवरण, जानकारी, चित्र आदि संकलित कर अपनी सुधियों को कलमबद्ध कर प्रकाशन भी करा सकीं। किसी संभ्रांत महिला के लिये पर्यटन हेतु बार-बार समय निकाल सकना, स्वजनों-परिजनों से सहमति प्राप्त कर सकना, आर्थिक संसाधन जुटाना, लक्ष्य स्थान की यात्रा, आवागमन-यातायात-आरक्षण-प्रवास की समस्याओं से जूझना, समान रूचि के साथी जुटाना, पर्यटन करते समय लेखन हेतु आवश्यक जानकारी जुटना, सार-सार लिखते चलना, लौटकर विधिवत पुस्तक रूप देना और प्रकाशन कराना हर चरण अपने आपमें श्रम, लगन, समय, प्रतिभा, रूचि और अर्थ की माँग करता है। संपत जी इस दुरूह सारस्वत अनुष्ठान को असाधारण जीवट, सम्पूर्ण समर्पण, एकाग्र चित्त तथा लगन से एक नहीं तीन-तीन बार संपन्न कर चुकी हैं। क्रिकेट खेलने वाले लाखों खिलाडियों में से कुछ सहस्त्र ही प्रशंसनीय गेंदबाजी कर पाते हैं, उनमें से कुछ सौ अपने उल्लेखनीय प्रदर्शन के लिये याद रखे जाते हैं और अंत में तीन गेंदों पर तीन विकेट लेकर मैच जितने वाले अँगुलियों पर गिने जाने योग्य होते हैं। संपत जी की पर्यटन-ग्रंथ त्रयी ने उन्हें इस दुर्लभ श्रेणी का पर्यटन साहित्यविद बन दिया है। उनकी उपलब्धि अपने मानक आप बनाती है।
दुर्योगवश मुझे यात्रा क्रम के प्रथम दो भाग पढ़ सकने का सुअवसर नहीं मिला सका, भाग तीन पढ़कर आनंदाभिभूत हूँ। ग्रंथारम्भ में लेखिका ने अपने पूज्य ससुर जी तथा सासू जी को ग्रंथार्पित कर भारतीय साहित्य परंपरा में अग्रपूजन के विधान के साथ पारिवारिक परंपरा व व्यक्तिगत श्रद्धा भाव को मूर्त किया है। बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय लखनऊ की कुल सचिव सुनीता चंद्रा जी, रंगकर्मी रामगोपाल सर्राफ वाराणसी, श्रेष्ठ-ज्येष्ठ रचनाकारों ऋषभ देव शर्मा जी, डॉ. श्याम सिंह 'शशि' जी, बी. आर. धापसे जी औरंगाबाद, प्रो. शुभदा वांजपे जी हैदराबाद, शिशुपाल सिंह 'नारसरा' जी फतेहपुर सीकर, नथमल केडिया जी कोलकाता, सरिता डोकवाल जी, एन. एल. खण्डेलवाल जी, चंद्र मौलेश्वर प्रसाद जी सिकंदराबाद, शशिनारायण 'स्वाधीन', डॉ. अहिल्या मिश्र हैदराबाद, बिशनलाल संघी हैदराबाद, पुष्प वर्मा 'पुष्प' हैदराबाद, आदि की शुभाशंंषाएँ व सम्मतियाँ इस ग्रन्थ की शोभवृद्धि करने के साथ-साथ पूर्व २ भागों का परिचय भी दे रही हैं।
पर्यटन ग्रन्थ माला की यह तीसरी कड़ी है। आंकिक उपमान की दृष्टि से अंक तीन त्रिदेव (ब्रम्हा-विष्णु-महेश), त्रिने त्र (२ दैहिक, १ मानसिक), त्रिधारा (गंगा-यमुना-सरस्वती), त्रिलोक (स्वर्ग-भूलोक-पाताल), त्रिकाल (भूत-वर्तमान-भविष्य), त्रिगुण (सत्व, रज, तम), त्रिअग्नि (भूख, अपमान, अंत्येष्टि), त्रिकोण, त्रिशूल (निर्धनता, विरह, बदनामी), त्रिराम (श्रीराम, परशुराम, बलराम), त्रिशक्ति (अभिधा, व्यंजना, लक्षणा), त्रि अवस्था (बचपन, यौवन, बुढ़ापा), त्रि तल (ऊपर मध्य, नीचे), त्रिदोष (एक, पित्त, वात), त्रि मणि (पारस, वैदूर्य, स्यमंतक) का प्रतीक है।
विवेच्य कृति की अंतर्वस्तु ९ अध्यायों में विभक्त है। भारतीय वांग्मय में ९ एक गणितीय अंक मात्र नहीं है। ९ पूर्णता का प्रतीक है। नौ गृह, नौगिरहि बहुमूल्य नौगही (हार), नौधा (नवधा) भक्ति, नौमासा गर्भकाल, नौरतन (हीरा, मोती, माणिक्य, मूँगा, पुखराज, नीलम, लहसुनिया,) नौनगा, नौलखा, नौचंदी, नौनिहाल, नौ नन्द, नौ निधि, कोई भी उपमा दें, ये ९ अध्याय नासिक महाकुंभ की यात्रा, ओशो धारा में अवगाहन, कोलकाता की यात्रा, पूर्वोत्तर की यात्रा, यात्रा दिल्ली की, राजस्थान यात्रा भाग १-२ तथा स्वपरिचय पाठक को घर बैठे-बैठे ही मानस-यात्राऐं संपन्न कराते हैं।
३ और ९ (३ का ३ गुना) का अंकशास्त्र, ज्योतिष शास्त्र तथा वस्तु शास्त्र के अनुसार विलक्षण संबंध है। पृष्ठ संख्या १८० = ९ + ३० = ३ योग २१० = ३ इस सम्बन्ध को अधिक प्रभावी बनाता है। ग्रंथ में शुभ सम्मतियों की संख्या १५ = ६ (३ का दोगुना) है। संपत जी ने नासिक, शिर्डी, दौलतबाडी, कोलकाता, दार्जिलिंग, गंगटोक, जलपाई गुड़ी, गुवाहाटी, कांजीरंगा, अग्निगढ़, तेजपुर, शिलॉन्ग, चेरापूंजी, दिल्ली, जयपुर, लक्ष्मणगढ़, सीकर, रामगढ, मंडावा, झुंझनू, चुरू, रतनगढ़, बीकानेर, जूनागढ़, रामदेवरा, लक्ष्मणगढ़, रणथंभोर, पुष्कर, मेड़ता, नागौर, मण्डोर, मेहरानगढ़, जैसलमेर, तनोट, पोखरण, बीकानेर आदि ३६ मुख्य स्थानों की यात्रा का जीवन वर्णन किया है। ३६ का योग ९ ही है। संपत जी की जन्म तिथि ३० = ३ है, माह ६ = तीन का दोगुना है। इस यात्रा में लगे दिवस, देव-दर्शन स्थल, प्रवास स्थल आदि में भी यह संयोग हो तो आश्चर्य नहीं।
ओशो धारा में अवगाहन इस कृति का सर्वाधिक सरस और रोचक अध्याय है। यह पर्यटन के स्थान पर ओशो प्रणीत ध्यान विधि में सहभागिता की अनुभूतियों से जुड़ा है। शेष अध्यायों में विविध स्थानों की प्राकृतिक सुषमा, पौराणिक आख्यान, ऐतिहासिक स्थल, घटित घटनाओं की जानकारी, स्थान के महत्व, जन-जीवन की सामाजिक-सांस्कृतिक झलक आदि का संक्षिप्त वर्णन मन-रंजन के साथ ज्ञान वर्धन भी करता है। इन यात्राओं का उद्देश्य दिग्विजय पाना, नव स्थल का नवेशन करना, किसी पर्वत शिखर को जय करना, राहुल जी की तरह साहित्य संचयन, विद्यालंकार जी की तरह शवलिक के जंगलों की शिकार गाथाओं की खोज, अथवा नर्मदा परकम्मावासियों की तरह नदी के उद्गम से समुद्र-मिलन तक परिक्रमा करना नहीं है। सम्पत जी ने सामान्य जन की तरह धार्मिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, प्राकृतिक महत्त्व क स्थलों तक जाकर उनके कल और आज को खँगालने के साथ-साथ कल की सम्भावना को यत्र-तत्र निरखा-परखा है।
राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से हर देशवासी को देश के विविध स्थानें की सभ्यता, संस्कृति, आचार-विचार, आहार-विहार, कला-कौशल आदि से परिचित होना ही चाहिए। यह कृति अपने पाठक को देश के बड़े भूभाग से परिचित कराती है। अधिकांश स्थानों पर लेखिका ने उस स्थान से जुडी पौराणिक-ऐतिहासिक जनश्रुतियों, कथाओं आदि का रोचक वर्णन किया है। इस प्रयत्न वृत्तांत श्रंखला के माध्यम से लेखिका ने अपन अनाम राहुल सांकृत्यायन, सेठ गोविंददास, देवेन्द्र सत्यार्थी, मोहन राकेश, अज्ञेय, रांगेय राघव, रामकृष्ण बेनीपुरी, निर्मल वर्मा, डॉ. नगेंद्र, सतीश कुमार आदि की पंक्ति में सम्मिलित करा लिया है।
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- समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
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प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
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