गुरुवार, 26 अगस्त 2021

[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] हिंदी के साथ अन्य भारतीय भाषाओं में इंजीनियरिंग की पढ़ाई। सराहनीय है पहल : पर कैसे होगी सफल ?- डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य

 


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हिंदी के साथ अन्य भारतीय भाषाओं में इंजीनियरिंग की पढ़ाई

सराहनीय है पहल : पर कैसे होगी सफल ?

- डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य' 

र्मनीरूसफ्रांसजापान और चीन सहित दुनिया के दर्जनों देशों में पूरी शिक्षा ही स्थानीय भाषाओं में दी जाती है। हाल ही में देश में आई नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी स्थानीय भारतीय भाषाओं में पढ़ाई पर जोर दिया है। अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआइसीटीई) ने फिलहाल नए शैक्षणिक सत्र से हिंदी सहित आठ भारतीय भाषाओं में इसे पढ़ाने की मंजूरी दे दी है। आने वाले दिनों में अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआइसीटीई) की योजना करीब 11 भारतीय भाषाओं में इसे पढ़ाने की है। इस बीच हिंदी के साथ इसे जिन अन्य सात भारतीय भाषाओं में पढ़ाने की मंजूरी दी गई हैउनमें मराठीबंगालीतेलुगुतमिलगुजरातीकन्नड़ और मलयालम शामिल हैं। अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद ने हिंदी सहित आठ स्थानीय भारतीय भाषाओं में इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों को शुरू करने की अनुमति के साथ ही इन सभी भाषाओं में पाठ्यक्रम को भी तैयार करने का काम शुरू कर दिया है। अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर अनिल सहस्रबुद्धे के अनुसार नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की सिफारिशों को आगे बढ़ाते हुए यह पहल की गई है। अभी तो सिर्फ हिंदी सहित आठ स्थानीय भारतीय भाषाओं में पढ़ाने की अनुमति दी गई है। आगे चलकर और 11 स्थानीय भाषाओं में भी इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम की पढ़ाई करने की सुविधा मिलेगी। फिलहाल इसके लिए सॉफ्टवेयर की मदद ली जा रही हैजो 22 भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने में सक्षम है। इसकी मदद से वह अंग्रेजी में मौजूद पाठ्यक्रम का तेजी से अनुवाद कर सकता है। अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआइसीटीई) ने हाल ही में अपनी तरह का यह नया सॉफ्टवेयर तैयार किया है।  


भारत सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति के अंतर्गत जहां मातृभाषा में शिक्षा के प्रावधान किए गए हैं, वहीं दूसरी ओर इंजीनियरिंग जैसी तकनीकी शिक्षा को जनभाषा में अर्थात भारतीय भाषाओं में उपलब्ध करवाना  एक अत्यधिक सराहनीय व साहसिक कदम है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का कहना था कि यदि देश में विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में दी जाती तो इस देश में इतने आविष्कारक और उच्च स्तरीय वैज्ञानिक होते  कि आविष्कारकों के नाम पर हम  जो दो - तीन नाम गिनवाते हैं, उन्हें तो कभी याद ही नहीं करते। देखा जाए तो सरकार की यह नीति महात्मा गांधी के सपनों को साकार करने का प्रयास है। उल्लेखनीय है कि विश्व के बीस सर्वाधिक विकसित देश वे हैं जहाँ शिक्षा और कामकाज उनकी अपनी भाषाओं में होता है। जबकि  बीस सबसे पिछड़े देश विदेशी भाषा के मोहताज हैं। 


लेकिन सच तो यह है कि स्वयं को गांधीवादी मानने वाली सरकारों ने महात्मा गांधी के चिंतन की चिंदी-चिंदी उड़ाते हुए बड़ी ही चालाकी से देश की व्यवस्था और शिक्षा की व्यवस्था का अंग्रेजीकरण किया। 1986 की  शिक्षा नीति ने तो छोटे-छोटे गांव तक और नर्सरी स्तर तक भी अंग्रेजी माध्यम पहुंचा दिया। इसके कारण अधिकांश विद्यार्थी विशेषकर ग्रामीण परिवेश के विद्यार्थी अपनी बुद्धिमत्ता के बावजूद बिछड़ने लगे।  सरकार ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी स्थानीय भारतीय भाषाओं में पढ़ाई पर जोर दिया है। सरकार का मानना है कि स्थानीय भाषाओं में पढ़ाई से बच्चे सभी विषयों को बेहद आसानी से बेहतर तरीके से सीख सकते हैं। जबकि अंग्रेजी या फिर किसी दूसरी भाषा में पढ़ाई से उन्हें दिक्कत होती है। इस पहल से ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों से निकलने वाले बच्चों को सबसे ज्यादा फायदा होगाक्योंकि मौजूदा समय में वह इन पाठ्यक्रमों के अंग्रेजी भाषा में होने के चलते पढ़ाई से पीछे हट जाते हैं। अपनी भाषाओं में शिक्षा मिलने के चलते विद्यार्थी रटने के बजाए समझेंगे और बेहतर कार्य कर सकेंगे।  प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी जी का यह कहना बिल्कुल सही है कि भारतीय भाषाओं में शिक्षा मिलने से ग्रामीण, आदिवासी, क्षेत्र के विद्यार्थियों और वंचित निर्धन वर्ग के विद्यार्थियों को विशेष लाभ मिलेगा।


अंग्रेजी माध्यम के कारण  मौलिक चिंतन के बजाय सभी क्षेत्रों में हमारे विद्यार्थी नकलची और रट्टू तोते बनने रहे हैं। शिक्षा का स्तर ज्ञान से नहीं बल्कि अंग्रेजी के ज्ञान से मापा जाने लगा है। अंग्रेजी का साम्राज्य देश में इस हद  तक फैल चुका है कि अब वे राजनीतिक दल  और समाजवादी नेता जो कभी हिंदी और भारतीय भाषाओं की पैरवी करते थे, भारतीय भाषाओं के प्रबल समर्थक और प्रखर समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया के लालू यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे कथित अनुयायी जो कभी हिंदी और भारतीय भाषाओं की आवाज बुलंद करते थे, अब वे और उनके वारिस भी इस विषय पर खामोश हैं।  कई तो विदेशों में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ कर आए हैं। वामपंथी भी कभी भारतीय भाषाओं के साथ नहीं रहे। तमाम राजनीतिक दल इस मुद्दे पर चुप्पी साध कर बैठे हैं। हिंदी अथवा भारतीय भाषाओं की बात करते ही राजनीतिक विरोध के स्वर मुखर होने लगते हैं। अब जबकि कई पीढ़ियां अंग्रेजी में पल - पढ़कर बड़ी हुई है तो ऐसे में भारतीय भाषाओं की बात करना राजनीतिक तौर पर भी कम जोखिम भरा नहीं है । इन परिस्थितियों में, अंग्रेजी के ऐसे वातावरण में शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा दिए जाने की पहल ज्ञान-विज्ञान और राष्ट्रीयता दोनों ही दृष्टि से अत्यंत सराहनीय व साहसिक निर्णय है। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के चलते नेताओं से तो यह अपेक्षा नहीं की जा सकती लेकिन सभी भारतीय भाषा प्रेमियों और मौलिकता के समर्थकों को इसका स्वागत करना ही चाहिए। 


लेकिन अब यक्ष प्रश्न यह है कि क्या भारतीय भाषाओं में शिक्षा की व्यवस्था और मान्यता के माध्यम से देश में लोग अपनी भाषाओं में पढ़ने लगेंगे? यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि करीब 75 साल में भारत का अंग्रेजीकरण किया जा चुका है। भारतीय भाषाओं के नाम पर जो कुछ भी हुआ है वह किसी नौटंकी से अधिक नहीं है। अब उच्च शिक्षा ही नहीं शिक्षा शब्द भी अंग्रेजी का पर्याय बन चुका है। ऐसे में यह पहल क्या एक शिगूफा बन कर तो नहीं रह जाएगी ? क्या अंग्रेजी के नक्कारखाने में यह पहल तूती की आवाज भी बन सकेगी? क्या इस पहल को अभिभावकों और विद्यार्थियों को प्रतिसाद मिल सकेगा?  हमें यहां अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल का उदाहरण भी ले लेना चाहिए जहां हिंदी माध्यम से प्रारंभ किए गए और फीस भी बहुत ही कम रखी गई। जहां एक और लोग लाखों रुपए डोनेशन  देकर और मोटी फीस देकर अंग्रेजी माध्यम के  इंजीनियरिंग आदि कॉलेजों में दाखिला लेते वहीं हिंदी माध्यम से शिक्षा के इन प्रयासों को कोई विशेष प्रतिसाद नहीं मिल पाता।  इसमें एक बड़ा कारण यह है कि पढ़ाई तो हो जाएगी लेकिन आगे नौकरी कैसे मिलेगी ? वहां तो अंग्रेजी का वर्चस्व है। नौकरी के लिए परीक्षा, साक्षात्कार आदि सब कुछ तो अंग्रेजी में ही होता है फिर उसमें यदि पता लगे कि विद्यार्थी ने पढ़ाई मातृभाषा माध्यम से की है तो क्या यह अंग्रेजी परस्त समुदाय मातृभाषा से पढ़ कर आए मेधावी बच्चों को भी स्वीकार करेगा ? यदि सरकार इस समस्या का कोई समाधान नहीं निकालती तो भारतीय भाषाओं के माध्यम से तकनीकी शिक्षा दिए जाने की यह पहल निरर्थक होकर रह जाएगी। 


इसलिए मेरा यह मत है कि शिक्षा और रोजगार के माध्यम की भाषा एक हो। दूसरी बात यह कि इस व्यवस्था को केवल सरकारी महाविद्यालयों तक सीमित न रखा जाए बल्कि हर जगह यह व्यवस्था होनी चाहिए।   सरकार को मातृभाषा में शिक्षा व्यवस्था के साथ-साथ मातृभाषा से पढ़कर आए विद्यार्थियों के रोजगार पर भी ध्यान देना होगा। सरकारी सेवाओं में मातृभाषा माध्यम को प्राथमिकता देनी होगी, निजी क्षेत्र को भी इसके लिए तैयार करना होगा। एक बार गाड़ी चल पड़ी तो फिर सरकारी मदद के बिना भी गाड़ी चलती रहेगी। लेकिन यह कोई सरल काम नहीं है इसके लिए सरकार की इच्छा शक्ति की शक्ति  की भी परीक्षा होगी और इसके लिए सुविचारित रणनीति भी बनानी होगी। 


हिंदी भाषी राज्यों के अतिरिक्त महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों की सरकारों को भी अपने राज्य की ग्रामीण व आदिवासी प्रतिभाओं को आगे लाने के लिए अपनी भाषाओं के माध्यम से शिक्षा और रोजगार के लिए खड़े होना चाहिए और प्रयास करने चाहिए।  और इन राज्यों में जो वर्ग अपनी भाषा की मुखर वकालत करता है यह उनकी परीक्षा का भी समय है। देखना है कि वे किस हद तक अपनी भाषाओं को समर्थन देकर आगे बढ़ाना चाहते हैं?  यह तो वक्त बताएगा कि  क्षेत्रीय भाषाओं की राजनीति करने वाले असल में किस हद तक अपनी भाषाओं में शिक्षा व रोजगार के साथ खड़े होते हैं ? अपनी भाषाओं को बचाने और बढ़ाने का इससे बेहतर मौका फिर शायद ही कभी मिल सके। आइए सब मिलकर इसके लिए हर स्तर पर यथासंभव प्रयास करें।

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शीतल वाणी  पत्रिका संलग्न है।

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वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई


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प्रस्तुत कर्ता: संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)

email: murarkasampatdevii@gmail.com

 लेखिका यात्रा विवरण,

 मीडिया प्रभारी,

 हैदराबाद.

मो.नं.09703982136.

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