भारत-भाषा प्रहरी - पंजाबी के प्रोफेसर डॉ. जोगा सिंह
पिछले कुछ समय से जो एक प्रवृत्ति देखने में आ रही है, वह यह कि भारतीय भाषाओँ के अनेक शिक्षक, पत्रकार, लेखक, फिल्मकार आदि अपनी भाषा और भाषाओँ के प्रति निष्ठा के बजाए अपने को अंग्रेजीमय दिखाने और अपनी भाषा के अंग्रेजीकरण पर उतारू दिखते हैं। इसीलिए हिंदी सहित भारतीय भाषाओँ के अनेक अखबार व चैनल अपनी भाषा में भी अँग्रेजी परोसते दिखते हैं। ऐसे माहौल में अगर कोई शख़्स अपनी भाषा के लिए सड़क पर खडे होकर इश्तिहार बांटता दिखाई दे तो लोगों को शायद कुछ अज़ीब सा लगेगा। वह भी एक ऐसा व्यक्ति जो विश्विद्यालयों व अकादमियों के उच्च पदों पर आसीन रह चुका है। भाषा की राजनीति करनेवालों की तरह वह भाषाई विद्वेष नहीं फैलाता। हर स्तर पर अपनी मातृभाषा ही नहीं, देश के हर व्यक्ति की मातृभाषा और राष्ट्र की भाषा के लिए हर स्तर पर साथ खड़ा दिखाई देता है । वह जो भारत- भाषा प्रहरी बनकर मातृभाषा और भारत-भाषा की अलख जगाता देश-दुनिया में भटकता है, उसका नाम है- डॉ. जोगा सिंह ।
डा. जोगा सिंह उन व्यक्तियों में से हैं जिन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में भारतीय भाषाओं का वर्चस्व स्थापित करने के लिए शिक्षा, भाषा विज्ञान, अंतर्राष्ट्रीय भाषा व्यवहार और आर्थिक विकास आदि क्षेत्रों से विश्व भर की खोजों और व्यवहार का अध्ययन किया है और भारतीय जीवन के हर क्षेत्र में मातृभाषाओं का वर्चस्व स्थापित करने के लिए अकाट्य तर्क और तथ्य प्रस्तुत किए हैं। उनकी पुस्तिका ‘भाषा नीति के बारे में अंतरराष्ट्रीय खोज" तथा 'मातृभाषा खोलती है शिक्षा, ज्ञान और अंग्रेजी सीखने के दरवाज़े’ हिंदी,पंजाबी, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मराठी, मैथिली, डोगरी, नेपाली, उर्दू और अंग्रेजी भाषाओं में उपलब्ध है। इस पुस्तिका ने भारतीय भाषाओं के लिए संघर्ष को जो वैचारिक बल प्रदान किया है वह शायद ही किसी और पुस्तक या पुस्तिका ने किया होगा।
डा. जोगा सिंह उन व्यक्तियों में से हैं जिन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में भारतीय भाषाओं का वर्चस्व स्थापित करने के लिए शिक्षा, भाषा विज्ञान, अंतर्राष्ट्रीय भाषा व्यवहार और आर्थिक विकास आदि क्षेत्रों से विश्व भर की खोजों और व्यवहार का अध्ययन किया है और भारतीय जीवन के हर क्षेत्र में मातृभाषाओं का वर्चस्व स्थापित करने के लिए अकाट्य तर्क और तथ्य प्रस्तुत किए हैं। उनकी पुस्तिका ‘भाषा नीति के बारे में अंतरराष्ट्रीय खोज" तथा 'मातृभाषा खोलती है शिक्षा, ज्ञान और अंग्रेजी सीखने के दरवाज़े’ हिंदी,पंजाबी, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मराठी, मैथिली, डोगरी, नेपाली, उर्दू और अंग्रेजी भाषाओं में उपलब्ध है। इस पुस्तिका ने भारतीय भाषाओं के लिए संघर्ष को जो वैचारिक बल प्रदान किया है वह शायद ही किसी और पुस्तक या पुस्तिका ने किया होगा।
डा. जोगा सिंह का मत है कि भारतीय कुलीन वर्ग का अंग्रेजी भाषा के ज़रिए सत्ता के स्थानों पर स्वार्थमय एकाधिकार, भाषा के मामलों के बारे में भारतीय राजनैतिक और अफसरशाही क्षेत्रों में भयावह अज्ञानता, भारतीय लोगों में अपनी भाषाओं के प्रति स्वाभिमान की कमी, और विदेशी गुलामी के कारण अंग्रेजी भाषा के साथ जु़ड़ी हुई बहुत सी मिथ्या धारणाएं आदि कुछ कारण हैं जिनसे भारतीय भाषाओं की आपराधिक किस्म की अनदेखी हुई है और इस अनदेखी ने भारतीय शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति, प्रशासन, कारोबार, और सामान्य संचार आदि क्षेत्रों में भारत को जितना नुकसान पहुंचाया है उनका आकलन करना भी संभव नहीं है।
उनके अनुसार तीन मिथ्या धारणाएँ इस अनदेखी का विशेष रूप से आधार बनी हुई हैं : पहली यह कि अंग्रेजी ही उच्च स्तरीय ज्ञान, विज्ञान और तकनीक की भाषा है और इन क्षेत्रों में अंग्रेजी के बिना विकास संभव नहीं है; दूसरी यह की अंग्रेजी ही अंतर्राष्ट्रीय भाषा है और इसके बिना अंतर्राष्ट्रीय कारोबार और आदान-प्रदान संभव नहीं है; और तीसरी यह कि भारतीय भाषाओं में यह सामर्थ्य नहीं है कि वे उच्च स्तरीय ज्ञान, विज्ञान और तकनीक आदि की वाहक बन सकें। डा. जोगा सिंह ने उपरोक्त प्रकार की मिथ्या धारणाओं को निम्न प्रकार के तथ्यों और तर्क से ध्वस्त किया है। उनके तर्क हैं :-
पिछले दस सालों में स्कूल स्तर पर चोटी के देश विज्ञान की शिक्षा अंग्रेजी में नहीं बल्कि अपनी मातृभाषाओं में दे रहे हैं। भारत समेत दक्षिण एशिया का एक भी विश्वविद्यालय एशिया के पहले पचास विश्वविद्यालयों में नहीं आता, बावजूद इसके दक्षिण एशिया में उच्च शिक्षा मुख्यत: अंग्रेजी भाषा में दी जाती है जबकि दक्षिण एशिया को छोड़ कर पूरे एशिया में शिक्षा मातृभाषाओं में होती है । वाणिज्य के क्षेत्र में भी अंग्रेजी से कोई लाभ प्राप्त नहीं हो रहा लगता। 1950 में भारत का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में हिस्सा 1.78 प्रतिशत था जो अब घट कर 1.50 रह गया है, बावजूद इसके कि 1950 के मुकाबले अब कहीं ज्यादा भारतीय अंग्रेजी भाषा जानते हैं।.सभी अंतर्राष्ट्रीय खोजें और सभी मान्यताएँ भी यही दर्शाती हैं कि शिक्षा केवल और केवल मातृभाषा में ही सफलतापूर्वक दी जा सकती है। आज के युग में, किसी भाषा के जीवन और विकास के लिए भी आवश्यक है कि उसका प्रयोग शिक्षा के माध्यम के रूप में अवश्य हो। भाषा के साथ परम्परा, इतिहास और संस्कृति जैसे महत्वपूर्ण सवाल भी अन्तरंग रूप से जुड़े हुए हैं; यह एक भ्रम है कि अंग्रेजी पूरी तरह अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। पिछले सालों में दुनिया भर में अंग्रेजी भाषा के प्रचलन में कमी आई है; दक्षिण एशिया को छोड़ कर पूर्व उपनिवेशों में भी जहां पहले स्कूली शिक्षा अंग्रेजी माध्यम में होती थी अब या तो मातृभाषाओं में हो चुकी है या इस ओर बढ़ रही है। उपरोक्त धारणाओं के लिए डा. जोगा सिंह ने अपने दस्तावेजों में अनेक तथ्यों और तर्कों को इस प्रकार सटीक रूप से प्रस्त्तुत किया कि अभी तक किसी ने इन्हें लिखित रूप में झुठलाने की जुर्रत भी नहीं की।
पिछले दस सालों में स्कूल स्तर पर चोटी के देश विज्ञान की शिक्षा अंग्रेजी में नहीं बल्कि अपनी मातृभाषाओं में दे रहे हैं। भारत समेत दक्षिण एशिया का एक भी विश्वविद्यालय एशिया के पहले पचास विश्वविद्यालयों में नहीं आता, बावजूद इसके दक्षिण एशिया में उच्च शिक्षा मुख्यत: अंग्रेजी भाषा में दी जाती है जबकि दक्षिण एशिया को छोड़ कर पूरे एशिया में शिक्षा मातृभाषाओं में होती है । वाणिज्य के क्षेत्र में भी अंग्रेजी से कोई लाभ प्राप्त नहीं हो रहा लगता। 1950 में भारत का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में हिस्सा 1.78 प्रतिशत था जो अब घट कर 1.50 रह गया है, बावजूद इसके कि 1950 के मुकाबले अब कहीं ज्यादा भारतीय अंग्रेजी भाषा जानते हैं।.सभी अंतर्राष्ट्रीय खोजें और सभी मान्यताएँ भी यही दर्शाती हैं कि शिक्षा केवल और केवल मातृभाषा में ही सफलतापूर्वक दी जा सकती है। आज के युग में, किसी भाषा के जीवन और विकास के लिए भी आवश्यक है कि उसका प्रयोग शिक्षा के माध्यम के रूप में अवश्य हो। भाषा के साथ परम्परा, इतिहास और संस्कृति जैसे महत्वपूर्ण सवाल भी अन्तरंग रूप से जुड़े हुए हैं; यह एक भ्रम है कि अंग्रेजी पूरी तरह अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। पिछले सालों में दुनिया भर में अंग्रेजी भाषा के प्रचलन में कमी आई है; दक्षिण एशिया को छोड़ कर पूर्व उपनिवेशों में भी जहां पहले स्कूली शिक्षा अंग्रेजी माध्यम में होती थी अब या तो मातृभाषाओं में हो चुकी है या इस ओर बढ़ रही है। उपरोक्त धारणाओं के लिए डा. जोगा सिंह ने अपने दस्तावेजों में अनेक तथ्यों और तर्कों को इस प्रकार सटीक रूप से प्रस्त्तुत किया कि अभी तक किसी ने इन्हें लिखित रूप में झुठलाने की जुर्रत भी नहीं की।
एक मजदूर-किसान के रूप में अपनी जिंदगी का सफर शुरू करने वाले डा. जोगा सिंह का जन्म हरियाणा राज्य के एक छोटे से गाँव अच्छनपुर (जिला करनाल) में नवम्बर-दिसम्बर 1953 में एक निम्न वर्गीय किसान परिवार में हुआ। प्राथमिक शिक्षा उन्होंने अपने गाँव के स्कूल से प्राप्त की और पड़ोस के गाँव डाचौर के सरकारी मिडल स्कूल से मिडल परीक्षा उतीर्ण की। मैट्रिक परीक्षा सरकारी हाई स्कूल असंध (करनाल) से उतीर्ण करने के बाद उन्होंने बी.एससी. (कृषि विज्ञान) के लिए जनता कॉलेज (करनाल) में दाखिला लिया पर प्री-यूनिवर्सिटी पास करने के बाद ही इनका झुकाव सामाजिक मुद्दों की ओर हो गया और उन्होंने बी.ए. प्रथम वर्ष में मानविकी विषयों को चुन लिया। पर औपचारिक शिक्षा उनके जिज्ञासु मन को शांत न कर पाई तो 1972 में घर छोड़ कर ज्ञान की तलाश में निकल पड़े। स्वामी विवेकानंद से प्रभावित होने के कारण इनकी इस यात्रा का पहला पड़ाव रामकृष्ण आश्रम, नागपुर बना। वहां से निकले तो विनोबा भावे जी के आश्रम पवनार (वर्धा) जा पहुंचे। विनोबा भावे जी उन दिनों मौन व्रत पर थे। उनके साथ कुछ लिखित वार्तालाप हुआ पर उन्हें लगा कि यह रास्ता भी वास्तविक जीवन से हट कर है। वहां से ये सिक्खों के धर्मस्थल हज़ूर साहिब, नांदेड जा पहुंचे। वहां भी सन्तुष्टि प्राप्त नहीं हुई तो वास्तविक जीवन में वापस घर आ गए। कुछ महीने वामपंथ की राजनीति में सक्रिय रहने के बाद पारिवारिक कारणों की वजह से अपने पैतृक धंधे खेती में लग गए। दो-एक साल असंध (करनाल) में बिजली के मिस्त्री का काम सीखने लगे। कोई छह महीने बाद 1975 में मोदी रबड़ लिमिटेड, मोदीपुरम (मेरठ) में 175/- रूपए महीना पर बतौर मजदूर नौकरी करने लगे।
इन सालों में चाहे वे औपचारिक शिक्षा से बाहर रहे हों पर किताबें ही उनकी इश्क बनी रही। राजनैतिक दर्शन, साहित्य, और सामाजिक और आर्थिक शोषण के विषय इन दिनों उनके अध्ययन का केंद्र- बिंदु रहे। जब देखा कि मोदी रबड़ में रहते प्राईवेट तौर पर डिग्री शिक्षा संभव नहीं है तो 1977 में इस्तीफा देकर घर चले गए और खेती करने लगे। खेती के साथ-साथ उन्होंने पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला के पत्राचार कार्यक्रम के ज़रिए अंग्रेजी और पंजाबी साहित्य विषयों के साथ 1979 में बी.ए. की परीक्षा उतीर्ण की और पंजाबी विश्वविद्यालय में भाषा विज्ञान में एम.ए. में दाखिला ले लिया। यह परीक्षा उन्होंने स्वर्ण पदक के साथ उतीर्ण की और एम.फिल. भाषा विज्ञान में दाखिला ले लिया। अभी यह पढ़ाई चल ही रही थी कि उन्हें उस्मानिया यूनिवर्सिटी, हैदराबाद में जूनियर रिसर्च फेलोशिप प्राप्त हो गई तो वहां एम.फिल.में दाखिला ले लिया. उस्मानिया यूनिवर्सिटी की उस वर्ष की एम.फिल. की दाखिला परीक्षा में उतीर्ण होने वाले पूरे भारत में वे अकेले उम्मीदवार थे।
उस्मानिया विश्वविद्यालय में 1987 में ‘पंजाबी में स्थानवाची क्रियाविशेषणात्मकों का अर्थ-विज्ञान’ विषय पर शोध प्रबंध प्रस्तुत करने के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञान विभाग में दक्षिण एशियाई भाषाओं पर एक प्रोजेक्ट में प्रोजेक्ट सहायक के रूप में काम करने लगे और ‘ दक्षिण एशियाई भाषाओं में विषय का संकल्प’ समस्या पर पीएच.डी. करने लगे। 1988 में इनका चयन गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर में बतौर रिसर्च एसोसिएट हुआ। अभी एक सप्ताह ही हुआ था कि दक्षिण गुजरात विश्वविद्यालय, सूरत के भाषा विज्ञान विभाग में उन्हें लेक्चरार का पद प्राप्त हुआ। वहां से 1990 में कॉमनवेल्थ वजीफा प्राप्त कर बर्तानिया के यार्क विश्वविद्यालय चले गये। वहां 1993 में ‘हिंदी में कारक और समता: अधिकार और बंधन सिद्धांत के सन्दर्भ में’ विषय पर शोध प्रबंध प्रस्तुत किया।
यार्क से सूरत वापस आकर एक साल लगाने के बाद वे पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला में रीडर के पद पर नियुक्त हुए। 2002 में प्रोफ़ेसर का पद प्राप्त किया और 2001 से 2011 तक भाषा विज्ञान विभाग के अध्यक्ष रहे। इन सालों में उन्होंने एक सुन्न पड़े विभाग को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया। जब वे अध्यक्ष बने तो विभाग में विद्यार्थियों की गिनती कुल 8 थी। लेकिन जब उन्होंने अध्यक्ष पद छोड़ा तो यह गिनती दस गुना हो चुकी थी। इन सालों में इस विभाग से शिक्षा प्राप्त विद्यार्थी विभिन्न प्रतिष्ठित राष्ट्रीय संस्थाओं में काम कर रहे हैं। 80 से अधिक विद्यार्थियों के शोध की निगरानी, ‘दक्षिण एशियाई भाषाओं पर नौवीं कॉन्फ्रेंस’ (जिसमें पंद्रह देशों से विद्वान शामिल हुए), ‘सिंगापुर विद्यार्थियों के लिए पंजाबी इमर्शन कार्यक्रम, बहुत से वर्कशाप आदि का आयोजन, भाषा विज्ञान की पंजाबी में पारिभाषिक शब्दावली की तैयारी, पंजाबी कोश, अंग्रेजी-पंजाबी कोश, अंग्रेजी-पंजाबी कोश ऑनलाइन संस्करण, अंग्रेजी-पंजाबी कोश मोबाईल संस्करण कुछ ऐसे अकादमिक कार्य हैं जिनका श्रेय डा. जोगा सिंह को जाता है। डा. जोगा सिंह 31 दिसम्बर 2013 को सेवा-निवृत हुए और आज-कल पुनर्नियुक्त प्रोफेसर के रूप में पंजाबी विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।
पंजाबी विश्वविद्यालय में कार्यरत रहते हुए डॉ. जोगा सिंह ने महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां निभाई हैं. वे अकादमिक काउन्सिल और सीनेट के सदस्य रह चुके हैं। 2012 में जब पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला में ‘सेंटर फार डायस्पोरा स्टडीज़’ की स्थापना हुई तो उन्हें उसका पहला निदेशक नियुक्त किया गया। पंजाबी कम्प्यूटर सहायता केंद्र के आप संस्थापक समन्वयक (कोआर्डिनेटर) रहे हैं और इस केंद्र और पंजाबी विश्वविद्यालय के पंजाबीपीडीया केंद्र की सलाहकार समितियों के आज भी सदस्य हैं। सर्व भारतीय पंजाबी कॉन्फ्रंस के वे 2008 से समन्वयक हैं। सर्व भारतीय पंजाबी कान्फ्रेंस के तत्वावधान में झारखंड, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, उतराखंड, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और पंजाब में पंजाबी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए सात वर्षों में पंद्रह सम्मेलनों का आयोजन हो चुका है और इस सम्मेलन श्रृंखला ने पूरे भारत में पंजाबी भाषियों में पंजाबी और दूसरी भारतीय मात्री भाषाओं के लिए नए उत्साह का संचार किया है। इनके शोध विद्यार्थियों ने पंजाब की विभिन्न बिरादरियों के भाषा रूपों (जैसे गोजरी, रायकी, ओडकी, सिकलिगरी, सांसी, आदि), पंजाब के विभिन्न पेशों की शब्दावलियों, पंजाबी भाषा के अध्यापन, और पंजाबी भाषा की संरचना के विभिन्न पक्षों के विश्लेषण पर आधारभूत काम किया है.
भारत सरकार के राष्ट्रीय अनुवाद आयोग के पंजाबी सम्पादकीय सहायक समूह के आप समन्वयक हैं और भारतीय साहित्य अकादमी, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, केन्द्रीय स्कूल शिक्षा बोर्ड की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां निभा चुके हैं। डा. जोगा सिंह कई विश्वविद्यालयों की विभिन्न प्रकार की समितियों के सदस्य रहे हैं और 2009 में अन्नामलाई विश्वविद्यालय में यूजीसी विजिटिंग फैलो के तौर पर 9 व्याख्यान दे चुके हैं। भाषा विज्ञान में डा. जोगा सिंह का विशिष्ट क्षेत्र वाक्य-विज्ञान का रुपांतरी सिद्धांत रहा है। वाक्य-विज्ञान के इतिहास में पक्ष-वाक्यांश (Aspect Phrase) अवस्था वाक्यांश (Modal Phrase) का पहली बार प्रतिपादन उन्होंने किया। पक्ष-वाक्यांश अंतर्राष्ट्रीय वाक्य-वैज्ञानिक विश्लेषणों में अब सर्व-सम्मत सा संकल्प बन चुका है। भाषा विज्ञान, पंजाबी वाक्य-विन्यास और हिंदी वाक्य-विन्यास जैसे क्षेत्रों पर उनके लगभग 40 शोध-पत्र राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित हो चुके हैं। भारत, बर्तानिया, स्पेन, और अमेरिका में वे लगभग 100 शोध-पत्र विभिन्न सम्मेलनों में पेश कर चुके हैं।
पंजाब में डॉ. जोगा सिंह का नाम मातृभाषा पंजाबी के लिए वैचारिक संघर्ष का समानार्थी सा हो गया है। पंजाबी भाषा के हक़ में पंजाब में कोई अभियान इनके बिना अधूरा माना जाता है। इनकी पुस्तिका ‘भाषा नीति के बारे में अंतर्राष्ट्रीय खोज' और 'मातृभाषा खोलती है शिक्षा, ज्ञान और अंग्रेज़ी सीखने के दरवाज़े’ के 2013 में प्रकाशन ने उनको भारतीय मातृभाषाओं के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे वैचारिक संघर्ष में सबसे अग्रणी योद्धाओं में शामिल कर दिया है। भारतीय प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षा में अंग्रेजी भाषा के स्थान को और बढ़ा दिए जाने के विरुद्ध दिल्ली में चला छात्र आन्दोलन इस पुस्तिका को लिखने का तात्कालिक कारण था। महज दो सालों में यह पुस्तिका 11 भारतीय भाषाओं ( पंजाबी, हिंदी, तामिल, तेलुगू, कन्नड़, मराठी, मैथिली, डोंगरी, नेपाली, उर्दू और अंग्रेजी) में उपलब्ध है। यह पुस्तिका कितने संग्रहों, पत्रिकाओं और वैब स्थानों पर प्रकाशित हो चुकी है यह तो हिसाब रखना भी संभव नहीं है। इस पुस्तिका का ही प्रभाव था कि पिछले अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस, 21 फरवरी 2015, को जब कर्नाटक सरकार का एक प्रतिनिधिमंडल माननीय राष्ट्र्पति श्री प्रणब मुखर्जी जी को मिला था तो उन्हें उस प्रतिनिधिमंडल में विशेष रूप से शामिल किया गया था। पिछले साल ही कई भारतीय प्रदेशों में हुए सम्मेलनों में वे मातृभाषाओं के हक़ में वैचारिक आवाज़ बुलंद कर चुके हैं, जिससे मातृभाषाओं के लिए चल रही सरगर्मी को नया बल मिला है मातृभाषाओं के हक़ में अखबारों और पत्रिकाओं में लगातार लिखना, हर तरह के संचार माध्यम का प्रयोग, सम्मेलनों का आयोजन, सार्वजनिक स्थानों पर इश्तिहार तक बांटना डा. जोगा सिंह की भारतीय मातृभाषाओं के प्रति प्रतिबद्धता का मुहं बोलता प्रमाण है। डा. जोगा सिंह को पूरा विश्वास है कि कुछ ही सालों में भारतीय मातृभाषा संग्रामी भारतीय मातृभाषाओं का वर्चस्व स्थापित करने में अवश्य कामयाब होंगे । उन का कहना है कि भारतीय मातृभाषाओं का सवाल केवल भाषा का सवाल नहीं है, बल्कि यह भारत के भविष्य को सुनिश्चित करने का सवाल है। वैश्विक हिंदी सम्मेलन पंजाब के सुपूत इस मातृभाषा-प्रेमी और भारत-भाषा प्रहरी का अभिनन्दन करती है ।
- डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य'
डॉ. जोगा सिंह के भाषा के मामलों पर दस्तावेज निम्न पतों से पढ़े/देखे जा सकते हैं:
आलेख: http://punjabiuniversity.academia.edu/JogaSingh/papers
हिंदी वाकचित्र (वीडीओ): https://www.youtube.com/watch?v=tHUfdRS2MWE&feature=youtu.be
पंजाबी वाकचित्र: 1. http://www.youtube.com/watch?v=a8w6xNrCP88
2. http://www.youtube.com/watch?v=Ux8Bg95BSRg
3. http://www.youtube.com/watch?v=w4njNvR4UI0&feature=share
अंग्रेजी वाकचित्र: https://www.youtube.com/watchv=Xaio_TyWAAY&feature=youtu.be
संपर्क:-
डा. जोगा सिंह, प्रोफ़ेसर भाषा विज्ञान,
पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला - 147002 (पंजाब) - भारत.
दूरभाष:+91-9915709582
ईमेल: jogasinghvirk@yahoo.co.in & virkjoga5@gmail.com
आलेख: http://punjabiuniversity.academia.edu/JogaSingh/papers
हिंदी वाकचित्र (वीडीओ): https://www.youtube.com/watch?v=tHUfdRS2MWE&feature=youtu.be
पंजाबी वाकचित्र: 1. http://www.youtube.com/watch?v=a8w6xNrCP88
2. http://www.youtube.com/watch?v=Ux8Bg95BSRg
3. http://www.youtube.com/watch?v=w4njNvR4UI0&feature=share
अंग्रेजी वाकचित्र: https://www.youtube.com/watchv=Xaio_TyWAAY&feature=youtu.be
संपर्क:-
डा. जोगा सिंह, प्रोफ़ेसर भाषा विज्ञान,
पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला - 147002 (पंजाब) - भारत.
दूरभाष:+91-9915709582
ईमेल: jogasinghvirk@yahoo.co.in & virkjoga5@gmail.com
कृपया अनुलग्नक भी देखें-
वैश्विक हिंदी सम्मेलन की वैबसाइट -www.vhindi.in
'वैश्विक हिंदी सम्मेलन' फेसबुक समूह का पता-https://www.facebook.com/groups/mumbaihindisammelan/
संपर्क - vaishwikhindisammelan@gmail.com
प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी
मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो.: 09703982136
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