वैश्विक ई-संगोष्ठी, भाग-2
{भारतीय भाषाएँ : कहीं बहुत देर न हो जाए ! ( भाषा बनाम साहित्य)}
डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य' के लेख पर विभिन्न विद्वानों के विचार प्राप्त हो रहे हैं। जिन्होंने मूल लेख नहीं पढ़ा, उनकी सुविधा के लिए लेख भी अंत में रखा गया है।
हिंदी एवं भारतीय भाषाओं के सभी भाषाकर्मियों, साहित्यकारों, शिक्षकों, पत्रकारों, प्रौद्योगिकीविदों, कलाकारों, सिनेमा-मनोरंजन-विज्ञापन आदि से जुड़े सभी
महानुभाव आदि उक्त लेख को गंभीरतापूर्वक पढ़कर भारतीय भाषाओं के प्रयोग-प्रसार व विकास के संबंध में अपने संक्षिप्त विचार व सुझाव प्रदान कर सकते हैं।
इस संबंध में यथासमय प्राप्त विचारों व सुझावों आदि को ई संगोष्ठी के अंतर्गत 'वैश्विक हिंदी सम्मेलन' की वैबसाइट व गूगल समूह आदि पर प्रस्तुत किया जाएगा।
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प्रोफेसर कृष्ण कुमार गोस्वामी
निदेशक-विश्वनागरी संस्थान, दिल्ली
प्रिय डॉ. आदित्य,आपने भारतीय भाषाओं के परिप्रेक्ष्य में ‘हिन्दी: भाषा बनाम साहित्य’ के संबंध में जो विश्व मंच खड़ा किया है उसके लिए साधुवाद। मैं स्वयं कई वर्षों से इस विषय पर संघर्ष कर रहा हूँ। आपने यह विषय उठा कर एक बहुत बड़ा सारस्वत कार्य किया है। यही आशा है कि आपका यह सद्प्रयास सफल होगा। इसमें कोई दो राय नहीं है कि हिन्दी भाषा को साहित्य का पर्याय आज भी माना जाता है। अभी तक विद्वान भाषा और साहित्य में अंतर नहीं कर पा रहे। अगर कोई साहित्यकार भाषा संबंधी एक-आध टिप्पणी या लेख लिखता है तो वह स्वत: भाषाविद या भाषाविज्ञानी भी हो जाता है, क्योंकि वे भाषा को साहित्य का एक छोटा-सा अंश मानते हैं। अगर कोई भाषाविज्ञानी या भाषा विशेषज्ञ साहित्य संबंधी लेख लिखता है तो उसे साहित्यकार की श्रेणी में नहीं रखा जाता जैसे कि वह साहित्य के लिए अछूत हों। वे यह नहीं जानते कि भाषा ही साहित्य का सशक्त और प्राणवान उपादान है। भाषा के गर्भ से ही साहित्य का जन्म होता है। वस्तुत: साहित्य एक भाषिक कला है जिसमें भाषा ही सौंदर्य को साकार रूप प्रदान करती है और फिर साहित्य का सृजन होता है। भाषा के सिवा अन्य कोई माध्यम भी तो नहीं है जिससे साहित्य की रचना हो सके। भाषा ऐसा सशक्त माध्यम है जिसमें उसका अपना समाज, संस्कृति, परंपरा, जीवन-शैली आदि समाहित हैं। यह तो संगीत का नाद है जो हमारा रसास्वादन करता है।भाषा के दो मुख्य पक्ष हैं – एक का संबंध मानव की सौंदर्यपरक अनुभूतियों के आलंबन से होता है और दूसरे पक्ष का संबंध भाषा के प्रयोजनपरक आयामों से जुड़ा है। भाषा के सौंदर्यपरक आयाम में भाषा सर्जनात्मक होती है, जिसका विकास साहित्य की भाषा के रूप में होता है। यह भाषा-रूप कविता, नाटक, उपन्यास, कहानी, आलोचना आदि विभिन्न साहित्यिक विधाओं में निखर कर आता है। इसके साथ-साथ यह भाषा देश-विशेष या क्षेत्र-विशेष के सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों को अपने भीतर समेटे होती है। भाषा के दूसरे पक्ष का संबंध हमारी सामाजिक आवश्यकताओं और जीवन की उस व्यवस्था से होता है जो व्यक्तिपरक होकर समाजपरक भी होता है। यह भाषा का प्रकार्यात्मक आयाम है जिसका प्रयोग किसी प्रयोजन-विशेष या कार्य-विशेष के संदर्भ में होता है। यह भाषा प्रशासन व्यवस्था, मानविकी तथा तकनीकी एवं वैज्ञानिक क्षेत्रों में आविष्कारोन्मुखी हो कर देश या राष्ट्र के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सामान्य प्रयोजन के लिए यह भाषा हमारे रोज़मर्रा के जीवन में सामान्य बोलचाल के रूप में प्रयुक्त होती है और विशिष्ट प्रयोजनों – साहित्य, विज्ञान, चिकित्सा, वाणिज्य, इंजीनियरी, प्रौद्योगिकी, विधि,बैंकिंग, प्रशासन आदि में विशिष्ट वर्ग द्वारा और विशिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उपयोग की जाने वाली भाषा (रूप) विशिष्ट भाषा होती है। इसकी अपनी शब्दावली और अपनी संरचना होती है। यही बात हिन्दी भाषा पर भी पूरी तरह लागू होती है। हिन्दी के अधिकतर साहित्यकार अपने-आप को भाषाविद और भाषा विशेषज्ञ भी मानते हैं चाहे उनका भाषा संबंधी कोई योगदान न हो लेकिन कोई भाषा विशेषज्ञ साहित्य में अगर कोई कार्य करता भी हो उसे साहित्य जगत में स्थान नहीं मिलता। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है।यहाँ यह बताना आवश्यक है कि अब हिन्दी भाषा के कार्य-क्षेत्र में विस्तारीकरण हो रहा है। आज के आधुनिकीकरण और भूमंडलीकरण के युग में हिन्दी भाषा का भी आधुनिकीकरण तथा भूमंडलीकरण हो रहा है। हमें इसका पूरा लाभ उठाना चाहिए। यदि हम लोगों ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया तो यह न केवल हिन्दी के लिए घातक होगा बल्कि भारतीय भाषाओं के लिए भी हानिकारक होगा। केवल मंच पर हास्य कविताएं या चुटकले देने पर काम नहीं होगा। आजकल अधिकतर साहित्य स्तरीय नहीं है। प्रकाशक भी साहित्यिक रचनाएँ प्रकाशित करने की जगह प्रयोजनपरक, वैज्ञानिक, प्रौद्यगिकी संबंधी साहित्य प्रकाशित करने में रुचि लेने लगे हैं। आदित्य जी, आपका प्रस्ताव अच्छा है कि इस संबंध में भी एक भाषा अकादमी का गठन होना अपेक्षित है जो हिन्दी को रोजगारपरक बनाने के लिए काम करे। सत्तर के दशक में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) ने भाषा के प्रयोजनपरक और संप्रेषणपरक आयामों के पाठ्यक्रमों को प्रारंभ किया था जिसमें प्रयोजनमूलक हिन्दी पाठ्यक्रम बड़े ज़ोर-शोर से चले थे जो अब निस्तेज और ढीले हो गए हैं, क्योंकि साहित्य के लोग इसके पक्ष में नहीं थे। इसी संदर्भ में यह बता दूँ कि वर्ष 2006 में हमने प्रगत संगणक विकास केंद्र (C-DAC), नोएडा में एम.टेक (भाषा प्रौद्योगिकी) पाठ्यक्रम म.गा.अं.हिं. विश्वविद्यालय, वर्धा के संयुक्त तत्वावधान में चलाने का प्रयास किया था। यह पाठ्यक्रम दो वर्ष तक अच्छी तरह चला भी जिसमें हिन्दी को कक्षा तथा परीक्षा का मुख्य माध्यम रखा गया। लेकिन दो वर्ष के बाद इसे बंद करना पड़ा क्योंकि न तो सरकार से कोई सहयोग मिला और न ही विश्वविद्यालय तथा सी-डैक से। सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी साहित्य के ग्रंथ भी हिन्दी में लिखने-लिखाने के प्रयास किए गए, उसकी हमने एक परियोजना भी बनाई किंतु वह सफल नहीं हो पाई। अधिकतर लोगों ने उदासीनता दिखाई। केवल सी-डैक के तत्कालीन वैज्ञानिक श्री वी.एन. शुक्ल का ही सहयोग मिला। इस प्रकार भारत की राजभाषा हिन्दी के विकास और प्रसार में ऐसी बाधाएँ आती रहती हैं, अन्य भारतीय भाषाओं के बारे में क्या कहा जा सकता है?आदित्य जी, हिन्दी को जब तक साहित्य के अतिरिक्त अन्य विषयों के साथ नहीं जोड़ा जाए गा तब तक हिन्दी कभी विश्व के मंच पर नहीं आ सकेगी। भूमंडलीकरण में अंग्रेज़ी का वर्चस्व बढ़ता जाएगा और हिन्दी पिछड़ती जाएगी। यदि हिन्दी को वाणिज्य-व्यापार, उद्योग, सूचना प्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों में स्थान नहीं मिलेगा और उसे रोजगारपरक नहीं बनाया जाएगा तो हिन्दी कभी विश्व में अपना महत्वपूर्ण स्थान नहीं बना पाएगी। इसलिए हमें पहले अपने देश में संघर्ष करना होगा। राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी को विकसित करने में कठिनाई हो रही है। विदेश में मुझे हिन्दी के प्रति कहीं कोई दुर्भावना दिखाई नहीं दी, सद्भावना ही मिली है । हिन्दी में काम करते हुए लोग प्रसन्न होते हैं। अत: विश्व में कोई समस्या नहीं है। हमें एक अभियान चलाने की आवश्यकता है जो आपके गूगल समूह या वैश्विक हिन्दी सम्मेलन के नेतृत्व में हो और उसमें हिन्दी के प्रति निष्ठा रखने वाले लोग ही शामिल किए जाएँ, राजनीति वाले नहीं। युवक अधिक संख्या में हों तो अच्छा रहे गा।आपका यह कहना भी सही है कि देवनागरी लिपि के स्थान पर रोमन लिपि की वकालत हो रही है। वास्तव में एक षड्यंत्र हो रहा है, विशेषकर अंग्रेजी समाचारपत्र समूहों के द्वारा। कुछ समाचारपत्रों में अंग्रेजी के कुछ लेखक अपने लेखों से रोमन लिपि के समर्थन में दुष्प्रचार कर रहे हैं। वे नहीं जानते कि देवनागरी लिपि विश्व की सभी लिपियों में सर्वाधिक वैज्ञानिक है। भारतीय भाषाओं के लिए देवनागरी पूर्णतया सार्थक और उपयुक्त है। इसकी प्राचीन परंपरा है और यह इस समय संविधान की आठवीं सूची में उल्लिखित 22 भाषाओं में दस भाषाओं में इस्तेमाल होती है। रोमन लिपि हिन्दी और अन्य भाषाओं के लिए किसी भी दृष्टि से न तो उपयुक्त है और न ही प्रयोजनीय। रोमन तो अंग्रेजी की लिपि होते हुए भी उसके लिए सार्थक भूमिका नहीं निभा रही है, भारतीय भाषाओं के लिए कहाँ से निभा पाएगी। वर्ष 1892 से समय-समय पर आवश्यकताओं के अनुरूप इसमें सुधार भी होते रहे हैं। इसके विकास के लिए नागरी लिपि परिषद, नई दिल्ली काफी अरसे से काम कर रहा है। इधर विश्व नागरी विज्ञान संस्थान, गुड़गांव-दिल्ली भी सूचना प्रौद्योगिकी के परिप्रेक्ष्य में देव नागरी के विकास के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। वर्ष 2012 में विश्व नागरी विज्ञान संस्थान के प्रयास से भारतीय मानक ब्यूरो (BIS – पूर्व ISI) ने देवनागरी लिपि के मानक रूप को मान्यता दी है। यह मानक रूप केंद्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा स्वीकृत लिपि पर आधारित है जिसे ब्यूरो ने एक राष्ट्रीय समिति गठित कर विचार-विमर्श के बाद पारित कराया और लोकार्पण किया। इसी संदर्भ में मेरा यह अनुरोध है कि हमें भी देवनागरी लिपि के विकास और प्रचार-प्रसार के लिए एकजुट होकर काम करना चाहिए जिसमें अन्य संस्थाओं का भी सहयोग लिया जाए।अंत में आदित्य जी मैं यह कहना चाहूँ गा कि आपने साहित्य और भाषा का जो मुद्दा उठाया है वह बहुत ही प्रासंगिक और सार्थक है। मैं आपके इस अभियान का पूरी तरह समर्थन करता हूँ। मेरी शुभ कामनाएँ आपके साथ हमेशा रहेंगी।प्रोफेसर कृष्ण कुमार गोस्वामी, दिल्ली
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अमरजीत मिश्र
अध्यक्ष अभियान
हिंदी दुनिया में में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है। हिंदी अपने आप में एक समर्थ और सक्षम भाषा है। सबसे बड़ी बात यह भाषा जैसे लिखी जाती है, वैसे बोली भी जाती है। हिंदी बहुत सरल, अति उदार, समझ में आने वाली सहिष्णु भाषा के साथ भारत की राष्ट्रीय चेतना की संवाहिका भी है।मैं भी डॉ.एम.एल गुप्ता आदित्य के इन विचारों से पूरी तरह सहमत हूँ कि आज ज्ञान-विज्ञान और विभिन्न व्यवसायों में हिंदी के प्रयोग हेतु विशेष प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। हाल ही में भोपाल में 12 सितंबर को ही संपन्न हुए तीन दिवसीय 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन में आदरणीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने बचपन का अनुभव साझा करते हुए कहा कि गुजरात के वड़नगर रेलवे स्टेशन, जहां वे पैदा हुए थे, वहाँ पर चाय बेचते समय जब भी उनसे कोई गैर-गुजराती-भाषी रेल यात्री मिलता था, तो वह हिंदी ही बोलता था, उससे टूटी-फूटी हिंदी बोलते-बोलते वह भी हिंदी सीख गए। यानी जो बात हमारे देश के प्रधानमंत्री कह रहे हैं, उसमें कोई बात तो ज़रूर होगी...।आज हिंदी भविष्य में विश्व-वाणी बनने के पथ पर अग्रसर है। विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा कई अवसरों पर अमेरिकी नागरिकों को हिंदी सीखने की सलाह दे चुके हैं। वे कहते हैं हिंदी सीखे बिना भविष्य में काम नहीं चलेगा। यह सलाह बिना वजह ही नहीं है। भारत एक उभरती हुई विश्व-शक्ति के रूप में पूरे विश्व में जाना जा रहा है। लिहाज़ा,यहां की संस्कृत और भाषा हिंदी को ध्वनि-विज्ञान और दूर संचारी तरंगों के माध्यम से अंतरिक्ष में अन्य सभ्यताओं को संदेश भेजे जाने की दृष्टि से सर्वाधिक सही पाया गया है।आज़ाद भारत की राजभाषा के सवाल पर काफ़ी विचार-विमर्श के बाद निर्णय लिया गया जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद343 में वर्णित है: भारतीय संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। भारतीय संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा। संविधान सभा की भाषा संबंधी बहस करीब 278 पृष्ठों में छपी। इसमें डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और गोपाल स्वामी आयंगार की अहम भूमिका रही। बहस में सहमति बनी कि भारत की भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। हालांकि देवनागरी में लिखे जाने वाले अंकों तथा अंग्रेज़ी को 15 वर्ष या उससे अधिक अवधि तक प्रयोग करने के लिए तीखी बहस हुई। अन्तत: आयंगर-मुंशी फ़ार्मूला भारी बहुमत से स्वीकार हुआ। वास्तव में अंकों को छोड़कर संघ की राजभाषा के सवाल पर अधिकतर सदस्य सहमत हो गए। अंकों के बारे में भी यह स्पष्ट था कि अंतर्राष्ट्रीय अंक भारतीय अंकों का ही एक नया संस्करण हैं।
भारत में भले ही अंग्रेज़ी बोलना सम्मान की बात मानी जाती हो, पर विश्व के बहुसंख्यक देशों में अंग्रेज़ी का इतना महत्त्व नहीं है। हिंदी बोलने में हिचक का एकमात्र कारण पूर्व प्राथमिक शिक्षा के समय अंग्रेज़ी माध्यम का चयन किया जाना है। आज भी भारत में अधिकतर अभिभावक अपने बच्चों का दाखिला ऐसे स्कूलों में करवाना चाहते हैं, जो अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा प्रदान करते हैं। जबकि मनोवैज्ञानिकों के अनुसार शिशु सर्वाधिक आसानी से मातृभाषा को ही ग्रहण करता है और इसी भाषा में किसी भी बात को भली-भांति समझ सकता है।अंग्रेज़ी भारतीयों की मातृभाषा नहीं है।अत: भारत में बच्चों की शिक्षा का सर्वाधिक उपयुक्त माध्यम हिंदी ही है।
भारत की मौजूदा शिक्षा पद्धति में बालकों को पूर्व प्राथमिक से ही अंग्रेज़ी के गीत रटाए जाते हैं। यदि घर में बालक बिना अर्थ जाने ही अंग्रेज़ी कविता सुना दे तो माता-पिता का मस्तक गर्व से ऊंचा हो जाता है। विदेशी भाषा में बच्चों को समझने की बजाय रटना पड़ता है, जो अवैज्ञानिक है। ऐसे अधिकांश बच्चे उच्च शिक्षा में माध्यम बदलते हैं और भाषिक कमज़ोरी के कारण ख़ुद को समुचित तरीक़े से अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं और पिछड़ जाते हैं। इस मानसिकता में शिक्षित बच्चा माध्यमिक और उच्च्तर माध्यमिक कक्षाओँ में मजबूरी में हिंदी पढ़ता है, फिर विषयों का चुनाव कर लेने पर व्यावसायिक शिक्षा का दबाव हिंदी छुड़वा ही देता है।
हिंदी शब्द सामर्थ्य पर प्रायः अकारण और जानकारी के अभाव में प्रश्नचिह्न लगाए जाते हैं। वैज्ञानिक विषयों, प्रक्रियाओं,नियमों तथा घटनाओं की अभिव्यक्ति हिंदी में करना कठिन माना जाता है, किंतु वास्तव में ऐसा है नहीं। हिंदी शब्द-संपदा अपार है। हिंदी सतत प्रवाहिनी है, उसमें से लगातार कुछ शब्द काल-बाह्य होकर बाहर हो जाते हैं तो अनेक शब्द उसमें प्रविष्ट भी होते हैं। हिंदी के अनेक रूप देश में आंचलिक या स्थानीय भाषाओं और बोलियों के रूप में प्रचलित हैं। इस कारण भाषिक नियमों, क्रिया-कारक के रूपों, कहीं-कहीं शब्दों के अर्थों में अंतर स्वाभाविक है, किंतु हिंदी को वैज्ञानिक विषयों की अभिव्यक्ति में सक्षम विश्वभाषा बनने के लिए इस अंतर को पाटकर क्रमशः मानक रूप लेना होगा। अनेक क्षेत्रों में हिंदी की मानक शब्दावली है, जहां नहीं है, वहां क्रमशः आकार ले रही है।
विज्ञान में भाषा का उपयोग तभी संभव है, जब शब्द से सुनिश्चित अर्थ निकले। इस दिशा में हिंदी का प्रयोग न होने के दो कारण हैं एक इच्छा-शक्ति की कमी और दूसरा भाषिक एवं शाब्दिक नियमों के अर्थ की स्पष्टता न होना है। हिंदी के समक्ष सबसे बड़ी समस्या विश्व की अन्य भाषाओं के ज्ञान-विज्ञान के साहित्य को आत्मसात कर हिंदी में अभिव्यक्त करने की तथा ज्ञान-विज्ञान की हर शाखा की विषयवस्तु को हिंदी में अभिव्यक्त करने की है। हिंदी के शब्द कोष का पुनर्निर्माण परमावश्यक है। इसमें पारंपरिक शब्दों के साथ विविध बोलियों, भारतीय भाषाओं, विदेशी भाषाओं, विविध विषयों और विज्ञान की शाखाओं के परिभाषिक शब्दों का समावेश जरूरी है। तकनीकी विषयों के रचनाकारों को हिंदी का प्रामाणिक शब्द कोष और व्याकरण की पुस्तकें अपने साथ रखकर जब जैसे समय मिले, पढ़ने की आदत डालनी होगी। हिंदी की शुद्धता से आशय उर्दू, अंग्रेजी यानी किसी भाषा, बोली के शब्दों का बहिष्कार नहीं, अपितु भाषा के संस्कार, प्रवृत्ति, रवानगी, प्रवाह तथा अर्थवत्ता को बनाये रखना है। चूंकि इनके बिना कोई भाषा जीवंत नहीं होती।
भोपाल के विश्व हिंदी सम्मेलन में कुल 29 देशों के पांच हज़ार से ज़्यादा हिंदी विद्वानों और प्रतिनिधियों के सामने देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बना देना चाहिए। यानी अगर देश का गृहमंत्री हिंदी की पैरवी कर रहा है तो यह उम्मीद की जानी चाहिए कि हिंदी को अपने देश में आधिकारिक रूप से वही सम्मान मिल जाएगा जो चीनी को चीन में, जापानी को जापान में।अमरजीत मिश्र, अध्यक्ष अभियान
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डॉ. अशोक तिवारीजब तक हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं घोषित किया जाता है - अन्य सभी प्रयास नाकाफ़ी साबित होंगे और हो रहे हैं !**********************************************************************************
आगे भाग 3 में जारी...
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संगोष्ठी हेतु प्रस्तुत मूल लेख
भारतीय भाषाएँ : कहीं बहुत देर न हो जाए ! ( भाषा बनाम साहित्य)
दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन के बहाने ही सही एक ऐसी बहस तो शुरु हुई जिसे बहुत पहले शुरू होना चाहिए था। यदि ऐसी कोई समाधानकारक बहस पहले छिड़ती तो शायद हिंदी और भारतीय भाषाओं का ऐसा हश्र न होता जो पिछले कुछ वर्षों में हुआ। यह बहस है भाषा बनाम साहित्य की। आज भारत में, भारतीय भाषाओं में और शायद सबसे बढ़कर हिंदी में ऐसी स्थिति है कि साहित्य को भाषा का पर्याय मान लिया गया है। यूँ भी कह सकते हैं कि साहित्य को ही भाषा मान लिया गया है। यहाँ तक कि साहित्य को भाषा से बढ़कर भी मान लिया गया है। यूँ तो किसी भी क्षेत्र के ज्ञान-विज्ञान की सामग्री साहित्य में आती है, और आनी भी चाहिए, जैसे वैज्ञानिक साहित्य, धार्मिक साहित्य, आर्थिक जगत का साहित्य आदि ? लेकिन हमारे यहाँ साहित्य केवल ललित साहित्य तक सिमट तक रह गया। जिसके चलते भाषा के प्रयोग के अन्य सभी स्रोत जिनसे भाषा को खाद-पानी मिलता था एक – एक कर सूखते गए। क्या केवल साहित्य से ही भाषा है ? क्या केवल साहित्य (ललित साहित्य) ही भाषा है ? क्या भाषा का प्रयोजन केवल साहित्य है। अब समय आ गया है कि इन बिंदुओं पर गंभीरता से विचार किया जाए । ताकि तेजी से सिकुड़ती विश्व की महान भाषाओं यानी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को सभी क्षेत्रों में इनका सही स्थान मिले और भाषा की ह्रास- प्रक्रिया को नियंत्रित कर प्रसार-पथ पर ले जाया जा सके।
कहा जाता है कि किसी भी भाषा का मीडिया उसके प्रचार-प्रसार और विकास का महत्वपूर्ण माध्यम होता है। लेकिन पिछले कुछ समय में समाचारपत्रों में संपादकों की शक्तियाँ कम होने, मालिकों और प्रबंधन का हस्तक्षेप बढ़ने जैसे कई कारणों के चलते मीडिया की भाषा में भी काफी परिवर्तन हुआ है। प्रबंधन और विपणन में अंग्रेजीदां वर्ग का वर्चस्व बढ़ने से या फिर अपने को प्रगतिशील व आधुनिक जताने के लिए प्रयासरत पत्रकारों के चलते भारतीय भाषाओं के अंग्रेजीकरण ने हिंदी व भारतीय भाषाओं को भारी नुकसान पहुंचाया है । नई अवधारणाओं के लिए आगत शब्दों को स्वीकारने तक तो ठीक था लेकिन चलते- फिरते जीवित व प्रचलित शब्दों को प्रचलन से बाहर कर उनके स्थान पर योजनाबद्ध रूप से अंग्रेजी शब्दों जबरन स्थापित करने और हिंदी व भारतीय भाषाओं में रोमन लिपि के प्रचलन को बढ़ावा देने की नीति भारतीय भाषाओं के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र जैसी प्रतीत होती है। इसके चलते हिंदी और भारतीय भाषाओं को काफी नुकसान पहुंचा है। कुछ अपवाद छोड़ दें तो मैंने भारतीय भाषाओं के पत्रकारों और साहित्यकारों को कभी इसके खिलाफ आवाज उठाते नहीं सुना। प्रबंधन की नीति के खिलाफ न जा सकने की विवशता मीडियाकमियों की हो सकती है लेकिन लेखक, चिंतक और साहित्यकारों आदि की आत्मघाती चुप्पी कम चौंकानेवाली नहीं है। हिंदी और भारतीय भाषा के लिए गठित संस्थाओं का मौन समर्थन भी इसके लिए जिम्मेवार है। लेकिन किसी भी स्तर पर इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के प्रयास नहीं किए गए। इस विषय पर बहस होने के साथ-साथ शीघ्र उचित कदम उठाने की आवश्यकता है।
पिछले कुछ समय से हिंदी विभिन्न प्रयोजनों से लगातार कटते हुए मुख्यतः साहित्य और मनोरंजन में ही अपना अस्तित्व बनाए है। सामान्य व्यवहार में ललित साहित्य यानी कविता, कहानी, नाटक आदि को ही साहित्य माना जाता है। भाषा के नाम पर भी मुख्यतः यही साहित्य पढ़ा -पढ़ाया जाता है। ऐसा भी नहीं है कि विभिन्न क्षेत्रों में हिंदी भाषा के संकुचन का प्रभाव हिंदी साहित्य पर न पड़ा हो। साहित्य को भी निरन्तर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। पहली बात तो यह कि रचना के स्तर पर साहित्य में विशेषकर गद्य साहित्य यथा नाटक, एकांकी, निबंध, संस्मरण, रिपोर्ताज आदि का चलन काफी कम हुआ है पद्य में छंदबद्ध साहित्य भी क्रमशः कम हुआ है। अगर देखें तो आज साहित्य के नाम पर मुख्यतः कविता का वर्चस्व है। कविता के मंचों पर हास्य कविता का वर्चस्व है और हास्य कविता के नाम पर विशुद्ध चुटकुले परोसे जा रहे हैं, यहाँ तक कि अब चुटकुलों को तुकबद्ध करना भी आवश्यक नहीं समझा जाता। और फिर ये चुटकुले भी अकसर मौलिक नहीं होते, प्राय: सोशल मीडिया या पत्र-पत्रिकाओं के ये चुटकुले सार्वजनिक संपत्ति की तरह होते हैं, जो चाहे सुना दे।
जिस प्रकार राजनीति में अपराधीकरण के चलते आगे चलकर अपराधी सीधे राजनीति में उतरने लगे ठीक उसी प्रकार कवि सम्मेलनों के मंच पर हास्य कलाकारों और मिमिक्री वालों ने जगह बनानी शुरू कर दी है। गायन के असफल कलाकार भी इधर का रुख कर रहे हैं। देखा जाए तो कुछ गलत भी नहीं, जब कथित हास्य कवि चोरी के चुटकुले सुनाएँ तो हास्य कविता के नाम पर मौलिक हास्य आइटम या मिमिक्री भी गलत नहीं बल्कि बेहतर है चूंकि उसमें सृजनशीलता तो है। यदि इन्हें कविता न कहा जाए तो हमें इनसे कोई एतराज भी नहीं। मुंबई से प्रारंभ हुई यह लहर दलालों, नकली कवियों और हंसोड़ों के कंधों पर चढ़ कर आज देश भर में पसरती जा रही है। कथित साहित्य के ऐसे मंच हास्यास्पद होकर साहित्य को मिटाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे।
अगर साहित्यिक कृतियों और रचनाओं के पठन-पाठन की और जनता से उसके जुड़ाव की बात करें तो यहाँ भी स्थिति कम शोचनीय नहीं है। अगर साहित्यिक कार्यक्रमों की बात की जाए तो आप पाएँगे कि इनमें अब प्रौढ़ और वृद्ध ही ज्यादा दिखेंगे शेष में भी दो-चार कॉलेज के हिंदी के विद्यार्थियों के अतिरिक्त कौन दिखता है ? रही पुस्तकों की बात तो आज भी साहित्य या साहित्य-समीक्षा से संबंधित जो पुस्तकें छपती हैं उनका क्या होता है ? सरकारी नियमों के अंतर्गत पुस्तकालयों के लिए खरीदी पुस्तकों की धूल नहीं उतर पाती । मुफ्त में वितरित साहित्यिक पुस्तकें भी अकसर बिना खुले ही रद्दी वाले तक पहुंच जाती हैं । साहित्यिक-विमर्श और समीक्षाएँ आदि तो यूँ भी मुख्यतः शिक्षकों या कुछ गंभीर विद्यार्थियों तक ही सीमित रहती हैं। यानी हिंदी के संकुचन के प्रभाव से यह क्षेत्र भी अछूता नहीं है।
जनभाषा के रूप में अपने महत्वपूर्ण स्थान के चलते आज भी मनोरंजन जगत में हिंदी की महत्वपूर्ण स्थिति है। हालांकि वहाँ भी काफी जमीन खिसक गई है और रोमन लिपि और अंग्रेजी ने हिंदी सिनेमा में भी अपनी अच्छी खासी पैठ बना ली है। हिंदी को भारी नुकसान पहुंचाया है। हिंदी फिल्मों के संवाद प्राय: रोमन लिपि में लिखे जाते हैं। अनेक हिंदी फिल्मों के नाम अंग्रेजी में रखे जाते हैं भाषा में अंग्रेजी की घुसपैठ के तो कहने ही क्या? हिंदी सिनेमा के कार्यक्रमों का संचालन और कलाकारों आदि के वक्तव्य आदि तक भी प्रायः अंग्रेजी में ही होते हैं। स्थिति यह है कि हिंदी सिनेमा अपने व्यवसाय के लिए हिंदी का प्रयोग तो कर रहा है लेकिन इस व्यवसाय से जुड़े लोगों की पृष्ठभूमि भी अंग्रेजी की है जिसके चलते ये हिंदी को व्यावसायिक मजब��
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hindimumbai@googlegroups.com
Dec 11 at 11:34 PM
श्रीमती स्नेह ठाकुर - कनाडा, निर्मल कुमार पटौदी-इन्दौर, शालिनी नजीर - राजस्थान, रवीन्द्र अग्निहोत्री- मेरठ
{भारतीय भाषाएँ : कहीं बहुत देर न हो जाए ! ( भाषा बनाम साहित्य)}
डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य' के लेख पर विभिन्न विद्वानों के विचार प्राप्त हो रहे हैं। जिन्होंने मूल लेख नहीं पढ़ा, उनकी सुविधा के लिए लेख भी अंत में रखा गया है।
हिंदी एवं भारतीय भाषाओं के सभी भाषाकर्मियों, साहित्यकारों, शिक्षकों, पत्रकारों, प्रौद्योगिकीविदों, कलाकारों, सिनेमा-मनोरंजन-विज्ञापन आदि से जुड़े सभी
हिंदी एवं भारतीय भाषाओं के सभी भाषाकर्मियों, साहित्यकारों, शिक्षकों, पत्रकारों, प्रौद्योगिकीविदों, कलाकारों, सिनेमा-मनोरंजन-विज्ञापन आदि से जुड़े सभी
महानुभाव आदि उक्त लेख को गंभीरतापूर्वक पढ़कर भारतीय भाषाओं के प्रयोग-प्रसार व विकास के संबंध में अपने संक्षिप्त विचार व सुझाव प्रदान कर सकते हैं।
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प्रिय गुप्ता जी, अपने मूल लेख "भारतीय भाषाएँ : कहीं बहुत देर न हो जाए! भाषा बनाम साहित्य. साहित्य को भाषा का पर्याय मान लिया गया है" में आपने अपने इस समीचीन, सामयिक कथन से एक दुखती रग पर उँगली रख दी है. कितनी असह्यनीय स्थिति है यह क्योंकि यदि भाषा नहीं बचेगी तो साहित्य का अपनी सम्पूर्णता में अस्तित्व कैसे रहेगा! कदाचित कुछ मौखिक रूप में रह जाए पर वह मौखिक परम्परा भी कब तक चलेगी? भाषा और साहित्य का चोली-दामन का साथ है.
"१०वें विश्व हिन्दी सम्मेलन" की चर्चाएँ भाषा की दृष्टि से सारगर्भित रहीं. यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में कैनेडा से विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था और १०वें विश्व हिन्दी सम्मेलन में "विश्व हिन्दी सम्मान" से सम्मानित किया गया. तात्पर्य यह कि दोनों सम्मेलनों की विषय-वस्तु की साक्षी रही.
साहित्य की अनेक विधाओं में पुस्तक-लेखन के साथ ही साथ मैं कैनेडा से "वसुधा" हिन्दी साहित्यिक पत्रिका का संपादन-प्रकाशन कर रही हूँ. "वसुधा" बारह वर्ष पूरे कर अपने तेरहवें वर्ष में पदार्पण कर रही है. "वसुधा" का उद्देश्य सभी भारतीय, प्रवासी भारतीय, भारतवंशी, हिन्दी-प्रेमियों को एक जुट कर हिन्दी को उसके सर्वोच्च स्थान पर पहुँचाना है.
यह सर्वविदित है कि जो अपनी मान-मर्यादा की रक्षा स्वयं नहीं करते दूसरे भी उन्हें मान-मर्यादा नहीं देते. यदि हम अपनी भाषा का सम्मान नहीं करेंगे तो दूसरे भी उसकी उपेक्षा करेंगे. अपनी भाषा के प्रति हमारा सम्मान न केवल हममें स्वाभिमान जगाता है वरन् उस स्थिति में दूसरे देश भी न केवल हमारी भाषा का सम्मान करेंगे बल्कि इस भाव के प्रति वे हमें भी अच्छी नज़र से आँकेंगे.
आपके इस कथन 'भारतीय भाषाओं के अँग्रेजीकरण ने हिंदी व भारतीय भाषाओं को भारी नुकसान पहुँचाया है.' के प्रति सहमतिपूर्वक यह कहना चाहूँगी कि भाषा तो बहता पानी है जो न केवल अपने कगारों को समृद्ध करता है वरन् उससे स्वयं भी समृद्ध होता है. हिन्दी में विदेशी भाषा के शब्दों के समावेश के पक्ष में हूँ बशर्ते वो शब्द हमारी भाषा को समृद्ध करें. अपनी भाषा के शब्दों का लोप करके दूसरी भाषा के शब्दों को ग्रहण करने के पक्ष में नहीं हूँ. पर जो शब्द हमारी भाषा में नहीं है, या ऐसे उन वर्तमान शब्दों के दूसरी भाषा के विकल्प शब्द जो तथ्य की अर्थपूर्ण पूर्णरूपेण अभिव्यक्ति ज़्यादा अच्छी तरह करने की सामर्थ्य रखते हैं, ऐसे सक्षम शब्दों का समावेश हानिकारक न होगा. साथ ही जो शब्द हमारी भाषा में नहीं हैं उनको दूसरी भाषा से लेकर हिन्दी को समृद्ध करने के पक्ष में भी हूँ. वो शब्द जो हिन्दी में नहीं थे और जिनकी रचना की गई है, उदाहरणार्थ रेल या ट्रेन हेतु "लौहपथगामिनी", ऐसी स्थिति में प्रचलित छोटे सहज-सुगम शब्द रेल या ट्रेन का समावेश अनुचित नहीं. भाषा जीवंत है. समयानुकूल सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ-साथ उसमें नए शब्दों का जुड़ना एक अनिवार्यता है. साथ ही आज की अनिवार्यता है हिन्दी का गर्व के साथ प्रयोग. दूसरी भाषा के शब्दों का समावेश करें या नहीं इससे भी ज़्यादा न केवल यह बात महत्वपूर्ण है वरन् यह आज की अनिवार्यता भी है कि हम हिन्दी का गर्व और गौरव के साथ प्रयोग करें. यदि हमें अपनी भाषा हिन्दी को जीवित रखना है तो उसका निरंतर प्रयोग अति आवश्यक है. और मैं यहाँ यह भी कहना चाहूँगी कि हिन्दी प्रचार-प्रसार एवं हिन्दी रक्षा न केवल भारतवासियों का कर्तव्य व दायित्व है वरन् यह प्रवासी भारतीयों का भी कर्तव्य व दायित्व है. भाषा संस्कृति की वाहिनी है. भारतीयता, भारतीय संस्कृति को जीवित रखना है तो हिन्दी को जीवित रखना आवश्यक है. हिन्दी का लोप नए आवश्यक शब्दों के समाबेश से नहीं वरन् हिन्दी के प्रति हमारी मानसिकता से होगा. हिन्दी का लोप हिन्दी के प्रति हमारी हीन भावना से होगा. मुझे इस बात की चिंता है कि हिन्दी कैसे अनवरत प्रगति के पथ पर चलती रहे, उसका प्रचार-प्रसार दिन-दूना रात-चौगुना कैसे हो. अनेक भाषाओं का ज्ञान व्यावहारिक रूप से एवं मस्तिष्क के लिए भी अत्यंत हितकारी है पर अपनी भाषा से नाता तोड़कर नहीं. अपनी भाषा सर्वोपरि होनी चाहिए. अत: शब्दों के समावेश के प्रश्न से ज़्यादा अहम है कि हम हिन्दी के प्रति हीन मानसिकता में परिवर्तन लाएँ. हमारी हिन्दी पर गर्व करने की भावना हिन्दी के उत्थान हेतु अधिक लाभकारी सिद्ध होगी. जब हम देश-विदेश में सर ऊँचा कर गर्व से हिन्दी बोलेंगे तो भाषा अपनी पूर्णता और समृद्धता में स्वयं ही इस प्रकार प्रस्फुटित होगी कि उसके लोप होने का प्रश्न ही न उठेगा.
अँग्रेजी के कई शब्द जन मानस में इतने रच-बस गए हैं, प्रचलित हो गए हैं कि कदाचित उनको भाषा से निकालना असंभव नहीं तो कम से कम मुश्किल अवश्य हो जाएगा. यह हम पर निर्भर करता है कि हम किन शब्दों का समावेश कर रहे हैं. प्रश्न यह है कि जिन अँग्रेजी शब्दों के हिन्दी या हिंदुस्तानी शब्द हैं, जो क्लिष्ट भी नहीं हैं, और प्रचलित भी हैं या आसानी से उपयोग में लाए जा सकते हैं, क्या उनके लिए भी अँग्रेजी शब्दों का प्रयोग स्वीकार होगा? या होना चाहिए? यदि हाँ, तो ऐसा क्यों? ऐसे शब्दों के लिए हम क्यों नहीं अपनी भाषा के शब्दों के प्रयोग के पक्ष में नहीं हैं! हमें अपनी भाषा को समृद्ध करना है अत: जिन शब्दों का हमारे पास समाधान नहीं है उन्हें विदेशी भाषा से लेना उचित प्रतीत होता है पर जो शब्द हमारे पास हैं उनका प्रयोग अपनी भाषा से निकाल उनकी जगह विदेशी भाषा के शब्दों को ढूँसना क्या उचित है? क्या यह अनावश्यक नहीं है? इसका औचित्य क्या है? इसका उत्तर हर भारतीय व प्रवासी भारतीय हिन्दी भाषी को अपनी अंतरात्मा से पूछना होगा. प्रांतीय भाषाओं की भी अपनी महत्ता है पर हिन्दी ही राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधने वाली भाषा है. अत: हिन्दी बड़ी बहन की तरह प्रांतीय भाषाओं व अन्य भाषाओं के शब्दों को अपने आँचल में सहेज, उनके प्रति बड़ी सहोदरा जैसी स्नेह-सिक्त उदारमना हो, स्वयं को व अपनी जननी को गौरवान्वित ही करेगी.
आपकी अभिव्यक्ति 'हिंदी व भारतीय भाषाओं में रोमन लिपि के प्रचलन को बढ़ावा देने की नीति भारतीय भाषाओं के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र जैसी प्रतीत होती है' के सम्बन्ध में कहना चाहूँगी कि एक बार रोमन लिपि चल गई, नई पीढ़ी में प्रबलतम प्रचलित हो गई, जैसी कि आशंका उठाई गई है, तो हर कोई भाषा को तोड़ेगा, मरोड़ेगा, उसका उच्चारण अपनी सुविधानुसार कर उसके रूप के साथ खिलवाड़ कर अर्थ का अनर्थ कर देगा. अत: भाषा की शुद्धता हेतु हिन्दी की देवनागरी लिपि की सुरक्षा अत्यावश्यक है.
रोमन लिपि में हम न भी लिखें तो भी लिपि की शुद्धता के लिए हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण भी आवश्यक है. अत: जहाँ हमें अपनी भाषा के प्रति सजग होना है वहीं समानांतर में हमें भाषा वर्तनी के मानकीकरण की ओर भी अपना ध्यान आकर्षित करना है. विदेशों के संदर्भ में यहाँ विषेशरूप से हिन्दी का नाम ले रही हूँ. प्रवास मुझे अपनी मातृभाषा हिन्दी के अत्यधिक निकट लाया है. इस प्रवास ने ही अपनी संस्कृति और अपनी भाषा को जिलाए रखने की एक अदम्य इच्छा मुझमें जाग्रत की है. हम प्रवासी भारतीय व भारतवंशियों को अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषाओं के प्रति निष्ठावान होते हुए भी एकता के सूत्र में जुड़े रहने के लिए एक सर्वोपरि भाषा की आवश्यकता है और वह हिन्दी है. और हिन्दी भाषा की रक्षा के साथ-साथ उसके सर्वत्र एक स्वरूप के लिए हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण करना होगा. यद्यपि कि हिन्दी का मानकीकरण वर्षों पहले हो चुका है, तथापि आज की स्थिति में उसकी पुनरावृत्ति की आवश्यकता है.
वर्तनी - अर्थात् अक्षर-विन्यास, अक्षर-न्यास, अक्षरी, वर्ण-विन्यास, वर्णन्यास, लेख-नियम, हिज्जे, विवरण आदि. अँग्रेजी में यही 'स्पेलिंग' है. 'वर्तनी' वैसे तो बहुअर्थी है, पर अब हिन्दी में शब्दों की लिपिबद्धता के संदर्भ में वर्ण-विन्यास के लिए रूढ़ हो चुका है. संस्कृत मूल से बना वर्तनी - अर्थात् मार्ग, सड़क, जीना, जीवन, पीसना, चूर्ण बनाना आदि. इस तरह हिन्दी-लेखन की दृष्टि से 'वर्तनी' का भाव निकलेगा - वर्णों के शब्द-रूप तक पहुँचने का मार्ग. यानी, प्रकारांतर से कहा जा सकता है कि किसी शब्द को लिपिबद्ध करने में वर्णों को जिस प्रक्रिया में लिखा जाए वह है वर्तनी. इसे वर्तन शब्द के 'टिकाऊ' तथा 'ठहरने वाला' जैसे अर्थों के आलोक में देखें तो वर्तनी का अर्थ और चमक उठेगा. यानी किसी शब्द के लिए टिकने वाला, ठहरने वाला या एक स्थिर स्वरूप वाला वर्ण-क्रम. यही आशय ज्ञानमंडल, वाराणसी द्वारा प्रकाशित 'वृहद हिन्दी कोश' में दी गई वर्तनी की निम्नांकित परिभाषा में व्यक्त होता है - 'भाषा-साम्राज्य के अंतर्गत भी शब्दों की सीमा में अक्षरों की जो आचार-संहिता अथवा उनका अनुशासनगत संविधान है, उसे ही हम वर्तनी की संज्ञा दे सकते हैं....वर्तनी भाषा का अनुशासित आवर्तन है. वर्तनी शब्दों का संस्कारित पद विन्यास है....यह अक्षर-संस्थान और वर्ण-क्रम विन्यास है.'
हिन्दी-लेखन में वर्तनी के मानक स्वरूप की आवश्यकता क्यों है? क्या हम हिन्दी के शब्दों की वर्तनी स्थिर करने के प्रयास में इसका सहज विकास बाधित नहीं करेंगे?
भाषा लोक-व्यवहार के सहज प्रवाह के वशीभूत अवश्य होती है, पर साथ ही भाषा में हो रहे व किए जा रहे परिवर्तनों को उच्छृंखल भी नहीं छोड़ा जा सकता. भाषा लोक-व्यवहार के स्तर पर बोलचाल की हो या साधारण या विशिष्ट लेखन की, भाषा के एक मानक स्वरूप की आवश्यकता अवश्य होती है. बिना मानकता या शब्द व अर्थ का एक निश्चित स्वरूप निर्धारित किए बिना भावों का आदान-प्रदान भी सदा यथोचित रूप से सम्भव नहीं हो पाता. भाषागत मानकता भाव-सम्प्रेषण को यथोचित सम्भव बनाती है. एक क्षेत्र का व्यक्ति दूसरे क्षेत्र की अपने समान भाषा होने पर भी उच्चारण सम्बन्धी भिन्नता होने पर असमंजस में पड़ सकता है. हिन्दी अनेक क्षेत्रों में समझी, बोली, लिखी जाती है. विभिन्न क्षेत्रों की हिन्दी में उच्चारण भिन्नता के साथ लेखन में भी भिन्नता आना स्वाभाविक है जिससे अर्थ के अनर्थ होने की सम्भावना होती है. बोलचाल में तो फिर भी आमने-सामने के संवाद की स्थिति में स्पष्टीकरण सम्भव है पर लेखन में वर्तनी की मानकता न होने पर यह अहितकारी है. शब्दों की वर्तनी में एकरूपता का अभाव भ्रम उत्पन्न कर सकता है जिससे अर्थभेद हो सकता है.
हिन्दी को जीवित रखना है तो उसकी वर्तनी का मानकीकरण आवश्यक है; नहीं तो 'अपनी-अपनी डफली अपना-अपना राग' के अनुसार बोलचाल की भाषा का विभक्तीकरण होता जाएगा, वह खंडित होती जाएगी, अपने-अपने खेमे में बँटती जाएगी और कई खाँचों में बँटकर अपना अस्तित्व खो बैठेगी. लोक-व्यवहार की भाषा में कदाचित सम्पूर्ण एकरूपता लाना सम्भव न हो तथापि जितनी अधिकाधिक एकरूपता लेनी सम्भव हो, लेनी चाहिए. वर्तनीगत एकरूपता भाषा के दीर्घ जीवन के लिए आवश्यक है.
वस्तुत: हिन्दी क्षेत्र की विभिन्न बोलियों के बीच एकता का सूत्र यदि कोई है तो वह हिन्दी ही है. मूलत: खड़ी बोली से विकसित होने के बावजूद हिन्दी विभिन्न बोलियों के तत्वों से मिल कर बनी भाषा है. किसी भी देश की राष्ट्रभाषा एक होती है. हाँ! बोले जाने वाले डॉयलेक्ट, बोलियाँ, अनेक हो सकती हैं. हिन्दी और उसकी बोलियों के बीच परस्पर पूरकता और सौहार्द्र का रिश्ता है. इतिहास की सुई उलटी दिशा में नहीं जाती. हमें क्षेत्रीय भाषाओं से सामंजस्य बनाते हुए, उनसे पूर्ववत हिन्दी की शब्दावली को समृद्ध करते हुए, उसे इसका अभिन्न अंग बनाते हुए, स्थापित सौहर्द्रता का रिश्ता पुख्ता करते हुए हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण करना होगा. हिन्दी आम जनता के बीच सम्मान पाती हुई अपना राष्ट्रीय क्षितिज तैयार कर चुकी है. स्वतंत्रता की लड़ाई में तो यह सम्पूर्ण देश की अस्मिता के साथ जुड़ चुकी थी और भाषा के तौर पर इसने नेतृत्व किया था.
भाषा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने भावों तथा विचारों को बोलकर या लिखकर दूसरों तक पहुँचाता है तथा दूसरे के भावों और विचारों को सुनकर या पढ़कर समझता है.
भाषा के दो रूप होते हैं - उच्चरित रूप और लिखित रूप. उच्चरित रूप भाषा का मूल रूप है, जबकि लिखित रूप गौण एवं आश्रित. फिर भी उच्चरित रूप में दिया गया संदेश सम्मुख अथवा समीप-स्थित श्रोताओं तक सीमित रहता है और क्षणिक होता है. अर्थात् बोले जाने के तुरंत बाद नष्ट हो जाता है. इसके विपरीत लिखित रूप में दिया गया संदेश समय की सीमा तोड़कर, व्यापक होकर सुदूर विदेशों में स्थित पाठकों तक पहुँचने की क्षमता रखता है. स्थायी और व्यापक बना रहना ही लिखित रूप की शक्ति है. यह लिखित रूप स्थायी और व्यापक बना रहे इसके लिए आवश्यक है कि लेखन-व्यवस्था, शब्द-विन्यास - लिपिचिह्न, लिपिचिह्नों के संयोजन, शब्द स्तर की वर्तनी, विराम चिह्न आदि लम्बे समय तक एक-से बने रहें.
वर्तनी का शाब्दिक अर्थ है वर्तन अर्थात् अनुवर्तन करना, यानी पीछे-पीछे चलना. लेखन व्यवस्था में वर्तनी शब्द स्तर पर शब्द की ध्वनियों का अनुवर्तन करती है. दूसरे शब्दों में, शब्द विशेष के लेखन में शब्द की एक-एक करके आनेवाली ध्वनियों के लिए लिपिचिह्नों के क्या रूप हों और उनका कैसा संयोजन हो, यह वर्तनी (वर्ण संयोजन = अक्षरी) का कार्य है.
इस शताब्दी के आरम्भ में जब हिन्दी का प्रयोग प्रचलित होने लगा तो साहित्यकारों, लेखकों, कवियों, सम्पादकों, जन सामान्य ने स्थानीय परम्पराओं और रूढ़ियों के अनुसार शब्दों की वर्तनियों को अपनाया और वर्तनी में थोड़ी-बहुत अनेकरूपता आ गई. अत: वर्तनी में एकरूपता लाने के लिए इसका मानकीकरण आवश्यक है. मानकीकरण भाषा को परिमार्जित, परिनिष्ठित करने में सहायक सिद्ध होगा. साथ ही मानकीकरण से भाषा के स्वीकार्य व अस्वीकार्य रूपों में भेद करना सरल हो जाएगा. शुद्ध भाषा लिखने-पढ़ने के लिए शुद्ध उच्चारण बहुत महत्वपूर्ण है. हिन्दी के संदर्भ में तो यह कथन और भी सत्य है, क्योंकि हिन्दी ध्वन्यात्मक भाषा है. हिन्दी जिस प्रकार बोली जाती है, प्राय: उसी प्रकार लिखी भी जाती है. इसीलिए हिन्दी लिखने-पढ़ने वालों के लिए इसका शुद्ध उच्चारण आवश्यक है. जो शुद्ध उच्चारण करेगा, वह शुद्ध लिखेगा भी. हिन्दी में वर्तनी की जो अनेक अशुद्धियाँ दिखाई देती हैं उसका एक प्रधान कारण अशुद्ध उच्चारण है. असावधानी के कारण प्राय: लोग अशुद्ध उच्चारण करते हैं, फलत: लिखने में भी अशुद्धियाँ होती हैं. वर्तनी के मानकीकरण से लिखने के साथ-साथ उच्चारण में भी शुद्धता आएगी.
वास्तव में हिन्दी के लेखन-विधान के प्रकृतिनुसार इसमें वर्तनी की समस्या उत्पन्न नहीं होनी चाहिए क्योंकि हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है. देवनागरी की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें जैसा लिखा जाता है वैसा ही बोला जाता है, जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा जाता है. यह ध्वन्यात्मक लिपि है, जबकि दूसरी भाषाओं में यह बात नहीं है. अत: वहाँ रटना ही विकल्प बन जाता है. जबकि हम हिन्दी में जो बोलते हैं, वही लिखते हैं इसलिए हमें रटने की आवश्यकता नहीं होती. तथापि हम अपने हिन्दी के उच्चारण के प्रति असावधानी से गलत लिखने लगते हैं. यद्यपि विभिन्न अँग्रेजी भाषी क्षेत्रों में भी उच्चारण की भिन्नता है परन्तु लेखन के स्तर पर उनका एक मानक रूप है जिसका वे सब पालन करते हैं.
भाषा में वर्तनी की अनेकरूपता से बचने के लिए, लिखने-पढ़ने की एकरूप सुविधा के लिए, व्याकरण और शब्दों की वर्तनी, दोनों स्तर पर हिन्दी की वर्तनी का मानकीकरण आवश्यक है. विषेशरूप से आज जब हिन्दी की वैश्विक पहचान बन रही है - आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन, न्यूयॉर्क में जब यू.एन.ओ. के मुख्य सभागार में हिन्दी का परचम लहराया था और संयुक्त राष्ट्र के महासचिव वान की मून ने हिन्दी में उद्घाटन सत्र का आरम्भ किया था, क्रिया ने हिन्दी की चेतना, उसकी विशिष्टता को चार-चाँद लगा उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचा दिया और अब १०वाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन भाषागत पक्ष को उभार रहा है, ऐसी स्थिति में हिन्दी की यथोचित संवर्धक मानक वर्तनी के अभाव में अन्य भाषा-भाषियों के लिए हिन्दी सीखना सहज न होगा वरन् कठिनतम हो जाएगा. जो भी लोग हिन्दी सीखना चाहते हैं या जो सीख रहे हैं, उनके सामने कई तरह की उलझनें पैदा हो रही हैं.
इस दिशा में एक और बात ध्यान देने योग्य है कि जब हिन्दी देवनागरी लिपि के रूप में संसार की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि हमें परम्परा से प्राप्त है तो फिर हम क्यों न इसका सदुपयोग करें. हिन्दी की वर्तनी का मानकीकरण करके इसकी रक्षा करते हुए इसे उपयोगी बनाएँ. कम्प्यूटर के इस युग में सार्वभौम लिपि के रूप में खरा उतर सकने की सामर्थ्य देवनागरी लिपि में ही है. सबसे अधिक शुद्धता के साथ सभी भाषाओं की ध्वनियों को व्यक्त करने की क्षमता इस लिपि में है. इस अक्षरात्मक लिपि की ध्वन्यात्मक विशेषता इसमें शब्दों को उनके उच्चारणों के ही अनुरूप लिपिबद्ध किए जा सकने की सामर्थ्य पैदा करती है.
बिन्दु - अनुस्वार और चंद्र-बिन्दु - अनुनासिकता चिह्न को लेकर भी हिन्दी की वर्तनी में समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं. पहले शिरोरेखा पर बिन्दु और चंद्रबिंदु शब्द संरचना के अनुसार लगाये जाते थे परंतु अब चंद्रबिंदु का प्रचलन हटा केवल बिन्दु लगाने की प्रथा का प्रचलन हो गया है.
संयुक्त व्यंजन के रूप में जहाँ पंचमाक्षर के बाद सवर्गीय शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो, तो एकरूपता और मुद्रण, लेखन की सुविधा के लिए अनुस्वार का प्रयोग प्रचलित है; जैसे गंगा, चंचल, ठंडा, संध्या आदि में पंचमाक्षर के बाद उसी वर्ग का वर्ण आगे आता है, अत: पंचमाक्षर पर अनुस्वार का प्रयोग मान्य है. और यदि पंचमाक्षर दोबारा आए तो पंचमाक्षर अनुस्वार के रूप में नहीं बदलेगा; जैसे अन्न, अन्य, सम्मेलन, सम्मति, उन्मुख आदि के लिए.
वैसे देखा जाए तो आधा म के लिए भी आधा न की तरह शिरोरेखा के ऊपर बिन्दु लगाना नई पीढ़ी के लिए शब्द संरचना में भ्रामक हो सकता है. पाठक, लेखक को शब्दों की संरचना में याद रखना पड़ेगा, रटना पड़ेगा कि शिरोरेखा पर बिन्दु आधा म का प्रतिनिधित्व करता है या आधा न का. यदि केवल न की ध्वनि के लिए अनुस्वार लगाया जाए तो रटने की समस्या नहीं रहेगी. दो ध्वनियों को पहचानने की समस्या नहीं होगी.
आजकल जो चंद्रबिंदु की जगह केवल बिन्दु के प्रयोग का प्रचलन हो गया है वहाँ ऐसी अवस्था में भ्रम की गुंजाइश रहती है. यह बात अलग है कि आप वाक्य संरचना देखकर उसका यथोचित सही अर्थ अपने-आप लगा लेते हैं. अत: यहाँ भी हिन्दी की नई पीढ़ी को रटना ही पड़ेगा क्योंकि चंद्रबिंदु की जगह बिन्दु लगाने से प्राय: अर्थ में भ्रम की गुंजाइश रहती है; जैसे हंस और हँस, अंगना और अँगना आदि में. अतएव ऐसे भ्रम को दूर करने के लिए चंद्रबिंदु का प्रयोग अवश्य किया जाना चाहिए. यथास्थान चंद्रबिंदु न लगाने की प्रथा भाषा के लिए हितकारी नहीं है.
हिन्दी की वर्तनी के मानकीकरण से ही हम शब्दों को उनके मूल रूप में रख सकेंगे. यदि ऐसा न हुआ तो अंतत: प्रचलित उच्चारण वाले शब्द ही मान्य हो जाएँगे और शब्द अपना मूल-स्वरूप खो देंगे. उदाहरणार्थ अधिकांशत: देखा जा रहा है कि लोग ब्रह्मा को ब्रम्हा, चिह्न को चिन्ह, उऋण को उरिन आदि बोल और लिख रहे हैं.
यदि मूल स्वरूप बदलना भी है तो भी वर्तनी का मानकीकरण दिशा निर्देश देकर भाषा को एकरूप, एक स्वरूप प्रदान करेगा. श्रुत अवस्था में याद रखने की समस्या बनी रहती है. मानकीकरण हिन्दी वर्तनी को स्थायी व प्रामाणिक बनाएगा. यद्यपि कि काल परिवर्तनशील है. और काल के साथ ही साथ भाषा को समयानुसार, परिस्थितिनुसार सामंजस्य बैठाना ही होगा. क्योंकि भाषा तो वही जीवित रह सकती है जो सहज, सुगम हो, नदी के समान सतत प्रवाहशील हो. यदि प्रवाह अवरुद्ध हो गया तो सड़ांध से उसका दम घुट जाएगा. तथापि समयानुसार हिन्दी की वर्तनी का मानकीकरण भी आवश्यक है क्योंकि यह प्रवाह को अवरुद्ध करने के लिए नहीं वरन् उसे सहज, सुगम बनाए रखने के लिए काम करेगा.
भाषा भी माँ के समान है. भाषा हमें माँ की तरह पालती है. पर हमें माँ के लिए अपने प्यार का एहसास, जज़्बे की गहराई का सही अंदाज़, अधिकतर माँ के चले जाने के बाद ही होता है. कहीं यही दशा हिन्दी की न हो!
हमारी भाषा हमें अपने आप से हमारी पहचान कराती है. भारत में अँग्रेजी के सामने सबसे बड़ी चुनौती हिन्दी ही है. इसलिए हिन्दी को कमजोर करके भारत की सांस्कृतिक अस्मिता को, देश की रीढ़ को आसानी से तोड़ा जा सकता है. हिन्दी और उसके साहित्य को अगर बचाने की चिंता है तो हिन्दी की वर्तनी का मानकीकरण आवश्यक है.
भाषा विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम होती है. यह अभिव्यक्ति का माध्यम है. यह इतिहास की संरक्षिका है. संस्कृति की वाहिनी है. भविष्य के सतत अविष्कारों के लिए जरूरी है कि किसी विषय को सही ढंग से अपने दिमाग में उतारना और उसकी गहराई तक पहुँचना. उसके लिए अपनी सोच अपनी भाषा ही एक श्रेष्ठ उपाय है. वही राष्ट्र ज्यादा से ज्यादा अविष्कारों की श्रेणी में खड़ा होता है और अपनी उन्नति करता है जिसकी अपनी भाषा और अपनी सोच होती है. अत: इस दृष्टि से भी वर्तनी का मानकीकरण आवश्यक हो जाता है जिससे भ्रमितावस्था न उत्पन्न हो.
परम्परा संस्कृति की मानक होती है. लम्बी अवधि के दौरान समाज के इकट्ठे हुए अनुभव, तज़ुर्बे मिल कर समाज की परम्परा का स्वरूप निर्धारित करते हैं. परम्परा बीते समय के अनुभवों की इकट्ठी तस्वीर होती है. इस दौरान मिले संकटों और सुयोगों के माध्यम से, लाभ-हानि से गुजरने से प्राप्त शिक्षाओं से, गलत-सही की सीखों से संस्कृति का निर्माण होता है. किसी भी देश की संस्कृति का वर्तमान स्वरूप उस समाज द्वारा अपनायी गई दीर्घकालीन पद्धतियों का समुच्चय रूप, उनका परिणाम होता है. किसी भी देश की संस्कृति उसके समाज में गहराई तक धँसे हुए, काल-कालांतर से चले आ रहे व्याप्त गुणों का समग्र रूप है जो उस समाज के साहित्य, कला, विचार-शैली, कार्य-शैली में परिलक्षित होती है. और इसका सीधा सम्बन्ध भाषा से है. इस दृष्टि से भी भाषा की अस्पष्टता हितकारी नहीं है. वर्तनी का मानकीकरण स्पष्टता प्रदान करता है.
भाषा संस्कृति की वाहिनी है. भाषा बिना राष्ट्र गूँगा है. किसी भी भाषा का साहित्य उस देश व समाज का सच्चा दर्पण होता है. उसमें उसकी संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान, धर्म, इतिहास, रहन-सहन, वेशभूषा के साथ ही उसकी प्रगति का सही दर्शन होता है. उसकी भाषा ही अपने साहित्य के माध्यम से विश्व के सामने अपनी सही अभिव्यक्ति करती है.
विश्व के जितने भी उन्नतिशील देश हैं, उनकी विकास की आधार शिला भाषा की एकता ही रही है. कोई भी राष्ट्र चाहे वह कितना भी छोटा या विशाल क्यों न हो वगैर अपनी राष्ट्रभाषा के वह गूंगों के समान है. आपसी संवाद के लिए उसे एक भाषा का सहारा लेना ही होता है. भाषा और एकता का सम्बंध चोली दामन के समान है. भाषा अभिव्यक्ति का एक अच्छा माध्यम है. जिसके माध्यम से देश का मानव समाज एक दूसरों के विचारों को सुनकर आत्मसात करके एकता के बंधन में बँधता है. यह एकता का भाव आपसी सहकार के भावों को जगाता है. फिर यह सहकारिता का भाव ही हमारे बीच में प्रगति पथ पर बढ़ने की प्रेरणा जाग्रत करता है.
एक स्थान में रहने, सुख, दुख-दर्दों के सहभागी बनने के कारण यह एकता के भाव आपसी प्रगाढ़ता को जन्म देते हैं. इनकी आपसी आत्मीयता की अभिवृद्धि में अभिव्यक्ति अर्थात भाषा का महत्वपूर्ण योगदान होता है. अत: जनता के लिए अपनी अभिव्यक्ति हेतु एक राष्ट्र भाषा का होना नितांत आवश्यक है. राष्ट्रीय एकता के लिए एक ऐसी सशक्त भाषा हो जो विशाल जन समूह को एकता-सूत्र में पिरोने की सामर्थ्य रखती हो. जो उनकी आपसी विभिन्नताओं के बावजूद एकता के सूत्र में पिरोने का कार्य करती हो. उनमें राष्ट्रीय चेतना की अलख जगाकर उनकी एकता का शंखनाद करती हो, उन्हें सदा आगे बढ़ने को उत्साहित करती हो. भारत के लिए यह सामर्थ्य, यह क्षमता हिन्दी में है. हिन्दी को भारत के कोने-कोने में सशक्त बनाने के लिए उसकी वर्तनी का मानकीकरण आवश्यक है जिससे भारत के हर कोने में उसका एक ही स्वरूप हो.
हिन्दी की वर्तनी के मानकीकरण से भारत की नई पीढ़ी सबसे ज्यादा लाभान्वित होगी. स्वतंत्रता के बाद अँग्रेजी समर्थक जो पीढ़ी हिन्दी के विकास में कपोलकल्पित कारणों से बाधक बनती आ रही है, नयी पीढ़ी उनसे मुक्त हो जाएगी. हिन्दी की वर्तनी के मानकीकरण से दिशा निर्देश उनकी समस्याओं का अंत कर उनके लिए लाभकारी सिद्ध होगा.
हिन्दी का दीप अनेक देशों में जल रहा है. जहाँ-जहाँ हिन्दी भाषी हैं वहाँ-वहाँ यह प्रज्वलित है. विश्व की तीन-चार प्रमुख भाषाओं में हिन्दी का नाम है.
जब हम वैश्विक स्तर पर बात करते हैं तो हिन्दी का उद्गम स्थान भारत ही है. जहाँ-जहाँ हिन्दी भाषी हैं वे हिन्दी के नवोन्मेष के लिए भारत की ओर ही देखते हैं. खटकने वाली बात यह है कि हिंदुस्तान में आज भी प्रभावशाली वर्ग हिन्दी की तुलना में अँग्रेजी को अधिक महत्ता देता है, जबकि आवश्यकता है कि हिन्दी भाषी होने में हमें अधिकाधिक गर्व का अनुभव होना चाहिए.
आज की दुनिया में विज्ञान के चरण निरंतर बढ़ते जा रहे हैं. रोज़ नई उद्भावनाएँ हो रही हैं. नए आविष्कार हमारे समक्ष आ रहे हैं. अत: हमारी वैश्विक चेतना को प्रगति के बढ़ते चरणों के साथ जुड़ा होना चाहिए.
आज सूचना तंत्र की क्रांति ने सारे विश्व को समेटकर एक ग्राम में, विश्व ग्राम में, ग्लोबल विलेज कान्सैप्ट में परिवर्तित कर दिया है. मोबाइल, कंप्यूटर, इंटरनेट, अंतर्जाल, संग्रणक आदि उदाहरण हैं अत: अब वैश्विक चेतना की बात की जानी अत्यंत समीचीन और सामयिक है.
हिन्दी भाषा ने संपर्क भाषा के रूप में, कामकाज की भाषा के रूप में, बाज़ार की भाषा के रूप में अपनी भूमिका का सफल निर्वाह किया है. हिन्दी भाषा साहित्य के रूप में अद्वितीय रही है. विश्व की किसी भी भाषा से कम नहीं. सूर, तुलसीदास, मीरा, प्रेमचंद सभी का आभामण्डल प्रदीप्त रहा. भक्तिकाल, छायावाद काल अद्वितीय रहा. हिन्दी साहित्य की महिमा और गरिमा, हिन्दी साहित्य का स्त्रोत चारों तरफ फैला रहा. इसकी महिमा कैनेडा, इंग्लैंड, अमेरिका व अन्य देशों में अपनी छटा बिखेर रही है, हिन्दी की शोभा व्याप्त हो रही है.
जैसा कि मैं कह चुकी हूँ कि आज का समय वैज्ञानिक और तकनीकी क्रांति के साथ नवोन्मेष और नवउद्भावना का है - कंप्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल, आज हमारे जीवन का अनिवार्य अंग बन गए हैं. हमें आज हिन्दी को विज्ञान और तकनीक की भाषा बनाने के लिए कृत-संकल्प होना पड़ेगा. मैं जानती हूँ कि हम लोगों ने वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों के हिन्दी समानार्थी शब्द काफी हद तक बना लिए हैं किन्तु यह काम इस अर्थ में अधूरा है कि आज भी वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्र में हिन्दी के शब्द उस सीमा तक प्रचलित नहीं हैं जितना अपेक्षित था. और अभी इस दिशा में अनेक नए शब्दों का निर्माण होना है और उन्हें प्रचलन में लाना है.
हमें यदि आज के समय से और विश्व के सतत परिवर्तनशील परिदृश्यों से जुड़ना है तो हमें इन नयी चुनौतियों को न केवल स्वीकार करना पड़ेगा अपितु कृत-संकल्प होकर इस दिशा में प्रभावी कार्य करना होगा. जिस परिमाण में अँग्रेजी का प्रभुत्व है उसी परिमाण में प्रतिबद्ध हो हमें हिन्दी के लिए काम करना होगा.
आज़ादी की लड़ाई में हिन्दी भाषा ने जिस तरह भारत के पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण को जोड़ा, तथा गैर हिन्दी भाषी जिस तरह हिन्दी से जुड़े, वह अद्वितीय था. भारत की स्वतंत्रता संग्राम को दिशा और गति देने में साहित्यकारों ने अपूर्व योगदान दिया, महत्वपूर्ण कार्य किया.
जिस तरह की एकता और एकजुटता पराधीन भारत के लिए हिन्दी वालों ने दिखाई थी, आज पुन: नई चुनौतियों के सापेक्ष हिन्दी भाषी विश्व को एकजुट होकर उसे प्रदर्शित करना है तथा नए प्रतिमान स्थापित करने हैं.
स्नेह ठाकुर, संपादक-प्रकाशक वसुधा
Sneh Thakore,16 Revlis Crescent,Toronto,Ontario M1V 1E9,Canada,Tel. 416-291-9534
e-mail: sneh.thakore@rogers.com, Website: http://www.Vasudha1.webs.com
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वैश्विक हिंदी सम्मेलन के मो.ला. गुप्त 'आदित्य' जी का अन्तर्मन से लिखा गया-भारतीय भाषाऐं कहीं देर न हो जाए ( भाषा बनाम साहित्य ) विषय पर दो भाग में बहस में प्रस्तुत सभी महानुभावों के विचार गंभीरता से पढ़ कर अपने लम्बे अनुभव के आधार पर कथन प्रस्तुत कर रहा हूँ। बात २७, अप्रैल १९६६ की है। इस दिन लोकसभा की बहस में भाग लेते हुंए सांसद सेठ गोविंददास ने हिंदी के प्रति सरकार की बरती जाने वाली उदासिनता को लक्ष्य कर भाषण दिया था। उन्होंने कहा था हिंदी के प्रति सरकार ने अपने ही आदेशों का पालन नहीं किया, इसीलिए देश का बौद्धिक निर्माण नहीं हुआ। "मैं गृह मंन्त्रालय से यह जानना चाहता हूँ कि सरकार के कितने ऐसे विभाग हैं जिसमें हिंदी जानने वाले कर्मचारियों की पर्याप्त संख्या है और उसमें यदि गत १८ वर्षों के बाद भी हिंदी में काम नहीं चला है, तो इसका क्या कारण है हमारे संविधान रे अनुसार १९६५ की २६ जनवरी से हिंदी इस देश की पहली भाषा हो जाती है। इसलिए सरकार का अपना सब काम पहले हिंदी में करना चाहिए। १९६३ में एक क़ानून हमने ज़रूर पास किया है अँग्रेजी चलाने के सम्बन्ध में , लेकिन उस क़ानून में भी यह बात स्पष्ट कही गयी है कि अँग्रेजी केवल हिंदी के साथ चल सकती है; मैं गृह मंत्रालय से यह जानना चाहता हूँ कि १९६५ की २६ जनवरी के बाद जे केन्दीय सरकार का समस्त कार्य हिंदी में चलना चाहिए था और अँग्रेजी केवल उसके साथ चल सकती थी, उस सम्बन्ध मेंक्या हुआ ? " सेठ गोविंददास के कथन को पचास साल बीत चुके हैं। वास्तविकता यह है कि केन्द्र की दिल्ली सरकार में अँग्रेजी के साथ हिन्दी का अस्तित्व बचा ही नहीं है। सरकार के सभी क़ानून मूल रूप से अँग्रेजी में बनते है। प्रशासन का पूरा कामकाज अँग्रेजी में ही चलता है। संसद में अधिकांश सांसद मतदाताओं की भाषा की अपेक्षा हिन्दी या प्रदेश की भाषा में नहीं बोलते हुए अँग्रेजी में बोलते हैं। हिन्दी की हैसियत मात्र अनुवाद की भाषा तक रह गयी है। ७, दिसम्बर २०१५ को सर्वोच्च न्यायालय ने एक फ़ैसले में साफ़ कह दिया है कि सुप्रीम कोर्ट की भाषा अँग्रेजी है। हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में फ़ैसले की प्रति उपलब्ध कराना संभव नहीं है। इस सम्बन्ध में दायर याचिका को ख़ारिज कर दिया। याचिका में माँग की गयी थी कि संविधान के प्रावधानों में संशोधन कर हिंदी को सुप्रीम कोर्ट की अधिकारिक भाषा बनाया जाए। ७, जुलाई २०१५ के समाचार के अनुसार उत्तरप्रदेश के मदरसों में अब सभी कक्षाओं में अँग्रेजी अनिवार्य होगी। हिन्दी स्वैच्छिक रहेगी। मेडिकल कौंसिल दिल्ली से म. प्र. के कॉलेजों में हिंदी माध्यम में पढ़ाई की अनुमति नहीं दी गयी है। विश्व की शीर्षस्थ २० भाषाओं में इंटरनेट पर उपयोग की जाने वाली देवनागरी सम्मिलित नहीं है। विश्व के २०० विश्वविद्यालयों मे भारत के विश्वविद्यालय नहीं। समाचार २२ नवम्बर २०१४ के अनुसार जॉब हो या बिज़नेस, काम आए विदेशी भाषा। समाचार-"देवनागरी रे बिना भारतीय संस्कृति-संस्कारों के बचने की कल्पना भी नहीं की जा सकती, तो भी...संस्कृत को ख़त्म करने पर तुला है देश " पत्रकार मार्क टुली ने कहा-अपने देश को नक़ली अमेरिका नहीं, असली भारत बनाइए। यह सच्चाई है-खस्ताहाल शिक्षा व्यवस्था का ख़ामियाज़ा उठाते लोग। समाचार-कर्नाटक में अँग्रेजी अनिवार्य हिंदी एच्छिक है।
डॉ. मोतीलाल गुप्ता की ओर से प्रारम्भ की गयी बहस से क्या कोई दिशा दिल्ली सरकार को मिलेगी। क्या जन-सामान्य अपनी भाषाओं से जुड़ जायगा ? अपनी भाषाओं को सरकार में उनका संवैधानिक अधिकार तब ही मिल सकेगा, जब या
तो सरकार को जन जागरण के माध्यम से बाध्य कर दिया जाए अथवा वैश्विक हिंन्दी सम्मेलन से जुड़े महानुभाव हिंदी ही नही देश की सभी मान्य प्रादेशिक भाषाओं के लिये समर्पित हो कर सेवा भाव से जन सामान्य को सचेत करें। कोरी और सिर्फ बहस चलाने से कुछ लोग सहमत हो सकते हैं। किंतु परिणाम के रूप में क्या उपलब्ध होगा ? जो ढर्रा चल रहा है, उसे बदलने के लिए मैदान में उतरने के अतिरिक्त कोई विकल्प हो ही नहीं सकता है। भारत सरकार की प्रशासनिक सेवा परीक्षाओं में देश की भाषाओं का मार्ग अवरुद्ध है। जो नौकरशाही दिल्ली की सरकार में है, उसे अपनी भाषाओं को अपनाने के लिए क्या सहजता से बाध्य किया जा सकता है ?
निर्मलकुमार पाटोदी,
विद्या-निलय, ४५, शांति निकेतन ( बॉम्बे हॉस्पीटल के पीछे ), इन्दौर-४५२-०१०
मो. ०७८६९९१७०७० मेल:-nirmal.patodi@gmail.com
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आदरणीय डाॅ.एम एल गुप्ता " आदित्य" जी आपका लेख "कहीं बहुत देर न हो जाए " में प्रस्तुत बेबाक राय से पूर्णतया सहमत हूं ।
विडम्बना है हिन्दी में पली बढ़ी संस्कारित हुई पीढ़ी ही हिन्दी का दामन छोड़कर आंग्ल की गिटपिट और विकास में सहर्ष जुडी हुई है और हिन्दी भाषा का क्षेत्र मात्र हिन्दी दिवस और ललित साहित्य तक सिमटकर रह गया है ।
लेकिन सर्वविदित सत्य है बिन खाद पानी के हम फुलवारी की उम्मीद नही कर सकते ।जब तक भारतीय भाषाओं पे अंग्रेजीकरण का प्रभाव बिना रोक टोक जमा रहेगा तब तक हिन्दीभाषा अपने ही देश में अपने अस्तित्व और सम्मान के लिए संघर्ष करती रहेगी ।
यही समय है साहित्यकारों ,लेखकों ,पाठकों को साधिकार अपनी चुप्पी तोडकर उच्चस्तर की बहस करनी होगी ताकि भाषा का बहाव बिना अवरूध्द हुए सरल व सहज रूप से प्रवाहित हो सके ।
शालिनी 'नजी़र' , राजस्थान
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हिंदी का एक उपेक्षित क्षेत्र
हिंदी इस समय एक विचित्र दौर से गुज़र रही है। अनेक शताब्दियों से जो इस देश में अखिल भारतीय संपर्क भाषा थी, और इसीलिए संविधान सभा ने जिसे राजभाषा बनाने का निश्चय सर्वसम्मति से किया, उसे उस पद पर प्रतिष्ठित करना तो दूर, “ आधुनिक शिक्षित “ लोगों ने अखिल भारतीय संपर्क भाषा का रुतबा अंग्रेजी को देकर हिंदी के पर कतर दिए और उसे क्षेत्रीय भाषा बना दिया। इतने पर भी सन्तोष नहीं हुआ तो एक के बाद एक हिंदी की बोलियों को स्वतंत्र भाषा घोषित करके षड्यंत्रकारियों ने हिंदी परिवार छिन्न – भिन्न कर दिया। इन दुरभिसंधियों के लिए कोई सरकार को कोस रहा है तो कोई समाज में फैलते जा रहे अंग्रेजी प्रेम को। उधर स्थिति यह है कि जिस सरकार पर राजभाषा हिंदी की उपेक्षा के निरंतर आरोप लग रहे हैं, उसने मूल के बजाय पत्तियों को सींचने वाली, अतः अनन्त काल तक चलने वाली कुछ स्थायी योजनाएं बना दी हैं (जैसे, सरकारी कर्मचारियों को कामकाज के समय में हिंदी का प्रशिक्षण, हिंदी परीक्षाएं पास करने पर वेतन-वृद्धि / मानदेय, हिंदी दिवस के अवसर पर कुछ कार्यक्रम, हिंदी में तकनीकी शब्द बनाते रहने के लिए आयोग, हिंदी के प्रयोग की सलाह देने के लिए वार्षिक कार्यक्रम, विभिन्न प्रकार की समितियां आदि) । लगभग सात दशक बीतने पर भी ऐसी योजनाओं से राजभाषा हिंदी कहाँ पहुंची – इसका आकलन करने की किसी को कोई चिंता नहीं है। इस सबके लिए लोग सरकार को दोषी मानते हैं ।
आरोप समाज पर भी लग रहे हैं। समाज के दैनिक जीवन में हिंदी का स्थान अंग्रेजी लेती जा रही है। तभी तो ब्रिटिश / अमरीकी अंग्रेजी सिखाने का दावा करने वाले कोचिंग सेंटर छोटे – बड़े हर शहर में खुल गए हैं। लोग अपने ऐसे कामों में भी अंग्रेजी का प्रयोग करने लगे हैं जहाँ उसका प्रयोग करना अनावश्यक ही नहीं, स्वभाषा-प्रेमी की दृष्टि से अपमानजनक है ( जैसे, हस्ताक्षर अंग्रेजी में करना, जहाँ हिंदी / अंग्रेजी का विकल्प हो वहां अंग्रेजी चुनना, घर के बाहर नामपट, मोहल्ले में बनाए संगठन के बोर्ड / पत्रशीर्ष, विवाह आदि के निमंत्रणपत्र जैसी चीजें भी अंग्रेजी में, और तो और अपने दूध पीते शिशुओं के बोलने की शिक्षा eyes, nose, lips, जैसे शब्दों से शुरू करना, आदि ) ; पर सरकार की तरह समाज भी कुछ दिखावटी आयोजन करता है (जैसे, कवि सम्मेलन के नाम पर हास्य कवि सम्मेलन, साहित्यिक गोष्ठियों के स्थान पर हिंदी सम्मेलनों का आयोजन और उनमें छोटे-बड़े हिंदी साहित्यकारों का, कभी-कभी उन्हीं से पैसे लेकर सम्मान करना । सम्मेलन भी अब स्थानीय नहीं, राष्ट्रीय / अंतर–राष्ट्रीय ही होते हैं, कोशिश होती है कि इनका आयोजन विदेश में किया जाए)। ऐसे आयोजनों के बावजूद यह आम शिकायत है कि सरकारी हो या निजी, जीवन के हर क्षेत्र से हिंदी गायब होती जा रही है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदी के लिए जो कुछ भी किया जा रहा है, वह पर्याप्त नहीं है। व
तो और क्या किया जाए, इस पर विचार करने से पहले भाषा के विभिन्न रूपों का स्मरण कर लेना उपयोगी होगा। सामान्यतया प्रयोग की दृष्टि से हर भाषा के तीन रूप होते हैं :
(क) जिस स्थान पर वह बोली जाती है, वहां की क्षेत्रीय भाषा, (इसका मौखिक प्रयोग अधिक होता है, अतः इसमें अनेक स्खलन / वैविध्य मिलते हैं) ;
(ख) इस भाषा का मानक / परिनिष्ठित रूप (इसका लिखित प्रयोग अधिक होता है, साहित्य की रचना भी प्रायः इसी रूप में की जाती है, शिक्षा - माध्यम के लिए भी इसी का प्रयोग किया जाता है, अतः इसका प्रयोग करना शिक्षित होने की पहचान बन जाता है), और
(ग) विभिन्न विषयों के प्रतिपादन के लिए “ प्रयोजनमूलक रूप ” (इसमें पारिभाषिक शब्दों का खूब प्रयोग होता है, अतः संबंधित विषयों की मौखिक – लिखित चर्चा में इसका प्रयोग किया जाता है)।
इन तीन रूपों के अतिरिक्त किसी – किसी भाषा का एक और रूप भी तब विकसित हो जाता है जब ऐतिहास��
प्रस्तुत कर्त्ता
संपत देवी मुरारका
अध्यक्षा, विश्व वात्सल्य
मंच
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
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