प्रभु जोशी का अंतिम लेखनएक समर्पित हिंदी सेवीजाने-माने हिंदी साहित्यकारविश्वस्तरीय चित्रकारएक संपूर्ण देशप्रेमीएक संपूर्ण कलाकारस्व. प्रभु जोशी जी की अंतिम रचना......अंधत्व अतीत का और आधुनिकता का.....
इन दिनों एक बार फिर , स्त्री-स्वतंत्रता के हितैषी तर्क , एक नई विचार शक्ति के साथ आते दिखाई देने लगे हैं। एक बन्द और पिछड़े समाज में, ऐसी शक्तिशाली लहर का ज्वार भाटे का रूप ले लेना, बहुत शुभ लक्षण हैं। उसका चतुर्दिक स्वागत होना चाहिए और आल्हादकारी बात यही है कि
काफी हद तक ऐसा हो रहा है। क्योंकि, एक नई सभ्यता आ रही है, जो हमारे रूढ़ और अर्द्ध सभ्य समाज को
विकसित और सांस्कृतिक रूप से संपन्न बनाने में हमारे समाज की अभूतपूर्व मदद कर रही है।
बहरहाल, यह अब बहस का मुद्दा ही नहीं रह गया है, बल्कि सम्पूर्ण स्वीकार का बिंदु है कि इस समय, सब से उन्नत, सब से विकसित और सब से
सभ्य समाज अमेरिकी समाज है। इसलिए, उस समाज के मूल्य, जीवन शैली को हम को आत्मसात कर लेना चाहिए। भारत का समूचा
लाइफ स्टाइल जर्नलिज़्म ,, रोज़ ही बता रहा है कि
जीवन के सभी घटकों को, अमेरिकी समाज से, प्रतिमानीकरण करने में ही, हमारा और हमारे समाज का
भविष्य बन सकेगा।
निश्चय ही ये एक नए सामाजिक परिवर्तन का काल है, जिसे अतीत के अंधे लोग, समझ नहीं पा रहे है। एक पैराडाइम शिफ्ट है।
बहरहाल, जो वैचारिक उत्तेजना, इस समय उठ रही है, वो स्त्री के परिधान अर्थात रिप्पड जींस को लेकर है। हालांकि उसे युवक भी पहनते है।
जीन्स को , आमतौर पर और लो-वेस्ट जीन्स को लेकर खासतौर पर
बहस खत्म हो चुकी है। जीन्स अब भारतीय युवती का, राष्ट्रीय परिधान है। वह साड़ी, सलवार-कमीज के, भेंनजी- छाप की दिखने के लांछन से निकल कर काफी दूर आ गई है। वह पुराने रूपनिष्ठ आग्रह की लगभग ज़्यादती से निबट कर, देहनिष्ठ परिधान
को वरेण्य बना चुकी है। यहां यह भी याद रखा जाना चाहिए कि
एड्स नियंत्रण अभियान में रोग से बचाव के उपकरणों ने, भारतीय युवती को , पुरानी सेक्स-स्टारविंग दुर्दशा से बाहर निकालने में, बड़ी
मदद की। वे देह के आनंद से उम्र और उपयुक्त
समय से पहिले परिचित हो सकने में, आत्म निर्भरता के स्तर पर आ गई। लेकिन
Ripped जीन्स की इस पूरे सोशल मीडिया में बहस में हर बार की तरह,
तर्क वही है,
' अश्लीलता देखने वाले की आंख में होती है, पोशाक में नहीं। '
'मेरा शरीर मेरा है ! '
' यह स्त्री की आज़ादी का मामला है। पुरुष को अधिकार नहीं, वह तय करे कि स्त्री क्या पहनें , क्या नहीं।'
हमारे समाज मे पुरुष के तीन
आततायी रूप हैं। पिता, भाई और पति।
ये ही स्त्री की स्वतंत्रता संहार में सदियों से लगे हुए है।
इन पुरूष-रूप से ' अन्य ' की दरकार सही है। ये ही स्त्री को प्रश्नांकित करते है।
Ripped जीन्स की भर्त्सना करने वाले लोग, मोरलिस्ट है। वे नैतिकता की शब्दावली के साथ आते हैं।
जबकि भारतीय स्त्री के लिए तो, ' 'स्त्री आज़ादी
की theoritical संभावना '
तक पहुंचने में अभी, काफी विलम्ब है। भारतीय स्त्रीवादी, चिंतक, यानी फेमिनिस्ट, जिनमे स्त्रियां ही अधिकतर होती है,
अभी ' अमेरिकी स्त्री की आज़ादी के सीमांतो ' तक नही पहुंच पाए है। उनका विरोध भी अभी काफी पिछड़ा हुआ है।
मसलन, अभी पुरुष के वर्चस्ववाद के विरोध को वह
अमेरिकी विदुषियों के वांछित स्तर पर नहीं, ले जा पाए है।
हालांकि, यह भी खबर आयी थी कि
एक भारतीय विदुषी ने , ripped जीन्स के विरोध करने वाले को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए, शॉर्ट्स में अपना छायाचित्र सोशल मीडिया पर डाल दिया। हो सकता है, उनके साहस का सीमांत और भी
आगे जाये, यदि कोई उनके शॉर्ट्स वाले छाया चित्र की आलोचना कर दे। विजेता होने की ऐषणा बहुत मजबूत होती है।
मैं आप को याद दिलाना चाहता हूँ।
अमेरिकी विदुषी ब्रिटनी स्पीयर्स ने, स्त्री की स्वतंत्रता के प्रश्न को , ऊंचाइयां देने के लिए, छाया चित्रकारों को आमंत्रित किया और
अपने यौनांगों के छायाचित्र निकालने का प्रस्ताव किया। ये एक वीरांगना का
प्रतिमान का स्थापन था। नतीज़ा हुआ कि वे विश्व मीडिया में छा गई।।
उनकी साहसिकता से उनकी प्रिय सखी
पेरिस हिल्टन, जो दूसरे नंबर की सितारा हैसियत की विदुषी थी। उन्होंने स्वयं को
पराजित अनुभव किया, और उन्होंने
अपने पुरुष मित्र के साथ के दैहिक साहचर्य की वीडियो क्लिपिंग्स को सार्वजनिक कर दिया। वे ब्रिटनी स्पीयर्स से आगे निकल गई। फिर तारा रिज और लिंडसे लोहान भी इस स्पर्धा में कूद पड़ीं। उन्होंने अपने शयन कक्ष की देहलीला को जन जन के लिए दृश्यमान कर दिया। ये एकांन्त को अनेकांत बनाने का स्त्रैण शौर्य था। फिर फ्लोरिडा के एक विद्यालय की लड़कियों ने अपने
टॉप्स उतार फेंके। बड़ी चर्चा हुई,
गर्ल्स गान वाइल्ड की हेडलाइंस बनी।
बाद में उन्होंने एक स्लोगन भी दिया,
वी एन्जॉय आवर वैजाइना। ये स्लोगन टी-शर्ट्स पर छापा गया। इस सब से एक उम्र रशीदा विदुषी जेन जुस्का ने
, जो स्कूल टीचर रही थी, अपने छात्रों के साथ रति-क्रिया के रोचक बखान में
किताब लिखी--राउंड हील्ड वुमन।।
वह सब से अधिक बिकने वाली किताब
सिद्ध हुई।
ये तमाम, साहसिक प्रतिमान , उस सभ्य समाज की विदुषियों ने, रचे, जिस समाज का हम अनुकरण कर के
सांकृतिक संपन्नता अर्जित करने को
कृत संकल्प हैं।
दरअसल, अनिश्चितता का युग ही
फैशन के वर्चस्व का युग होता है। इस समय मे ही, वह समाज को एक मिथ्या
सामूहिकता के बोध में लपेट लेती है। फैशन
एक किस्म के विचारहीनता के विचार का अनुकरणवाद पैदा करती है। और
अब की बार भारत मे, ये काम, पश्चिम की कल्चर इंडस्ट्री कर रही है। वे कहते है, we don't enter a country with gun-boats, rather with language and culture. और हम पाते है कि वो तो हमारे गुलाम बन जाने के लिए बेताब है। कहना न होगा, भारतीय
इसमें सब से आगे है। मेरा बेटा पन्द्रह साल अमेरिका में पढ़ा। वह कहा करता था। यहाँ, जब एक जापानी लड़का-लड़की आता है, वो 105 प्रतिशत जापानी हो जाता है। चीनी यहाँ आकर 115 प्रतिशत चीनी हो जाता है।
भारतीय आते है, वो 80 प्रतिशत अमेरिकी हो जाने की कोशिश करते है। फिर भी अमेरिकी उनको कहते है, bloody third rate xerox copy of our culture. हम स्वत्वहीन कौम के उत्तराधिकारी है। गोरे रंग को लेकर हमारे समाज मे, इतनी दीवानगी है कि
अगर गोरे पुरुष के शुक्राणु का बैंक
खुल जायें तो उसके वितरण की घोषणा होते ही, बैंक परिसर में भारतीय स्त्री की इतनी अनियंत्रित भीड़ लगेगी कि लाठी चार्ज से स्थिति से ही नियंत्रण सम्भव हो पाए।
दरअसल, आज भारतीय स्त्री, अपने पति के आग्रह, प्रस्ताव या तानाशाही आदेश पर भी सरेआम ,
अर्द्ध नग्नता के लिए तैयार नही होती,
जबकि फैशन व्यवसाय के पुरूष ने उसे
अर्द्ध नग्न होने के लिए आसानी से राजी कर लिया। दिलचस्प स्थिति यह है कि
स्त्री जिस अर्द्धनग्न होने रहने को
अपनी आजादी मानती है,
दरअसल फैशन के " व्यवसाय के पुरूष ' की
ये व्यवसायिक सफलता है। उसने भारत को उस
पिछड़ी स्त्री को इस सीमांत तक
राजी कर लिया
कि जिन वस्त्रों में वह स्नानघर से बाहर नही आ पाती थी, उतने कम वस्त्रों मे वह चौराहे पर आने को तैयार हो गई।
ये स्त्री की यौनिकता के क्ष्रेत्र में , बनते स्पेस की सफलता का बढ़ता हुआ ग्राफ है। ये याद रखिये, फ़ैशन के व्यवसाय में पुरूष ही उसकी गढ़न्त तैयार करते है। वही तय करते है कि स्त्री की देह का कौनसा भाग कितना और किस जगह से खुला रखा जाए कि वह पुरूष के भीतर
देह की उत्तेजना पैदा करे। फैशन की ये सैद्धान्तिकी
पुरुष को माचो-मैन बनाती है। वह पुरुष की यौनिकता को उकसाने के लिए, एक विधान रचती है। ये फ़ैशन का प्राथमिक अभीष्ट है।
वह स्त्री के गोपन को, सार्वजनिक क्षेत्र में लाने के मनोविज्ञान में निष्णात है।
मुझे विदेश की भारत मे अपना कारोबार करने वाली कम्पनी के, एक विज्ञपन फ़िल्म निर्माण करने वाले, व्यक्ति ने , बहुत अच्छे से समझाया। उसने कहा , टॉप और जीन्स , जैसे वेस्टर्न गारमेंट का व्यवसाय करने वालों ने समस्या रखी, भारत मे, एक लाख करोड़ से ऊपर का व्यवसाय केवल साड़ी करती है, और सलवार कमीज अलग है। वेस्टर्न गारमेंट के उत्पाद के लिए, इन दोनों को , मार्केट से बाहर करना बहुत ज़रूरी है। नतीजतन, हमने, भारतीय स्त्री में, यौनिक निजता को
संभालने वाले दुपट्टे, या साड़ी के पल्ले को हटा कर,
वक्ष को पब्लिक स्पीयर्स में लाना ज़रूरी था। स्त्री की यौनिक निजता, जनता की थाती बने। पब्लिक स्फीयर में प्रवेश कर जाए।
हमने एक विज्ञापन बनाया। जिस में पहाड़ पर स्त्री खड़ी है, सलवार कमीज और दुपट्टे में। पहाड़ पर हवा चल रही है, और दुपट्टा वक्ष से उड़ कर, उसके गले से लिपट जाता है। विज्ञापन खूब चलवाया गया।
दो साल में पूरे देश मे स्त्री ने दुपट्टे को वक्ष ढांपने की ज़िम्मेदारी से मुक्त कर दिया। वह गले मे लिपटा रहने लगा
फिर दूसरा विज्ञापन बनाया। उस मे दुपट्टा तो है, पर वक्ष ढांपने के लिए नही। केवल दाए या बाएं कंधे पर रखने के लिए। फैशन चल निकली। आखरी विज्ञापन में दुपट्टा कंधे से गायब कर दिया। अब स्त्री के वक्ष , पूरी तरह पुरुष की आंख को , देखने के लिए उपलब्ध थे। यानी हमने भारतीय स्त्री के भीतर ये भर दिया कि दुपट्टा रखना, पिछड़ी और अधपढी स्त्री के लिए है। टॉप में रहने के लिए जो संकोच था, वो पूरी तरह ही खत्म कर दिया। हमारी मनोवैज्ञानिक रणनीति की ये भारतीय स्त्री पर विजय थी।
यानी मात्र सात साल में वरेली की साड़ियां, गार्डन की साड़ियां, ओनली विमल वाले साड़ियों के विज्ञापन , टेलीविजन से गायब हो गए।
फिर भी जीन्स के प्रमोशन के लिए, कांटा लगा , गाना आया, और जीन्स युवतियों की पहली पसंद बन गई। लता मंगेशकर ने विरोध भी किया कि उनके गाने को अश्लील बना दिया जा रहा है। हमने गाना हटा दिया। लेकिन हम जीत चुके थे।
उस कम्पनी ने एक बार मेरे पेंटिंग्स खरीदे।
तब मुझे low वेस्ट जीन्स के प्रमोशनल विज्ञापन फ़िल्म की शूटिंग देखने का मौका मिला। low-वेस्ट जीन्स की बैक फिटिंग को हाई लाइट करना था। शूटिंग में, लड़कीं एशियाटिक सोसाइटी की सीढ़ियां चढ़ती है। ओएसिस शॉट से शुरू होती है
फिर झुक कर लुक-बैक शॉट देती है। ध्यान रखा गया था कि
सीढ़ियों पर झुकने के बाद, मॉडल के बट-क्रैक दिखना चाहिए। कैमरा जूम करेगा। फ्रेम टाइट हो जाएगी। मैंने देखा, जो डायरेक्टर था, केमरामेन को निर्देश दे रहा था, ' the shot of her back should create a fantasy of dogi- fuck.
यानी, स्त्री परिधान से, पुरूष की यौनेच्छा को बढ़ाने में कैसे काम लिया जाता है। ये उस परिधान का निहितार्थ है, जो बहुत स्पष्ट है।
ऐसे में जब लोग तर्क देते है कि
अश्लीलता तो आंख में होती है, कपड़े में नही। कपड़े नहीं तू नज़र बदल। तो लगता ऐसे लोग निपट भोले, अज्ञानी और बहुत पवित्र लोग है। मज़ेदार बात कि ये तर्क खुद , उत्पाद के व्यवसाय वाले ही, सामान्य आदमी की जुबान पर चढ़ा देते है, जो साइकोलॉजी ऑफ फैशन की कोई समझ नही रखते।
तर्क पकड़ा देते है। जैसे नोट बन्दी में, तर्क काले धन को खत्म करने का पकड़ा दिया गया, और भक्त लोग काले धन का कीर्तन करने लगे
जबकि काले धन से उसका कोई रिश्ता ही नही था। मोदी सरकार को भारत मे ,अमेरिका की इच्छा के हिसाब से केवल, डिजिटल करेंसी को लाना था।
बौद्धिक स्तर पर कमजोर और बावला भारतीय समाज
मूर्ख बनने के लिए हमेशा तैयार रहता है। राजनीति तो बनाती ही है, भूमंडलीकरण भी बना रहा है। फ्रेडरिक जेमेसन ने तो कहा ही था, जब तक भूमंडलीकरण को लोग समझेंगे तब तक वह अपना काम निबटा चुकेगा। वह आधुनिकता के अंधत्व से इतना भर दिया जाता है
कि उसको असली निहितार्थ कभी समझ में नही आते।
" मेरा शरीर मेरा " का स्लोगन पोर्न व्यवसाय के कानूनी लड़ाई लड़ने वाले वकीलों ने दिया था। उसे हमारे साहित्यिक बिरादरी में
राजेन्द्र यादव जी ने उठा लिया और लेखिकाओं की एक बिरादरी ने अपना आप्त वाक्य बना लिया। इस तर्क के खिलाफ, मुकदमा लड़ने वाले वकील ने ज़िरह में कहा था, "
अगर व्यक्ति का शरीर केवल उसका है तो किसी को आत्महया करने से रोकना,
उसकी स्वतंत्रता का अपहरण है। अलबत्ता, जो संस्थाएं, आत्महत्या से बचाने के लिए आगे आती है
वे दरअसल, व्यक्ति की स्वतंत्रता के विरूद्ध काम करती है। उनके खिलाफ मुकदमा दायर करना चाहिए।
बाज़ारवाद की कोख से जन्मे
इस फेमिनिज़्म का रिश्ता, वुमन-लिब से नहीं है। ये तो रौंच-कल्चर का हिस्सा है, जिसमे पोर्न-इंडस्ट्री की पूंजी लगी हुई है। याद रखिये कि किसी भी देश और समाज का पोरनिफिकेशन परिधान में ही उलटफेर कर के किया जाता है। स्त्री इसके केंद्र में है। भारत का सेक्चुलाइजेशन भूमंडलीकरण में बहुत तेज़ी से किया गया।
बहर हाल, स्त्री जो पोशाक पहनती है, वह उसका तो वक्तव्य होता ही है, साथ ही उसकी पोशाक उस व्यक्ति पर भी टिप्पणी होती है, जिसने वैसा नहीं पहन रखा है। सेक्सी होना और सेक्सी दिखना, फैशन का मूलमंत्र है। आज सम्पूर्ण भारतीय समाज , एक नई सांकृतिक चपेट में है, जो भूमंडलीकृत समय की कल्चर इंडस्ट्री के द्वारा तेज़ गति से काम कर रही है।
बहरहाल, जो ripped jeans के विरोध में बोल रहे है या पक्ष में लपक कर
आगे आ रहे है, दोनो ही अपने अपने अर्द्ध सत्य को लेकर , मैदान में उतर रहे है। कम से कम, स्त्री की आज़ादी से इसका कोई रिश्ता नही है। हो सकता है,
स्त्री आज़ादी की थिओरी टिकल संभावना तक भारतीय स्त्री पहुंचे और उस आज़ादी का उपभोग कर सके। जो अमेरिका की पोर्न व्यवसाय से जुड़ी स्त्रियां करती है। भेंजी छाप मेधा पाटकर, पिछड़ी स्त्री मानी जायेगी
और सनी लियोनी अधिक आधुनिक।आमीन। ।
दरअसल, ये कोई केवल स्त्री के परिधान भर की बात नहीं है । ये एक बड़ा कल्चरल शिफ्ट है,
इसकी सबसे बड़ी बात ये है कि अब
यौनिकता पर विचार किया जाना चाहिए, चूंकि संसार भर में,
इसी में किये गए उलटफेर से,
ही " आधार और अधिरचना " में वांछित परिवर्तन हुए है।
हेबरमास को पढ़ते हुए,
ये बात स्पष्ट हो जाती है। वास्तव में
यौनिकता अमूमन उच्च वर्ग में प्रश्नांकित नही होती,
क्योंकि वहां उनकी पूंजी ही
उस वर्ग का निर्विवाद मूल्य विवेक , बन जाती है।
यौनिकता, निम्न वर्ग में भी, ज़्यादा प्रश्नांकित नहीं होती,
क्योंकि पेट ही उसका मूल्य विवेक बनाता है।
कहने का अभिप्राय यह कि यौनिकता सबसे अधिक बङा प्रश्न मध्यवर्ग के ही बीच है। नैतिक मूल्य निर्धारण में मध्यवर्ग की ही भूमिक्का रही आयी है। याद रखिये कि चरित्र की फ्रेम भी मध्यवर्ग में ही कठोर है। आप देखेंगे कि यौनिक प्रश्नों से डर कर ही, मध्य वर्गीय परिवारों की
युवतियां ही सर्वाधिक आत्महत्या करती है। लेकिन , इस उत्तर आधुनिक समय मे, मध्यवर्ग जैसा कि फुकुयामा ने कहा था, सर्वाधिक विराट हो जाएगा। भारत में, मिडल-क्लास नहीं है। मिडल-क्लासेज है। और उन तमाम
मध्यवर्गों की श्रेणी, में कामना की एकरूपता, टेलीविज़न के कार्यक्रमो और विज्ञापनों के ज़रिए भर दी गई है। इसलिए पूरा भारतीय समाज, चाहे वह उच्च वर्ग का हो या निम्न वर्ग का, वह मेट्रो पोलिटीन कल्चरल एलीट का ही अनुकरण करता है।
अर्नाल्ड टायनबी ने कहा था,
जिस समाज मे एकरूपता मूल्य बन जाये, वह युग, उस समाज की आत्मा के मर जाने की सूचना है।
ये एकरूपता, महानगरीय उच्च वर्ग की जीवनशैली को ही वास्तविक जीवनशैली की तरह बनाकर रची जा रही है।
मध्य वर्ग ज़रूरत से ऊपर और आकांक्षा के नीचे रह गया है। इसलिए वह निरन्तर ऊपर उठाने में प्रयासरत है। उसका पुराना मिनिम्लिज़्म मर गया है। वह थोड़ा है, थोड़े की जरूत है, के राग को निषिद्ध मानता है। वह अधिकतम की आकांक्षा से भरा हुआ है। इसलिए मध्यम वर्ग, कर्ज़ में डूबा हुआ है। अब वह नए पैक में आने वाले माल के लिए लालसाधिक्य भर चुका है। बैंक उसको ऋण देने के लिए लुभाती है।
पश्चिम का सांस्कृतिक उद्योग, इसी मध्यवर्ग की बढ़ती
" कामना के अर्थशास्त्र " पर भारत में
घुसपैठ कर के, अपना अपराजेय वर्चस्व बना चुका है। जिस New world order की बात,दुनिया का शक्तिशाली देश अमेरिका करता रहा है। वही सामाजिक, आर्थिक और उपभोग की सांकृतिक एकरूपता के निर्माण का एजेंडा है।
ये एकध्रुवीयता की देन है।
जब भारत की एक राजनीतिक पार्टी,
भारतीय संस्कृति का हल्ला-गुल्ला मचाती है, तब लगता है कि ये भोले नही, निपट अपढ़ और अज्ञानी लोग है। अंग्रेजों को, भारत को अपना उपनिवेश बनाने में, बहुत समय लगा, जबकि अमेरिका को मात्र दो दशक लगे। भूमंडलीकरण, का अर्थ अब अमेरिकाना बनना ही है।
संस्कृति के तीन मोटे मोटे घटक हैं। भाषा, भूषा और भोजन। भारत मे ये तीनो, विदा होने को है। अब , धर्म का भी नया पैकेजिंग हो गया है। एक बाबावाद आ चुका है, जो चैनल्स पर दिखता है।
वह भी रिप्पड जीन्स बेचता है।
आज, वेस्टर्न गारमेंट ट्रेड की , एक रणनीति होती है कि स्कूल में गणवेश की बात भी, ड्रेस कोड की फासिस्ट क्रूरता सिद्ध कर दी जाती है। जबकि गणवेश स्कूलों में वर्गभेद के उन्मूलन के लिए ही तय किया गया था। लेकिन गणवेश की बात आते ही
अख़बार/टेलिविज़न, तुरंत, छू कर दिये जाते है। वे आक्रामक प्रसारण शुरू कर, उसके विरूद्ध जनमत बनाते है। जैसा
इस समय वे ripped जीन्स के पक्ष में बनाते है
यूनिफॉर्म के होने से देश के करोड़ो
किशोर उपभोक्ता, उनकी पकड़ से बाहर रह
जाते है। अमेरिका में चर्च में भी ड्रेस कोड है। इस्लाम में मस्जिद में प्रवेश
पर, ड्रेस कोड तय है। गुरुद्वारों में, सर ढाँपने का प्रावधान है। केवल देवालय इस से मुक्त है।
जब देवालय में देव दर्शन के लिए रिप्पड जीन्स की
युवती जमीन पर माथा टेकती है, तो उसके पीछे खड़ा, भगवान के दर्शन करने वाला ,
भगवान के बजाय, उस भगवती की तरफ, पुरुष/स्त्री सभी का ध्यान जाता है।सुप्रीम कोर्ट के
माननीय न्यायाधीश जस्टिस सीरियक जोसेफ ने , एक संस्कारी बुजुर्ग की हैसियत से ये सलाह दे दी थी
कि देवघरों में युवतियां अनुकूल वस्त्र
पहना करें। तो सारा देश जनता है कि
उनके इस वक्तव्य की स्त्री वादियों द्वारा कितनी कितनी तो भर्त्सना हुई थी। हक़ीक़त ये है कि वे जानते है कि
ऐसी बातों की तुरंत गर्दन मसक दो। चिन्ता रहती है, उनको कि ये कही, फैल न जाये और अरबो का होने जा रहे, पश्चिम के वस्त्र व्यवसाय के विरुद्ध जन.मन न बन जाये। वे जानते हैं, बुढ़िया मर जाये कोई बात नहीं, पर मौत घर न देख ले।
अमेरिका में आरम्भ में लो-वेस्ट जीन्स, होमोसेक्सुअल कैदियों का पहनावा था। बाद में जी एल बी टी का ड्रेस कोड हो गया।
और , उसे पहनने वाली लड़की को अमेरिकी अभिजन, स्ट्रीट स्मार्ट गर्ल मानते थे। लेकिन भारत तो यूरो अमेरिकी ट्रैश को, अपने जीवन के सबसे
बड़े उपहार समझता है। यहां
तो ये स्त्री की गरिमा का अलंकरण है।
आजकल , मुझे संस्कृति की चिंता करने वाले
दल निपट मूर्खता से घिरे लगते है। वो कुछ नहीं जानते।
वस्त्र-विन्यास की बात आते ही, जो भारतीय आत्म-चेतस विदुषियां, शक्तिरूपेण संस्थिता के रूप और स्वरूप धारण कर के आ जाती हैं, वे सिंहवाहिनी हो कर संहार के संकल्प के साथ रणक्षेत्र में उतर आती है, उनको पता नहीं होता कि
वे पशिम के फैशन-कारोबारियों के कारिन्दे की भूमिका में स्थान्तरित हो चुकी है। अंत मे एक उदाहरण देता हूँ। जो बताता है
कि वेशभूषा से कैसे चरित्र की फ्रेम बनाई जाती है। दूरदर्शन पर एक विज्ञापन आता था। एक बहुमंजिला के तलघर में, एक व्यक्ति कुर्ते पाजामे में दिखाई देता है। वह अपनी कार के दरवाजे में चाभी लगाता है। तभी सुरक्षा कर्मचारी आता है, और उसको घूंसा जड़ देता है। इसके बाद दृश्य में हमारा क्रिकेट
खिलाड़ी धोनी आता है और कहता है, " देश बदल रहा है, भेष कब बदलोगे। '
यानी, वह व्यक्ति कुर्ते पाजामे में, उठाईगीर और उचक्का लगता है, कार का मालिक नहीं। क्या आप अपनी भारतीय पोशाक उचक्कों और चोरों की सी है..? साडी भी, अब कामवाली बाई को भी पहनने में आपत्ति है।
हक़ीक़त ये है कि पश्चिम का कपड़े का कारोबारी आप को अपनी हर चीज़ से नफरत करना सिखा चुका है। एक साबुत कपड़े में व्यक्ति उचक्का लगता है, फटी जीन्स जिस में से गोपन भी गोचर हो रहा है, स्त्री गरिमामयी
लगती है। ये नया संस्कृति विवेक है।
एक बड़ा और सफल हथियार है, जिसको इन दिनों बहुधा प्रयोग में लाया जाता रहा है कि यदि आगे बढ़ कर, समूची बहस को, आप सरलीकरण के खाते में डाल दें तो विमर्श की तुरंत अंत्येष्टि हो जाएगी। बहस को स्त्री.पुरुष संबंधों के सनातन द्वैध या द्वैत में ले जाकर छोड़ दें। बाद इसके परंपरागत ढङ्ग से चली आ रही , पितृसत्तात्मकता, भर्त्सना के लिए, एक आसान, निष्कर्ष के रूप में मिल जाती है। इसके अतिरिक्त ये कि ये पुरूष की मर्दवादी कुंठा है।
सोचा जाना चाहिए कि जब पश्चिम के द्वारा संचालित,
एक बड़ा सांस्कृतिक विनिमय, प्रकट, अप्रकट रूपसे, सामाजिक और वैयक्तिक जीवन मे चल रहा है, तब आयातित पूंजी की भूमिका की अहवेलना कर के, केवल समाजशास्त्र के सहारे ही निष्कर्षो के निकट पहुंच कर, विमर्श की इतिश्री नहीं की जा सकती। जब पूंजी, पूंजी के रूप में आ रही है, और पूंजी माल के रूप में, तो वह पूजी ,आपकी संस्कृति को क्यों कर दृढ़ करेगी ?
याद रखिये हम अर्थव्यवस्था के स्तर पर जैसे ही ग्लोबल हुए चेतना के स्तर पर, रीजनल हुए है। अस्मिताओं के जो प्रश्न आकर खड़े हुए है, वे नए उत्तरों की मांग करते है। 75 साल से, मार्क्सवाद जवाब दे रहा था, एक आदमी अमीर क्यों है और दूसरा आदमी गरीब क्यों है..? आज कम्युनिज़्म हाशिये पर है। एक महान विचारधारा पराभव के पास, धकेल दी गई। बल्कि मार्क्सवाद को, दमित अस्मिताओं के उभार ने , निष्फल कर दिया।ऐसा क्यों हुआ इसका भी वाजिब उत्तर नहीं मिला है। हालांकि, उत्तर हैं। पर अब उन उत्तरों की अनसुनी हो गई है।। व्यक्तिगत का स्पेस बढ़ा और ये दूसरे किस्म का व्यक्तिवाद है, जो आधार के बजाए, अधिरचना से जुड़ा है।
मिशेल फूको को पढ़िए तो समझ आएगा कि मार्क्सवाद में , अस्मिता के प्रश्न ने कैसे सूराख किया।
हिंदी में एक समास है, बहुब्रीहि। जो बताता है कि आप जिन की शिनाख्त कर के उन दो को पकड़ रहे हैं, वहां वे दोनों ही नही है। कॉकटेल, में न मुर्गा है, न उसकी पूंछ है, वह तो शराब है। मसलन, द्देश के प्रधान मंत्री तक द्वारा, रेडिकल चेंज को रिफार्म बताया जाता है। सुधार का अर्थ होता है, जो ढांचा हमारे पास है, उसकी मरम्मत कर दे। गिरने की आशंका हो, वहाँ एक खम्बा लगा दे।
लेकिन पूरे मकान को ध्वस्त करना सुधार नहीं कहलायेगा। ये किसी , ' अन्य ' की स्थापना है। ठीक ये ही बात
फैशन व्यवसाय की है। वह स्त्री को मुक्त या आज़ाद करने का अभीष्ट रखता है,
और एक नए दासत्व से नाथ देता है। इस दासत्व के पीछे , लपकती लालसा की
बड़ी दिलचस्प क्रीड़ा है। एक विदुषी ने मुझ पर लांछन की भाषा मे एक आरोप चस्पा किया कि ripped jeans के लेख के साथ मैंने स्त्री फोटो क्यों डाला। प्रकारांतर से उन्होंने मुझ में , सेक्स कुंठा आविष्कृत की।
मैं विस्मित हुआ कि फैशन व्यवसाय का आदमी, स्त्री के अर्द्ध नग्न देह की
20 x 40 फ़ीट का होर्डिंग
पब्लिक स्फीयर में लगाता ,है वो कुंठित नहीं। लेख के साथ चित्र डालना कुंठा।।जांघिये में एक पुरुष का कटि-भाग है, जिसमे उसके जननांग उभरे हुए है।
उसी होर्डिंग पर बगल में एक युवती का close up छपा है जिसमे वह होंठो को गोल कर के कह रही है, very very हॉट। दरअसल, उसका ये उदगार, जांघिये नही, ओरल सेक्स के अनुभव को व्यंजित करता है। इस पर कुछ भी कहने/बोलने पर घिग्ग्घी बंध जाती है। सब नए स्त्रीवाद से डरे हुये है। जबकि लेवी स्ट्रास ने डिकोडिंग द advertisment में बहुत साफ कहा कि
वुमन सेक्युलिटी का बिना दोहन किये, फ़ैशन व्यवसाय, एक कदम आगे नहीं बढ़ाता।। दुनिया मे, विश्वसुंदरी प्रतियोगिता होती है, जिसका टर्न ओवर कितना होता है, आप-हम सब जानते है।
क्या ' पुरुष सुंदर प्रतियोगिता ' से वह आय होगी..? जब कहते और प्रश्नांकित करते है, स्त्री-फैशन पर लोग क्यों चर्चा करते है, ripped jeans युवक भी
पहन रहे हैं। तो मैं फिर याद दिलाना चाहता हूँ, फैशन उद्योग, स्त्री की यौनिकता के दोहन पर टिका हुआ है। पुरुष तो मात्र उपस्थिति है, स्त्री की यौनिकता को प्रस्तुत करने के लिए। ग्रीक देवता की तरह सुंदर पुरूष भी,
विश्वसुंदरी का सा क्रेज़ नहीं
बना सकता।
इज़लिये स्त्री ही फैशन व्यवसाय के केंद्र में रहेगी।। इसके लिए तो सब से अधिक और पहले स्त्री को
Sex object बनने से इनकार करना होगा। लेकिन,
नया फेमिनिज़्म ,
बाज़ार निर्मित है, लेकिन स्त्री
उसे अपना उद्धारक मानती है तो, ये होगा ही। वह सेक्स- ऑब्जेक्ट बनाई ही
जाएगी। ये फ्रांज़ काफका की कहानी की बिल्ली की सलाह है, चूहे को,
तुम अपने दर में घुसे हुए हो। मैं
आज़ादी दिलवाऊंगी , तुम मेरे पास आओ।
मेरे अग्रज, भाई अशोक आत्रेयजी ने
लेख पर टिप्पणी करते हुए, कुछ बातें कही, वे निःसंदेह वे
जिरह को एक नैसर्गिक विस्तार देने वाली है। ज़ेरे बहस एक बात तो सही है कि हमारे यहाँ खजुराहो और कामसूत्र हैं
और इसकी उपस्थति को हम सम्मान के साथ ही उल्लखित करते है। मैं यहाँ बहुत विनम्रता के साथ, इस बात
का स्मरण कराना चाहता हूँ कि
कामसूत्र , जनक्षेत्र में, ऐसी सार्वदेशीय व्याप्ति नहीं रखता
था, जैसे आज प्रसार और प्रचार के युग मे पोर्नोग्राफिक सामग्री
रखती है
कामसूत्र के अस्तित्व में आने के युग मे,
संभोग की प्रविधि की जानकारी, उसकी यौनिक उत्तेजना का आसानी से कारोबार सम्भव नहीं था। कितनी प्रतियां बनी होगी, उस युग में। कामसूत्र ग्रंथ, तब आज के मोबाइल की तरह , बच्चे बच्चे के पास उपलब्ध नही ही होता था। एक अर्द्ध शिक्षित समाज मे, संस्कृत के कामसूत्र, या कालिदास के कुमार सम्भव, कितने व्यक्ति को सहजता से उपलब्ध रहते रहे होंगे..?
कितने लोग पढ़ पाते होंगे..? इसलिए
अतीत में , ऐसे विषय-सामग्री की उपस्थिति के आधार पर, आज की पोर्नोग्राफी के विस्तारवाद को, हम श्रेयस्कर नही मान नहीं सकते। हमारे यहां कामसूत्र और खजुराहो में निर्वसन मूर्तियाँ रही, इस के आधार पर
समाज के पोरनिफिकेशन को
हम प्रश्नांकित नहीँ करें
या चिंता प्रकट न करें
ये सलाह अधिकांश लोगों कोतर्क सम्मत नहीं जान पड़ती ।
खजुराहो और कामसूत्र की
अतीत में रही उपस्थति को हमें
एक वर्गीय दृष्टि से भी देखना
चाहिए कि इन तक एक आसान पहुंच सामाज के किस वर्ग की रही होगी। इस तर्क के साथ, सेक्स के पंसारी भी सहारा लेते है। इसलिए, हम को कुछ सावधान भाषा मे ही, इसका विरोध करना होगा।
मुझे याद है, हमारे यहां पिछले सालों में साहित्य में सेक्समुक्ति की बात शुरू हुई तो, हमार बहुत गंभीर और वरिष्ठ समालोचक
एक विदुषी ने कहा था, जब तक स्त्री
वैश्या कहलाये जाने के भय से घिरी
रहेंगी, वह मुक्त नहीं हो सकेगी।।
पोर्न स्टार बनाने वाले कारोबारी, किशोरियों को ट्रेनिंग के दौर में, उसके ब्रेन वाशिंग के लिए, ऐसी लैंग्वेज थेरेपी देते थे। वो कहते है, तुम मोरल-बर्डन को फेंको। वरना , तुम सफलता की सीढ़ियां नहीं चढ़ पाओगी। याद करिए, हमारे यहां टेलीविजन पर, एक कार्यक्रम आता था, ' सच का सामना '। उसमे कार्यक्रम का संचालन कर्ता, इंटरव्यू देने वाले से पूछता था, क्या आप कभी अपनी बेटी की हमउम्र के लड़की के साथ हमबिस्तर हुए है..? साक्षात्कारदाता, ऐसे अप्रत्याशित प्रश्न से अवसन्न रह जाता। तो संचालक तुरंत कहता है, you are victim of moral phobia. यानी
निजता में सेंध लगा कर उसे सार्वजनीन
बनाने में कारोबार सफल हो जाता है। संचालक का प्रश्न नैतिकता को एक डरावना रोग बताता है।
और याद रखिये, जिसका विरोध हो,
उसका बाजार मूल्य बढ़ जाता है।
अलबत्ता विरोध को वो प्रायोजित भी करते है। वे खुद ही पक्ष विपक्ष का निर्माण भी करते है। आपको याद होगा, पिछली बार, कनाडा में एक पुलिस कमर्चारी ने कुछ स्त्रियों के पहनावे को लेकर टिपणी कर दी थी, They are wearing like slut. तो
भारत मे जंतर-मंतर पर, कुछ महानगरीय सांस्कृतिक अभिजन सामाज की विदुषियों ने, प्रदर्शन किया था। एक बेशर्मी मोर्चा भी निकाला था।
विचार करते हुए, प्रश्न उठता है, स्त्री की चिंता में , इतनी व्याकुल उन विदुषियों ने
इस पर कभी , विरोध प्रकट नहीं किया
कि देश के कई भागों में स्त्रियों की इतनी विपन्न स्थिति है कि उनको तन ढंकने के लिए कपड़े तक नहीं है।
दरअसल, ये और ऐसे विरोध
वेस्टर्न गारमेंट ट्रेड्स के प्रायोजित होते है। जब कनाडा में ऐसे परिधान को
अभद्र समझा जा रहा है, तो कहीं
भारत जैसे परम्परागत परिधान वाले देश में हमारे उत्पादों का विरोध न शुरू हो जाये। याद करिये अमेरिकी की सिटी बैंक की कर्मचारी डेबरा हैली को
नौकर से ये कह कर नौकरी से निकाल दिया कि उनका वस्त्र विन्यास,
संस्था की गरिमा के अनुकूल नही है। उस विदुषी ने व्यक्तिगत स्वत्रंता को,लेकर न्यायालय में मुकदमा भी
दायर किया। वह मुकदमा हार गई। ठीक है, शरीर पर आपका बायोलॉजिकल पजेशन होगा, लेकिन अंततः आप पर
एक सोशल पजेशन और दाय भी है। आप सबको याद होगा शशि थरूर ने भारतीय स्त्री के परिधान, साड़ी की प्रसंशा में कह दिया था कि वह सर्वाधिक गरिमापूर्ण है। तब भी प्रश्न उठे थे, क्या जीन्स गरिमाहीन पहनावा है ? गारमेंट लॉबी ने उनकी भूरि भूरि भर्त्सना शुरू कर दी थी। वह समय, जीन्स का प्रमोशनल कार्यक्रम चल रहा था। हमारे उच्चतम न्यायालय के जस्टिस सीरियक जोसेफ ने लड़कियों को स्थान का ध्यान रख कर देहप्रदर्शन करने वाली पोशाक पहने को लेकर सलाह दे दी तो भी
उनको घोर स्त्री विरोधी साबित किया
जाने लगा था। दरअसल, अशोक आत्रेय भाई , जिस अस्मिता के रूपांतरण की बात कर रहे है, वह मसला कुछ उलझा हुआ है, ये अस्मिता के अपहरण का है। ये बहुत सुनियोजित है। हम जब तक भूमंडलीकरण की जटिल कूटनीति को समझेगे, तब तक वह अपने अभीष्ट को
उसकी अंतिम अन्विति तक पहुंचा चुकेगा।
सोच लीजिए, संसद में, कृषि मंत्री कहते है, ' मुझ को कोई बात दे, न कानूनों में काला क्या है..?'
ये प्रश्न अगर स्कूल का एक विद्यार्थी पूछता तो वह अबोध होता। लेकिन केंद्रीय मंत्री और दर्श का प्रधानमंत्री
ये प्रश्न पूछे तो ये एक धूर्त-अबोध प्रदर्शन है। जब, खेती औऱ खाद पानी की खुली कूटनीति को, सौ दिन के लाखों किसानों के प्रदर्शन पर, कानून में काला नही, दिखाई नही देता तो सामान्य जन , जो उपभोक्ता है, में कहाँ दृष्टि आ जायेगी कि वह देख सकेगा,
What and where is the
Black at the bottom ...? अभी तो
Low waste जीन्स की उत्कृष्टता की
शर्त यही है कि युवती अपनी देह की
Sex appeal को दिखाना चाहती है।प्रेषक : "निर्मलकुमार पाटोदी वार्ड-२९ 'विद्या-निलय'४५,शांति निकेतन"
वैश्विक हिंदी सम्मेलन की वैबसाइट -www.vhindi.in
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संपर्क - vaishwikhindisammelan@gmail.
प्रस्तुत
कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो.: 09703982136
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