प्रो.नीलू गुप्ता विद्यालंकार
संक्षिप्त परिचयकवयित्री, लेखिका, शिक्षिका प्रो.नीलू गुप्ता अमेरिका में निरंतर हिन्दी का परचम फैला रही हैं।आप कैलिफ़ोर्निया, अमेरिका में लगभग 30 वर्षों से हिन्दी के प्रचार प्रसार में लगी हैं।आप अमेरिका में पिछले 20 वर्षों से हिन्दी की प्रोफ़ेसर हैं ।हिन्दी को देवनागरी लिपि में सरल सुगम अध्यापन व कक्षा के लिए पाठयक्रम की पुस्तकों के साथ-साथआप कहानी संगह, कविता संग्रह, हाइकु संग्रह प्रकाशित।'छज्जू का चौबारा', 'माँ धरणी पिता गगन' तथा 'लोकडाउन में लोकजीवन' की सम्पादिका।आप और रिसोर्स गाइड की अनुवादकआप साहित्यिक, सांस्कृतिक व सामाजिक संस्था ‘उपमाग्लोबल अमेरिका ‘ तथा ‘विश्व हिन्दी ज्योति’ की संस्थापिका हैं ।अनेक राष्ट्रीय अन्तरराष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित।2021 में भारत के महामहिम राष्ट्रपति जी के द्वाराभारतीय प्रवासी दिवस पर ‘प्रवासी भारतीय सम्मान' से विभूषित।------------------------------------------------------------ ------------------------------ ------
दो लघु कविताएँ.....
बेटियाँ आँखों का नूर,
बेटियाँ आँखों का नूर हैं, देश का कोहिनूर हैं
बेटी को नहीं हम अब यूँ ठुकराते हैं
बेटी का होना अब नहीं दुर्भाग्य मानते हैं
बेटी दुर्गा लक्ष्मी सरस्वती बन आती है
बेटी घर में अमन चैन सुख शान्ति लाती है
बेटियाँ आँखों का नूर हैं, देश का कोहिनूर हैं
आओ मिल करें कलिकाओं का स्वागत
जिनकी महक से अँगना होता सुवासित
क्यारियाँ ख़ुशियों के फूलों से लद जाती हैं
चिड़ियों सी लगें चहकनें फुदकतीं नाचती हैं
बेटियाँ आँखों का नूर हैं, देश का कोहिनूर हैं
वृद्धावस्था की बनी सौगात मन को लुभातीं
नहीं माँगतीं हक़ अधिकार, सर्वस्व लुटातीं
सौभाग्यशाली घर जहाँ बेटियाँ जन्म लेतीं
दोनों ही परिवारों को ये खुशहाल बनातीं
बेटियाँ क्या हैं, ये आँखों का चमकता नूर हैं
मानो ना मानो देश का अनमोल कोहिनूर हैं
देश पर पड़ी जब भी विपदा लड़ीं बन मर्दानी
बेटियों की वंशज लक्ष्मीबाई झाँसी की रानी-----------------------------------------------------
माँ मेरी मातृभाषा हिन्दीमेरी माँ है मेरी मातृभाषा हिन्दी
मेरी माँ की माँ भी है मेरी हिन्दी
ये मेरी भारत माँ के माथे की है बिन्दी
ये है कोमल सरल ,नहीं है तनिक भी जिद्दी
ये मेरे माथे का शीतल चन्दन
ये है रोली अक्षत और वन्दन
ये है कानन वन और नन्दन
ये है मेरे रोम रोम का स्पन्दन
विश्व हिन्दी दिवस आएँगे और जाएँगे
हिन्दी की अन्दरूनी तड़प ना मिटा पाएँगे
देवनागरी लिपि तो हमने अपनाई ,अपनाएँगे
पर क्या हम विलुप्त होती हिन्दी बचा पाएँगे
मेरी मातृभाषा ना बन पाई मेरे राष्ट्र की भाषा
कचोटती है मेरी आत्मा मुझको करता है मन क्रन्दन
वो राष्ट्र भी क्या राष्ट्र जिसकी न अपनी कोई भाषा
गुलामियत की ज़ंजीरों से जकड़ी तड़प रही अपनी भाषा
भारत देश की हो, हिन्दी एक गौरवशाली भाषा
जन जन के मन की है यही सतत अभिलाषा
मिलजुल करें प्रयास,पूर्ण हो मन की ये आशा
अँग्रेजी,अन्य भाषाएँ कुचल रहीं हिन्दी,है यही निराशा
प्रो.नीलू गुप्ता विद्यालंकार
कैलिफ़ोर्निया
-वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
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वैश्विक हिंदी सम्मेलन की वैबसाइट -www.vhindi.in
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संपर्क - vaishwikhindisammelan@gmail.
प्रस्तुत
कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो.: 09703982136
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