यूनेस्को, “विश्व धरोहर स्थल” की सूची
में सम्मिलित तैरते पत्थरों से निर्मित, वरंगल, तेलंगाना का ‘रामप्पा मंदिर’
दक्कन के दुर्गम पठारों की यात्रा
-श्रीमती संपत देवी मुरारका
मुझे यह जानकर अत्यंत गर्व का अनुभव हो रहा है कि यूनेस्को, ने 25 जुलाई 2021, रविवार को भारत में एक
प्राचीन मंदिर, तेलंगाना में स्थित काकतिय “रुद्रेश्वर रामप्पा मंदिर” को संयुक्त राष्ट्र की
प्रतिष्ठित ‘विश्व धरोहर स्थल’ की सूची में सम्मिलित किया गया है |
यूनेस्को द्वारा शासकीय रामप्पा मंदिर को
विश्व धरोहर स्थल घोषित किए जाने पर प्रधानमंत्री
मोदी ने इस सफलता पर बधाई देते हुए कहा कि सभी को बधाई खासकर तेलंगाना की जनता को,
प्रतिष्ठित रामप्पा मंदिर महान काकतिय साम्राज्य के उत्कृष्ट शिल्प कौशल को
प्रदर्शित करता है | मैं आप सभी को इस मंदिर परिसर की यात्रा करने और इसकी भव्यता
का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करने का आग्रह करता हूँ | यूनेस्को के एक ट्वीट
पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा अति उत्तम सभी को बधाई खासकर तेलंगाना के लोगों को |
यूनेस्को का कहना है कि मन्दिर के निर्माण में उच्च
गुणवत्ता की शिल्पकला का प्रयोग किया गया है जो क्षेत्रीय नृत्य
परम्पराओं और काकतिय संस्कृति को प्रदर्शित करती है | कृषि योग्य भूमि से
घिरा यह स्थल एक वन क्षेत्र की गोद में है और रामप्पा झील के पास है | यह
उस विचारधारा के अनुरूप है जिसमें माना गया है कि मन्दिरों को प्रकृति के
सान्निध्य में होना चाहिये |
केंद्रीय
संस्कृति पर्यटन और पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्री श्री जी किशन रेड्डी ने
एक विज्ञप्ति
में कहा कि कोविड-19 महामारी के कारण, संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन
(यूनेस्को) की विश्व विरासत समिति की बैठक 2020 में आयोजित नहीं की जा सकी थी
और 2020 और 2021 के नामांकनों पर ऑनलाइन बैठक की एक श्रृंखला में चर्चा की जा रही
है । उन्होंने कहा कि रामप्पा मंदिर पर रविवार को चर्चा की गई । उन्होंने तेलंगाना
के वरंगल के पास मुलुगु जिले के पालमपेट में स्थित रुद्रेश्वर मंदिर जिसे रामप्पा
मंदिर भी कहा जाता है को संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को)
द्वारा “विश्व धरोहर स्थल” का दर्जा प्रदान किए जाने पर कहा कि मैं माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति उनके
मार्गदर्शन और समर्थन के लिए आभार व्यक्त करता हूँ |
तेलंगना के पर्यटन मंत्री
वी श्रीनिवास गौड़ ने भी बधाई दी | तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने ऐतिहासिक रामप्पा
मंदिर को विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता देने के यूनेस्को के फैसले की
सराहना की |
भारत को अपना 39वाँ तेलंगाना के वरंगल के
पालमपेट में स्थित 800 वर्ष प्राचीन काकतिय काल का “रुद्रेश्वर
रामप्पा मंदिर” को यूनेस्को की ‘विश्व धरोहर स्थल’ की सूची में सम्मिलित किया गया
है | अब तक की एक और ऐतिहासिक उपलब्धि में भारत के तेलंगाना प्रांत में वरंगल के पास
मुलुगु जिले के पालमपेट में स्थित रुद्रेश्वर मंदिर जिसे रामप्पा मंदिर के रूप में
भी जाना जाता है को यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल की सूची में अंकित किया गया है |
यह निर्णय आज यूनेस्को की विश्व धरोहर समिति के 44 से 17 में लिया गया | रामप्पा मंदिर
तेरहवीं शताब्दी के अनुपम स्थापत्य कला का प्रतीक है, जिसका नाम इसके वास्तुकार
रामप्पा के नाम पर रखा गया था | इस मंदिर को सरकार द्वारा वर्ष 2019 के लिए यूनेस्को की विश्व धरोहर
स्थल के रूप में एकमात्र नामांकन के लिए प्रस्तावित किया गया था | यूनेस्को ने आज
एक ट्वीट में घोषणा करते हुए कहा कि अभी-अभी विश्व धरोहर स्थल के रूप में अंकित करती
है, रुद्रेश्वर रामप्पा मंदिर भारत के तेलंगाना में वाह वाह !!
तेलंगाना के वरंगल में स्थित रामप्पा मंदिर (शिव मंदिर) विश्व धरोहर की दौड़
में शामिल होने जा रहा है । साल 2018
में घोषित होने वाली विश्व धरोहरों की सूची
में शामिल करने के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) के प्रवक्ता रामनाथ
फोनिया ने इस बार इस मंदिर का प्रस्ताव संस्कृति मंत्रालय को भेजा है । मंत्रालय
से मंजूरी मिलने के बाद इसे संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक व
सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) को भेजा जाएगा ।
मंदिर 2019 में अस्थायी सूची ‘द शानदार
काकतिय’ पर प्रस्तावित यूनेस्को ‘विश्व विरासित
स्थल’ में शामिल है | यह प्रस्ताव ‘मंदिर और गेटवे’ 10 सितंबर 2010 को यूनेस्को को प्रस्तुत
किया गया था | काकतीय धरोहर
न्यास के एचडी के न्यासी एम पांडुरंगा राव ने पीटीआई भाषा से कहा कि वे विश्व
धरोहर स्थलों की सूची के लिए भारत के नामांकन में रामप्पा मदिर को शामिल कराने के
लिए 2010 से तेलंगाना राज्य पुरातत्व विभाग और एएसआई
के साथ मिलकर इसका प्रस्ताव देने वाला 120
तैयार कर रहे थे |
मैं अपनी यायावरी
वृत्ति के बारे में अपने पाठकों को बता चुकी हूँ । पता नहीं क्यों ऐसे अवसरों पर मेरी यह वृत्ति अचानक जग उठती है और मैं
यात्रा के लिए बेचैन हो उठती हूँ । इन यात्राओं ने मेरे मन में तीर्थाटन और
पर्यटन के प्रति एक अनबुझी प्यास जगा दी थी । यह प्यास अनवरत बढ़ती ही जा रही थी । जिन पहाड़ों की बर्फानी
चोटियों हरीतिमा की गोद में लेटी गहरी घाटियों और गगनचुंबी वृक्षों का दिग्दर्शन
मैंने अपनी कई यात्रा में किया था, उनका छायाचित्र मेरे मानस-पटल पर अब भी बना हुआ है । घर पर अपनी गृहस्थी के
विभिन्न कार्यों में उलझी होने के बावजूद मेरा मन कहीं भटकता रहता है । अब मैं
विभिन्न पुराण भी खरीद लाई थी, उन्हें पढ़ती और उनकी कथाओं के साथ अपनी काल्पनिक यात्रा भी करती रहती । लेकिन कल्पना वह
आनंद नहीं दे सकती थी जो साक्षात अनुभवों की छलनी से छन कर आता है । मैंने बेझिझक
मेरे बच्चों को स्पष्ट बता दिया कि मेरा मन तीर्थ यात्राओं का हो रहा है । तीर्थ
तो तीर्थ सभी उत्तम और सभी आकर्षक । कभी एक की योजना बनाती तो कभी दूसरे की । अंत
में मेरा मन तेलंगाना के वरंगल और उसके आस-पास के तीर्थों का अवलोकन करने की ओर
भागा ।
पहाड़ों का दिव्य श्रृंगार मेरे मन में अपनी
अनंत सुषमा के साथ फिर एक बार आलोड़ित होने लगा और मैंने अपनी अगली यात्रा वरंगल को
समर्पित करने का मन बना लिया । वरंगल की यात्रा का चुनाव मैंने इस दृष्टि से भी किया था कि इस एक तीर्थ
यात्रा के साथ ही अनेक तीर्थों की यात्रा का संयोग प्राप्त हो जाएगा । मैंने अपनी
यात्रा की बात पुत्री सीता और कई लोगों के कान में डाली और अंततः 5 की संख्या में
लोग मेरे साथ चलने को राजी हो गए । यानी कि मुझे मिलाकर कुल 6 लोग ।
वरंगल की यात्रा पर निकलने
के पहले एक ऐसी ही सुखद यात्रा मैं लगभग सन् 1996 में कर चुकी थी । उस
यात्रा में मेरे साथ पुत्री सीता एवं उसके ससुराल वाले थे । जिसकी पावन स्मृति अभी
भी मेरे मानस पटल पर छायाचित्र के रूप में विराजमान है । इस यात्रा में एम.दीपिका,, स्निग्धा योतिकर, पद्मलता जड्डू, सीता अग्रवाल, गीता अग्रवाल, सभी महिलाएं थी और यात्रा
का नेतृत्व विश्व वात्सल्य मंच की संस्थापक अध्यक्ष
श्रीमती संपत देवी मुरारका अर्थात मैंने किया । इस यात्रा में हालांकि हमने अपने
पहले की यात्रा से कुछ दर्शनीय स्थलों को दोबारा देखा और उनका विवरण भी इस आलेख
में संग्रहित किया लेकिन बहुत से ऐसे स्थानों पर भी हम लोग गए जहाँ पहले नहीं गए
थे । फरवरी का महीना था और शीत ऋतु के विदा होने के बाद मौसम बहुत खुशगवार हो गया
था । ऐसे में यात्रा का आनंद काफी बढ़ गया था ।
3 फरवरी, 2021, प्रात:काल होने को था | सूर्य
भगवान सात अश्वों के रथ पर बैठकर प्राची की ओर से बढ़ते आ रहे थे | सुखद सूर्य की
स्वर्णिम रश्मियाँ बिखर गई अपनी सुरमयी लालिमा लेकर सागर के वक्ष पर | पक्षियों की
मधुर वाणी धीरे-धीरे संगीत बन गई, उड़ चले दूर कहीं | अन्तरात्मा में प्रकाश किरणें
स्वयं ही ज्योतित हो उठी |
यात्रा की भूमिका तैयार हो इसके
पहले ही मेरे मानस पटल पर वरंगल से संदर्भित सारे तथ्य और सारी वास्तविकताएं एक-एक
कर उभरने लगी थी | हमें यात्रा की शुरुआत सड़क मार्ग से कार द्वारा करनी थी । हम 6 महिलायें सैनिकपुरी सीता के आवास से लगभग 6.30 बजे फॉर्चून गाड़ी में सवार होकर वरंगल के
लिए प्रस्थान किया । रास्ते भर अगल-बगल पसरी हरियाली और मनभावनी शीत हवा हमें उत्फुल्लता
से सराबोर करती रही । इस यात्रा की सबसे बड़ी खूबी यह अनुभव हो रहा था कि हम अपने
को एकदम तरोताजा महसूस कर रहे थे | हमारी गाड़ी कोहरे के कारण मंथर गति से आगे बढ़
रही थी, तो कहीं सरपट दौड़ रही थी और मैं विस्तृत
नेत्रों से भागते दृश्यों की छवि को लगातार समेटने की चेष्टा में व्यस्त थी ।
प्रकृति ने अपनी सौंदर्य रचना का सर्वोत्तम उपहार लगता था इन पहाड़ों की झोली में
डाल दिया है । लगभग दो घंटे का सफर तय करने के पश्चात
हमने एक विशाल वृक्ष के नीचे अपनी
गाड़ी रोककर घर से लाया हुआ हल्का-फुल्का नाश्ता किया और राष्ट्रीय राजमार्ग 163 से अपने गंतव्य
की ओर आगे बढ़े |
वरंगल जाते समय रास्ते में ही भोनगीर किला मिलता है, जो कि एक विशालकाय चट्टान पर बसा हुआ है | इस किले की संरक्षक
दीवार दूर से ही दिखाई दे रही थी | यहीं से धोड़ा आगे यादगिरीगुट्टा है, लेकिन समय
के बंधन के कारण हमने इन जगहों पर जाना अगली बार के लिए रद्द कर दिया | यहाँ के
पथरीले भूभाग को पार करते ही हमें आगे हरियाली ही हरियाली दिखाई दी । यहाँ का पूरा
परिदृश्य खेतों से छोटी-छोटी पहाड़ियों से,
जल स्त्रोतों और विविध प्रकार के पेड़-पौधों
से भरपूर थे । ये सारे सुखमय नजारे मिलकर हमें आगे की यात्रा को और भी सुहाना बना
रहे थे ।
दक्कन के मनोरम पठारों में वरंगल बहुत ही क्लासिक और शानदार काकतिय कला का घर
है और इस शहर को झीलों के शहर के नाम से भी जाना जाता है । वरंगल शहर वरंगल जिले
में स्थित है | अपने प्राकृतिक सौंदर्य के चलते यह विश्व
स्तर पर एक मान्य पर्यटन स्थल है । इसे मंदिरों का शहर भी कहा जाता है । हरीतिमा ओढ़े इस नगर की प्राकृतिक सुषमा किसी का भी मन मोह लेती है । वैसे
समतल भूमि पर होने के कारण यहाँ गर्मी भी बहुत पड़ती है । यहाँ का किला तो है ही,
काकतिय शासन के कई दर्शनीय स्थापत्य भी हैं । यहाँ घूमने के लिए और भी बहुत कुछ है । यह शहर हरे-भरे पहाड़ियों और खेत के
मैदानों से घिरा है । यह चेन्नई-काजीपेट-दिल्ली
राजमार्ग पर स्थित है ।
इस शहर को प्रकृति ने अपार सुन्दरता प्रदान की है |
पर्यटकों को अपने मोह-पाश में बाँध सके ऐसे समस्त अवयव यहाँ मौजूद है | यहाँ
सुरम्य झीलें, वन-उपवन, पुरातात्विक संपदा, आदिम जन-जीवन की साक्षात प्रतिकृतियाँ,
कलाओं का घर, स्वच्छ विचरण करते वन-प्राणी, तथा धार्मिक स्थल हैं | यहाँ की
खुशगवार झीलों का जादुई आकर्षण आज भी बरकरार हैं और इसकी मनोरम सुषमा के साथ इस
शहर का सौन्दर्य द्विगुणित हो जाता है |
यह शहर, उत्तरी तेलंगाना राज्य, दक्षिण-पूर्व भारत में स्थित सांस्कृतिक
ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व का एक प्राचीन शहर है, जो
कि अपने आकर्षित पर्यटन स्थलों और एतिहासिक तथ्यों के लिए जाना जाता है | इसकी
सीमाओं के भीतर कई धार्मिक स्थल एवं प्राचीन स्मारक हैं । इसकी सुंदरता और
ऐतिहासिक चमत्कारों और धार्मिक स्थलों तक ही सीमित नहीं है । यहाँ घूमने के लिए और
भी बहुत कुछ है । वरंगल दुर्ग, रामप्पा मंदिर, सम्मक्का सारक्का मंदिर, भगवती
भद्रकाली मंदिर और सहस्त्र स्तंभों वाला मंदिर यहाँ के विश्व प्रसिद्ध पर्यटन स्थल
हैं, जिन्हें देखने के लिए देश-विदेश के सैलानियों की भीड़ हमेशा रहती है | इनका
अपना ऐतिहासिक महत्त्व भी है, जिसके चलते विश्व संस्था यूनेस्कों ने अपनी सुरक्षित
धरोहर में शुमार किया है | यह शहर हरे-भरे पहाड़ियों और खेत के मैदानों से घिरा है
। यह चेन्नई-काजीपेट-दिल्ली
राजमार्ग पर स्थित है ।
वरंगल शहर 406.87 वर्ग कि.मी. (157.09 वर्ग मील) के दायरे में
फैला है और समुद्रतल से इसकी
ऊँचाई 302 मीटर (991 फीट) है | वरंगल की जनसंख्या 2020 में लगभग 39 लाख हैं | तीन शहर राष्ट्रीय राजमार्ग 163 से जुड़े हुए हैं | वरंगल
त्रिशहरों में से एक है --यानी वरंगल-काजीपेट-हनमकोंडा । वरंगल को एक साथ, “वरंगल
ट्राय सिटी” के रूप में भी जाना जाता है | यह राज्य का पांचवा सबसे बड़ा शहर है ।
हनमकोंडा काकतियों की सबसे पहली राजधानी थी, जो बाद में गणपति देव के शासन के दौरान राजधानी को वरंगल में स्थानांतरित कर
दिया । वरंगल 12 वीं शताब्दी में उत्कृष्ट
पर रहे आंध्र-प्रदेश के काकतिय साम्राज्य की प्राचीन राजधानी के रूप में प्रसिद्ध
था । यह शहर अनूठी नैसर्गिक छवि,
आधुनिक नगर निगम का नायाब नमूना है | इस शहर को प्रकृति ने अपार सौन्दर्यता प्रदान
की है | पर्यटकों को अपने मोह-पाश में बाँध सके ऐसे समस्त अवयव यहाँ मौजूद है |
यहाँ सुरम्य झीलें, वन-उपवन, पुरातात्विक संपदा, आदिम जन-जीवन की साक्षात
प्रतिकृतियाँ, कलाओं का घर, स्वच्छ विचरण करते वन-प्राणी, तथा धार्मिक स्थल हैं |
यहाँ की खुशगवार झीलों का जादुई आकर्षण आज भी बरकरार हैं और इसकी मनोरम सुषमा के
साथ इस शहर का सौन्दर्य द्विगुणित हो जाता है |
तेलंगाना में
सबसे बड़े और सबसे तेजी से विकसित शहरों में से एक वरंगल समय के साथ लोकप्रिय
पर्यटन केंद्र बन गया है । इसका इतिहास काकतिय राजवंश से जुड़ा है, जब इसने अपनी
राजधानी के रूप में कार्य किया था । यह शहर अपने वृहद इतिहास और अद्भुत संरचना के
लिए जाना जाता है । वरंगल पर प्रारम्भ में दक्षिण के प्रसिद्ध आंध्र-वंशीय
लोगों का अधिकार था | तत्पश्चात मध्यकाल में चालुक्यों और काकतियों का शासन रहा |
प्राचीन काल में वरंगल को ओरुगल्लू के नाम से जाना जाता था
। वरंगल या वरंकल, स्थानीय
भाषा में "ओरुकल"
या "ओरुगल्लू" का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है "एकशिला" । इससे तात्पर्य उस विशाल अकेली चट्टान से
है जिस पर काकतिय नरेशों के समय का बनवाया हुआ दुर्ग अवस्थित है । कुछ अभिलेखों से
ज्ञात होता है कि संस्कृत में इस स्थान के ये नाम तथा पर्याय भी प्रचलित थे --
एकोपल, एकशिला, एकोपलपुरी या एकोपलपुरम् । रघुनाथ भास्कर के कोश में
एकशिलानगर, एकशालिगर, एकशिलापाटन -- ये नाम भी मिलते हैं । टालमी द्वारा उल्लिखित कोरुनकुला
वरंगल ही जान पड़ता है |
11वीं शताब्दी से 13 वीं शताब्दी तक वरंगल की गिनती दक्षिण भारत के प्रमुख नगरों में थी ।
इस काल में काकतिय
साम्राज्य के राजाओं की राजधानी यहाँ रही | वरंगल की अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि
आधारित है और लाल मिर्च, तम्बाकू और चावल यहाँ की मुख्य रूप से उगाई जाने वाली फसलें हैं। काकतियों के शासनकाल में वरंगल में हिंदू
संस्कृति तथा संस्कृत की और तेलुगू भाषाओं की अभूतपूर्व उन्नति हुई । शैव धर्म के
अंतर्गत पाशुपत संप्रदाय का यह उत्कर्ष काल था । यहाँ के प्रमुख आकर्षणों में इन्होंने वरंगल दुर्ग, सन् 1199 ई. में, हनमकोंडा में सहस्त्र
स्तंभों वाला मंदिर सन् 1162 ई. में और पालमपेट का रामप्पा मंदिर सन् 1213
ई में निर्मित करवाये थे | वरंगल के किले का निर्माण 1199 ई. में प्रारम्भ हुआ था | इस किले के
निर्माण की नीँव काकतीय वंश के सर्वप्रथम प्रतापशाली शासक गणपति देव ने डाली और
सन् 1261ई. में पुत्री रुद्रमा देवी ने इसे पूरा करवाया था | रुद्रमादेवी ने 36
वर्ष तक बड़ी योग्यता से राज्य किया । उसे
रुद्रदेव महाराज कहकर संबोधित किया जाता था । काकतीय राजवंश से संबंधित रानी
रुद्रमा देवी तेलुगु क्षेत्र पर शासन करने वाली प्रथम महिला बनी | काकतीय राजवंश
का अंतिम शासक प्रतापरुद्र (शासन काल 1296-1326
ई.) था, वह रुद्रमादेवी का दोहित्र था ।
इस शहर का इतिहास बेहद रोचक और प्राचीन है | वर्तमान शहर के दक्षिण-पूर्व में स्थित वरंगल
किला कभी दो दीवारों से घिरा हुआ था,
जिनमें भीतरी दीवार के पत्थर के द्वार और
बाहरी दीवार के अवशेष मौजूद हैं । इसके अलावा यहाँ कई भव्य मंदिरों का निर्माण
भी करवाया था । जैसे:- भद्रकाली झील,
भद्रकाली मंदिर, रामप्पा झील, रामप्पा मंदिर, काकतीय संगीत
उद्यान, पाखल झील, काकातीय रॉक गार्डन,
पद्माक्षी मंदिर, श्री वीरनारायण
मंदिर, इस्कॉन मंदिर,
मिनी चिड़ियाघर, गोविंदराजुलू गुट्टा, रायपार्थी शिव मंदिर,
इनवोलू मल्लन्ना मंदिर, इंटर्नगरम
वन्यजीव अभयारण्य,
लकनावरम चेरुवु, श्री विद्या
सरस्वती शनि मंदिर, भीमुनी पादम झरना, वाड़ेपल्ली झील, धर्म सागर झील और मेडारम गांव आदि यहां प्रसिद्ध पर्यटन स्थल
है ।
हमारी गाड़ी सरपट दौड़ रही थी । आकाश साफ था और मौसम भी
काफी सुहावना था । यात्रा पथ पर हरित सुषमा मन को विश्रांति देती थी । लगभग 9.30 बजे हमारा यात्री दल अपने गंतव्य वरंगल पहुँचा । प्रथम चरण में हमने रामप्पा (रामलिंगेश्वर) मंदिर के अवलोकन का मन बनाया | हमने इन
सारे स्थानों को देखने के निमित्त एक गाइड की सेवा ली | वह मुझे इन स्थानों की
ऐतिहासिकता से भलीभांति परिचित करा सकता था | वरंगल शहर से 70 किलोमीटर दूर, हम सभी ने पालमपेट के लिए प्रस्थान किया ।
हमारे गाइड ने
हमे बताया कि पालमपेट में स्थित ऐतिहासिक रुद्रेश्वर मंदिर को रामप्पा (रामलिंगेश्वर)
मंदिर के नाम से भी जाना जाता है । यह मंदिर वरंगल से लगभग 70 कि.मी., मुलुगू जिले से 15 कि.मी., दक्षिण भारत में
तेलंगाना राज्य में हैदराबाद से 209
कि.मी. दूर स्थित है । यह मंदिर मुलुगू जिले
के वेंकटापुर मंडल के पालमपेट गाँव में एक घाटी में स्थित है, जो 13वीं और 14वीं शताब्दी में
अपने गौरव के दिनों से बहुत पहले एक छोटा सा गाँव था ।
भारत को मंदिरों का देश कहा जाता है । हमारे यहाँ के मंदिर है भी बड़े अनूठे ।
कुछ मंदिर जहाँ अध्यात्म का केंद्र है तो
कहीं की मूर्तियाँ चमत्कारी है कुछ मंदिर अपने अप्रतिम शिल्प के लिए विख्यात हैं
तो कुछ अपने असाधारण महत्व के कारण । कुछ मंदिर ऐसे भी हैं जिन्हें ऐसी तकनीक से
बनाया गया है जिसे देखकर आज के वैज्ञानिक भी दांतो तले उंगली दबाने को मजबूर हो
जाते हैं । इन मंदिरों में विज्ञान के उन सिद्धांतों का प्रयोग किया गया है जब
उनका अविष्कार तक आधुनिक विज्ञान ने नहीं किया था । ऐसे ही विज्ञान को धता बताने
वाला एक मंदिर है तेलंगाना के वरंगल में स्थित रामप्पा या रामलिंगेश्वर मंदिर |
कहने को तो हिंदुओं के 33 करोड़ देवता है और सभी पूज्य है, लेकिन शिव की मान्यता सभी देवों में महादेव की है। शिव लगभग
सभी संप्रदायों में पूज्य है । शिवाराधना शैव तो करते ही हैं, उनकी अर्चना शाक्त और वैष्णव भी उसी भक्ति भाव से करते हैं
। शिव को मान्यता के अनुसार आदिनाथ भी माना जाता है । इसका अर्थ है कि पृथ्वी पर
पूजे जाने वाले सभी देवी-देवताओं में शिव-अर्चना सबसे प्राचीन है । पौराणिक रूप से
शिव और शक्ति की अभेदता को प्रदर्शित किया गया है । शिव को अर्धनारीश्वर भी बताया
गया है ।
गाइड ने हमें बताया कि रुद्रेश्वर रामप्पा मंदिर का निर्माण सन् 1213 ई. में वरंगल,
तेलंगाना
(पुर्व, आंध्र प्रदेश) के काकतिय साम्राज्य के शासनकाल के दौरान कराया गया था | महाराजा
गणपति देव के मन में अचानक एक शिव मंदिर के निर्माण का विचार आया । इसके बाद
उन्होनें अपने प्रमुख शिल्पकार रामप्पा को आदेश दिया कि वो एक ऐसे मंदिर का
निर्माण करे, जो वर्षों तक टिका रहे | रामप्पा ने भी अपने राजा के आदेश का पालन
किया और अपने अथक परिश्रम और शिल्प कौशल से आखिरकार एक भव्य, खुबसूरत और विशाल
मंदिर का निर्माण किया |
प्राणप्रतिष्ठा
के दिन महाराज गणपति देव ने जैसे ही मंदिर को देखा, वे अचंभित, ठगे से खड़े रह गए । उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ऐसा भव्य खूबसूरत, विशाल और अद्भुत
निर्माण उन्हीं के राज्य की धरती पर हुआ है । भावातिरेक में उनकी आँखों से
अश्रुधारा बह निकली । उन्होंने आगे बढ़कर रामप्पा को गले से लगा लिया और कहा कि
मैं धन्य हूँ, जो तुम जैसा कलाकार मेरे पास है । संसार की कोई भी निधि, कोई भी संपदा
तुम्हारी इस कला का मोल नहीं चुका सकती । तुमने मुझे और अपनी धरती को धन्य कर दिया
। आज तक हर मंदिर उस में स्थापित देव प्रतिमा के नाम से ही जाना जाता रहा है, पर मैं इस मंदिर
का नाम तुम्हारे नाम पर रखता हूँ । आज से यह मंदिर “रामप्पा मंदिर” के नाम से जाना
जाएगा । 800
वर्ष बीत जाने के बाद भी यह मंदिर आज भी उतनी ही मजबूती से
खड़ा है, जैसे पहले था |
कुछ वर्षों
पूर्व अचानक लोगो को ध्यान में आया कि यह मंदिर इतना प्राचीन है फ़िर भी यह टूटता या जीर्ण शीर्ण क्यों नहीं होता ? जब कि इस के बाद में बने ज्यादातर मंदिर खंडहर हो चुके है, लेकिन कई प्राकृतिक भीषण
आपदाओं को झेलने के बाद भी आज तक सुरक्षित है । यह बात पुरातत्व वैज्ञानिकों के कान में पड़ी तो उन्होने पालमपेट जाकर मंदिर कि
जाँच की तो पाया कि मंदिर वाकई अपनी उम्र के हिसाब से बहुत मजबूत है । काफ़ी
कोशिशों के बाद भी विशेषज्ञ यह पता नहीं लगा सके कि उसकी मज़बूती का रहस्य क्या है | बाहर की जाँच में जब सारे तरीके फेल हो गये तब पुरातत्त्व विभाग के विशेषज्ञों ने मंदिर की
मजबूती का रहस्य जानने के लिए मंदिर के पत्थर के एक टुकड़े को काटकर उसका अध्ययन
किया | इसमें उन्होंने पाया कि यह पत्थर वजन में बहुत हल्के हैं | उन्होने पत्थर
के उस टुकड़े को पानी में डाला, तो वह टुकड़ा पानी में डूबने की बजाय तैरने लगा |
यानि यहाँ आर्किमिडिज का सिद्धांत गलत साबित हो गया । तब जाकर मंदिर की मज़बूती का
रहस्य पता लगा कि और सारे मंदिर तो अपने पत्थरों के वजन के कारण टूट गये थे, लेकिन
रामप्पा मंदिर के पत्थरों में तो वजन बहुत कम हे इसलिए मंदिर टूटता नहीं | अब तक वैज्ञानिक उस पत्थर का रहस्य पता नहीं कर सके कि रामप्पा यह पत्थर लाये
कहाँ से क्यों कि इस तरह के पत्थर विश्व में कहीं नहीं पाये जाते, जो पानी में
तैरते हों | (रामसेतु के पत्थरों को छोड़कर) तो फ़िर क्या रामप्पा ने 800 वर्ष पहले
ये पत्थर खुद बनाये ?
अगर हाँ तो वो कौन सी तकनीक थी उनके पास, वो
भी 800-900 वर्ष पहले !! रामप्पा क्या सिर्फ शिल्पकार थे, क्या वे कोई वैज्ञानिक
भी थे ? या फिर किसी देवी शक्ति ने रामप्पा की इस मंदिर निर्माण में सहायता की थी
| ये सारे प्रश्न आज भी अनुत्तरित है |
काले चिकने पत्थर पर तेलुगु
एवं कन्नड़ भाषा (एक शिलालेख) में लिखा हुआ है कि मध्ययुगीन दक्कन रामप्पा मंदिर,
जो 1213 ई.पूर्व का है | इस मंदिर को बनाये 800 वर्ष हो गये | इस मंदिर के निर्माण में
लगभग 40 वर्ष का समय लग गया था | अद्भुत शिल्प वाले इस शिव
मंदिर का निर्माण
प्रमुख्य सेनापति रेचर्ला
रूद्र रेड्डी द्वारा वरंगल के काकतिय साम्राज्य के शासक महाराज गणपति देव के
संरक्षण में करवाया गया था | यह शायद विश्व का यह एक मात्र मंदिर
है, जिसका नाम भगवान के नाम पर न होकर इसके शिल्पी के नाम पर है | अपने मुख्य शिल्प
कार रामप्पा के कारण मंदिर का नाम रामप्पा पड़ा । 13वीं शताब्दी में भारत आये
मशहूर इटेलियन व्यापारी और प्रसिद्ध खोज कर्ता ‘मार्को पोलो’ ने जब इस मंदिर को
देखा तो इसे “मंदिरों की आकाशगंगा में सबसे चमकदार सितारा” कहा था |
वरंगल से हनमकोंडा के रास्ते से होते हुए हमारा
यात्री दल रामप्पा रामलिंगेश्वर मंदिर पहुँचा । रामप्पा
मंदिर को दक्कन क्षेत्र में मध्यकालीन मंदिरों के आकाशगंगा में सबसे चमकीले सितारे
के रूप में संदर्भित किया गया है । हम एक शाही बगीचे के मध्य से मंदिर तक पहुँचे |
हमने बगीचे में एक विशाल वृक्ष के नीचे कई तस्वीरें अपने कैमरे में कैद की | बगीचे
के बीच में पत्थरों से बने मार्ग के साथ एक लॉन तक कम हो गया है । मुख्य शिव
मन्दिर चारदीवारों से घिरे एक परिसर में स्थित है | मंदिर का अग्रभाग पूर्वाभिमुख है | मंदिर की दिव्यता और भव्यता ने हम सबको प्रभावित किया । मंदिर की भव्यता प्राचीन भारत की स्थापत्य कला का वैभव विलास दिग्दर्शित करती
है । यह मंदिर वरंगल के प्रमुख तीर्थ स्थलों में शामिल है जो कि अपनी आकर्षित
संरचना के लिए पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता हैं । इस मंदिर में काकतिय
राज्यवंश की शैली की झलक स्पस्ट देखी जा सकती हैं । मंदिर के पत्थरों पर बने यह
सूक्ष्म चित्र यह दिखाते हैं कि कितने परिश्रम से यह नक्काशी पत्थरों पर उकेरी गई
होगी क्योंकि जरा सी गलती से ये सारी मेहनत बेकार हो सकती थी । ये मंदिर लाल बलुई पत्थर से बना है और मूर्तियाँ काले कठोर ग्रेनाइट पत्थर से
बनी है । ये मंदिर खास जिस पत्थर से बना है वो देखने में सामान्य लगता है लेकिन बहुत
अनोखा है । ये पत्थर कठोर तो हैं लेकिन वजन में काफी हल्के हैं । यहाँ तक कि पानी
में डालने पर पत्थर डूबते नहीं बल्कि तैरते रहते हैं । मंदिर की छत इसी पत्थर से
बनी हुई है जिसके कारण से कई हलचल होने पर भी सदियों से यह मंदिर स्थिर खड़ा है ।
यह मंदिर भारत की प्राचीन
शिल्पकला का एक अन्यतम उदाहरण है । यह दृश्य इतना नयनाभिराम लगता है कि रामप्पा
मंदिर हरी-हरी पत्तियों के बीच खिला कोई फूल हो | मंदिर की भव्यता और विशालता देखकर चमत्कृत रह जाना पड़ता है, क्योंकि देखने पर यह लगता ही नहीं कि यह हजारों साल पुराना
है । इस मंदिर की
सुंदरता ने न सिर्फ अपनी पुरातनता
से हमें चमत्कृत किया बल्कि अपनी सुंदरता से
हमें क्षुब्ध भी कर दिया । इस मंदिर को मजबूत
बनाने के लिए एक अद्भुत तकनीक का प्रयोग किया गया था | इस मंदिर की नीँव गीली रेत
और बालू से निर्मित की गई है | जब इसकी नीँव की खुदाई की गई तब पता चला कि इसकी
नीँव में गीली रेत और बालू भरी हुई है, जो हमेशा गीली रहती है | शोध करने पर एक
पानी का स्त्रोत मिला जो मंदिर से 3 कि.मी. दूर तालाब से जुड़ा था, जिसकी वजह से नीँव की रेत और बालू हमेशा गीली रहती है और इसे मजबूती प्रदान
करती है | कई छोटे ढाँचे उपेक्षित थे और खंडहर हो चुके
थे | मंदिर की बाहरी दीवार में मुख्य प्रवेश द्वार खँडहर हो चूका है |
मंदिर के परिसर में सभा मण्डप और पाकशाला
भी हैं, जो प्राय: खंडहर हो चुके हैं | परिसर में मंदिर के सामने
की ओर एक मंदिर और बना हुआ है | गणपति देव के पिताश्री का नाम रुद्रदेव था | वे
शिवजी की उपासना किया करते थे | इसलिए शिवजी का नाम रुद्रेश्वर था | पहले इसी
मंदिर में पूजा होती थी, अब उस मंदिर में एक शिवलिंग है, उसे कोटेश्वर मंदिर कहते
हैं | इसी मंदिर के बाहर काले चमकदार एक ही शिला में शिव के वाहन नंदी की एक
मूर्ति स्थापित की गई है, जो 9 फीट ऊँची है | नंदी, शिवजी के वचन सुन
रहें हैं ऐसी मुद्रा में हैं । तत्पश्चात वर्तमान में जहाँ मंदिर है उसका निर्माण
करवाया गया और शिवजी की मूर्ति को नए मंदिर में स्थानांतरित कर दिया गया | इसका
निर्माण करने वाले का नाम रामप्पा था इसलिए इस मंदिर का नाम ‘रामप्पा मंदिर’ रखा |
इस मंदिर का निर्माण स्थानीय लोगों के कर से करवाया गया है | यह मंदिर वेसरा
वास्तुकला शैली में निर्मित किया गया है |
हमारे गाइड ने बताया कि मुख्य संरचना एक लाल रंग के बलुआ पत्थर में है, लेकिन बाहर के गोल स्तंभों में
काले बेसाल्ट के बड़े कोष्ठक हैं जो लोहे, मैग्नीशियम और सिलिका में समृद्ध हैं । काकतियों की और एक विशेषता है कि उनके स्तंभ
जिनकी निर्माण शैली थोड़ी अजीब सी है । 5-6
अलग-अलग भागों को एकत्रित कर एक संपूर्ण और
बड़े से स्तंभ का निर्माण किया जाता है,
लेकिन उन्हें देखने पर नहीं लगता कि उन्हें
विविध भाग को जोड़कर बनाया गया है । ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे यह पूरा स्तंभ
एक ही पत्थर से उत्कीर्णित किया गया है । इस मंदिर की एक और खासियत यह है कि इसे ईटों से बनाया गया
है, जो इतने हल्के हैं कि वह
आसानी से पानी पर तैर सकते हैं । विस्तृत नक्काशी दीवारों की रेखा और मंदिर के
स्तंभ और छत को भी कवर करती है । मंदिर के गर्भगृह को शिखरम से सुसज्जित किया
गया है जो हल्की इंटों से निर्मित है और प्रदक्षिणा पथ से घिरा हुआ है । रामप्पा मंदिर
के शिखर की एक इंट जो सिताब खान के दरबार भवन में संग्रहित है । खुश महल अर्थात सिताब खान, रामप्पा मंदिर की पानी में
तैरने वाली एक इंट दर्शनार्थियों के लिए यहाँ सुरक्षित रखी गई है । वे एक
हिंदू थे और उनका नाम सीतापति था । वे काकतियों के प्रवेश द्वार के रक्षक हुआ करते
थे ।
यह मंदिर 6 फीट ऊँचे तारे के आकार के मंच पर प्रमुखता
से खड़ा है । लगभग 8 सीढ़ियाँ ऊपर चढ़ने के बाद मंदिर की भव्य शिल्पकला का
अप्रतिम उदाहरण देखने को मिला । हजारों साल बीत जाने के बाद भी इन शिल्प की जीवंतता ज्यों की त्यों बनी है और इनकी चमक कहीं भी धूमिल दिखाई नहीं देती | इस मंदिर की दीवारों पर रामायण और महाभारत के चित्र ऊकेरे गए हैं । यह रामायण
और महाभारत के दृश्य एक ही शिला पर उत्कीर्णित है, वह भी छैनी हथोड़े से | मंदिर की बाहरी दीवार पर चारों ओर 526 अलग-अलग मुद्राओं में हाथियों की मूर्तियाँ
उत्कीर्णित की गई हैं | मंदिर में तीन द्वार हैं | तीनों द्वारों के दोनों ओर
स्तंभों और छत को लगकर काले चमकदार पत्थरों में चार-चार मूर्तियाँ हैं, अर्थात कुल
बारह मूर्तियाँ हैं, इन्हें मदनिकास और सालवनी कहते हैं | अल्लाउद्दीन खिलजी एवं
उसके सेनापति द्वारा ग्यारह मूर्तियों को खंडित कर दिया गया था, सिर्फ एक ही
मूर्ति अखंड है|
हमारे गाइड ने हमे बताया कि इनमें से एक मूर्ति को दल-मदनिका कहा जाता है |
हाई हील्स यानि ऊँचे एड़ी वाली चप्पल, डिजाईन
में हील्स के साथ ही पंजे के अगले हिस्से भी ऊँचे बनाये गये हैं जैसा कि आजकल
प्लेटफार्म हील्स वाले सैन्डल में होते हैं | इसका मतलब शायद उस समय के लोग सिर्फ ऊँचे एड़ी पहनने के नुकसान
भी जानते रहे हों | इस मूर्ति के आधार पर ये कहा जा सकता है कि सैकड़ों साल पहले भी आज की तरह ऊँचे एड़ी वाली चप्पल, सैंडल जरूर
भारतीय फैशन में रहे होंगे ।
हम भारतीय तो आधुनिक फेशन के भी जनक थे |
स्तंभों पर काले चमकदार पत्थरों में हाथी, सिंह और बीच में आदमी की 28 मूर्तियों की नक्काशी बहुत ही बारिकी से की
गई है | यहाँ छोटे-छोटे मंदिर बने हुए हैं, जिनमें महिसासुर मर्दिनी, गणपती, काल
भैरव, विष्णु मूर्ति, तारकासुर संहार, मल्ल युद्ध आदि कई मूर्तियाँ उत्कीर्णित
हैं, इनमें कई मूर्तियाँ खंडित हो गई हैं |
कभी मैं दर्शनार्थियों को निहार रही थी तो कभी परिसर के विस्तार को नाप रही थी और कभी मंदिर
की भव्यता को देखकर अपने पूर्वजों की स्थापत्य कला को मन ही मन सराह रही थी । इसी
मनोदशा में मैं कब ऊँची-ऊँची 3-4 सीढ़ियाँ चढ़कर गर्भगृह
में शिवजी के पास पहुँच गई कुछ पता ही नहीं चला । मंदिर की
जमीन कहीं-कहीं पर नीची कुछ ऊँची हो गई है, तब मैंने हमारे गाइड से पूछा कि मंदिर
में ऐसा क्यों है, तब गाइड ने कहा 17वीं शताब्दी में इस क्षेत्र में एक बड़ा भूकंप आया था | जिसकी
वजह से मंदिर की जमीन कहीं-कहीं पर कुछ ऊँची-नीची हो गई है, लेकिन बाकी मंदिर और
मंदिर के सामने बनी नंदी की विशाल मूर्ति पर कोई असर नहीं हुआ | यह मंदिर भीषण आपदाओं को झेलने के बाद भी आज तक सुरक्षित है | विदेशी आक्रमण को झेलने और उचित देखभाल के बिना भी ये
मंदिर हमारे महान अतीत की ठोस मिसाल बना खड़ा है |
गर्भगृह के सामने वाले प्रांगण में कई स्तंभ है, जिन पर बेहतरीन और बहुत ही
बारीक वास्तुकला को दर्शाया गया है | जिनमें से एक स्तंभ में सुई से भी बारीक 13 छिद्र हैं जिनको उस समय
बिना किसी अत्याधुनिक औज़ारों की सहायता से बनाना असंभव था | इन स्तंभों की
नक्काशियाँ अद्भुत है | इन नाजुक नक्काशियों में पौराणिक जन्तु, महिला नर्तकियाँ, संगीतकारों के रूप में उकेरे गए हैं और काकतिय कला की उत्कृष्ट कृतियों,
कामुक मुद्राएँ और लम्बे शरीर और सिर के लिए उल्लेखनीय हैं | इन स्तंभों के
ऊपर बने गोलाकार ढांचे ने मुझे तात्या टोपे की टोपी की याद दिलाई, जो शायद इन्हीं
स्तंभों से प्रभावित होगी । ये विराट पत्थर जो छतों और कोष्टों में उत्कीर्णित किए
गए हैं, हमें अपने महान आकार से ही विस्मित कर रहे थे । इन पत्थरों पर की गयी
खुदाई सच में बहुत बारीक और नाजुक है, जो मनुष्य के
शरीर, उसके आकार-प्रकार और उनके आभूषणों को बड़ी सूक्ष्मता से दर्शाती है । इन
पत्थरों पर उत्कीर्णित पशुओं की शक्ति और देवी-देवताओं की भावनाओं को गहराई और
जीवंतता के साथ चित्रित किया गया है । इनके अतिरिक्त यहां खूबसूरत से मकरध्वज भी
देखे, जो हनुमान के स्वेदजल से जन्मे हुए माने जाते हैं । इस मंदिर में उनकी
उत्कीर्णित कई मूर्तियाँ हैं ।
गर्भगृह के प्रवेश द्वार के दोनों ओर पाँच-पाँच द्वार पालिकाएँ हैं, जो काले
चिकने चमकदार ग्रेनाईट जैसे कठोर एक ही शिला पर बने होने के अलावा मूर्तियों में
एसी गजब चमक, महीन काम और अद्भुत कलात्मकता देखकर हम बहुत प्रभावित हुए | बायीं ओर
एक बाँसुरी की कलाकृति बनी है | उसे कृष्ण भगवान की बाँसुरी बताते हैं, जिसे
हल्का सा ठोंकने पर सा-रे-ग-म की ध्वनि निकलती है | हम सभी ने भी बाँसुरी बजाई | उसके ऊपर तीस-तीस अलग-अलग मुद्राओं में पेरिनी नृत्य प्रदर्शन
करती नृत्यांगनाओं की मूर्तियाँ भी उत्कीर्णित हैं | पेरिणी शिव तांडव, यानी तांडव
नृत्य का एक प्रकार जो वास्तव में युद्ध पर जाने से पहले सैनिकों द्वारा किया जाता
था | पेरिनी नृत्य काकतिय साम्राज्य के समय में उद्भव हुआ था, अब यह तेलंगाना
राज्य का नृत्य है | मंदिर के प्रांगण में बीम के मध्य में दक्ष यज्ञ, कोने में
गाय और गाय के नीचे गणपतिजी की मूर्ति उत्कीर्णित है | दूसरी बीम पर क्षीरसागर
मंथन, कृष्ण का गोपियों के वस्त्र हरण अति सुन्दर ढंग से उत्कीर्णित किया गया है |
मंदिर को नजर न लगे इसलिए एक स्तंभ टेढ़ा किया हुआ है | स्तंभों में थोड़ी जगह रखी
गई है, जिससे रात्रि में बल्व की रोशनी से पूरे स्तंभ जगमगाने लगते हैं | रामप्पा मंदिर भगवान शिव को
समर्पित हैं और मंदिर के अधिष्ठाता देवता रामलिंगेश्वर स्वामी हैं | भगवान शिव का 9 फीट ऊँचा विशाल शिवलिंग स्थापित हैं ।
मंदिर में प्रवेश कर शिवजी का दर्शन पाकर मैंने अपने को कृतकृत्य समझा और विधिवत पूजा अभिषेक किया | पुजारी ने आरती
की और उन्होंने हमें आरती दी । यहाँ कोई शिवजी को स्पर्श नहीं कर सकता है । पूजा
कार्य पुजारी ही करते हैं । इसके पूर्व में कई शिवजी के दर्शन कर चुकी थी लेकिन
रामप्पा अथवा रामलिंगेश्वर स्वामी मुझे उनमें कुछ विशेष इस दृष्टि से लगे कि इनकी
औपचारिक पूजा के बाद भी हृदय में एक अलौकिक आह्लाद का अनुभव हो रहा था । यह प्रस्तर निर्मित मंदिर अपनी प्राचीनता के अलावा आज भी
उतना ही मजबूत है, इससे पता चलता है कि हमारे पूर्वजों की शिल्प-दक्षता कितनी
प्रभावशाली थी |
हमारे गाइड ने
हमे कहा कि शिवरात्रि के दिन यहां देश भर से श्रद्धालु दर्शनों के लिए आते हैं
| इस दौरान इस मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है । मन ही मन मैंने रामप्पा मंदिर में शिवजी को प्रणाम निवेदित कर विदा मांगी । काकतिय साम्राज्य का अति सौंदर्य
और अद्भुत कला रचना वाले रामप्पा मंदिर के दर्शनों के पश्चात पास
ही रामप्पा झील का अवलोकन करने गए । गाइड ने कहा कि इस मंदिर के निकट एक
कि.मी. दूर रामप्पा झील है | इस सुंदर झील का निर्माण
काकतिय शासनकाल में 1213
ईसा पूर्व किया गया था | वरंगल
जिले के पालमपैट गाँव के रामप्पा झील काकातीय शासन की सिंचाई परियोजना का अद्भुत
उदाहरण है । यह 130
वर्ग कि.मी. में फैली हुई है
। इससे करीब 9,000
एकड़ भूमि की सिंचाई होती है
। काकातिय शासन के स्थापत्य का इससे अच्छा उदाहरण कहीं नहीं मिल सकता । झील और
मंदिर के बीच बसे शहर का अब कोई निशान नहीं मिलता है । झील
में नौका विहार की भी सुविधा है | यहाँ किराए से कमरे भी उपलब्ध है और एक
छोटा सा रेस्तरां भी है । हमने यहाँ के रेस्तरां के मालिक से अनुरोध कर चाय बनवाई
। वैसे समय दोपहर के भोजन का था । रामप्पा मंदिर के दर्शन पूजन और झील का अवलोकन
करने के पश्चात हम एक अन्य प्रसिद्ध मंदिर जिसे सम्मक्का
सारलम्मा (सारक्का) के नाम से जाना जाता है का अवलोकन के लिए उत्साहित थें । इस
मंदिर को तेलंगाना का सर्वश्रेष्ठ मंदिर माना जाता है । प्रसिद्ध सम्मक्का सारक्का
के अवलोकन करने के लिए हम लोग चाय नाश्ता कर मेडारम के लिए आगे बढ़े । मेडारम
जातरा यहाँ की विश्व प्रसिद्ध जातरा है, जिसे देखने के लिए भारत के कोने-कोने से
सैलानियों की भीड़ रहती है |
प्रस्तुति
: संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)
email: murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण,
मीडिया प्रभारी,
हैदराबाद.
मो.नं.09703982136.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें