| बुध, 21 अक्तू॰, 11:57 pm (8 दिन पहले) | |||
वैश्विक हिंदी सम्मेलन द्वारा गूगल मीट पर 24-10-2020, शनिवार को दोपहर 4.15 बजे से "भारतीय भाषाओं को रोंदता अंग्रेजी का साम्राज्यवाद।"विषय पर वैश्विक ई-संगोष्ठी का आयोजन किया गया है।सभी भारतीय भाषा प्रेमियों से अनुरोध है कि वे इससे जुड़ें और भारतीय भाषाओं को बचाने के इस महायज्ञ में अपनी भूमिका निभाएं।हमें याद रखना चाहिए कि देश की भाषाओं से ही देश की संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान, परंपराएँ, धर्म, आध्यात्म और राष्ट्रीय अस्मिता सब कुछ है।भाषाएँ जाने के बाद हमारे पास अपना कुछ न बचेगा, तो फिर देश कैसे बचेगा ?
देश बचाना है तो अपनी भाषाएं बचाएं। वैश्विक ई- इस ई-संगोष्ठी में जुड़ने के लिए निम्नलिखित लिंक पर क्लिक करें।------------------------------------------------------------ ------------------------------ ------------------------------ ----------------------- अष्टम अनुसूची की हिन्दी-हित में पुनः समीक्षा अपेक्षित है।
ओम प्रकाश पांडेय
विगत आधी सदी से भी कुछ अधिक अवधि से मैं अवलोकन करता आ रहा हूँ कि क्षेत्रीय बोली के नाम पर अधिकतर व्यक्ति, कुछ से कुछ लिखते हुए गुणवत्ता के प्रति सचेत नहीं रहते हैं। फलतः अपेक्षित स्तर का प्रायः अभाव रहता है। विषय-वस्तु, भाव एवम् भाषिक रूप से भी। और, इसीलिये; स्थानीय स्तर पर ही ऐसे लोग सिमट कर रह जाते हैं। कुछ कहने-बताने पर कुतर्क का सहारा लेने लग जाते हैं कि लोक भाषा है। क्या, लोक भाषा में सामान्य बोल-चाल तथा साहित्य की भाषा में अन्तर नहीं होना चाहिये? परिनिष्ठितता का कोई स्थान नहीं? जिन लोगों ने साधना की चाहे, वह कोई भी क्षेत्रीय बोली रही अथवा खडी़ बोली हिन्दी; उन्हें पर्याप्त यश प्राप्त हुआ।
डा.परमानन्द पाण्डेय, प्रो. हरिमोहन झा, नागार्जुन ,रामेश्वर सिंह कश्यप इस बात के बहुत बड़े उदाहरण रहे । हिन्दी के उक्त महान् साधक, अंगिका, मैथिली और भोजपुरी की अनुपम पहचान बन कर अमर हो गये। क्षेत्रीय भाषाओं के साधकों को भी अवश्य ही सम्मान व पुरस्कार प्राप्त होना चाहिये। लेकिन, यह भी सत्य ही कि बरगद के नीचे कोई अन्य पौध पनप नहीं सकता। येन-केन-प्रकारेण, पौधा कोई पनप भी गया तो वह कुपोषण का शिकार हो ही जाता है। यों, प्रारम्भ से ही; सरकारी नीति बहुत स्वस्थ नहीं रही है। वोट - कुर्सी - सत्ता की सतायी हुई संस्कृति, संस्था एवम् साहित्य के मध्य, किसी भी भाँति ये, अर्थात् संस्कृति, संस्था, साहित्य जीवित बच रहे हैं तो साहित्यकार, संगीतकार, कलाकार की अपनी मेधा, क्षमता, लगन और राष्ट्रीय तथा नैतिक ईमानदारी के बल पर ही। वैसे,जो पत्र-पत्रिकायें, नायक-नायिकायें, गायक-गायिकायें, निर्माता-निर्देशक के साथ-साथ नेतागण तक जो हिन्दी में आये, वे अधिक प्रसिद्ध हुए।
अनावश्यक को अष्टम अनुसूची तथा आवश्यक की उपेक्षा से असंतोष तो पनपेगा ही ना, नीति-नीयत बदलनी होगी। अष्टम अनुसूची की हिन्दी-हित में;पुनः समीक्षा हर हाल में अपेक्षित है। मैं किसी के पक्ष या विपक्ष की बात नहीं कह रहा। मैं तो बिल्कुल वही कह रहा हूँ, जो तटस्थ भाव से एक भारत-भक्त को कहना चाहिये। फिर भी, यदि मेरा कथन किसी को चोट पहुँचाता हो तो, विनम्रतापूर्वक क्षमा-याचना ।।
प्रकाश,
प्रधान सम्पादक,
परमा अंगिका .
परमा वागीश मन्दिरम्.परमाश्रम, पटना ।
७४८८५२८६३०/ ७८७०६५५२२६
babaamma@13gmail.com
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प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
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लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो.: 09703982136
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