नासिक की महाकुंभ – यात्रा
नासिक की महाकुंभ – यात्रा
किस पुरा काल में देवताओं और दानवों ने मेरु पर्वत को मथनी
बनाकर समुद्र-मंथन-क्रिया
कब उस मंथन के चलते अमृत-कलश प्रकट
हुआ था और कब उस कलश को
में इन्द्र-पुत्र जयंत उसे अपनी चोंच में
दबाकर स्वर्ग की और भाग चला था तथा कब उस कलश से छलक कर अमृत-बूंदों ने भारतभूमि के चार विशिष्ट
स्थलों को अपनी अमृतमयी चेतना के संस्पर्श से तीर्थ बना दिया था, इसकी काल-गणना नहीं की जा सकती | सही-सही यह भी नहीं
कहा जा सकता कि यह घटना सचमुच घटी थी या नहीं अथवा इस परिकल्पना के साथ हमारी ऋषि परंपरा ने कोई प्रतीक रचना की है | तथ्यत: इस पूरे सन्दर्भ में कोई
निश्चित और अंतिम बात नहीं कही जा सकती
है, लेकिन
इतना जरुर कहा जा सकता है कि भारतीय जन-मानस अपनी आस्था और
अपनी श्रध्दा से इस अमृत-कथा के प्रवाह को अनंत काल से प्रवाह मय बनाये हुए है | उसकी समर्पित
साधना का यह प्रवाह अनंत काल तक अक्षुण्य बना रहेगा, क्योंकि अमृत-कलश से छलकी हुई बूंदों से
संस्परिति श्रध्दा भी अनंत-जीवी है |
इस सच्चाई से इन्कार
नहीं किया जा सकता कि इस पृथ्वी पर सब कुछ मरण धर्मा है, अनंत जीवी सिर्फ श्रध्दा ही है |
हो सकता है सागर-मंथन और उससे उदभूत हुए अमृत-कलश की कथा प्रतीक-रचना हो, लेकिन जिस ऋषि-कल्प
ने इस प्रतीक को जनमानस की आस्था को सोंपा है,
उसने कथा के साथ ही राष्ट्रीय अखंडता
का बीज-भाव भी उसे समर्पित किया है |
मैं 2003 में संपन्न होने
वाले नासिक के महाकुंभ स्नान के पूर्व दो
महाकुंभ-स्नानों हरिद्वार और प्रयाग की साक्षी रही हूँ | किस तरह उत्तर, दक्षिण,
पूरब और पश्चिम से लोग
लाखों-लाख की संख्या में नदियों में पवित्र-स्नान के लिए एकत्रित होते हैं, वह अपने
आप में किसी को भी अभिभूत कर सकता है |
विचित्रता यह है कि जब यात्रा-साधनों का अभाव था, तब भी सारा देश सिर्फ एक डुबकी की
लालसा लिए पुण्य-स्थानों पर उतनी ही बड़ी संख्या में एकत्रित
होता रहा है, आज
जब उन
संसाधनों की बहुलता है तब भी वह संख्या पूर्व की भाँति अनगिनत
ही बनी हुई है | पृथ्वी
पर आज तक किसी भी देश की संस्कृति ने अपनी राष्ट्र चेतना को इस रूप में मुखर नहीं किया होगा जैसी अभिव्यक्ति भारत ने
महाकुंभ के रूप में प्रस्तुत की है | कहा यह भी जा सकता
है कि भारत-दर्शन की लालसा में भटकने वाले लोग अगर चाहे तो महाकुंभ की बेला में एक बिंदु पर समग्र भारत की रंग-बिरंगी छटा का
अवलोकन कर सकते हैं | इस
एक बिंदु पर प्रतिच्छापित
होने वाला राष्ट्र-दर्शन यह बोध करा देता है कि अनेक भाषाओं और बहु सांस्कृतिक परंपराओं वाले इस देश की आत्म-चेतना अविभाजित भी है और अखंड भी है | भले ही इस चेतना को एक धार्मिक
कर्म-कांड के कलेवर में लपेट दिया गया हो,
किन्तु इसका निहितार्थ उससे कई-कई गुना बड़ा है |
वैसे इस धार्मिक आस्था की उपेक्षा भी कैसे की जा सकती है
जिसने एक ज्योतिषीय घटना को जन सामान्य का सर्वाधिक संपूज्य यथार्थ बना दिया है | हरिद्वार में और प्रयाग में मैंने खुद
अपनी आखों से देखा है कि किस तरह एक आस्थावान भीड़,हाड कंपकंपाती ठण्ड में बर्फानी शीतलत
लिए जल में किस तरह
डुबकी लगाकर अपने नश्वर जीवन को कृत-कृत्य हुआ अनुभव करती है | आधुनिकता की
पश्चिमी अवधारणा से ग्रस्त लोग भले ही इस धार्मिकता को पाखण्ड कहे, लेकिन
इस
यथार्थ को झुठलाना मुश्किल है कि इसने हजारों-हजारों साल तक
देश को जीवन का संबल दिया है |
कहने को इस तरह की सभी धार्मिक परंपराएं धर्म का हिस्सा है, लेकिन यह एक विशेष-जाति समुदाय
की सास्कृतिक-चेतना को उससे कुछ अधिक परिभाषित करती है | धर्म और संस्कृति का यह संयोजन
किसी काल-विशेष में हुआ हो, एसा भी नहीं है, इसका विकास और समन्वय लगातार होता रहा
है और
भारतीय प्रज्ञा ने इसे चिरकाल तक जीवंत बनाये रखने वाले सभी तत्वों का नियोजन भी
इसमें बहुत सोच समझकर
किया है | इस
दृष्टि से प्रति बारह वर्ष के अंतराल पर देश में आयोजित होने वाले चार स्थानिक
महाकुंभों जिनमें हरिद्वार, प्रयाग,और उज्जैन शामिल है,
का महत्त्व और आकर्षण भारतीय
जनमानस को हमेशा से प्रभावित करता रहा है |
इसी आकर्षण
से प्रभावित मैंने नासिक कुम्भ का स्नान करने का भी संकल्प ले लिया | मेरी खुशी का ठिकाना न रहा,
जब मेरा साथ निभाने के लिए मेरा बेटा राजेश मुरारका भी तैयार
हो गया | महाकुंभ
स्नान
27 अगस्त को प्रस्तावित था |
सिर्फ चर्चा करने की देर थी |
साथ चलने के लिए पूरा एक काफिला तैयार हो गया,
जिसमें मेरे कुछ रिश्तेदारों के साथ ही कुछ परिचित लोग भी थे
| 27 अगस्त
के
महाकुंभ स्नान के साथ ही निर्णय यह भी किया गया कि सड़क मार्ग से संलग्न अन्य
प्रसिद्ध देव स्थानों तथा
दर्शनीय स्थानों का भी दर्शन करते चलेंगे,
लेकिन हमारा अंतिम लक्ष्य नासिक महाकुंभ के पावन-पर्व पर गोदावरी-जल में डुबकी लगा कर
पुण्य-लाभ करना ही था | नासिक
पौराणिक-काल से महाकुंभ की संरचना के चलते जन-मानस में अपनी
प्रसिद्धि तो बनाये ही है, इसका एक महत्त्व यह भी है कि भगवान राम ने अपने वनवास-काल में इसे
अपना अस्थायी आवास भी बनाया था | कहा यह भी जाता है कि इसी स्थान पर लक्ष्मण ने रावण की बहन
सूर्पनखा को भगवान राम के आदेश पर
नासिका-विहीन किया था | इसका
"नासिक" नाम करण उसी पौराणिक घटना का यथार्थ लिए हुए है | इसके अलावा यहाँ दूर-दूर तक ऐसे स्थल
बिखरे हुए हैं, जो
रामकथा से संदर्भित है | यहाँ
प्रसिद्ध राम कुण्ड है, जिसमें
तीर्थ यात्री न सिर्फ स्नान करते हैं,
बल्कि पितरों की मुक्ति के लिए यहाँ शास्त्रीय
विधि से तर्पण-क्रिया भी की जाती है |
यह नासिक की पहाड़ियों में वह सीता-गुफा
भी है जहाँ से रावण ने सीता का हरण किया था | लगभग 150 ईसवी-पूर्व तक
नासिक देश का एक महत्वपूर्ण
व्यापारिक केन्द्र भी रहा है |
इस दृष्टि से देखा जाय तो इस पौराणिक स्थान ने अपनी
इतिहास-यात्रा में अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं | सन 1636 ई में यह नगर मुगलों के अधीन हो गया और उन्होंने इसका नाम
गुलशनाबाद, यानी
की
पुष्प-वाटिकाओं का शहर रख दिया | मुगलों का दिया गया यह नाम तब तक चलता
रहा जब तक 1818 ई. में इस नगर पर पेशवाओं ने अपना कब्ज़ा नहीं जमा लिया | माना किपेशवाओं का कब्ज़ा
बहुत समय तक टिक नहीं सका और बहुत जल्द इस पर अंग्रेजों का
आधिपत्य हो गया, लेकिन
अंग्रेजों ने इसके मूल नाम में कोई परिवर्तन नहीं किया | अपने इस इतिहास के साथ ही
स्वतंत्रता-पूर्व के क्रांति-पर्व
में भी नासिक की एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है |
इसकी शुरूआत तब हुई जब 21 दिसंबर
1909
को 17 वर्षीय अनंत कान्हरे ने अंग्रेज कलेक्टर की गोली मार कर हत्या
कर दी | 1930 में
इसी
स्थान से बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने कालाराम मंदिर में दलितों के प्रवेश के
साथ ही दलित-आन्दोलन की
शुरूआत की थी | नासिक
की प्रसिद्धि का एक कारण यह भी है कि करेंसी नोट छापने का छापाखाना भी यहीं स्थित है | इसके अलावा अंगूर की खेती के लिए भी
इस क्षेत्र की प्रसिद्धि है और
इसके चलते यहाँ शराब बनाने के कारखानें भी यहाँ बहुतायत मात्रा में है, इस कारण इसे "वाइन-सिटी" भी कह कर पुकारा जाता है |
महाराष्ट्र प्रदेश का यह महत्वपूर्ण शहर जो हजारों वर्षों से
हिन्दू-आस्था का केन्द्र बना हुआ है,
पवित्र नदी गोदावरी के तट पर स्थित है | यह समुद्र-तट से 565
मी. की ऊँचाई पर है | गोदावरी
को भी यहाँ गंगा की
मान्यता प्राप्त है और स्थानीय लोग इसे गंगा कह कर ही पुकारते हैं | गोदावरी का
उदगम नासिक से 38 की.मी. दूर त्रयम्बकेश्वर से
होता है | कहना न होगा कि त्रयम्बकेश्वर
की गणना भी द्वादश ज्योतिर्लिंगों में होती है | अत: कुंभपर्व के अलावा भी
देश-विदेश के
तीर्थ यात्री त्रयम्बकेश्वर
की यात्रा बारहों मास करते रहते हैं | कुंभपर्व का मुख्य स्नान भी त्रयम्बकेश्वर और
नासिक दोनों स्थानों पर होता है | पवित्र नदी गोदावरी का बहाव त्रयम्बकेश्वर से
होता हुआ नासिक शहर के मध्यभाग से होता है | इसके
चलते इस
शहर की सुरम्यता में
और भी वृद्धि हो जाती है | प्रसिद्ध और सुदर्शनीय मंदिरों की उपस्थिति के
चलते, जिनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध, सुंदर नारायण, कपालेश्वर, बालाजी तथा कालाराम और गोराराम मंदिर हैं, नासिक को दक्षिण भारत के वाराणसी होने की
उपाधि दी जाती है और इसी क्रम में गोदावरी को
दक्षिण की
गंगा भी
कहा जाता है | यूँ तो तीर्थ यात्री बारहों
मास इस गोदावरी में आत्म-शुद्धि और पाप-मुक्ति के लिए डुबकी
लगाते ही
रहते हैं लेकिन महाकुंभ
के अवसर पर लाखों-लाख की संख्या में
तीर्थ-यात्रियों की
जो भीड़ यहाँ जुड़ती है, उसमें भारतीय संस्कृति का हर रूप प्रतिभाषित होता है | 2003 के महाकुंभ का
आयोजन 7 अगस्त से प्रारंभ होकर 27 अगस्त को समाप्त होने वाला था |
यात्रा की भूमिका तैयार हो इसके पहले ही मेरे मानस-पटल पर नासिक से संदर्भित सारे तथ्य और सारी वास्तविकताएं
एक-एक कर उभरने लगी थी | हमें यात्रा की शुरुआत सड़क-मार्ग से कार द्वारा करनी थी | 23 अगस्त शनिवार का दिन था और उस दिन एकादशी भी थी | रिमझिम बरसात हो रही थी, इसलिए
मौसम बहुत सुहावना हो गया था | यात्रा की शुरुआत करने के पहले हमने खैरताबाद स्थित हनुमान मंदिर
में दर्शन-पूजन करना उचित समझा | वहाँ यात्रा के लिए
19 लोग जुट गये |
हमारा कारवाँ दर्शन-पूजन के बाद दो क्वालिस और एक माटीज से आगे बढ़ा | आगे हमने तुलजा भवानी का दर्शन करते
हुए आगे
बढ़ना था | जहीराबाद में एक महिला
सहयात्री का पीहर था, उनके आग्रह पर हम लोगों ने कुछ देर तक विश्राम किया | मेजबानों के अतिथि सत्कार ने हम सभी का मन मोह लिया | दोपहर बाद हम
वहाँ से आगे बढे |
रास्ते भर अगल-बगल पसरी हरियाली और मनभावनी बरसाती हवा हमें उत्फुल्लता से सराबोर करती रही | इस यात्रा की सबसे बड़ी खूबी हमें यह अनुभव हो रही थी कि हम
अपने को
एकदम तरोताजा महसूस कर रहे थे |
तुलजा
भवानी के इस मंदिर की भी गणना शक्ति-पीठों में ही
की जाती है | छत्रपति
शिवाजी के बारे में यहाँ एक किंवदंती काफी प्रचलित है कि माता ने प्रसन्न होकर
उन्हें एक तलवार मुग़ल-साम्राज्य के खिलाफ युद्ध करने के लिए भेंट की थी | इस तलवार का नामकरण भी भवानी-तलवार हो
गया था
| मंदिर
के परिसर में पहुँच कर हमारा मन प्रसन्न हो गया |
सर्वत्र भवानी माता का जयकारा
गूँज रहा था और एक दिव्य अलौकिकता पूरे वातावरण में परिव्याप्त थी | मंदिर तक पहुँचने के लिए काफी सीढ़ियाँ नीचे उतर कर जाना था | अलावा इसके चारों तरफ लोहे की जालियाँ लगी हुई थी जिनसे घूमकर जाना पड़ता था | हम ऐसे समय पर मंदिर पहुँचे थे कि माता जी का
दर्शन हमें बिना इंतज़ार किये समय से उपलब्ध हो गया, वर्ना यहाँ दर्शन-पूजन के लिए समय
निर्धारित है | रात के ७ बजे से ९ बजे
तक माता
के विग्रह को केला-दूध से स्नान कराया जाता है | माँ के विग्रह का दर्शन कर हमारा मन किसी
परलोक में विचरण करने लगा | काले पत्थर से तराशी गई माता की मूर्ति कितनी जीवंत प्रतीत
होती
थी, उसका
वर्णन शब्दों में
नहीं किया जा सकता | प्रति
तीसरे साल अधिकमास में एक बार 27 दिन तक माता झूले
पर ही आसीन रहती है और इस दौरान उनका सिर्फ तैलाभिषेक होता है | इस विमल दर्शन के बाद हमने मंदिर की
परिक्रमा की जहाँ अनेक भव्य मूर्तियाँ स्थापित है,
साथ ही
एक काला पत्थर भी पड़ा है | पत्थर काला और गोल है |
मान्यता है कि इस पत्थर पर पैसा रख कर छोड़ने के बाद पत्थर जिस दिशा
में घूमता है, उससे
लोग यह पता करते हैं कि उनकी
मनोकामना सिद्ध होगी या नहीं |
माता का दर्शन करने के बाद यात्री दल वापस लौट आया | हम लोहिया धर्मशाला में कुछ घंटो के लिए
रुके | वर्षा
रानी पीछा छोड़ने को तैयार नहीं थी |
एकादशी होने के कारण कुछ फलहार किया गया और फिर थोड़ा विश्राम | कारवाँ फिर आगे बढ़ा और अहमदनगर पहुँच
कर एक धर्मशाला में हमने रात्रि व्यतीत की |
दूसरे दिन स्नान-ध्यान तथा जलपान करने के बाद हम देवघड के
लिए आगे बढ़े | देवघड पहुँचते मौसम साफ हो गया था | फिर भी उसमें सुहाने पन की खुशबू व्याप्त
थी | यहाँ भगवान दत्तात्रेय का एक अतिप्राचीन मंदिर है | मंदिर पहुँचने के बाद मुझे इस बात का आश्चर्य हुआ कि मंदिर का शिल्प अति भव्य और उच्चकोटि का है, साथ ही मंदिर का परिसर भी बाग़-बगीचों से शोभायमान है, फिर भी एक अजीब किस्म का सन्नाटा चारों ओर पसरा हुआ मिला | दर्शनार्थी यात्रियों
की संख्या भी नगण्य समझ में आई | स्वामी दत्तात्रेय के मंदिर के बगल में एक शिव मंदिर भी स्थित है और
परिसर में एक अज्ञात संत की
प्रतिमा भी
विराजमान है
| स्वामी दत्तात्रेय को भगवान शिव का अवतार माना जाता है और
वाममार्गी साधना के लोग इन्हें अपना
आदि गुरु स्वीकार करते हैं | दर्शन के बाद
हमने यहाँ
थोड़ी देर विश्राम किया और आगे शनि
शिंगनापुर की ओर बढ़ चले |
शनि शिंगनापुर में शनि देवता की मूर्ति स्थापित है | खासियत यह है की मूर्ति के ऊपर किसी
छत का
निर्माण नहीं किया गया है | माना यह जाता है कि मूर्ति को तेल चढाने से शनि-बाधा से
पीड़ित लोगों को राहत
मिलती है और शनि की कृपा से अन्य लोग भी उनके प्रकोप से बच जाते हैं | शनि की मूर्ति काले पत्थर की बनी है | यहाँ तेल चढाने के लिए मूर्ति के
नजदीक सिर्फ मर्द ही जा सकते हैं | स्त्रियाँ
दूर से दर्शन कर सकती है | मैंने भी अपने बेटे राजेश को तेल चढाने के लिए भेज दिया
और स्वयं दूर से विग्रह को प्रणाम कर लिया | यहाँ मुझे काफी भीड़-भाड़ देखने को
मिली और परिसर में काफी चहल-पहल
भी थी | कहने
को तो यह शनि स्थान है लेकिन परिसर में अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी प्रतिष्ठित है | एक आश्चर्यजनक बात मुझे यहाँ यह देखने
में आई कि यहाँ के घर बिना दरवाजे के थे |
शिरडी के रास्ते आगे बढ़ने के पहले एक जगह हमारे दल ने शतरंज
बिछाकर भोजन किया
और कुछ देर तक थकान मिटाने के बाद हम साईबाबा का स्मरण करते हुए आगे बढे |
शिरडी पहुँचते-पहुँचते हमें शाम हो गई और मंदिर परिसर में
प्रवेश करते आकाश में अंधेरा छ गया था |
अत्यधिक भीड़ होने के बावजूद परिसर में एक अलौकिक शान्ति
विराजमान थी | मेरा
स्वयं का ह्रदय एक पवित्र अनुभूति
से परिशांत था और मैं यह समझ रही थी कि यह भी साईबाबा की लीला का ही
प्रसाद था | आश्चर्य की बात यह भी थी कि सभी थकान होने के
बावजूद एक स्फूर्ति का
अनुभव कर
रहे थे
| भीड़
इतनी थी
कि हमें दर्शन पाने के
लिए कम से कम 4-5 घंटे की प्रतीक्षा करनी थी लेकिन यह प्रतीक्षा न कोई उब पैदा कर रही थी और न ही
उकताहट | साईबाबा
का स्मरण और नाम जप करते समय कब बीत गया पता ही नहीं चला और हमें गर्भगृह
में प्रवेश करने की अनुमति मिल गई | संगमरमर की बनी साईबाबा की मूर्ति की भव्यता का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता | एक पाँव पर दूसरा पाँव टिकाये बैठक की अवस्था में मूर्ति करुणा
की प्रतीक समझ में आ रही थी | इस मान्यता के साथ कि साईबाबा
सबकी मनोकामना सिद्ध करते हैं | दल के सभी लोगों ने मन ही मन अपनी चाहत का इजहार उनके चरणों में किया | मैं उनसे कुछ
भी नहीं मांग सकी, सिर्फ अविरल अश्रुपात करते नयनों से एक टक उन्हें निहारती रही | मुझे होश तब
आया जब किसी ने
मुझे टोका | मैं
लौटी तो जरुर लेकिन अपने ह्रदय में साईबाबा की
करुणा-मूर्ति को को सदा-सदा
के लिए स्थापित कर | यहाँ बाबा की धूनी उनके जीवन-काल से निरंतर जलती आई है | भक्त गण धूनी की राख को
प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं | लौटते समय मैंने भी अपने आँचल में थोड़ी भष्म लपेट
ली |
हालांकि रात काफी हो चुकी थी और हमें नींद भी तेजी से आ रही थी, लेकिन हमें हर हाल में शिरडी से
नासिक के रास्ते आगे बढ़ना ही था | कुंभ मेला के कारण इस मार्ग पर
गाड़ियों की आवाजाही भी बहुत ज्यादा थी, अत; हमारे
वाहन तेज गति से चल भी नहीं सकते थे |
रास्ते के अगल-बगल अंधेरे में डूबी वादियों एक भय मन में पैदा कर रही थी | इसी मनोदशा के साथ हम क्रमश; आगे बढ़ते हुए रात एक बजे के बाद नासिक शहर पहुंचे | यहाँ हमें जानकी मंगल
कार्यालय जाना था, जहाँ हमने बहुत पहले अपने
रुकने के लिए एक हाल बुक करवाया था | कार्यालय में हमारा परिचय-पत्र बनाया गया और हम थके-हारे हाल में जाकर सो गये | सुबह उठते ही मैंने फोन लगाकर नासिक स्थित अपने भाई विजय के
फ्लैट का पता पूछ लिया | पता चला कि गौरी-शंकर
मंगल कार्यालय से रामघाट की
दूरी 4-5 कि.मी.है
और उससे थोड़ी ही दूर भाई विजय
का फ्लैट भी है | मैंने
अपने पुत्र राजेश के साथ रामघाट पर स्नान के बाद भाई के फ्लैट पर जाने का फैसला किया |
फ्लैट पर पहुँच कर पता चला कि मेरे और रिश्तेदार भी आये हैं | सबसे मेल-मुलाक़ात
कर बहुत अच्छा लगा | भाभी
ने हमें यहीं रोक लिया | उनके
यहाँ रुकने का एक फायदा
यह हुआ कि उन्होंने साथ लेकर मुझे नासिक के दर्शनीय स्थलों तथा प्रसिद्ध मंदिरों
का दर्शन कराया |
अगस्त का महीना था और बरसात भी खूब हो रही थी तथा गोदावरी का
जल भी सीढ़ियाँ छलांगता जा
रहा था | कुंभ-पर्व
के चलते भीड़-भाड़ भी बहुत अधिक थी और उसी के चलते सुरक्षा-व्यवस्था भी बहुत चाक-चौबंद
थी | भाभी
हमें तपोवन ले गई | वहाँ
पूरा क्षेत्र रोशनी में नहा रहा था,
इतनी सुन्दर
लाइटनिंग की व्यवस्था की गई थी |
यह रोशनी में नहाये हुए एक छोटे से शहर सरीखा लग
रहा था | साधु-संतों और अखाड़ों वालों ने भी अपने शिविर यहीं स्थापित
कर रखे थे | जगह-जगह
भजन-कीर्तन और प्रवचन का दौर चल रहा था और ऐसा लग रहा था कि
यह पूरा क्षेत्र भक्ति-गोदावरी में
डुबकियाँ लगा रहा है | संत-महात्माओं
के दर्शन और कथा-प्रवचन सुनने के लिए लोग हुजूम की शक्ल में आते-जाते दिखाई दे रहे थे | थकान की वजह से मैं तपोवन का पूरा
क्षेत्र नहीं घूम सकी, लेकिन जितना भी घूमना और देखना हुआ उसे जीवन का एक अनमोल
अनुभव समझती हूँ | वहाँ
से हम मुक्तिधाम आ गये |
यहाँ स्थापित देवी-देवताओं की मूर्तियाँ अनुपम उदाहरण थी | कुंभ-स्नान के निमित्त आये लोगों की भीड़ यहाँ
भी यत्र-तत्र बिखरी हुई थी | हम मुक्तिधाम घूमने के बाद सीधे आवास पर आ गये और
खा-पी कर सो गये |
सुबह आँख खुली तो सबसे पहले गोदावरी मैया का दर्शन किया | एक दिन पहले बाँध से काफी जल
छोड़े जाने के कारण जल-स्तर काफी बढ़ गया था, लेकिन आज गोदावरी मैया बहुत शांत
मुद्रा में दिखाई दे रही थी और
जल-स्तर भी सामान्य हो गया था | आकाश में बादल भी नहीं दिखाई दे रहे थे, जिससे
बारिश के भी आसार नजर नहीं आ रहे थे |
इसी क्रम में मैं और राजेश भाभी के साथ गोदावरी स्नान के लिए निकले |
स्नान के लिए यहाँ गोदावरी के तट तीन कुण्ड राम कुण्ड,सीता कुण्ड और लक्ष्मण कुण्ड स्थापित हैं |
किन्तु राम कुण्ड में स्नान का विशेष महत्त्व है | सीता कुण्ड और लक्ष्मण कुण्ड से होता हुआ जल का प्रवाह राम कुण्ड से हो
कर आगे बढ़ता है | हमारा
स्नान बहुत विधिवत और
विमल हुआ
| स्नान
के बाद हमने घाट पर स्थित लगभग सभी मंदिरों में दर्शन-पूजन किया | इन मंदिरों के दर्शन के बाद हम कुछ
दूरी पर स्थित कपालेश्वर महादेव के दर्शन के लिए भी गये | मंदिर जो धार्मिक आस्था के केंद्र हैं, अब चोरों-उच्चकों के अड्डे भी बनते जा
रहें हैं | यह अनुभव मुझे कपालेश्वर मंदिर में हुआ, जहाँ मेरी सोने की चेन एक उच्चके के
हाथ जाते भगवान की कृपा से बच गई | यहाँ से हम कालेराम और गोरेराम के दर्शन
के लिए गये | कालेराम
की मूर्ति काले पत्थर से गढ़ी गई है और
यहाँ राम लक्ष्मण और सीता के साथ ही हनुमान जी का श्री विग्रह भी
स्थापित है
| यहाँ
दर्शनार्थियों की भीड़ बहुत ज्यादा थी,
अत: कतार में खड़े होकर दर्शन करने पड़े | पंचवटी जाने का
बहुत मन था, लेकिन
एक तो इसके पूर्व भी वह स्थान में देख चुकी थी,
दुसरे वहाँ बहुत
भीड़ भी
थी | अतः कालाराम जी का दर्शन करने के बाद कुम्भ-मेले के निमित निकलने
वाली शाही सवारी का दर्शन करने का
मन बना बैठी |
शाही-सवारी निकलने के चलते प्रशासन ने बड़ी चाक-चौबंद व्यवस्था
कर रखी थी | इसको ध्यान में
रख कर अगल-बगल की सड़कों और गलियों से आने वाली भीड़ को पुलिस
ने रोक दिया था | शाही-स्नान के तहत जब अखाड़े वाले स्नान कर वापस चले गये तब बंद रास्तों को खोला
गया | कुंभ की
भीड़ में इस व्यवस्था
के चलते
सबको जड़
बना दिया था | इस क्रम में जो जहाँ था वहीँ
बना रह गया और भीड़ के धक्के में कितनों के संगी-साथी छूट गये, वह गणना
नहीं की
जा सकती | इसी क्रम मैं मेरा भी साथ छूट गया | मेरा मन अपने बेटे राजेश को लेकर व्याकुल हो रहा था | किसी-किसी तरह रामघाट का पुल पार कर मैं फ्लैट पर पहुंची | वहाँ
बेटे को सकुशल उपस्थित देखकर मन को शांति मिली |
मैं इतना
थक कर
चूर हो गयी थी कि सारा शरीर पके फोड़ें सा दर्द कर रहा था | इसी बीच मुंबई में बम-ब्लास्ट होने की खबर मिली | बहुत से लोग मारे गये थे | मेरा मन और दू;खी हो गया | मैं सोच रही थी कि आज का आदमी किस हद तक हैवान हो गया है कि निर्दोष लोगों
का खून
बहाते उसे तनिक भी संकोच नहीं होता | मैंने धर्मशाला में फोन कर अपनी ननद विजयलक्ष्मी काबरा को फ्लैट पर बुला लिया और वह रात हम लोगों ने
प्रभु-भजन में व्यतीत की | थके होने के बावजूद नींद इसलिए नहीं आ रही थी,
क्योंकि
कल प्रात:कुम्भ-स्नान की उत्सुकता मन में बनी हुई थी |
अंततः जिस काल-घडी की उत्सुकता थी,
वह शनै:-शनै: आ ही गई | भाद्रपद
की अमावस्या 27-8-2003
को कुंभ-पर्व का स्नान निर्धारित था और मैं ही नहीं, इसकी प्रतीक्षा नासिक में इकट्ठा हुए लाखों
लोग एक साथ कर रहे थे | मन में उत्सुकता भी थी और प्रफुल्लता
भी थी | मुझे
पद्मपुराण की वे पंक्तियाँ याद आ
रही थी, जिसमें
बताया गया है कि साठ हजार वर्ष तक भागीरथी में स्नान करने से
जो पुण्य मिलाता है वह सिर्फ
एक बार सिंहस्थ बृहस्पति के अवसर ( कुंभ-काल ) पर गोदावरी में
डुबकी लगाने से सहज प्राप्त हो जाता है | मान्यता यह भी है कि
कुंभ-पर्व का
प्रारम्भ भी
नासिक से
हुआ है
| बाहर माइक पर सूचना दी जा रही थी कि १० बजे तक अखाड़ों
का स्नान संपन्न हो जाने के
बाद आम-जनता को स्नान करने छूट दी जायगी | हम सभी लोगों ने
छत पर जाकर कुंभ-स्नान के लिए गाजे-बाजे के साथ जा रहे
अखाड़ों के दर्शन किये | एक
अखाड़ा स्नान कर वापस लोटता था, तो दूसरे अखाड़े
को स्नान करने का मोका दिया जाता था |
अन्तत; अखाड़ों का स्नान समाप्त होने के बाद आम-जनता के लिए रास्ता खोला गया | देखते ही देखते भीड़
इस कदर उमड़ पड़ी जेसे कोई बाँध-टूट गया हो और जल-धरा अपनी उद्दाम-गति में बहने लगी हो |
इसी क्रम
में हमारा भी स्नान समाप्त हुआ |
गोदावरी जल में डबकी लगाते हुए मैं
अपने को परम
महसूस कर रही थी और प्रतीत हो रहा था कि कई जन्मों कि साधना का पुण्य-फल अब जा कर
प्राप्त हुआ है | दूर-दूर तक कुंभ-स्नानार्थियों की भीड़ माता गोदावरी के आँचल में
इस कदर सिमट आयी थी कि सिर्फ लोग ही लोग दिखाई
दे रहे थे,जल
तो कहीं दिखाई ही नहीं दे रहा था |
जैसे-तैसे भीड़ में रास्ता बनाते हम बहार निकले | मंदिर दर्शन और कुछ दान-पुन्य करने के
बाद हम अपने आवास पर आ
गये| यहाँ आने पर एक दु:खद
समाचार यह मिला कि अखाड़ों के स्नान के दौरान हजारों की संख्या में लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी है | यह घटना उस समय हुई जब अखाड़े वाले दर्शनार्थियों
की भीड़
की तरफ चाँदी के सिक्के उछाल रहे थे |
सिक्के-लूटने का लोभ संवरण न कर पाने वाले
हजारों लोग अफरा-तफरी में एक दूसरे को कुचल कर आगे बढ़ जाना चाहते
थे | इसी
क्रम में हजारों लोगों की लाशें बिछ गई | इस दुर्घटना के समाचार ने मन में काफी
क्षोभ उत्पन्न किया | मैं
सोचने लगी
कि जिसे हम धर्म-क्षेत्र समझते हैं वहाँ कोई न कोई कुरुक्षेत्र भी अवश्य बसता है
| आदमी
पाप-पुण्य और धर्म-अधर्म की सारी स्थितियों को समझते हुए भी अपने लोभ और मोह को
संयमित नहीं कर पाता है | अगर ऐसा नहीं होता, तो चंद चाँदी के सिक्के हजारों लोगों
को मृत्यु-द्वार तक ले जाने
के कारण नहीं बनते |
दूसरे दिन हमें घृषनेश्वर महादेव का दर्शन करने औरंगाबाद जाना था | कल की घटना से मन काफी दु;खी हो गया था | अत: गोदावरी-गंगा को प्रणाम कर हमारा काफिला आगे बढ़ा | मौसम काफी सुहावना हो गया था और आकाश साफ़ हो गया
था | यात्रा-पथ
में बिछी हरियाली मनभावन
प्रतीत हो रही थी | इस क्रम में शाम होते हम औरंगाबाद
पहुँच गये | पहुँचने
को हम पहुँच अवश्य
गये लेकिन उस दिन
ज्योतिर्लिंग का दर्शन संभव नहीं हो सका |
दूसरे दिन हमारा काफिला पूरी तैयारी के साथ दर्शन के लिए होटल से
निकला | यहाँ यह बता देना उचित होगा कि घृषनेश्वर
महादेव की गणना भी द्वादश ज्योतिर्लिंगों
में की जाती है और विश्व-प्रसिद्ध एलोरा की गुफायें यहाँ से महज एक की.मी.की दूरी पर है | लाल रेत और पत्थर से बना यह मंदिर भारत की प्राचीन शिल्प कला
का एक अन्यतम उदाहरण है | मंदिर का निर्माण 15 वीं
शताब्दी में राजा कृष्णदेव राय ने कराया था | मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग प्रतिष्ठित है और वहीं बगल में माता पार्वती की संगमरमर
की बनी एक भव्य प्रतिमा भी
प्रतिष्ठित है |
कुंभ-मेले के कारण दर्शनार्थियों की भीड़ यहाँ भी
थी | हमें कतार में खड़े होकर 4-5 घंटे के
बाद मंदिर
में प्रवेश का अवसर मिला, लेकिन मंदिर-प्रवेश के बाद ज्योतिर्लिंग का दर्शन पाकर मैंने अपने को कृतकृत्य समझा और विधिवत पूजा-अभिषेक करने के बाद हम वापस आ
गये |
इस स्थान से एलोरा की गुफायें चूँकि बहुत नजदीक थी;अत: इसी क्रम में उनका भी अवलोकन करने का मन हुआ और हम इसी दिशा में आगे बढ़ गये | होने को यहाँ कुल 34 गुफायें है, लेकिन कुछ समयाभाव और कुछ थकान के कारण हम सभी गुफायें नहीं देख
सके | होने
को तो सभी
गुफाएँ अद्भुत शिल्पकला का उदाहरण प्रस्तुत करती है, लेकिन 16 नंबर की गुफा जिसे "कैलाश" कहा
जाता है,सब में बेजोड़ है | इसकी खूबी यह है कि एक ही बड़ी चट्टान को तराश कर
शिव मंदिर का निर्माण किया गया है
| मंदिर
दो मंजिला है और प्रत्येक मंजिल की लम्बाई 50 मि., चौडाई 35 मी. और ऊँचाई 30 मी. है | गुफा के मध्य में एक विशाल चट्टान को बहुत खूबसूरती से
तराश कर
शिवमंदिर की
भव्य प्रतिकृति
तैयार की गयी है | मंदिर की भव्यता प्राचीन भारत की स्थापत्य-कला का वैभव-विलास दिग्दर्शित करती है | कुछ सीढ़ियाँ ऊपर चढ़ने के बाद मंदिर के दाहिने भाग में चित्रकला का
अप्रतिम उदाहरण देखने को मिला | हजारों साल बीत जाने के बाद भी इन चित्रों की जीवन्तता ज्यों की त्यों बनी है और इनके रंग कहीं भी
धूमिल दिखाई नहीं देते
| लगभग सभी चित्र पौराणिक आस्थाओं हैं |
इनमें अधिकतर में शिव-लीला का वर्णन मिलता है | रावण द्वारा शिवार्चन में पुष्प की जगह शीश अर्पण करना, कैलाश-पर्वत को हिलाने का प्रयास,शिव-पार्वती विवाह,अंधकासुर और त्रिपुरासुर का वध, शिव भगवान का ताण्डव नृत्य तथा पार्वती के साथ कई चित्रों में वर्णित भाव-मुद्राएँ गुफा
के दक्षिणी भाग में उकेरी गई
है | वाम भाग में अर्धनारीश्वर, नटेश्वर, रावण द्वारा शिवलिंग उठाने का प्रयास, नृसिंहावतार, शेषनारायण, गोवर्धन कृष्ण, वामनावतार, गरूडारुढ, विष्णु, कालियामर्दन वाराहावतार,शंख-चक्र, अन्नपूर्णा आदि के
चित्र उकेरे गए हैं | कोई भी
इन चित्रों
को देखकर चमत्कृत हो सकता है जो हमारे पुर्वजों की कला-चेतना का यश अपने भीतर समेटे हुए है | सर्वाधिक प्रभावित
मुझे उस चित्र ने किया जिसमे रावण अपनी दोनों भुजाओं में समेट कर कैलाश-पर्वत को उठाने की चेष्टा कर रहा है और भगवान शिव उसे अपने अंगूठे से दबाये हुए हैं |
एक लंबी यात्रा की थकान ने हमें और
आगे बढ़ने से रोक दिया | अत: मैं वापस लौट आई, इस संकल्प के
साथ कि
अगर ईश्वर ने अवसर दिया तो फिर एक बार एलोरा की यात्रा करूँगी
और सभी कला-कृतियों का
बहुत बारीकी से निरीक्षण करुँगी | यही कुछ सोचकर उस दिन मैं अपने
ठहरने के
स्थान पर वापस लौट आई | दूसरे दिन फिर
औरंगाबाद घूमने
का कार्यक्रम बन गया | यहाँ एक गाइड की भी
सहायता ली गई, जिसने हमे कई
दर्शनीय स्थानों का भ्रमण कराया | औरंगाबाद में यूँ तो दर्शनीय स्थान कई हैं, लेकिन अधिकतर पर्यटक पान चक्की,बीबी का मकबरा, डॉ भीमराव अम्बेडकर
मराठा विश्वविद्यालय, सिद्धार्थ गार्डेन्स, चिड़िया घर और छत्रपति शिवाजी
महाराज संग्रहालय देखना सर्वाधिक पसंद करते हैं | मुझको पान-चक्की ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया | बताया गया कि इस
पान-चक्की में कभी प्रसिद्ध सूफी संत बाबाशाह मुसाफिर की खानका थी |यहाँ एक कमरे में स्मृति-स्वरूप उनके उपयोग कि बहुत सारी वस्तुयें सहेज कर रखी गई है | पान-चक्की में एक भूमिगत जल-मार्ग है | जल-मार्ग शहर श्रोत, शहर से 8 कि.मी.उत्तर एक पहाड़ कि गुफा में है | इसकी खूबी यह है कि इसे मिट्टी के किनारों से इस तरह बाँधा गया है कि जल का प्रवाह तीव्र-गति नहीं पकड़ता |
यह अपने अंतिम सिरे पर
एक हौद में गिरता है, जिसका निर्माण साइफन तरीके से किया गया है | यहाँ पहुँचते-पहुँचते यह एक जल-प्रपात कि शक्ल अख्तियार कर लेता है |
प्रपात
जिस हौद में गिरता है वह मुख्य हौद का
पश्चिमी-कोण है |
इस हौद के ऊपर पत्थर का पहिया बना हुआ है और
नीचे तलहटी में लोहे का पहिया | जिस हौद में पानी गिरता है, उसके ऊपर भी एक तालाब है | एक छोटा सा जलमार्ग इस तालाब से
होकर चक्की के पंखों की ओर जाता है | इसके गिरने के वेग से चक्की का पत्थर
भी वेगवान गति से घूमने लगता है | कहा यह जाता
है कि बहुत पहले इस
चक्की के जरिये फौज और गरीब लोगों के लिए आटा पीसा जाता था |
तालाब के दक्षिण कोण पर एक विशाल-काय वटवृक्ष है, जिसको लोग 600 साल पुराना बताते हैं | यहीं पास में एक खूबसूरत मस्जिद भी
है | मस्जिद
की दीवारों पर जो प्लास्टर किया गया है वह इतना बारीक और चिकना है कि मस्जिद
संगमरमर की
बनी लगने
लगती है
| मस्जिद
के दायरे में कई फव्वारें है जिनका पानी नीचे
बहती खाम नदी में
गिरता है
| मस्जिद
का चबूतरा बहुत बड़ा है और उसके
चारों कोनों पर चार दो मंजिला मीनारें खड़ी है | प्रसिद्ध बीबी का मकबरा भी खाम नदी के किनारे है | इसकी खासियत यह है
कि इसका मुख्य दरवाजा पीतल का बना है,
जिस पर अनार का दाना चबाते
एक तोते की आकृति उकेरी गई है | हैरत इस बात पर हुई कि मस्जिदों में इस्लामिक रवायत
के अनुसार इस तरह की चित्रकारी की मनाही की गई है | देखते-देखते आसमान में घने काले
बादलों का हुजूम उमड़ आया |
हमने बारिश के अंदेशे से अपनी यात्रा को यहीं विराम दे दिया |
दूसरे दिन हमने औरंगाबाद से दौलताबाद की यात्रा की | दौलताबाद सहयार्द्री पर्वत श्रृंखला
के पूर्वी छोर पर है | ऊँची-ऊँची पर्वत-श्रृंखलाओं के दर्शन
हमें रास्ते में ही हो रहे थे |
दौलताबाद का किला अपनी
वेशिष्टय पूर्ण संरचना के कारण काफी प्रसिद्ध है |
इस किले की संरचना को देखने और उसका अध्ययन करने पर्यटक भी आते हैं और शोधार्थी भी | इस किले का वास्तु-शास्त्रीय शिल्प
सचमुच चमत्कृत कर देने
वाला है | चारों
तरफ पहाड़ियों और किले को चारों तरफ से घेरे हुए गहरी खाइयाँ, यह दर्शाती है कि
यह शत्रुओं के लिए कितना दुर्जेय रहा होगा |
किले में प्रवेश का मार्ग भी भूगर्भिय है | इसकी खूबी यह है कि इसका निर्माण
किलों की एक श्रृंखला के रूप में किया गया है | इस श्रृंखला में देवगिरि का किला अपने आप में बेजोड़ माना
जाता है | इतिहास
में कभी प्रतापी यादव
वंश ने अपनी साम्राज्य-स्थापना
की थी और इस अदभुत शिल्प का निर्माण उनकी देख-रेख में हुआ था |
किले के अंदरुनी भाग में बुर्जों की स्थापना की गई है जिस पर
तोपें रखी हुई है | दक्षिण बाजू की दीवार 6 कि.मी. लंबी है और
इसके दरवाजे लोहे के बने हैं | फाटक पर लोहे के नुकीले
तीर हैं जो हाथियों से दरवाजा तोड़ने को असंभव बनाने के लिए लगाये गये होंगे | अद्भुत बात यह है कि किले के भीतर
एक चक्राकार सरोवर है और उसके एक किनारे पर भारत-माता का मंदिर है |
इसके दाहिनी ओर चार ऊँची-ऊँची मीनारें हैं | इसे निजामशाही मीनार कहा जाता है
और इसे भारत की दूसरी सबसे बड़ी मीनार होने का भी गौरव
प्राप्त है, इतना
कुछ देखते-घूमते काफी थकान आ गई थी, अतएव हमें वापस लौटना पड़ा |
पास में ही प्रसिद्ध ओंडानागनाथ का मंदिर है, अत: दूसरे दिन का कार्यक्रम वहीं के
लिए निर्धारित हुआ | हमने यहाँ अभिषेक करवाना उचित समझा, इस कारण एक कर्मकांडी ब्राह्मण को भी
साथ ले लिया | मंदिर में दर्शनार्थियों की काफी भीड़
लगी थी और यहाँ १० रुपये शुल्क के साथ कतार-बद्ध होकर मंदिर में जाना पड़ता है | मंदिर में प्रवेश के पहिले पूरी
परिक्रमा करनी पड़ती है | गर्भगृह
का निर्माण मंदिर की तलहटी में किया गया है | वायु का प्रवेश अवरुद्ध होने के कारण
वहाँ गर्मी भी बहुत ज्यादा
महसूस होती है | नीचे
कूद कर जाना पड़ता है | शिवलिंग
को तांबे के पत्तर से ढका गया
है | अगर
किसी को दूध-दही का अभिषेक करना होता है तो कुछ समय के लिए यह कवच हटा
दिया जाता है |
ओंडानागनाथ का दर्शन और अभिषेक करने के बाद हमारा काफिला
नांदेड की ओर आगे बढ़ा | नांदेड का सचखंड गुरुद्वारा अमृतसर के
स्वर्णमंदिर के बाद दूसरे नंबर की मान्यता रखता है | अत:
हमने यहाँ भी माथा टेकने का मन बनाया |
माथा टेकने के बाद हम बासर पहुँचे और माता
सरस्वती को नमन करने के बाद वापस हैदराबाद आ गये |
सम्पत देवी मुरारका
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
|
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