शनिवार, 27 नवंबर 2021

[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] हिंदी का होना, हिंदी का रोना, हिंदी का ढोना -राहुल देव

 

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हिंदी का होना, हिंदी का रोना, हिंदी का ढोना
-राहुल देव


सितंबर जा रहा है। भारत के केंद्रीय सरकारी विभागों, कार्यालयों, बैंकों, विश्वविद्यालयों में सितंबर एक खास सितम का महीना है। एक संवैधानिक कर्तव्य निभाने की कठिन मजबूरी का महीना है। इस कठिन काल में जय-हिंदी का जाप संवैधानिक मजबूरी का ताप शांत करता है। हिंदी का होना या हिंदी का रोना या हिंदी का ढोना, भीतरी भाव कुछ भी हो अनुष्ठान आवश्यक है।

इस अनुष्ठान के पुरोहित एक ऐसी शासकीय श्रेणी के सदस्य हैं जो शायद ही किसी दूसरे देश के प्रशासन में अस्तित्व रखती हो। ये हैं केंद्र सरकार के लगभग अनगिनत कार्यालयों, निगमों, संस्थानों, सरकारी बैंकों, विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों में काम करने वाले राजभाषा अधिकारी। सरकारी सेवा की भाषा में यह एक संवर्ग है। इनकी कुल संख्या का एक अनुमान नौ से दस हज़ार तक है।  विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के हिंदी विभाग तथा शिक्षक भी राजभाषा अधिकारी न होते हुए भी हिंदी से जुड़े होने के कारण इस पुरोहित वर्ग में आते हैं। सैकड़ों गैर-सरकारी, हिंदी सेवी, साहित्यिक संस्थाएँ हैं जो राजभाषा दिवस के हिंदी दिवस के रूप में मनाती हैं। कुल मिला कर सितंबर में कई हज़ार कार्यक्रम होते हैं।

हिंदी के नाम पर हो या राजभाषा के, अधिकतर उत्सव और समारोह-माह-पखवाड़े-दिवस कवि सम्मेलनों, कवियों-लेखकों से भरे रहते हैं। अधिकांश लोगों के लिए भाषा का मतलब उसका साहित्य और हिंदी का मतलब कविता-कहानी-उपन्यास है। हिंदी लेखकों को भी साहित्य और अपनी रचनाओँ-रचना प्रक्रिया आदि से थोड़ा हट कर जीवन-कर्म-चिंतन-ज्ञान-विज्ञान-व्यवसाय-शिक्षा की भाषा के रूप में हिंदी को देखने-समझने का अभ्यास नहीं है। दूसरे भाषाई समाजों की तुलना में हिंदी समाज में अपनी भाषा को समग्रता में देखने में रुचि और गति पीड़ाजनक रूप से कम है।

हिंदी का यह शोर, समारोह, उत्सव, केंद्रीय गृह मंत्री के भाषण, हिंदी के महत्व, ऐतिहासिक भूमिका आदि पर ऊँची-ऊँची बातें दूसरी भाषाओं के लोगों को चुभती हैं। सामाजिक माध्यमों में आलोचना, टिप्पणियाँ शुरू हो जाते हैं। दक्षिणी राज्यों, विशेषतः तमिल नाडु, कर्नाटक के हिंदी द्वेषी लोग सक्रिय हो जाते हैं। हिंदी लादे जाने के खिलाफ अभियान (स्टॉप हिंदी इंपोज़ीशन) चलने लगते हैं। किसी और भारतीय भाषा को ऐसा सरकारी समर्थन और प्रोत्साहन नहीं मिलता इसलिए अधिकतर हिंदीतर भाषाओँ के लोग जो संविधान, संविधान सभा की बहसों, फैसले और संविधान के भाषा संबंधी अनुच्छेदों (३४३ से ३५१) के अस्तित्व तथा पृष्ठभूमि से परिचित नहीं होते उन्हें यह सब अपनी भाषा की उपेक्षा के रूप में दिखता है, हिंदी को उनकी भाषाओं से ज्यादा शक्तिशाली और वर्चस्वशाली बनाने के प्रयासों के रूप में दिखता है, हिंदी थोपने की केंद्रीय योजना लगता है। युवा पीढ़ी तो संविधान और उसकी ऐतिहासिक राजनीतिक-भाषिक परिस्थितियों, पृष्ठभूमि तथा संदर्भों से बहुत अधिक अपरिचित है। इसलिए इन भाषाओं की युवा पीढ़ी में हिंदी के प्रति तल्ख़ी और विरोध ज्यादा मुखर है।

लेकिन इसके एक उलट धारा भी मौजूद है। वह हिंदी-विरोधी धारा से ज्यादा बड़ी है लेकिन उतनी मुखर नहीं है। दक्षिणी राज्यों में ऐसे युवाओं-छात्रों की संख्या बढ़ रही है जो अपनी आगे की ज़िन्दगी में हिंदी की ज़रूरत महसूस करते हैं, उसे सीखना चाहते हैं। जो भी युवा तमिलनाडु या केरल के बाहर जाकर देश के दूसरे हिस्सों में पढ़ने या काम करने की इच्छा रखता है वह समझता है कि उस स्थिति में हिंदी के बिना काम नहीं चलेगा। दक्षिण भारत राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की कक्षाओं में लगभग चार लाख तमिल हिंदी पढ़ रहे हैं, उसकी परीक्षाएँ दे रहे हैं। तमिल नाडु सरकार और तमिल राजनीतिक दलों का पारंपरिक हिंदी-संस्कृत-उत्तर भारत विरोध तो रस्मी तौर पर कायम है लेकिन समाज, विशेषतः व्यापारी और युवा, द्रविड़ नाडु के पुराने सम्मोहन से आगे निकल आए हैं। वे उच्च शिक्षा और नौकरियों के लिए अंग्रेज़ी की और देश के दूसरे हिस्सों से संपर्क के लिए हिंदी की उपयोगिता समझते हैं। हिंदी फिल्मों, टीवी धारावाहिकों की लोकप्रियता बनी हुई है। बोली के रूप में हिंदी का विस्तार हो रहा है।

लेकिन हिंदीतर प्रदेशों में एक नई प्रवृत्ति भी बढ़ती हुई दिख रही है पढ़े लिखे लोगों का एक वर्ग ऐसा है जो अपने प्रदेश के भीतर जीवन के लिए प्रादेशिक भाषा और बाकी देश और दुनिया से संपर्क के लिए अंग्रेजी को पर्याप्त मानता है,  जिसकी प्रथम भाषा या उच्च शिक्षा और काम की प्रथम भाषा अंग्रेजी हो गई है। अंग्रेजी के वृत्त से बाहर रहने और जीने वाले भारतीयों, निम्न मध्यम और निर्धन-वंचित-अल्पशिक्षित वर्ग से जुड़ने- उसको समझने और उसके साथ किसी सघन सम्बन्ध-संवाद-व्यवहार की कोई ज़रूरत महसूस नहीं होती। इसलिए इन वर्गों से संवाद के लिए उसे किसी दूसरी भारतीय भाषा की जरूरत भी महसूस नहीं होती। ऐसे लोगों के लिए संपर्क भाषा के रूप में भी हिन्दी अब उपयोगी नहीं रही है। कई दशकों से बहुत तेजी से बढ़ रही और अब लगभग अनिवार्य हो चली अंग्रेजी माध्यम शिक्षा ने इस वर्ग की संख्या में जबरदस्त वृद्धि की है। डर यह है कि जैसे-जैसे लगभग सारा देश ही अंग्रेजी माध्यम शिक्षा की ओर बढ़ रहा है, उसे अपना रहा है यह मानसिकता और संवादहीनता भी वैसे-वैसे ही व्यापक होती जाएगी। और जनसामान्य की राष्ट्रीय संपर्क भाषा के रूप में भी हिंदी का दायरा सिकुड़ता जाएगा भले ही अभी यह परिघटना साफ साफ दिख नहीं रही हो।

यही वह अभिजनप्रभुवर्ग है जो मीडिया में, राजनीतिक मंचों पर और सोशल मीडिया पर ‘स्टॉप हिन्दी इंपोजिशन’  अभियान चलाता है। बहुत आक्रामकता के साथ हिन्दी और हिंदी भाषी प्रदेशों पर अशिक्षित, गरीब और पिछड़े होने के आरोप लगाकर उन्हें ख़ारिज करता है। यह मुखर वर्ग हिन्दी और उत्तर के हिंदी वालों पर, भाजपा पर, वर्तमान केंद्र सरकार पर उनकी अपनी भाषाओं को दबाने का आरोप लगाता है। हिन्दी को उपनिवेशवादी भाषा कहता है।

एक हास्यास्पद विडंबना यह है कि इस वर्ग को हिंदी का काल्पनिक उपनिवेशवाद तो दिखता है लेकिन पिछले 100 वर्ष से चलते और बढ़ते जा रहे अंग्रेजी के उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी वर्चस्व से कोई समस्या नहीं होती। ऐसे कई महापुरुष तो अपनी तमिल- कन्नड़- तेलुगू से अंग्रेजी की नजदीकी ज्यादा देखते हैं। हिंदी उन्हें ज्यादा कठिन और पराई लगती है। भाषिक और बौद्धिक औपनिवेशिकता का यह स्पष्ट लक्षण है कि उसे अपरिचित, दूर तथा वर्चस्वशाली पराए अपनों से ज्यादा परिचित और करीबी लगते हैं।

हिंदी दिवस पर जिनके पेट में मरोड़ उठते हैं वे केवल हिंदीतर प्रदेशों के इस अंग्रेजी-अंग्रेजियत भरे उच्चवर्गीय दिमागों तक ही नहीं है हिंदी प्रदेशों में भी एक वर्ग है जो इन उत्सवों से चिढ़ता भले ही उतना खुलकर व्यक्त न करता हो। हिंदी की 50 से ऊपर की सह-भाषाओं के बोलने वालों का एक वर्ग हिंदी पर ऐसी ही एक उपनिवेशवादी भाषा होने और उनकी भाषाओं के विकास को अवरूद्ध करने का आरोप लगाता है। इनमें सबसे प्रमुख है भोजपुरी, राजस्थानी तथा छत्तीसगढ़ी बोलने वालों एक मुखर, महत्वाकांक्षी वर्ग। यह वर्ग कई दशकों से अपनी भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने के प्रयासों में लगा है।

चुनावों के समय इन्हें ऐसे राजनेता और सांसद मिल जाते हैं जो इन आकांक्षाओं को संसद और विधानसभाओं में स्वर देते हैं। हर बार केंद्र सरकार के कुछ मंत्री, मुख्यतः गृहमंत्री, संसद में आश्वासन देते हैं कि इन भाषाओं के दावे पर सरकार सहानुभूतिपूर्वक विचार कर रखी है, उनकी उपेक्षा नहीं की जाएगी। दो तीन बार तो तत्कालीन गृह मंत्रियों ने सदन में इन भाषाओं को अनुसूची में शामिल करने का ठोस आश्वासन भी दिया है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि तमाम आश्वासनों के बावजूद इन्हें सूची में शामिल करने के लिए किसी भी सरकार ने कोई गंभीर कदम नहीं उठाए हैं।

कारण स्पष्ट है, और उचित है। आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने की इन भाषाओं की अपनी आंतरिक योग्यताओं और पात्रताओँ को छोड़ भी दें तो भी एक ही बात इस कारण को स्पष्ट कर देती है। देश के लगभग हर हिस्से से ३८-४० भाषाओं को अनुसूची में शामिल किए जाने के  मांग पत्र गृहमंत्रालय की फ़ाइलों में दर्ज हैं।

भाषा एक बहुत भावनात्मक और संवेदनशील मुद्दा है। यह एक सार्वभौमिक तथ्य है। एक बहुत गहरे स्तर पर भाषा एक व्यक्ति या वर्ग की पहचान, आत्म-बोध तथा संस्कृति से जुड़ी होती है।  सारी सरकारे ये समझती आई है कि इतने सारे दावों में से कुछ को मान लेना और कुछ को छोड़ देना एक बर्र के छत्ते में हाथ डालने जैसा काम होगा। इससे विभिन्न भाषाओं में आपस में ही संघर्ष शुरू हो जाएँगे। देश की एकता और अखंडता को चुनौती देने वाली शक्तियां और समस्याएँ देश के विभिन्न हिस्सों में पहले ही सक्रिय हैं। उनमें अगर भाषाओं की आपसी लड़ाईयां भी शामिल हो गईं तो समाज में इतने तनाव और पारस्परिक विरोधी आंदोलन शुरू हो जाएंगे कि संभालना कठिन होगा। 60 के दशक में देश भाषाई विद्वेष को हिंसक आंदोलनों में बदलते कई बार देख चुका है। कई बार भाषाएँ पहचान की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति के रूप में अलगाववाद को भड़काने में का भी माध्यम बनाई जा चुकी हैं। तमिल अलगाववाद इसका सबसे प्रमुख उदाहरण है। इन बातों को देखते हुए फिलहाल ऐसी कोई संभावना दूर-दूर तक नहीं दिखती कि देशहित की इच्छुक कोई भी सरकार कुछ नई भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल करके नए भाषाई तनावों और आंदोलनों को हवा देगी।

लगभग हर बड़ी बात की तरह भारतीय भाषाओँ का सवाल भी विडंबनाओँ, विरोधाभासों और जटिलताओँ से भरा हुआ है। एक ओर  प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद से शिक्षा मंत्रालय तथा अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद इंजीनियरिंग के उच्च शिक्षा संस्थानों- आईआईटी, एनआईटी तथा निजी संस्थानों में भारतीय भाषाओं में इंजीनियरिंग की शिक्षा शुरू करने की तैयारियों में गंभीरता से लगे हैं दूसरी ओर राज्य सरकारें प्राथमिक ही नहीं माध्यमिक और उच्च शिक्षा में भी अपनी अपनी प्रादेशिक भाषाओं को हटाकर अंग्रेजी को अनिवार्य माध्यम भाषा बनाने की ओर बढ़ रही हैं। जगन रेड्डी की आंध्र प्रदेश सरकार ने नीचे से ऊपर तक समूची शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम को अनिवार्य बना दिया है तेलुगू वहाँ अब केवल एक विषय के रूप में पढ़ाई जाएगी। यह कदम तेलुगू भाषा के दूरगामी भविष्य के लिए मृत्युदंड सिद्ध होगा लेकिन अंग्रेजी के मोह में अंधी हुई सरकार और नागरिको-अभिभावकों किसी को भी न तो यह दिखता है और न तेलुगू के लुप्त होने से होने वाली सांस्कृतिक-सामाजिक अपूरणीय क्षति की कोई चिन्ता और समझ उनमें दिखाई देती है।

लेकिन आंध्रप्रदेश पहला जरूर है अंतिम नहीं रहेगा। लगभग सभी राज्य सरकारे इसी दिशा में बढ़ रही हैं। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि के शिक्षा विभाग अपने यहाँ सैकड़ों की संख्या में आदर्श मॉडल स्कूल बनाने की घोषणा कर चुके हैं। ये मॉडल सरकारी स्कूल सभी आधुनिक संसाधनों, सुविधाओं और तकनीक से संपन्न होंगे। इनमें शिक्षा का माध्यम केवल अंग्रेजी होगी। जिन प्रदेशों में अच्छी हिंदी सिखाने वाले शिक्षकों का ही जबरदस्त अभाव है वहाँ इतनी बड़ी संख्या में अच्छी अंग्रेजी सिखाने में सक्षम शिक्षक कहाँ से आयेंगे इस व्यावहारिक समस्या को छोड़ भी दें तो यह बात समझ से परे है कि ये सरकारें अपने ही भाषा माध्यम विद्यालयों और शिक्षकों को स्वयं घटिया और अनुत्कृष्ट सिद्ध कर करने पर तुली हैं। जब हर जिले में एक मॉडल विद्यालय होगा तब कौन अभिभावक अपने बच्चों को उन पुराने सुविधा-संसाधनहीन, जीर्ण सरकारी स्कूलों में भेजना चाहेगा जहाँ प्रदेश भाषा माध्यम भाषा है?

अब तक भारत में शैक्षिक असमानता सरकारी और निजी शिक्षा की थी, आर्थिक थी, अब सरकारी शिक्षा व्यवस्था के भीतर ही भाषा-आधारित असमानता को स्थापित किया जा रहा है।

इन सरकारों के शिक्षा विभागों में बैठे अधिकारी-शिक्षाविद इस  सार्वभौमिक, सर्व-स्वीकृत तथ्य से अनभिज्ञ नहीं हो सकते कि बच्चों के आरंभिक संवेगात्मक-ज्ञानात्मक विकास के लिए मातृभाषा ही सर्वश्रेष्ठ माध्यम है। एक बच्चे को अपने घर की भाषा के माहौल से एक घोर पराई, अपरिचित भाषा के माहौल में भेजना उसके मानसिक विकास के साथ घोर हिंसा करता है, उसे कुंठित करता है। वे यह भी समझते होंगे कि अपनी मातृभाषा माध्यम में पड़ा हुआ बच्चा दूसरी भाषाओं और विषयों को बेहतर ग्रहण करता है, उसका अधिगम बेहतर होता है। लेकिन सब जगह अंग्रेजी शिक्षा की विराट मांग के दबाव के चलते और शिक्षा मंत्रियों, विधायकों, सासंदों और नेताओं की शैक्षिक समझ के उथलेपन के कारण अंग्रेजी माध्यम शिक्षा की यह महामारी बढ़ते-बढ़ते असाध्य होती जा रही है।

हिंदी या राजभाषा दिवस को अगर भारतीय भाषा दिवस बना दिया जाए तो केवल हिंदी वालों का ही नहीं सभी २२ प्रमुख भाषाओं की वर्तमान स्थिति, चुनौतियों और आसन्न साझे संकट पर पूरे देश का ध्यान केंद्रित किया जा सकता है। आठवीं अनुसूची से बाहर की सैकड़ों भाषाओं को भी इस राष्ट्रीय विमर्श और चिंता में शामिल किया जा सकता है। अंग्रेज़ी की उपयोगिता-आवश्यकता को बनाए रखते हुए भारतीय भाषाओं की वृहत्तर भूमिका को लोगों के दिलों-दिमागों में पुनर्प्रतिष्ठित किया जा सकता है। भारतीय देशज प्रतिभा की मौलिक सृजनशीलता को अंग्रेज़ी की दासता से मुक्त करके सच्चे भारतीय पुनर्जागरण को संभव बनाया जा सकता है।

राहुल देव
२९ सितंबर, २०२१

वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई

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[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] ई-श्रम register.eshram.gov.in के नाम पर गरीबों, मजदूरों पर अंग्रेजी क्यों थोपी जा रही है ? झिलमिल मे - वैश्विक हिंदी सम्मेलन के संरक्षक बनने पर श्री सुंदर बोथरा जी को हार्दिक बधाई

 

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ई-श्रम register.eshram.gov.in के नाम पर
गरीबों, मजदूरों पर अंग्रेजी क्यों थोपी जा रही है,
ऑनलाइन आवेदन केवल अंग्रेजी में क्यों?


महोदय,
सरकार के श्रम और रोजगार मंत्रालय ने हाल ही में असंगठित क्षेत्र के मजदूर, लोक कलाकारों, फेरीवालों की शिकायतों के समाधान के लिए वेब पोर्टल https://gms.eshram.gov.in/gmsportal/#/portal/Home  बनवाया है, इस पोर्टल पर वही मजदूर शिकायत कर सकता है जिसे अंग्रेजों की अंग्रेजी का ज्ञान हो,  ऑनलाइन फॉर्म-सूचनाएँ व ओटीपी व ईमेल अलर्ट की सुविधा केवल अंग्रेजी भाषा में है। इस वेब पोर्टल पर उपलब्ध शिकायत फार्म को ऐसा कोई भी आम आदमी नहीं भर सकता है जिसे अंग्रेजी भाषा का ज्ञान न हो। क्या मंत्रालय के अधिकारी बताने का कष्ट करेंगे कि देश के किस कोने के मजदूर अंग्रेजी में कामकाज करते हैं जो ऑनलाइन सेवाओं के नाम पर पूरे देश के 99.99 प्रतिशत मजदूरों पर सिर्फ अंग्रेजी थोप रहे हैं?

यह पोर्टल केवल अंग्रेजी में इसलिए बनाया गया है ताकि अंग्रेजी न जानने वाले देश के मजबूर मजदूर नागरिक अपनी शिकायत ही दर्ज न कर सकें। वेबसाइट पर हिन्दी भाषा में शिकायत दर्ज कराने पर खुली रोक है, लिखा है कि शिकायत फार्म में केवल अंग्रेजी के अल्फाबेट ही लिखे जा सकते हैं।

आपसे विनती है कि केवल चिट्ठी को उन तक भेजने तक सीमित न रहें बल्कि ठोस कार्यवाही करें ताकि ई-श्रम के शिकायत पोर्टल को  राजभाषा हिन्दी व भारत की सभी भाषाओं में शुरू किया जाए, लोगों के पोर्टल पर उपलब्ध फार्म को अपनी चुनी भाषा में भरने का विकल्प दिया जाए ताकि किसी भी नागरिक के साथ अंग्रेजी  के आधार पर भेदभाव न हो

भवदीय,
अभिषेक कुमार
घर संख्या १०८,मुख्य सड़क, ग्राम सुल्तानगंज 
तहसील बेगमगंज, जिला रायसेन , मध्य प्रदेश पिन ४६४५७०
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वैश्विक हिंदी सम्मेलन के संरक्षक बनने पर समाजसेवी व जनता की आवाज फाउंडेशन के अध्यक्ष
श्री सुंदर बोथरा जी को हार्दिक बधाई। 

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श्रीमान मोतीलाल गुप्ता जी सादर प्रणाम,
सादर प्रणाम  🇮🇳

पत्र दिनांक १८.११.२०२१ मिला , पढ़कर प्रसन्नता और गौरव का अहसास हुआ  कि वैश्विक हिन्दी सम्मेलन (पंजीकृत) ने मुझे एक महान संस्था के कार्य करने में सहभागी बनने का मौका दिया 
इसके ई-मेल के माध्यम से में इसके लिए सहमति देता हूँ और मेरी पूरी कोशिश रहेगी कि इस संस्थान के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकें।   
धन्यवाद 
जय भारत 🇮🇳 
सुन्दर बोथरा 
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मा.  सुन्दर बोथरा जी,
                            नमस्कार।
हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं के प्रयोग को बढ़ाने  इसके व प्रचार के अभियान के लिए कृतसंकल्प 'वैश्विक हिन्दी सम्मेलन' के संरक्षक के रूप में  दायित्व हेतु अपनी स्वीकृति देने के लिए हम आपके आभारी हैं। आशा है कि आपके संरक्षण व मार्गदर्शन में संस्था का अभियान विश्व पटल पर और अधिक तेजी से बढ़ेगा। 
                                                        सादर !
डॉ. मोतीलाल गुप्ता
निदेशक
वैश्विक हिंदी सम्मेलन।
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शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

विश्व वात्सल्य मंच ने बुनकरों के लिए भेंट की सहायता राशि - डेली हिन्दी मिलाप - समाचार कतरन


 

प्रस्तुति : संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)

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विश्व वात्सल्य मंच ने निर्धन बुनकरों को भेंट की खाद्य सामग्री - सवतंत्र वार्ता - समाचार कतरन


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विश्व वात्सल्य मंच का दीपावली स्नेह मिलन अन्नकूट प्रसाद एवं ललिता सहस्त्रनाम पाठ संपन्न - डेली हिंदी मिलाप - समाचार कतरन


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विश्व वात्सल्य मंच ने मनाया दीपाव्वाली स्नेह मिलन - स्वतंत्र वार्ता - समाचार कतरन


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गुरुवार, 25 नवंबर 2021

विश्व वात्सल्य मंच का दीपावली स्नेह मिलन, अन्नकूट प्रसाद एवं ललिता सहस्त्रनाम पाठ संपन्न








 

विश्व वात्सल्य मंच का दीपावली स्नेह मिलन, अन्नकूट प्रसाद एवं ललिता सहस्त्रनाम पाठ संपन्न

विश्व वात्सल्य मंच, हैदराबाद, के तत्वावधान में दीपावली स्नेह मिलन, अन्नकूट प्रसाद और ललिता सहस्त्रनाम पाठ का कार्यक्रम कोषाध्यक्ष सीता अग्रवाल के सैनिकपुरी स्थित निवास स्थान पर आयोजित किया गया। 

      आज यहां जारी प्रेस विज्ञप्ति में संस्था की संस्थापक अध्यक्षा श्रीमती संपत देवी मुरारका एवं प्रधान सचिव राजेश मुरारका ने बताया कि कार्यक्रम का शुभारंभ दीप प्रज्ज्वलन  से किया गया । तत्पश्चात ललिता सहस्त्रनाम का पाठ सामूहिक रूप से किया गया । सभी सदस्यों ने शुद्ध घी का दीप जला कर सामूहिक आरती की । सीता अग्रवाल ने सदस्यों का स्वागत करते हुए दीपावली की शुभकामनाएं दी । 

    इस अवसर पर संस्था की उपाध्यक्षा एम. दीपिका, सीता अग्रवाल, श्रीमती संपत देवी मुरारका, राजेश मुरारका, सह कोषाध्यक्ष प्रतिभा, मीडिया प्रभारी जयालक्ष्मी बोज्जा, सदस्या बबीता, माधवी, स्नेहलता प्रसाद, सपना खन्ना, सुनीता, भारती, काम्या, श्यामला, पद्मिनी, सत्यवानी एवं अनुपमा ने दीपावली की शुभकामनाओं को आदान प्रदान किया । सभी सदस्यों ने अन्नकूट प्रसाद ग्रहण किया । आयोजक सीता अग्रवाल एवं एम. दीपिका ने सभी का आभार व्यक्त किया ।

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सोमवार, 22 नवंबर 2021

Fwd: [वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] एक राष्ट्र - एक नाम, भारत अपनाएँ, इंडिया हटाएँ। ई-संगोष्ठी 23-10-21 शनिवार शाम 4.30 बजे से

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भा अपनाएँ, इंडिया हटाएँ।
'एक राष्ट्र : एक नाम' विषय पर संगोष्ठी आयोजित।

"भारत दो हिस्सों में बंटा हुआ है। एक हिस्से का नाम इंडिया है और दूसरे का नाम है, भारत। इंडिया में वे लोग रहते हैं जो संपन्न और स्वयं को भद्र कहते हैं जबकि भारत में शेष वे सौ करोड़ लोग रहते हैं जो गुलाम बने हुए हैं। इंडिया की इस वर्ग की शासक वाली मानसिकता को हटाने के लिए इंडिया शब्द को हटाना भी आवश्यक है।" यह बात वरिष्ठ पत्रकार एवं भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष डॉ. वेद प्रताप वैदिक ने   "एक राष्ट्र एक भाषा: भारत अपनाएं, इंडिया हटाएँ।" विषय पर आयोजित वैश्विक ई-संगोष्ठी में मुख्य अतिथि पद से बोलते हुए कहे।
ज़ूम पर वैश्विक ई - संगोष्ठी का आयोजन भारत, भारतीयता और भारत के सशक्तिकरण के लिए कार्यरत 'जनता की आवाज फ़ाउन्डेशन ' और देश विदेश में हिंदी को भारतीय भाषाओं के प्रचार प्रसार के लिए कार्यरत सुप्रसिद्ध संस्था 'वैश्विक हिंदी सम्मेलन'  के संयुक्त तत्वाधान में किया गया था।

अतिथियों व वक्ताओं के स्वागत के पश्चात अभियान गीत प्रस्तुत किया गया और फिर 'जनता की आवाज फाउंडेशन' के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कानबिहारी अग्रवाल द्वारा  संस्था के उद्देश्य और "भारत अपनाएं, इंडिया हटाएँ" अभियान की जानकारी प्रस्तुत की गई । "वैश्विक हिंदी सम्मेलन" के निदेशक तथा 'जनता की आवाज फाउंडेशन' के राष्ट्रीय मंत्री डॉ मोतीलाल गुप्ता ने विभिन्न युगों एवं कालखंडों में हमारे ऐतिहासिक, धार्मिक और आध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित हमारे देश का नाम भारत होने संबंधी अनेक दृष्टांत प्रस्तुत किए।

संगोष्ठी में सर्वप्रथम दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर निरंजन कुमार ने कहा कि औपनिवेशिक दबाव के कारण स्वतंत्रता के समय भारत के नाम में इंडिया शब्द को जोड़ दिया गया और इसी प्रकार हिंदी को राजभाषा बनाए जाने के बावजूद उसमें अंग्रेजी को जोड़ दिया गया। उन्होंने कहा कि अब इसे जन -अभियान और  जन-दबाव के माध्यम से बदले जाने की आवश्यकता है। 

ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न शहर से इस संगोष्ठी में जुड़े वहां के विश्वविद्यालय के शोधकर्ता इंजीनियर एवं प्रबंधन के विभागाध्यक्ष डॉ. सुभाष शर्मा ने इंडिया शब्द को हटाने और केवल भारत नाम को ही रखे जाने का पुरजोर समर्थन करते हुए कहा, 'किसी भी देश का नाम उसकी पहचान होती है और वह बहुत ही महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि दासता की मानसिकता के चलते भारत के नाम के साथ इंडिया को जोड़ना दुर्भाग्यपूर्ण था। विभिन्न देशों के नाम बदले जाते रहे हैं। इसलिए हमें अपने देश के नाम से भी इंडिया शब्द को शीघ्र हटाना होगा।'  विभिन्न आध्यात्मिक' धार्मिक ग्रंथों के उदाहरण देते हुए अमेरिका में रह रही भारतीय आर्ष ग्रंथों सुप्रसिद्ध हिंदी काव्य रूपांतरकार डॉ मृदुल कीर्ति ने कहा कि यदि भारत के लोगों में भारतीयता की तड़प पैदा हो जाए तो कल ही इंडिया नाम को हटाया जा सकता है इसके लिए उन्होंने अमेरिका से हर संभव सहयोग की बात भी कही। 

नीदरलैंड से जुड़ी 'इंटरनेशनल नॉन वायलेंस एंड पीस एकेडमी' की अध्यक्ष प्रो. पुष्पिता अवस्थी ने कहा, ' हमारी ऋषि परंपरा और आध्यात्मिक परंपरा से हम सबका जेनेटिक कोड भारत का है; लेकिन हम अपनी डीएनए के विपरीत पाश्चात्य दृष्टि से विकास करने में लगे हैं, जिसके कारण हम  विकास में पिछड़ रहे हैं । पाश्चात्य शिक्षा के कारण हमारी नई पीढ़ियां भारत के बजाय इंडिया बनने के प्रयास में लगी हैं। हमें अपने डीएनए को पहचानना है तो इंडिया नाम को हटाना होगा।'  

 मॉरीशस से वैश्विक ई-संगोष्ठी में उपस्थित वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार राज हिरामन ने कहा, आपको नाम के साथ साथ बहुत कुछ बदलना पड़ेगा। भारतवासियों ने मैंकॉले को ओढ़ लिया है और अपने गुरुकुल भी बंद कर दिए। भारत के लोग भारत बनाने के बजाय इंडिया बनाने में लगे हैं।' उन्होंने कहा , 'हमारे देश में तो कोई इंडिया नहीं कहता; हम तो भारत को भारत ही कहते हैं। यह तो भारत वालों को सोचना है कि वे अपने को पहचानें और इंडिया शब्द को हटाएँ।

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के प्रोफे़सर और 'भारतीय भाषा मंच' के अध्यक्ष प्रो. वृषभ जैन ने कहा कि हमारे देश का नाम हजारों वर्ष से भारत है । अब कुछ वर्ष पूर्व इसमें इंडिया जोड़ने का मतलब यह है कि हम हजारों वर्ष के ज्ञान-विज्ञान, धर्म- आध्यात्म और संस्कृति को नकार रहे हैं। इसलिए हमें भारत नाम के साथ ही आगे बढ़ना होगा।

संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे 'जनता की आवाज फाउंडेशन' के अध्यक्ष सुंदर बोथरा जी ने कहा कि हम भारत के वास्तविक नाम 'भारत' को स्थापित करने और इंडिया नाम को हटाने के लिए देशभर में मोतियों की माला की तरह सभी को परस्पर जोड़ते हुए इस अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं। उन्होंने कहा कि हमें नहीं भुलना चाहिए कि भारत नाम भी हमारे संविधान में है इसलिए इसके प्रयोग में कोई रुकावट नहीं है। इसलिए हमें भारत नाम का हर स्तर पर अधिक से अधिक प्रयोग करना चाहिए । उन्होंने आगे बताया कि इस कार्य लिए हम उद्योग और व्यापार जगत को भी  सम्पर्क कर जागृत कर रहे हैं।

इस कार्यक्रम में भार्गव मित्रा, गृह मंत्रालय, विपिन गुप्ता-राष्ट्रीय सलाहकार, शंकर असकंदानी- राष्ट्रीय समन्वयक, इन्द्र चन्द बैद- राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, रितेश पोरवाल- राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष, राजेश महेश्वरी-राष्ट्रीय सचिव, राजेंद्र बरडीया-सूरत, उपाध्यक्ष , कंवरलाल डागा, डाँ. राजीव कुमार अग्रवाल, आनंद खेमका, सुरेन्द्र सुराणा, दिलीप काठेंड, रविन्द्र डब्बास ,राजपाल राजपुरोहित आदि अनेक गणमान्य उपस्थित रहे।

कार्यक्रम का संचालन 'वैश्विक हिंदी सम्मेलन' के अध्यक्ष डॉ. मोतीलाल गुप्ता 'आदित्य' ने किया और धन्यवाद ज्ञापन 'जनता की आवाज फाउंडेशन' के राष्ट्रीय महासचिव श्री कृष्ण कुमार नरेडा ने प्रस्तुत किया।

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हिंदी के विश्वदूत : डॉ. सुभाष शर्मा


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डॉ. मोतीलाल गुप्ता 'आदित्य'

वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई

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प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारकाविश्व वात्सल्य मंच

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हैदराबाद

मो.: 09703982136