शुक्रवार, 31 जुलाई 2020
[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] प्रेमचंद का भाषा चिन्तन : सुझावों की नोटिस नहीं ली गई.प्रो. अमरनाथ। झिलमिल में - प्रेमचंद साहित्य के शीर्षस्थ विद्वान प्रो. कमल किशोर गोयनका की दो पुस्तकें। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में गोस्वामी तुलसीदास जयंती पर आयोजित गोष्ठी
हिन्दी के योद्धा : जिनका आज जन्मदिन है- 9प्रेमचंद का भाषा चिन्तन : सुझावों की नोटिस नहीं ली गई.
प्रो. अमरनाथ
आज भी प्रेमचंद (31.7.1880-8.10.1936) सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले हिन्दी के लेखकों में हैं. बड़े-बड़े विद्वानों के निजी पुस्तकालयों से लेकर रेलवे स्टेशनों के बुक स्टाल तक प्रेमचंद की किताबें मिल जाती है. प्रेमचंद की इस लोकप्रियता का एक कारण उनकी सहज सरल भाषा भी है. किन्तु मुझे यह देखकर आश्चर्य होता है कि जहाँ विभिन्न विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थाओं की ओर से प्रेमचंद के साहित्य पर अनेक संगोष्ठियाँ आयोजित होती रहती हैं वहीं उनके भाषा चिन्तन पर कहीं किसी संगोष्ठी के आयोजन की खबर सुनने में नहीं आती।आज भी कहा जा सकता है कि इस देश की राष्ट्रभाषा के आदर्श रूप का सर्वोत्तम उदाहरण प्रेमचंद की भाषा है. प्रेमचंद का भाषा- चिन्तन जितना तार्किक और पुष्ट है उतना किसी भी भारतीय लेखक का नहीं है. ‘साहित्य का उद्देश्य’ नाम की उनकी पुस्तक में भाषा- केन्द्रित उनके चार लेख संकलित हैं जिनमें भाषा संबंधी सारे सवालों के जवाब मिल जाते हैं. इन चारो लेखों के शीर्षक है, ‘राष्ट्रभाषा हिन्दी और उसकी समस्याएं’, ‘कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार’, ‘हिन्दी –उर्दू की एकता’ तथा ‘उर्दू, हिन्दी और हिन्दुस्तानी’. ‘कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार’ शीर्षक निबंध वास्तव में बम्बई में सम्पन्न राष्ट्रभाषा सम्मेलन में स्वगताध्यक्ष की हैसियत से 27 अक्टूबर 1934 को दिया गया उनका व्याख्यान है. इसमें वे लिखते है, “ समाज की बुनियाद भाषा है. भाषा के बगैर किसी समाज का खयाल भी नहीं किया जा सकता. किसी स्थान की जलवायु, उसके नदी और पहाड़, उसकी सर्दी और गर्मी और अन्य मौसमी हालातें, सब मिल-जुलकर वहां के जीवों में एक विशेष आत्मा का विकास करती हैं, जो प्राणियों की शक्ल-सूरत, व्यवहार, विचार और स्वभाव पर अपनी छाप लगा देती हैं और अपने को व्यक्त करने के लिए एक विशेष भाषा या बोली का निर्माण करती हैं. इस तरह हमारी भाषा का सीधा संबंध हमारी आत्मा से हैं. …….. मनुष्य में मेल- मिलाप के जितने साधन हैं उनमें सबसे मजबूत असर डालने वाला रिश्ता भाषा का है. राजनीतिक, व्यापारिक या धार्मिक नाते जल्द या देर में कमजोर पड़ सकते हैं और अक्सर बदल जाते हैं. लेकिन भाषा का रिश्ता समय की, और दूसरी विखरने वाली शक्तियों की परवाह नहीं करता और इस तरह से अमर हो जाता है. ( साहित्य का उद्देश्य, पृष्ठ-118)पिछले कुछ वर्षों से बोली और भाषा के रिश्ते को लेकर बहुत बाद-विवाद चल रहा है. भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी आदि कुछ हिन्दी की बोलियां हिन्दी परिवार से अलग होकर संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने की माँग कर रही हैं. इस संबंध को लेकर प्रेमचंद लिखते हैं, “जैसे जैसे सभ्यता का विकास होता जाता है, यह स्थानीय भाषाएं किसी सूबे की भाषा में जा मिलती हैं और सूबे की भाषा एक सार्वदेशिक भाषा का अंग बन जाती हैं. हिन्दी ही में ब्रजभाषा, बुन्देलखंडी, अवधी, मैथिल, भोजपुरी आदि भिन्न- भिन्न शाखाएं हैं, लेकिन जैसे छोटी- छोटी धाराओं के मिल जाने से एक बड़ा दरिया बन जाता है, जिसमें मिलकर नदियाँ अपने को खो देती हैं, उसी तरह ये सभी प्रान्तीय भाषाएं हिन्दी की मातहत हो गयी हैं और आज उत्तर भारत का एक देहाती भी हिन्दी समझता है और अवसर पड़ने पर बोलता है. लेकिन हमारे मुल्की फैलाव के साथ हमें एक ऐसी भाषा की जरूरत पड़ गयी है जो सारे हिन्दुस्तान में समझी और बोली जाय, जिसे हम हिन्दी या गुजराती या मराठी या उर्दू न कहकर हिन्दुस्तानी भाषा कह सकें, जैसे हर एक अंग्रेज या जर्मन या फ्रांसीसी फ्रेंच या जर्मन या अंग्रेजी भाषा बोलता और समझता है. हम सूबे की भाषाओं के विरोधी नहीं हैं. आप उनमें जितनी उन्नति कर सकें करें. लेकिन एक कौमी भाषा का मरकजी सहारा लिए बगैर एक राष्ट्र की जड़ कभी मजबूत नहीं हो सकती. “ ( वही, पृष्ठ-121)प्रेमचंद चिन्ता व्यक्त करते हैं, “अंग्रेजी राजनीति का, व्यापार का, साम्राज्यवाद का हमारे ऊपर जैसा आतंक है, उससे कहीं ज्यादा अंग्रेजी भाषा का है. अंग्रेजी राजनीति से, व्यापार से, साम्राज्यवाद से तो आप बगावत करते हैं लेकिन अंग्रेजी भाषा को आप गुलामी के तौक की तरह गर्दन में डाले हुए हैं. अंग्रेजी राज्य की जगह आप स्वराज्य चाहते हैं. उनके व्यापार की जगह अपना व्यापार चाहते हैं, लेकिन अंग्रेजी भाषा का सिक्का हमारे दिलों पर बैठ गया है. उसके बगैर हमारा पढ़ा- लिखा समाज अनाथ हो जाएगा. “( वही, पृष्ठ-121) प्रेमचंद अंग्रेजी जानने वालों और अंग्रेजी न जानने वालों के बीच स्तर-भेद का तार्किक विवेचन करते हुए कहते हैं, “ पुराने समय में आर्य और अनार्य का भेद था, आज अंग्रेजीदाँ और गैर-अंग्रेजीदाँ का भेद है. अंग्रेजीदाँ आर्य हैं. उसके हाथ में अपने स्वामियों की कृपादृष्टि की बदौलत कुछ अख्तियार है, रोब है, सम्मान है. गैर-अंग्रेजीदाँ अनार्य हैं और उसका काम केवल आर्यों की सेवा- टहल करना है और उसके भोग- विलास और भोजन के लिए सामग्री जुटाना है. यह आर्यवाद बड़ी तेजी से बढ़ रहा है, दिन दूना रात चौगुना........ हिन्दुस्तानी साहबों की अपनी विरादरी हो गयी है, उनका रहन- सहन, चाल- ढाल, पहनावा, बर्ताव सब साधारण जनता से अलग है, साफ मालूम होता है कि यह कोई नई उपज है.” ( वही, पृष्ठ-122) प्रेमचंद हमें आगाह करते हैं, “ जबान की गुलामी ही असली गुलामी है. ऐसे भी देश, संसार में हैं जिन्होंने हुक्मराँ जाति की भाषा को अपना लिया. लेकिन उन जातियों के पास न अपनी तहजीब या सभ्यता थी और न अपना कोई इतिहास था, न अपनी कोई भाषा थी. वे उन बच्चों की तरह थे, जो थोड़े ही दिनों में अपनी मातृभाषा भूल जाते हैं और नयी भाषा में बोलने लगते हैं. क्या हमारा शिक्षित भारत वैसा ही बालक है ? ऐसा मानने की इच्छा नहीं होती, हालाँकि लक्षण सब वही हैं. “ ( वही, पृष्ठ- 124)कौमी भाषा के स्वरूप पर प्रेमचंद ने बहुत गंभीरता के साथ और तर्क व उदाहरण देकर विचार किया है. वे कहते हैं, “ सवाल यह होता है कि जिस कौमी भाषा पर इतना जोर दिया जा रहा है, उसका रूप क्या है ? हमें खेद है कि अभी तक उसकी कोई खास सूरत नहीं बना सके हैं, इसलिए कि जो लोग उसका रूप बना सकते थे, वे अंग्रेजी के पुजारी थे और हैं. मगर उसकी कसौटी यही है कि उसे ज्यादा से ज्यादा आदमी समझ सकें. हमारी कोई सूबेवाली भाषा इस कसौटी पर पूरी नही उतरती. सिर्फ हिन्दुस्तानी उतरती है, क्योंकि मेरे ख्याल में हिन्दी और उर्दू दोनो एक जबान है. क्रिया और कर्ता, फेल और फाइल जब एक है तो उनके एक होने में कोई संदेह नहीं हो सकता. उर्दू वह हिन्दुस्तानी जबान है, जिसमें फारसी- अरबी के लफ्ज ज्यादा हों, इसी तरह हिन्दी वह हिन्दुस्तानी है, जिसमें संस्कृत के शब्द ज्यादा हों. लेकिन जिस तरह अंग्रेजी में चाहे लैटिन या ग्रीक शब्द अधिक हों या ऐंग्लोसेक्सन, दोनो ही अंग्रेजी है, उसी भाँति हिन्दुस्तानी भी अन्य भाषाओं के शब्दों में मिल जाने से कोई भिन्न भाषा नहीं हो जाती. साधारण बातचीत में तो हम हिन्दुस्तानी का व्यवहार करते ही हैं. “ ( वही, पृष्ठ-124)प्रेमचंद ने उर्दू, हिन्दी और हिन्दुस्तानी, भाषा के तोनों रूपों का अलग अलग उदाहरण दिया है. उनके द्वारा दिया गया हिन्दुस्तानी का उदाहरण निम्न है,“ एक जमाना था, जब देहातों में चरखा और चक्की के बगैर कोई घर खाली न था. चक्की-चूल्हे से छुट्टी मिली, तो चरखे पर सूत कात लिया. औरतें चक्की पीसती थी. इससे उनकी तन्दुरुस्ती बहुत अच्छी रहती थी, उनके बच्चे मजबूत और जफाकश होते थे. मगर अब तो अंग्रेजी तहजीब और मुआशरत ने सिर्फ शहरों में ही नहीं, देहातों में भी कायापलट दी है. हाथ की चक्की के बजाय अब मशीन का पिसा हुआ आटा इस्तोमाल किया जाता है. गावों में चक्की न रही तो चक्की पर का गीत कौन गाए ? जो बहुत गरीब हैं वे अब भी घर की चक्की का आटा इस्तेमाल करते हैं. चक्की पीसने का वक्त अमूमन रात का तीसरा पहर होता है. सरे शाम ही से पीसने के लिए अनाज रख लिया जाता है और पिछले पहर से उठकर औरतें चक्की पीसने बैठ जाती हैं. “उक्त उदाहरण देने के बाद प्रेमचंद लिखते हैं, “ इस पैराग्राफ को मैं हिन्दुस्तानी का बहुत अच्छा नमूना समझता हूँ, जिसे समझने में किसी भी हिन्दी समझने वाले आदमी को जरा भी मुश्किल न पड़ेगी. “ (वही, पृष्ठ-125)किन्तु प्रेमचंद अपने समय के यथार्थ को भली- भाँति समझते थे. उन्होंने लिखा है, “एक तरफ हमारे मौलवी साहबान अरबी और फारसी के शब्द भरते जाते है, दूसरी ओर पंडितगण, संस्कृत और प्राकृत के शब्द ठूँस रहे है और दोनो भाषाएं जनता से दूर होती जा रही हैं. हिन्दुओं की खासी तादाद अभी तक उर्दू पढ़ती आ रही है, लेकिन उनकी तादाद दिन प्रति -दिन घट रही है. मुसलमानों ने हिन्दी से कोई सरोकार रखना छोड़ दिया. तो क्या यह तै समझ लिया जाय कि उत्तर भारत में उर्दू और हिन्दी दो भाषाएं अलग- अलग रहेंगी ? उन्हें अपने- अपने ढंग पर, अपनी- अपनी संस्कृति के अनुसार बढ़ने दिया जाय. उनको मिलने की और इस तरह उन दोनों की प्रगति को रोकने की कोशिश न की जाय ? या ऐसा संभव है कि दोनो भाषाओं को इतना समीप लाया जाय कि उनमें लिपि के सिवा कोई भेद न रहे. बहुमत पहले निश्चय़ की ओर है. हाँ, कुछ थोड़े से लोग ऐसे भी है जिनका ख्याल है कि दोनो भाषाओं में एकता लायी जा सकती है और इस बढ़ते हुए फर्क को रोका जा सकता है. लेकिन उनका आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज है. ये लोग हिन्दी और उर्दू नामों का व्यवहार नहीं करते, क्योंकि दो नामों का व्यवहार उनके भेद को और मजबूत करता है. यह लोग दोनों को एक नाम से पुकारते हैं और वह हिन्दुस्तानी है.” ( वही, हिन्दी –उर्दू एकता शीर्षक निबंध, पृष्ठ-139)कहना न होगा, प्रेमचंद द्वारा प्रस्तावित हिन्दुस्तानी को नकार कर और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को राजभाषा के रूप में अपनाने के 70 साल बाद भी, प्रेमचंद द्वारा दिए गए उक्त उद्धरण में सिर्फ दो शब्द ( जफाकश और मुआशरत ) ऐसे हैं जिनको लेकर हिन्दी वालों की थोड़ी मुश्किल हो सकती है. किन्तु भाषा की सरलता आज भी विमुग्ध करने वाली है. प्रेमचंद और गाँधीजी के सुझाव न मानकर हमने एक ही भाषा को हिन्दी और उर्दू में बाँट दिया, उन्हें मजहब से जोड़ दिया और इस तरह दुनिया की सबसे समृद्ध, बड़ी और ताकतवर हिन्दी जाति को धर्म के आधार पर दो हिस्सों में बाँटकर कमजोर कर दिया और उनके बीच सदा- सदा के लिए अलंघ्य और अटूट चौड़ी दीवार खड़ी कर दी.हमने राजभाषा हिन्दी और अपने साहित्य की भाषा को भी जिस संस्कृतनिष्ठता से बोझिल बना दिया है उससे आगाह करते हुए प्रेमचंद ने उसी समय कहा था,“हिन्दी में एक फरीक ऐसा है, जो यह कहता है कि चूंकि हिन्दुस्तान की सभी सूबेवाली भाषाएं संस्कृत से निकली हैं और उनमें संस्कृत के शब्द अधिक हैं इसलिए हिन्दी में हमें अधिक से अधिक संस्कृत के शब्द लाने चाहिए, ताकि अन्य प्रान्तों के लोग उसे आसानी से समझें. उर्दू की मिलावट करने से हिन्दी का कोई फायदा नहीं. उन मित्रों को मैं यही जवाब देना चाहता हूं कि ऐसा करने से दूसरे सूबों के लोग चाहे आप की भाषा समझ लें, लेकिन खुद हिन्दी बोलने वाले न समझेंगे. क्योंकि, साधारण हिन्दी बोलने वाला आदमी शुद्ध संस्कृत शब्दों का जितना व्यवहार करता है उससे कहीं ज्यादा फारसी शब्दों का. हम इस सत्य की ओर से आँखें नहीं बन्द कर सकते और फिर इसकी जरूरत ही क्या है कि हम भाषा को पवित्रता की धुन में तोड़- मरोड़ डालें. यह जरूर सच है कि बोलने की भाषा और लिखने की भाषा में कुछ न कुछ अन्तर होता है, लेकिन लिखित भाषा सदैव बोलचाल की भाषा से मिलते- जुलते रहने की कोशिश किया करती है. लिखित भाषा की खूबी यही है कि वह बोलचाल की भाषा से मिले.” ( वही, पृष्ठ 128)इस संबंध में महात्मा गाँधी की प्रशंसा करते हुए प्रमचंद ने लिखा है, “ कितने खेद की बात है कि महात्मा गाँधी के सिवा किसी भी दिमाग ने कौमी भाषा की जरूरत नहीं समझी और उसपर जोर नहीं दिया. यह काम कौमी सभाओं का है कि वह कौमी भाषा के प्रचार के लिए इनाम और तमगे दें, उसके लिए विद्यालय खोलें, पत्र निकालें और जनता में प्रोपेगैंडा करें. राष्ट्र के रूप में संघटित हुए बगैर हमारा दुनिया में जिन्दा रहना मुश्किल है. यकीन के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता कि इस मंजिल पर पहुँचने की शाही सड़क कौन सी है. मगर दूसरी कौमों के साथ कौमी भाषा को देखकर सिद्ध होता है कि कौमियत के लिए लाजिमी चीजों में भाषा भी है और जिसे एक राष्ट्र बनना है उसे एक कौमी भाषा भी बनानी पड़ेगी.” ( वही, पृष्ठ-132)प्रेमचंद ने लिपि के सवाल पर भी गंभीरता के साथ विचार किया है और साफ शब्दों में अपना मत व्यक्त किया है. “ प्रान्तीय भाषाओं को हम प्रान्तीय लिपियों में लिखते जायँ, कोई एतराज नहीं, लेकिन हिन्दुस्तानी भाषा के लिए एक लिपि रखना ही सुविधा की बात है, इसलिए नहीं कि हमें हिन्दी लिपि से खास मोह है बल्कि इसलिए कि हिन्दी लिपि का प्रचार बहुत ज्यादा है और उसके सीखने में भी किसी को दिक्कत नहीं हो सकती. लेकिन उर्दू लिपि हिन्दी से बिलकुल जुदा है और जो लोग उर्दू लिपि के आदी हैं, उन्हें हिन्दी लिपि का व्यवहार करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता. अगर जबान एक हो जाय तो लिपि का भेद कोई महत्व नहीं रखता.” ( वही, पृष्ठ-132) और अन्त में निष्कर्ष देते हैं,“ लिपि का फैसला समय करेगा. जो ज्यादा जानदार है वह आगे आएगी. दूसरी पीछे रह जाएगी. लिपि के भेद का विषय छेड़ना घोड़े के आगे गाड़ी को रखना होगा. हमें इस शर्त को मानकर चलना है कि हिन्दी और उर्दू दोनो ही राष्ट्र-लिपियां हैं और हमें अख्तियार है, हम चाहे जिस लिपि में उसका ( हिन्दुस्तानी का ) व्यवहार करें. हमारी सुविधा हमारी मनोवृत्ति और हमारे संस्कार इसका फैसला करेंगे. “ ( वही, पृष्ठ-133) किन्तु प्रेमचंद को विश्वास है कि “ हम तो केवल यही चाहते हैं कि हमारी एक कौमी लिपि हो जाय.” दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास के चतुर्थ दीक्षान्त समारोह में दीक्षान्त भाषण देते हुए उन्होंने कहा था कि “ अगर सारा देश नागरी लिपि का हो जाएगा तो संभव है मुसलमान भी उस लिपि को कुबूल कर लें. राष्ट्रीय चेतना उन्हें बहुत दिन तक अलग न रहने देगी. “ ( साहित्य का उद्देश्य, पृष्ठ- 117)प्रेमचंद के सुझावों पर अमल न करके हमने देश की भाषा नीति को लेकर जो मार्ग चुना उसके घातक परिणाम आज हमारे सामने हैं. अंग्रेजी के वर्चस्व के नाते हमारे देश की बहुसंख्यक आबादी और गाँवों की छुपी हुई प्रतिभाएं अनुकूल अवसर के अभाव में दम तोड़ रही हैं. देश में मौलिक चिन्तन चुक गया है और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के बावजूद हम सिर्फ नकलची बनकर रह गए हैं.बहरहाल, आज कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की जयंती के दिन हम इस महान लेखक के रचनात्मक योगदान तथा उनके भाषा संबंधी चिन्तन का स्मरण करते हैं और समाज के प्रबुद्ध जनों से उसपर अमल करने की अपील करते करते हैं.
( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं)
प्रेमचंद जयंती पर प्रेमचंद के जीवन, व्यक्तित्व एवं साहित्य के शीर्षस्थ विद्वान प्रो. कमल किशोर गोयनका की दो पुस्तकें।तुलसीदास ने जनभाषा में लोक चेतना जगाने का काम किया – प्रेम शंकर त्रिपाठीवर्धा, 28 जुलाई 2020: महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में 27 जुलाई को गोस्वामी तुलसीदास जयंती पर ‘तुलसी : तत्व चिंतन और श्रवण’ विषय पर आयोजित गोष्ठी में सुविख्यात आलोचक श्री प्रेमशंकर त्रिपाठी जी ने कहा कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने जनभाषा में लोकचेतना जगाने का काम किया है। उनकी हरी भक्ति मनुष्यता के निर्माण की सीढ़ी है। वैज्ञानिक विकास के इस युग में तुलसीदास का साहित्य सभी के लिए मार्गदर्शक बन सकता है।विश्वविद्यालय के आधिकारिक यू टयूब चैनल पर लाइव प्रसारित इस गोष्ठी की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल ने की। इस गोष्ठी में प्रतिकुलपति प्रो. हनुमान प्रसाद शुक्ल, प्रो. कृष्ण कुमार सिंह ने भी अपने विचार प्रकट किये। गोष्ठी का संचालन मानविकी तथा सामाजिक विज्ञान विद्यापीठ के अधिष्ठाता एवं जनसंचार विभाग के अध्यक्ष प्रो. कृपा शंकर चौबे ने किया। कार्यक्रम में स्वागत वक्तव्य साहित्य विद्यापीठ की अधिष्ठाता प्रो. प्रीति सागर ने दिया। प्रतिकुलपति प्रो. चंद्रकांत रागीट ने धन्यवाद ज्ञापित किया। कोलकाता से अपनी बात रखते हुए प्रेम शंकर त्रिपाठी जी ने गोस्वामी तुलसीदास के अनेक छंदो को उधृत करते हुए उनकी रचनाओं का विस्तार से विवेचन किया । उन्होंने कहा कि तुलसीदास अपने समय के समाज को एक बड़ा आश्वासन देते हैं। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना के माध्यम से भक्ति का सरल सूत्र दिया है तथा भक्ति की सरल परिभाषा भी बतायी है।अध्यक्षीय वक्तव्य में कुलपति प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल जी ने कहा कि तुलसीदास मर्यादाओं के कवि हैं। वे रामचरित मानस के माध्यम से अमर्यादित और विचलित समाज में मर्यादाओं को स्थापित करना चाहते है। मर्यादापुरुष राम उनकी रचनाओं के केंद्र में है। भारत की संवाद प्रणाली को समझने के लिए गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरितमानस एक महत्वपूर्ण प्रस्तुति है। प्रो. शुक्ल ने कवि तुलसीदास को भारतीयता के भाष्यकार संज्ञा देते हुए कहा कि उनके साहित्य का पुनर्विवेचन करने की आवश्यकता है।प्रतिकुलपति प्रो. हनुमान प्रसाद शुक्ल ने तुलसीदास को अनन्य आस्था तथा अखंड विश्वास के कवि बताया। उन्होंने कहा कि कवि तुलसीदास सर्जक रचनाकार, धर्मसंस्थापक, परंपरा के भाष्यकार और मूल्यों के संस्थापक हैं। प्रो.शुक्ल ने कहा कि तुलसीदास सम्यक दृष्टि से संपन्न कवि हैं। हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग के प्रो. कृष्ण कुमार सिंह ने कहा कि 450 वर्षों से तुलसीदास की रचनओं का जनमानस पर बड़ा प्रभाव रहा है। तत्वज्ञ के रूप में उनका मुकाबला कोई नहीं कर सकता।गोष्ठी के बाद जगजीत सिंह, पं. रतन मोहन, पुरूषोत्तम दास जलोटा, वीणा सहस्रबुद्धे, पंडित जसराज, रमेश भाई ओझा, रमाकांत शुक्ल और हरिओम शर्मा आदि कलाकारों के गीतों का श्रवण किया गया।------------------------------------------------------------ ------------------------------ --------------------------- बी. एस. मिरगे, जनसंपर्क अधिकारी, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालयगांधी हिल्स, वर्धा-442 005 (महाराष्ट्र), भारत, फोन/फैक्स- 07152-252651,मो. 09960562305, ई-मेल: mgahvpro@gmail.com
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
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प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी
मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
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लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो.: 09703982136
मंगलवार, 28 जुलाई 2020
[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] अरथु अमित अति आखर थोरे - गिरीश्वर मिश्र
अरथु अमित अति आखर थोरेगिरीश्वर मिश्रपिछली पांच सदियों से भारतीय लोक जीवन में मूल्यगत चेतना के निर्माण में गोस्वामी तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ का सतत योगदान अविस्मरणीय है. लोक भाषा की इस सशक्त रचना द्वारा सांस्कृतिक जागरण का जैसा कार्य संभव हुआ वैसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता है. ‘कीरति भनिति भूति भलि सोई सुरसरि सम सब कर हित होई’ की प्रतिज्ञा के साथ कविता को जन-कल्याणकारिणी घोषित करते हुए गोस्वामी जी ने काव्य के प्रयोजन को पहले की शास्त्रीय परम्परा से अलग हट कर एक नया आधार दिया. एक विशाल मानवीय चेतना की परिधि में भक्ति के विचार को जन-जन के हृदय तक पहुंचाते हुए गोस्वामी जी हमारे सामने एक लोकदर्शी दृष्टि वाले कवि के रूप में उपस्थित होते हैं. वे जनसाधारण की ‘भाखा’ अवधी और भोजपुरी का उपयोग करते हुए जीवंत भंगिमा और ग्राम्य परिवेश के बीच जीवन के सत्य की एक असाधारण और अलौकिक, पर हृदयग्राही छवि उकेर सके थे. उनके शब्द-चयन में एक ऐसी दुर्निवार किस्म की संगीतात्मकता और ऐसी लय है कि पढिए तो ( बिना अर्थ समझे भी !) उसे गाने और झूमने का मन करने लगता है. पारिवारिक जीवन, मित्रता, सत्संगति, सामाजिक जीवन और राजनय जैसे विषयों को समेटते हुए लोक में रमते हुए तुलसीदास जी ने लोकोत्तर का जो संधान किया उसमें एक ओर यदि दर्शन की ऊंचाई दिखती है तो दूसरी ओर रस की गहरी और स्निग्ध तरलता भी प्रवाहित होती मिलती है. विष्णु के अवतार श्रीराम के लीला-काव्य में सशक्त भाषा और शब्द-प्रयोग का यह अद्भुत जादू ही है कि उनके दोहे और चौपाइयां शिक्षित और गंवार सभी तरह के लोगों की जुबान पर आज भी छाए हुए हैं और प्रमाण और व्याख्या के रूप में उद्धृत होते रहते हैं और उनकी कथा के नाना संस्करण प्रचलित हैं. उनकी रचनाओं का विश्लेषण अनेक दृष्टियों से किया गया है. विशेष रूप से धर्म (हिंदू !) के उन्नायक!, लोक मंगल के प्रतिष्ठाता, राजनैतिक माडल के प्रस्तोता (राम राज्य!) और काव्य-शास्त्र की उपलब्धि आदि के कोणों से अध्येताओं ने विचार किया है और दोष-गुण का काफी पर्यालोचन किया है. पर एक पाठक को उनकी सीधे-सीधे सम्बोधित करती है. मानस को पढ कर या उसकी कथा को सुन कर चित्त उद्वेलित बिना नहीं रह सकता और रचना चेतना का संस्कार करती चलती है. यह गोस्वामी जी की रचनात्मक प्रतिभा ही थी कि अनेक वृत्तों में अनेक वक्ताओं द्वारा कही गई जन्म जन्मांतरों को समेटती हुई राम-कथा ऐसे मनोरम ढंग से प्रस्तुत हुई कि वह जन मन के रंजन के साथ ही भक्ति कि धारा में स्नान कराने वाली पावन सरिता भी बन गई . मानस में पहले से चली आ रही राम-कथा में कई प्रयोग भी किए गए हैं और ब्योरे में जाएं तो उसकी प्रस्तुति पर देश-काल की अमिट छाप भी पग-पग पर मिलती है . कई-कई तह के संवादों के बीच गुजरती हुई राम-कथा काव्य शास्त्रियों के लिए इस अर्थ में चुनौती भी देती है कि वह प्रबंधकाव्य के स्वीकृत रचना विधान का अतिक्रमण करती है. राम मय होने के लिए तुलसीदास जी ने राम लीला का आरम्भ किया और तदनुरूप जरूरी दृश्य विधान को अपनाते हुए ‘ रामचरितमानस’ की प्रेषणीयता को सहज साध्य बना दिया है. वस्तुत: दृश्य और पाठ्य अंशों का विनियोग तुलसीदास जी ने जिस खूबी से किया है वह इसे पाठक के लिए अनुभव-निकट बनाने और रसास्वादन में बड़ी सहायक हुई है. पूरी रचना में कवि सूत्रधार की तरह आता रहता है और पाठक को सम्बोधित भी करता रहता है और यह सब विना किसी व्यवधान के स्वाभाविक प्रवाह में होता है . ऐसा इसलिए भी हो पाता है क्योंकि तुलसीदास जी सिर्फ पुराण की कथा को पुन: प्रस्तुत ही नहीं करते बल्कि उसमें कुछ और भी शामिल कर नई रचना के रूप में उसे अधिक संवेदनीय बना कर पहुंचाते हैं.यह भी गौर तलब है कि भक्त कवि तुलसीदास का मन लोक में भी अवस्थित है. वह अपने समय की चिंता से भी आकुल हैं और समकालीन समाज में व्याप्त हो रहे अंधकार से लड़ने का साहस जुटाने का यत्न भी किया है . वे यह मान कर चलते हैं कि उद्धार सम्भव है क्योंकि मनुष्य के रूप में जन्म लेना पुण्य का प्रताप होता है और देवताओं के लिए भी दुर्लभ है. पर यह मानव जन्म साधन धाम है जिसका सदुपयोग करना चाहिए :
बड़े भाग मानुष तन पावा सुरदुर्लभ सद्ग्रन्थहि गावा , साधनधाम मोच्छ कर द्वारा पाइ न जेहि परलोक संवारा .
मनुष्य का शरीर अतुलनीय है जिसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता इसलिए कल्याण के पथ पर अग्रसर होना चाहिए : नर तन सम नहिं कवनौ देही , जीव चराचर जांचत तेही. नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी , ग्यान विराग भगति सुख देनी. एक मनुष्य के रूप में आचरण के लिए सबसे बड़ा धर्म दूसरों का कल्याण करना है: परहित सरिस धर्म नहीं भाई , पर पीड़ा सम नहिं अधमाई . गोस्वामी जी का दृढ विश्वास है कि अग्यान और भ्रम के कारण सांसारिक सुख प्रीतिकर हो जाता है और यह भूल जाता है कि मनुष्य ईश्वर का अंश, सदा रहने वाला, चेतन ज्ञान-स्वरूप है और सुख-राशि है : ईश्वर अंस जीव अविनासी, चेतन अमल सहज सुखरासी . परमात्मा से विमुखता ही मनुष्य जीवन की मूल समस्या है , उनकी ओर दृष्टि होने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं: सन्मुख होइ जीव मोहि जबहीं, जन्म कोटि अघ नासहि तबहीं.अत: लोक में अवस्थित रह्ते हुए राम-कथा की प्रस्तुति का उपक्रम ईश्वर और मनुष्य के बीच की खाई को पाटने, उन्हें एक दूसरे के करीब लाने और अनुभव का हिस्सा बनाने के लिए किया गया. उनके श्रीराम जीवन भर संघर्षों के बीच और हर तरह की मानवीय जीवन की व्यथा को सहते हुए निखरते हैं. राम सबके हैं और सब जगह उपस्थित हैं- सिया राम मय सब जग जानी . सर्वव्यापी राम सर्वजनसुलभ भी हैं. यह जरूर है कि राममय होने के लिए एक खास तरह के विवेक की जरूरत पड़ती है जो मानस में अपने को डुबोने से या कहें राममय होने से ही आ सकती है. रामचरितमानस के विशाल कलेवर में मनुष्य जीवन के विस्तृत परिसर में पारस्परिक सम्बंधों के उतार-चढाव और अंतर्द्वंद का जैसा सजीव चित्रण हुआ है वह अन्यत्र दुर्लभ है. श्रीराम इन सबके केंद्र में हैं. वे गांव, नगर, वन,पर्वत जहां कहीं जाते हैं, वहां उपस्थित सबसे उनका रिश्ता बन जाता है . वह सभी रिश्तों को निभाते हैं. वे निर्मल सहजता के प्रतीक हैं और और सबसे आत्मीयता रखना ही उनके जीवन का मूल सूत्र है.सम्प्रदायों और मतों के दायरे से ऊपर उठते हुए तुलसी आम मनुष्य की पीड़ा से उद्वेलित हैं और उनकी भक्ति उसी के समाधान का उपाय प्रस्तुत करती है. उनका राम-राज्य राजनैतिक कम आध्यात्मिक स्तर पर जीवन्तता की सृष्टि करता है. व्यष्टि और समष्टि दोनों परस्पर सम्बन्धित हैं और एक दूसरे पर अवलम्बित हैं. राम का स्नेह ऐसा होता है कि स्नेहपात्र इतना परिव्यापनशील हो उठता है कि राम को ही बांध लेता है . तभी तो ऐसे राम जिनको सकल जगत जपता है वे स्वयं भरत का जप करते दिखते हैं: भरत सरिस को राम सनेही , जगु जप राम रामु जपु जेही . राम चरित मानस के अयोध्या कांड मे भरत वचन की आशंसा कते हुए कहा गया है :
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे , अरथु अमित अति आखर थोरे , ज्यों मुखु मुकुर मुकुर निज पानी , गति न जाइ अस अद्भुत बानी .
भरत की बात मृदु मंजु अर्थात कोमल और प्रसाद गुण युक्त भी है और कठोर है . यह पूरे मानस का अभिप्राय भी है. भरत में ही राम के स्नेह की पूर्ण अभिव्यक्ति मिलती है. भरत सिर्फ आज्ञाकारी नहीं हैं वे निर्वासित राम का पूरा दुख स्वयं अपने लिए वरण कर लेते हैं. राम की श्रेष्ठता या बड़प्पन इस तथ्य में है कि वे सबके हैं. उनके लिए कोई दूसरा नहीं है. भक्त से अधिक भगवान को भक्त की ओर उन्मुख कराया गया है. भक्त की सत्ता में ही भगवान की सत्ता है. श्रीराम ने वाल्मीकि से पूछा कि मैं कहां रहूं तो वाल्मीकि जी ने किंचित परिहासपूर्वक कहा कि ऐसी कोई जगह बताएं जहां आप हो नहीं. फिर भी आप हम से ही कहलाना चाहते हैं तो सुनें :
जिनके श्रवण समुद्र समाना कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना भरहिं निरंतर होंहि न पूरे तिनके हिय तुम्हार गृह रूरे.
जिनके कान के समुद्र में तुम्हारी कथा की अनेक सरिताएं(नदियां) आएं और भरती रहें पर समुद्र पूरा न हो. राम की कथा की निरन्तर चाह बनी रहे, तड़प बनी हो, तृप्ति न हो वहीं आपका घर है. राम चरित मानस की यही सर्थकता है. राम भाव का रस सतत प्रवाहित होता रहे . आज भी तुलसी एक ऐसे सशक्त कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं और उनकी कविता , मनुष्यता और नैतिकता के शिखर को स्पर्श करती है. यह जरूर है कि मानस के अर्थ ग्रहण करने के लिए एक मानस-भावित दृष्टि और संवेदना चाहिए : ‘अस मानस मानस चख चाहीं ‘
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयो:
Mind is the cause of human suffering and liberation.गिरीश्वर मिश्रGirishwar Misra, Ph.D. FNA Psy,Special Issue Editor Psychological Studies (Springer), Former National Fellow (ICSSR),Ex Vice Chancellor,Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya,Wardha (Mahaaraashtra)Ex Head & Professor, Dept of Psychology, University of DelhiResidence : Tower -1 , Flat No 307, Parshvanath Majestic Floors,18A, Vaibhav Khand, Indirapuram, Ghaziabad-201014 (U.P.)
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
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प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी
मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
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लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो.: 09703982136
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