बुधवार, 28 नवंबर 2018

[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] Fwd: राष्ट्रभाषा का सवाल सुलझाना होगा - गिरीश्वर मिश्र, झिलमिल में- नीलू गुप्ता को नागरी लिपि सम्मान, विशाल भारतीय भाषा सम्मान यात्रा के लिए तैयारी यात्रा





राष्ट्रभाषा का सवाल सुलझाना होगा
गिरीश्वर मिश्र
 इस बात से शायद ही किसी को असहमति हो कि समाज को अपने काम चलाने के लिये भाषा की जरूरत लाजिमी है . भाषा से न केवल विचार की अभिव्यक्ति होती हैपारस्परिक संवाद होता है,ज्ञान का संरक्षण और पीढियों के बीच संचार होता है बल्कि स्वास्थ्य न्याय बाजार व्यापार शिक्षा और प्रशासन आदि के रोजमर्रे के कामों में भी भाषा का उपयोग अनिवार्य है. यानी समाज अपने  कामों  को भाषा के जरिए ही अंजाम देता है. इन सारे कामों का जीवन में महत्व इतना अधिक है कि  भाषा का होना हमारे अस्तित्व से एकाकार हो उठता है इतना कि भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका  जैसे कुछ एक अपवादों को छोड़ दें तो बड़े छोटे अधिकांश देशों का नाम उन देशों की भाषाओं  से अभिन्न रूप से जुड़ा होता है .  वैसे तो कहा जाता है नाम में क्या रखा है ‘ परन्तु भाषा का नाम समुदायों और देशों  पहचान  बन जाता  है. चीन जापानजर्मनी फ्रांस स्वीडन इंग्लैंड आदि नाम मूलत: भाषाओं से जुड़े हुए हैं और समाज का जातिगत बोध और स्वाभिमान दर्शाते हैं .
भाषा हमारे अनुभव जगत का  समानांतर चित्रण करती चलती  है और अमूर्त प्रतीकों की सहायता से एक प्रतिरूप खड़ा  करती है जिसे ग्रहण करना सुकर होता है . साथ ही भाषा हमें दुनिया को देखने का एक नजरिया भी देती है और उसी के सहारे हमें दुनिया का दर्शन होता है. भाषा जो भी दिखाती या छुपाती है वहीं तक हमारी दुनिया भी विस्तृत या सीमित होती है. इसलिए भारतीय चिंतन में ठीक ही कहा गया-“सर्वं शब्देन भासतेअर्थात हमें सब  कुछ शब्द से ही दिखता हैऐसे में  अपनी  भाषा के उपयोग का अवसर यदि किसी व्यक्तिसमुदाय और समाज को सशक्त बनाता है तो उससे वंचित करना उस समाज को कई तरह से विपन्न भी कर देता है.  लम्बे समय के लिए ऐसा होना पूरे समाज को असमर्थ बना देता है . इस तरह भाषाई भेदभाव आर्थिक-सामाजिक शोषण का एक सभ्य और सेकुलर तरीका बन जाता है जिसके प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दूरगामी परिणाम होते हैं जिनका असर आनुवंशिक न होते हुए भी आनुवंशिक से किसी भी तरह कम नहीं होते. भाषा  की गुलामी के परिणाम पीढी-दर-पीढी संक्रमित हो कर आगे चलते रहते हैं .
भारत की भाषाई स्थिति अपनी विविधता और उपलब्धि के लिए विश्व के भाषा के विद्वानों के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं है. पाणिनि का अष्टाध्यायी’ वैश्विक स्तर पर भाषाविज्ञान का  गौरव का विषय है यहां की अनेक भाषाएं साहित्य और शब्द भंडार की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध हैं और अनेक आपस में कई तरह से सम्बंधित भी हैं. इन सभी भाषाओं का भारत  में  लम्बा इतिहास भी है. यह स्वाभाविक है कि प्रयोग की दृष्टि से भाषाओं के क्षेत्र भिन्न होते हैं . अनेक भारतीय भाषाएं संस्कृत मूल की हैं और उनके बीच निकट का रिश्ता है. परन्तु औपनिवेशिक युग में अंग्रेजी भाषा को अंग्रेजों ने भारतीयों की मानसिक रूप से हत्या करने का औंजार बनाया और अंग्रेजी का साम्राज्य स्थापित किया . गांधी जी के शब्दों में कहें तो मेकाले ने “शिक्षा की जो बुनियाद डालीवह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी”. अंग्रेज बहुत हद तक अपने लक्ष्य को पाने में सफल भी हो गए. विचारनीति और सिद्धांत का जो सांचा ढाल कर उन्होने हमको मुहैया कराया गया वह इस कदर मन मस्तिष्क पर चढा कि हम मूल भारत के विचार से अपरिचित होते चले गए और जानबूझ कर अपने आप  को विस्मरण का शिकार बनाते चले गए. दूसरी ओर अंग्रेजी चाल-ढाल बानक और विचार को सहज और श्रेष्ठ भी करार देने लगे . हिंद स्वराज में गांधी जी का मार्मिक वाक्य कि ‘ अंग्रेजी शिक्षा  को लेकर हमने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है. अंग्रेजी शिक्षा से दम्भ राग जुल्म वगैरा बढे हैं  . अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए लोगों  ने प्रजा को ठगने उसे परेशान करने  में कुछ भी उठा  नहीं रखा है’ आज का भी सत्य है .  सन 1941 में रचनात्मक कार्यक्रम’ में गांधी जी लिखते हैं कि ‘ हमने अपनी मातृ भाषाओं के मुकाबले अंग्रेजी  से ज्यदा  मुहब्बत रखी जिसका  नतीजा यह हुआ कि पढे  लिखे और राज नैतिक दृष्टि से जागे हुए ऊंचे तबके के लोगं के साथ आम लोगों का रिश्ता बिल्कुल टूट  गया और उन दोनों  के बीच खाई बन गई . यही वजह है कि  हिंदुस्तान की भाषाएं  गरीब बन गई हैं और उन्हें पूरा पोषण नहीं मिला .  दूसरी ओर सरकारी  प्रश्रय में अंग्रेजी को  जीवन के मूलभूत  में इस तरह स्थापित किया गया कि उसके औचित्य को लेकर किसी तरह की शंका न उठे. यह सब ऐसे ढंग से हुआ कि हमें इसकी अस्वाभाविकता  का पता तक नहीं चला. अंग्रेजी का वर्चस्व ह्मारी नियति के साथ ऐसे जड़ा गया कि उसका कोई विकल्प ही न रहे. हम लाचार होकर उसी का प्रयोग बनाए रखने पर विवश हो गए और इस फांस से निकलने का कोई मार्ग ही नहीं सूझ रहा है . उदाहरण के लिए पूरे समाज से जुड़ा हुआ न्याय का क्षेत्र लें.   आज भी उच्च और उच्चतम न्यायालय के लिए कानूनी कारवाई अंग्रेजी में ही करने की बाध्यता अनिवार्य रखी गई है. लोक तंत्र की आत्मा के विरुद्ध इस व्यवस्था से न्याय पाना (संवैधानिक रूप से!) मंहगासबकी पहुंच से बाहर और अनिवार्य रूप से  भेद-भाव करने वाला बना हुआ  है.
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि राष्ट्र के र्निमाण के लिए समाज को उसकी अपनी भाषा के सार्थक और समर्थ उपयोग का अवसर एक स्वाभाविक और अनिवार्य शर्त होती है. जैसा कि हम सब भलीभांति जानते हैं औपनिवेशिक काल में अंग्रेजी भाषा को प्रशासन, ज्ञानकानूनी व्यवस्थास्वास्थ्य आदि जीवन के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में स्थापित कर बढावा दिया गया. इस पूरी प्रक्रिया में सहस्राब्दियों पुरानी समूची भारतीय ज्ञान परम्परा को पारलौकिक’  गैर आधुनिक और इसलिए अप्रासंगिक करार देते हुए विस्थापित और बहिष्कृत सा कर दिया गया. नई शिक्षा ने ज्ञानार्जन को नौकरी के अधीन कर दिया . अब स्थिति यह हो रही है कि विश्वविद्यालयों से अपेक्षा की जा रही है कि वे उद्योग धंधों से पूछ-पूछ कर पाठ्यक्रम बनाएं . परीक्षा पास करने के साथ प्लेसमेंट हो इसके लिए यह बेहद जरूरी है. ज्ञानकेंद्र की उत्कृष्टता अंतत: उस केंद्र के छात्रों को मिलने  वाले पैकेज पर ही निर्भर करती है.   
स्वराज की लड़ाई के बाद देश को राजनैतिक स्वतंत्रता तो मिली पर वैचारिक स्वाधीनता को खो कर. कदाचित  वैचारिक स्वतंत्रता पाना प्रकट रूप में स्वतंत्रता संग्राम का हमारा उद्देश्य भी नहीं था. बापू ने 1909 में लिखित हिंद स्वराज’ में जरूर सभ्यता-विमर्श करते हुए हमारा ध्यान इस ओर भी खींचा था और तीस साल के बाद उसके दूसरे संस्करण के समय भी   अपने  विचारों में कोई परिवर्तन लाने की जरूरत नहीं समझी  थी परंतु प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने इस तरह की पूरी सोच को ही दकियानूसी मानते हुए सिरे से खारिज कर दिया था और दूसरी ओर आगे बढ गए थे . हमारा मानसिक संस्कार खंडित होता रहा और सोचने-विचारने की उधार की कोटियां हाबी हो कर हम पर राज्य करने लगीं. फलतः भारत में उच्च शिक्षा के जो केंद्र विकसित हुए वे ज्ञान की पाश्चात्य धारा को ही श्रेष्ठतर मानते हुए उसे ही अकुंठ भाव से आत्मसात करने में  अपनी कृतार्थता समझने लगे. अनेक शिक्षा आयोगों की संस्तुतियों के बावजूद हमारी मानसिक गुलामी की यह प्रवृत्ति बरकरार रही और हम सभी तरह के मौलिक प्रश्नों से कन्नी काटते रहे और शिक्षा क्षेत्र की समस्याएं और विकट होती चली गईं.  गांधी जी कह्ते थे कि अंग्रेजी की मोहिनी के वश हो कर हम लोग हिंदुस्तान को अपने ध्येय की ओर आगे बढने  से रोक रहे हैं. वे मानते थे कि’ समूचे हिंदुस्तान के साथ व्यवहार  करने के लिए हम को भारतीय भाषाओं में से एक ऐसी भाषा  की जरूरत है जिसे आज ज्यादा से ज्यादा तादात में लोग जानते हों  और बाकी लोग जिसे झट से सीख सकें. इसमें शक नहीं कि हिंदी ही ऐसी भाषा है. आज देश पूज्य बापू की डेढ सौवीं जयंती मना रहा है . इस अवसर पर भाषा के लम्बित सवाल पर विचार करना और औपनिवेशिक मानसिकता से उबर कर अंग्रेजी के घोषित साम्राज्यवाद से मुक्ति  एक सच्ची कार्यांजलि होगी. 
प्रो. गिरीश्‍वर मिश्र कुलपति  
महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय /
दूरभाष/Tel.: +91-7152-230904 एवं  230907,  फैक्स/Fax : +91-7152-230903 
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भाषा को लेकर सुधांशु त्रिवेदी जी के विचारोत्तेजक वीडियो   के लिए लिंक पर क्लिक करें।

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श्रीमती नीलू गुप्ता की पुस्तक ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ कहानी संग्रह का विमोचन 23 नवम्बर को  ‘नागरी लिपि परिषद’ कार्यालय में हुआ
नीलू गुप्ता काव्य गौरव से सम्मानिततथा  नीलू गुप्ता नागरी लिपि सम्मान से सम्मानित।

  

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भारतीय भाषाओं के लिए मुंबई से दक्षिण भारत होते हुए दिल्ली के लिए निकलने वाली विशाल भारतीय भाषा सम्मान यात्रा के लिए तैयारी यात्रा 
 





वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई



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प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
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लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद

मो.: 09703982136

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