प्रस्तुति
: संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)
email: murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण,
मीडिया प्रभारी,
हैदराबाद.
मो.नं.09703982136
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मराठी को लेकर महाराष्ट्र सरकार का सराहनीय निर्णय
और अपनी जनता की भाषा से कन्नी काटते हिंदी-भाषी राज्य।
हाल ही में महाराष्ट्र सरकार के मंत्रिमंडल ने निर्णय लिया है कि महाराष्ट्र में तमाम दुकानों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के नाम अनिवार्यत: मराठी भाषा में देवनागरी लिपि में ही होंगे। पहले भी इस प्रकार का आदेश था लेकिन अब इसे पूरी गंभीरता से लागू करने का निर्णय लिया गया है। निश्चय ही अपनी जनता के हित में और जनता की भाषा और लिपि के लिए महाराष्ट्र सरकार का यह निर्णय अत्यंत महत्वपूर्ण एवं सराहनीय है। ज्यादातर व्यावसायिक संगठनों ने भी इसका स्वागत किया है लेकिन उन्होंने कोरोना संक्रमण के आर्थिक प्रभावों के कारण कारण इसके लिए कुछ समय की मांग की है।
यहां महत्वपूर्ण विषय यह है कि उत्तर भारत के हिंदी भाषी राज्य जहां की जनता की भाषा और राजभाषा दोनों हिंदी है। यही नहीं संघ की राजभाषा भी हिंदी है। कहने का मतलब यह है कि हर स्तर पर हिंदी के उपयोग का मार्ग खुला हुआ है। इस कारण कहीं से किसी प्रकार की असुविधा या विरोध का भी कोई औचित्य नहीं दिखता। अनेक वर्षों से भी यहाँ अनेक संस्थाओ द्वारा दुकानों और व्यावसायिक बोर्ड हिंदी में भी करवाने की मांग की जाती रही है, लेकिन किसी राज्य सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। इससे ऐसा लगता है कि हिंदी भाषी राज्य अपनी भाषाओं की उपेक्षा में अव्वल हैं।
जब महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्य इस प्रकार के निर्णय ले सकते हैं तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान आदि राज्य अपने राज्यों में अपनी जनता की भाषा और राज्य की राजभाषा में दुकानों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के बोर्ड लगवाने के आदेश जारी क्यों नहीं कर सकते। आश्चर्य की बात है कि जो भाषा इन राज्यों की कानूनी रूप से राजभाषा है, उसकी ही इतनी उपेक्षा करना राजभाषा के लिए कितना घातक है इसका अनुमान लगाया जा सकता है। यदि सड़कों पर दोनों तरफ लगे बोर्ड केवल अंग्रेजी में होंगे तो आगे चलकर राजभाषा और राज्य भाषा की लिपि यानी देवनागरी कहां रहेगी? यह एक गंभीर प्रश्न है। जब भोपाल में विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित किया गया था तब यह मामला मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान और उनके सचिवों आदि के सामने भी रखा गया था तो उन्होंने इस संबंध में निर्णय लेने की बात की थी लेकिन इतने वर्ष बीत जाने पर भी अभी तक कुछ नहीं किया गया। अपने राज्य की जनता की भाषा के लिए राजभाषा के लिए और जन-भावनाओं को सम्मान देने के लिए भी ऐसा न कर पाना आश्चर्यजनक व चिंताजनक है।
जहां इनके दल की सरकार के गृह मंत्री केंद्र में अनुच्छेद 370 हटाने का साहसिक निर्णय ले सकते ,हैं वहाँ इनके मुख्यमंत्री अपने ही राज्य में अपनी ही राजभाषा, अपनी जनता की भाषा और देश की भाषा में पूर्ण लिखवाने का निर्णय नहीं ले पाते, पता नहीं ये भयभीत हैं या अंग्रेजी मोह से ग्रस्त? जनता का यह आक्रोश तर्कसंगत है कि यदि हिंदी भाषी राज्यों को अपनी राजभाषा हिंदी से इतना ही परहेज है तो ये अपनी राजभाषा हिंदी से बदलकर अंग्रेजी क्यों नहीं कर देते।
इस प्रकार का निर्णय सभी राज्यों को अपने राज्य की राजभाषा के पक्ष में लेना चाहिए। देश की जनता की जन भावनाओं और इन राज्यों की राजभाषा को उचित स्थान दिए जाने की दृष्टि से मैं तमाम राज्यों से यह अनुरोध करता हूँ कि वे महाराष्ट्र की तरह ही अपने राज्यों में भी जल्द से जल्द सभी दुकानों पर व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के बोर्डों में राज्य की राजभाषा को प्राथमिकता देते हुए बोर्डों में उसका का प्रयोग अनिवार्य करें। यह भी सुनिश्चित किया जाए कि यदि ये बोर्ड राज्य की राजभाषा के अलावा किसी अन्य भाषा में भी लिखे जाने का प्रावधान किया जाता है तो राज्य की राजभाषा की लिपि में ऊपर लिखा जाए और किसी भी स्थिति में अक्षरों का आकार दूसरी भाषा से कम न हो।
डॉ. मोतीलाल गुप्ता 'आदित्य'
निदेशक
वैश्विक हिंदी सम्मेलनहिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उभारने का प्रथम श्रेय शास्त्री जी को...,जब शब्दों की बनावट पर चोट होती है,भाषा का आवरण छलनी होता है,
एक शोला कुछ यूँ भभकता है,
हिंदी पर जीवन न्योछावर करता है!
कोश-कला की नींव पर, वर्तनी का वितान तानते हुए, उन्होंने शब्दलोक का निर्माण किया!
साहित्यकार तिथिवार के माध्यम से, ऐसे ही दृढ़ निश्चयी साधक आचार्य रामचंद्र वर्मा की पुण्यतिथि परउन्हें शत-शत वंदन करती हैं।भाषा प्रेमी और तिथिवार परियोजना प्रबंधक
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
प्रस्तुत
कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो.: 09703982136
वैश्विक ई-संगोष्ठी
वैश्विक हिंदी सम्मेलन एवं जनता की आवाज फ़ाउंडेशन के साथ
अपनी भाषाएँ बचाने का उद्योग-व्यापार जगत का सरोकार।
------------------------------------------------------------ ------------------------------ ------------------------------ ----------------------------- ------------------------------------------------------------ ------------------------------ ------------------------------ ----------------------------- ------------------------------------------------------------ ------------------------------ ------------------------------ ----------------------------- आओ मिलकर आवाज लगाएँ,
जागें और जगाएँ।
अपने घर पर नाम अपनी भाषा में लिखवा,
अपनों को निमंत्रण अपनी भाषा में छपवा,
अपना और अपनों का सम्मान बढ़ाएँतो नष्ट हो जाएँगी हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाएँ..!…...,
https://hindibhashaa.com/नष्ट-हो-जाएँगी-हिंदी-सहित/
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
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कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
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महात्मा गांधी के वैचारिक हनन पर एक शिक्षक का राजस्थान के मुख्यमंत्री को खुला पत्र।
श्री अशोक गहलोत जी,जयपुर, राजस्थान।माननीय मुख्यमंत्री, राजस्थान सरकार,
विषय : महात्मा गांधी जी के विचार के एकदम प्रतिकूल उनके ही नाम पर शिक्षा नीति।
महोदय,
‘गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान’ की पत्रिका ‘गाँधी मार्ग’ में आपकी सरकार का एक विज्ञापन देखा. इस विज्ञापन के अनुसार आप की सरकार अपने राज्य में बड़े पैमाने पर “महात्मा गाँधी इंग्लिश मीडियम स्कूल” खोल रही है.
महोदय,
महात्मा गाँधी अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा के सख्त विरोधी थे. उन्होंने ‘यंग इंडिया’ में लिखा है, “अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो तो मैं आज से ही हमारे लड़के और लड़कियों की विदेशी माध्यम के जरिये शिक्षा बंद कर दूँ और सारे शिक्षकों और प्रोफेसरों से यह माध्यम तुरन्त बदलवा दूँ या उन्हें बरखास्त कर दूँ. मैं पाठ्यपुस्तकों की तैयारी का इंतजार नहीं करूँगा. वे तो माध्यम के परिवर्तन के पीछे-पीछे चली आवेंगी.” ( यंग इंडिया,7.1.1926)
गाँधी जी का विचार था कि माँ के दूध के साथ जो संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए वह विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने में टूट जाता है. हम ऐसी शिक्षा के वशीभूत होकर मातृद्रोह करते है.
गाँधी जी चाहते थे कि बुनियादी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक सब कुछ मातृभाषा के माध्यम से हो. दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान ही उन्होंने समझ लिया था कि अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा हमारे भीतर औपनिवेशिक मानसिकता बढ़ाने की मुख्य जड़ है. ‘हिन्द स्वराज’ में ही उन्होंने लिखा कि, “करोड़ों लोगों को अंग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है. मैकाले ने जिस शिक्षण की नींव डाली, वह सचमुच गुलामी की नींव थी. उसने इसी इरादे से वह योजना बनाई, यह मैं नहीं कहना चाहता, किन्तु उसके कार्य का परिणाम यही हुआ है. हम स्वराज्य की बात भी पराई भाषा में करते हैं, यह कैसी बड़ी दरिद्रता है? ....यह भी जानने लायक है कि जिस पद्धति को अंग्रेजों ने उतार फेंका है, वही हमारा श्रृंगार बनी हुई है. जिसे उन्होंने भुला दिया है, उसे हम मूर्खता वश चिपकाए रहते हैं. वे अपनी मातृभाषा की उन्नति करने का प्रयत्न कर रहे हैं. वेल्स, इंग्लैण्ड का एक छोटा सा परगना है. उसकी भाषा धूल के समान नगण्य है. अब उसका जीर्णोद्धार किया जा रहा है....... अंग्रेजी शिक्षण स्वीकार करके हमने जनता को गुलाम बनाया है. अंग्रेजी शिक्षण से दंभ- द्वेष अत्याचार आदि बढ़े हैं. अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों ने जनता को ठगने और परेशान करने में कोई कसर नहीं रखी. भारत को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं. जनता की हाय अंग्रेजों को नहीं हमको लगेगी.”( हिन्दी स्वराज, शिक्षा, पृष्ठ-72-73) अपने अनुभवों से गाँधी जी ने निष्कर्ष निकाला था कि, “अंग्रेजी शिक्षा के कारण शिक्षितों और अशिक्षितों के बीच कोई सहानुभूति, कोई संवाद नहीं है. शिक्षित समुदाय, अशिक्षित समुदाय के दिल की धड़कन को महसूस करने में असमर्थ है.” ( शिक्षण और संस्कृति, सं. रामनाथ सुमन, पृष्ठ-164)
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक उद्घाटन समारोह में बोलते हुए उन्होंने कहा कि, “मुझे आशा है कि इस विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रबंध किया जाएगा. हमारी भाषा हमारा ही प्रतिबिंब है और इसलिए यदि आप मुझसे यह कहें कि हमारी भाषाओं में उत्तम विचार अभिव्यक्त किए ही नहीं जा सकते तब तो हमारा संसार से उठ जाना ही अच्छा है. क्या कोई व्यक्ति स्वप्न में भी यह सोच सकता है कि अंग्रेजी भविष्य में किसी भी दिन भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है ? फिर राष्ट्र के पैरों में यह बेड़ी किसलिए ? यदि हमें पिछले पचास वर्षों में देशी भाषाओं द्वारा शिक्षा दी गयी होती, तो आज हम किस स्थिति में होते ! हमारे पास एक आजाद भारत होता, हमारे पास अपने शिक्षित आदमी होते जो अपनी ही भूमि में विदेशी जैसे न रहे होते, बल्कि जिनका बोलना जनता के हृदय पर प्रभाव डालता.” ( शिक्षण और संस्कृति, सं. रामनाथ सुमन, पृष्ठ-765 )
महोदय, आप अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खोलें या जर्मन माध्यम के, किन्तु गाँधी का नाम उससे हटा लें वर्ना इसका बहुत दूरगामी प्रभाव पड़ेगा. आने वाली पीढ़ियाँ यही समझेंगी कि महात्मा गाँधी अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा के पक्षधर थे. तभी तो उनके नाम पर अंग्रेजी माध्यम के स्कूल काँग्रेस पार्टी की सरकार ने खोला है- वहीं कांग्रेस पार्टी, जो अपने को गाँधी की विरासत को लेकर चलने का सबसे ज्यादा दावा करती है.
बेहतर होगा यदि आप अपने स्कूलों का नाम “गवर्नमेंट इंग्लिश मीडियम स्कूल” कर लें किन्तु हमारी प्रार्थना है कि गाँधी का नाम बदनाम न करें.
सधन्यवाद
डॉ. अमरनाथ
पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, कलकत्ता विश्वविद्यालय, कोलकाता
ई-मेल: amarnath.cu@gmail.comमो. : 9433009898
प्रति अवलोकनार्थ तथा आवश्यक कार्यवाही हेतु, श्री राहुल गाँधी जी,विश्व हिन्दी दिवस, 10 जनवरी 2022
टिप्पणीमहात्मा गांधी जी अगर महात्मा गांधी थे तो अपने विचारों और चिंतन के कारण। अगर महात्मा गांधी जी की हत्या न होती तो भी वे कब तक जीते? लेकिन उनके विचार विश्व की अनमोल धरोहर हैं। अपने विचारों के कारण वे हजारों साल तक लोगों के दिलो-दिमाग में जीवित रहेंगे। इसलिए मुझे लगता है कि नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी जी की शारीरिक हत्या से कहीं अधिक नृशंस और गंभीर है उनकी वैचारिक हत्या। जो व्यक्ति आजीवन शिक्षा के लिए मातृभाषा माध्यम की पैरवी करता रहा, संघर्ष करता रहा, उनके नाम के साथ इंग्लिश मीडियम जोड़ना उनके विचारों पर उनकी वैश्विक छवि पर कितना बड़ा प्रहार है, नेता भले ही न समझें लेकिन विद्वान इसे भली-भाँति समझ सकते हैं।
भाषा-संस्कृति की तो किसी को पड़ी नहीं, महात्मा गांधी के कथित समर्थक, कथित गांधीवादी और गांधी जी के नाम पर बनी संस्थाओं के पदाधिकारियों को मुखर हो कर इस निर्णय का विरोध करके महात्मा गाँधी की वैचारिक हत्या को रोकना चाहिए। खुद को जागना और दूसरों को जगाना चाहिए। इस संबंध में आप अपने विचार भेज सकते हैं।
डॉ, मोतीलाल गुप्ता आदित्यनिदेशक, वैश्विक हिंदी सम्मेलन।विटामिन डी का निर्माण शरीर सूर्य के प्रकाश से करता है। तिल (तिल) में सबसे अधिक कैल्शियम (975mg प्रति 100 ग्राम) होता है। दूध में 125mg ही होता है। शरीर एक वर्ष तक विटामिन डी का भंडारण करने में सक्षम है, और भंडार का उपयोग करता है। अंत में, शरीर अपने विटामिन डी के भंडार को पूरे 3 दिन की धूप के साथ पूरा करने में सक्षम है। सूरज की रोशनी का सबसे अच्छा गुण सर्दी का अंत और गर्मियों की शुरुआत है। अब बिन्दुओं को मिलाइए और देखिए कि प्राचीन भारत में हमारे ऋषि कितने बुद्धिमान थे। उन्होंने पतंग उड़ाने का एक उत्सव बनाया जहां हमारे बच्चे सुबह से शुरू होकर पूरे दिन खुले में, सीधे धूप में जाने के लिए उत्साहित होते हैं। और उनकी माताएं उन्हें घर के बने तिल के लड्डू खिलाती हैं। क्या हम एक शानदार संस्कृति नहीं हैं ?अनिर्बाण विस्वाससम्पूर्ण भारत में सूर्य नमस्कार एवं नई फसल के पूजन के लिए मनाए जाने वाले ये त्योहार इस राष्ट्र की विविधता में एकता के उदाहरण हैं । इस दिन, सूर्य नमस्कार के पारम्परिक विधानों और अनुष्ठानों को पूरा करते हुए अन्न पूजन, तिल-गुड-चिऊड़ा (पोहा भी जिसे कहते हैं) का जहां प्रसाद खाया जाता है वहीं उत्तर पूरब के असम प्रांत एवं ईर्द गिर्द के इलाके में इसे बेहद रंगारंग कार्यक्रम के रुप में पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है । दक्षिण भारत में भी यह पर्व पोंगल नाम से बेहद आकर्षक एवं विधि विधान से नव अन्न पूजन व नंदी आदि के पूजन के साथ नए कपड़े पहन कर मनाया जाता है और गुजरात लखनऊ गया आदि जगहों में तो इस दिन अजब ग़जब की पतंगबाजी होती है । वैसे पतंगबाजी का जुनूनू धीरे धीरे हर वर्ष कम से कमतर होता जा रहा किन्तु फिर भी इन क्षेत्रों में आज के दिन आसमान में रंगा रंग पतंगों की लड़ाई का सौंदर्य ही अद्भुत होता है । भकाट्टा की आवाज कई बार समूह में सुना जाता रहा है जहां लोग घरों के छतों पर खड़े रह कर सूर्य डूबने तक पतंग उड़ाते रहते हैं ।
दानपुण्य का यह पर्व बेहद उत्साह के साथ पूरे देश में मनाया जाता है किन्तु अब इन पर्वों के आयोजन व मनाए जाने में कई हार मात्र औपचारिकताएँ ही नज़र आती हैं। आवश्यकता है, इन पर्वों की परम्परागत शैलियों को फिर से सामूहिक रुप में मनाने पर जोर दिया जाए और इन पर्व त्योहारों के बारे में बच्चों को स्कूली शिक्षा प्रदान करते समय पूरा ज्ञान दिया जाए ताकि नई पीढी अपनी परम्पराओं के सौंदर्य को जान समझ सकें अन्यथा ये पर्व धीरे धीरे भुला दिए जाएंगे। जरूरत है कि सामाजिक रूप से इन पर्वों पर मेल मिलाप को बढ़ावा दिया जाए ।
उदय कुमार सिंह
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
प्रस्तुत
कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो.: 09703982136
तीसरी पीढ़ी तक नष्ट हो जाएँगी हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाएँ..!
‘पिछले 10-15 वर्ष से यह साफ दिख रहा है कि यदि हमने कुछ बड़े बदलाव नहीं किए और चीजें इसी तरह चलती रही तो आज से तीस - चालीस साल बाद एक भी भारतीय भाषा जीवंत मजबूत और शक्तिशाली भाषा के रूप में जीवित नहीं बचेगी’। यह कहना था वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव का वे विश्व हिंदी दिवस पर ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ तथा ‘जनता की आवाज फाउंडेशन’ द्वारा उद्योग एवं व्यापार जगत के प्रतिनिधियों के साथ आयोजित 'अपनी भाषा-अपना देश, ग्राहक की भाषा में संदेश' विषय पर आयोजित वैश्विक ई-संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में अपने विचार प्रस्तुत कर रहे थे। उन्होंने कहा कि हमारे समय में ही आप देख सकते हैं कि हमारे बच्चों की जिंदगी में हमारी कितनी भाषा बची है? उन्होंने कहा कि यदि हमें अपनी भाषाओं को बचाना और बढ़ाना है तो इस देश के उद्योगपतियों और व्यापारियों को अपनी भाषा से पढ़ने वाले योग्य विद्यार्थियों को नौकरियां देनी होंगी। अपने उत्पादों पर नाम और ग्राहकों के लिए सूचना भी ग्राहकों की भाषा में देनी होगी। उन्होंने यह भी कहा कि यदि हमारी भाषाएँ न बची तो पिछले आठ – दस हजार वर्षों में हमने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जो कुछ भी अर्जित किया है और हमारे धर्म से जुड़ा समस्त साहित्य भी सदा के लिए नष्ट हो जाएगा। अगर हमें यह सब बचाना है तो हमें अपनी भाषाओं को भी बचाना और बढ़ाना होगा, और यह पहल उद्योग और व्यापार जगत ही कर सकता है।
इसके पूर्व अमेरिकी नागरिक और भारतीय आध्यात्मिक ग्रंथों की हिंदी में पद्यबद्ध रचनाकार डॉ. मृदुल कीर्ति ने कहा कि अमेरिका, आस्ट्रेलिया आदि देशों में विभिन्न देशों से जो उत्पाद आते हैं उन उत्पादों की पैकिंग पर उन देशों की भाषा में नाम आदि लिखा होता है लेकिन भारत से आने वाले ज्यादातर उत्पादों में भारतीय भाषाओं में हमारी भाषा में नाम या कोई जानकारी नहीं होती। इससे भारत, भारतवासियों और भारतीय भाषाओं का अपमान होता है। उन्होंने भारत की सभी उत्पादकों और व्यापारियों से अनुरोध किया कि वे निर्यात किए जाने वाले सभी उत्पादों पर भारत की भाषाओं में ‘भारत में निर्मित’ अवश्य लिखें।
फेडरेशन ऑफ राजस्थान ट्रेड एंड इंडस्ट्रीज के कार्यकारी अध्यक्ष राजस्थान चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज के मानद सचिव व प्रवक्ता अरुण अग्रवाल ने कहा कि यदि न्यायपालिका कार्यपालिका सहित सभी स्तरों पर अगर हिंदी आ जाए तो भारत में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले ऊपर आ सकते हैं।
'महाराजा सोप उद्योग समूह' जो करीब 125 उत्पाद बनाती है और उनका निर्यात भी करती है, उसके अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक तथा फेडरेशन ऑफ राजस्थान ट्रेड एंड इंडस्ट्री के उपाध्यक्ष और विभिन्न औद्योगिक एवं सामाजिक संगठनों के पदाधिकारी जगदीश सोमानी ने संगोष्ठी में कहा- व्यापार और उद्योग जगत में हिंदी को महत्व दिया जाना जरूरी है। उन्होंने कहा कि मैं जिन भी व्यापारिक औद्योगिक संस्थाओं में रहा तो उनकी तरफ से किया जाने वाला समस्त पत्राचार हमने हिंदी में ही किया। उन्होंने बताया कि उनके द्वारा लगभग 125 तरह के जो उत्पाद बनाए जाते हैं उनमें उस देश की जरूरत के साथ-साथ हम हिंदी में भी जानकारी देते हैं। अगर कोई मना करता है तो हम कहते हैं कि यह हमारी देश की कानूनी अनिवार्यता है। उन्होंने यह भी बताया कि उनकी वेबसाइट में हिंदी सहित पांच भाषाएं हैं लेकिन सबसे पहले हिंदी में ही खुलती है। उनका कहना था कि लेकिन इस संबंध में सरकार को अधिनियम बनाकर ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि जानकारी हिंदी में और ग्राहक की भाषा में अनिवार्य रूप से दी जाए।
भारत सरकार द्वारा ‘उद्योग-रत्न’ और ‘बेस्ट एंप्लॉयर ऑफ द ईयर अवार्ड’ से सम्मानित ' विद्युत टेलिट्रॉनिक्स लिमिटेड' के अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक श्री नरेंद्र कुमार जैन जो 'एंप्लॉयर एसोसिएशन ऑफ राजस्थान के अध्यक्ष' और विभिन्न औद्योगिक - व्यापारिक व सामाजिक संस्थाओं के पदाधिकारी हैं। उन्होंने कहा यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे बच्चे घर में तो हिंदी बोलते हैं लेकिन स्कूल में जाने पर सब अंग्रेजी में हो जाता है। यह बहुत बड़ी विडंबना है। इसके कारण समाज में अधकचरा ज्ञान होता जा रहा है। उन्होंने आह्वान किया कि दुनिया में जहाँ कहीं भी भारतवासी हैं, उन्हें अपने देश की भाषा हिंदी का प्रयोग करना चाहिए।
‘जनता की आवाज फाउंडेशन’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ के संरक्षक तथा बोथरा ग्रुप के चेयरमैन एवं प्रबंध निदेशक सुंदर बोथरा ने कहा कि ऐसा नहीं है कि जो अंग्रेजी में पारंगत नहीं है, वे कामयाबी हासिल कर सकते। यह जरूरी है कि हमारे देश का काम हमारे देश की भाषा में किया जाए। उन्होंने कहा कि हमारे देश का नाम हजारों वर्षों से ‘भारत’ है इसलिए किसी भी भाषा में इसे ‘भारत’ ही कहा जाना चाहिए और इंडिया नाम को संविधान से हटाया जाना चाहिए। कई वक्ताओं ने इस पर जोर दिया।
कार्यक्रम का विषय-प्रवर्तन करते हुए ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ के निदेशक तथा ‘जनता की आवाज फाउंडेशन’ के राष्ट्रीय मंत्री डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’ ने कहा कि विभिन्न कानूनों के अंतर्गत दी जाने वाली सूचनाएँ जनता को देश और राज्य की भाषा में न दिए जाने से इस देश की 96-97% लोगों के विभिन्न कानूनी अधिकारों का और लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन हो रहा है। उन्होंने बताया कि विश्व के 20 सबसे विकसित देश वे हैं जो देश की भाषा में पढ़ते और काम करते हैं, जबकि इसके विपरीत विदेशी भाषा में पढ़ने और काम करने वाले देश दुनिया के बीस सबसे गरीब देश हैं।
संगोष्ठी उड़ीसा की विद्यार्थी स्वरूपा सिंह द्वारा प्रस्तुत सरस्वती वंदना से प्रारंभ हुई। संगोष्ठी में जनता की आवाज फाउंडेशन के उपाध्यक्ष द्वय कानबिहारी अग्रवाल तथा विनोद माहेश्वरी ने और सुरेंद्र सुराना, उदय कुमार सिंह, मनोरमा मिश्र ने अपने विचार रखे। धन्यवाद ज्ञापन ‘जनता की आवाज फाउंडेशन’ के राष्ट्रीय महासचिव कृष्ण कुमार नरेडा ने प्रस्तुत किया। संगोष्ठी में पंकज बोहरा, मोतीलाल भुरा, ईश्वरचंद बैद, शंकर आसकंदानी, विपिन गुप्ता, डॉ. राजीव कुमार, संजय कुमार आदि उपस्थित थे।
विश्व हिंदी दिवस पर वैश्विक ई-संगोष्ठी का यूट्यूब लिंक
https://www.youtube.com/watch?
v=UXoOhbWu--k
‘विश्व हिंदी दिवस’ के अवसर पर दैनिक जागरण के मंच पर ‘अनंत विजय’ जी द्वाराअमेरिका स्थित आई.टी. विशेषज्ञ व कवि हृदय अनूप भार्गव जी से विशेष चर्चा‘हिंदी और विश्व में हिंदी के बढ़ते हुए प्रभाव’ के ‘विभिन्न पहलुओं’ पर बातचीत हुई।कई रोचक सवाल सामने आए, 'हिंदी से प्यार है' का भी ज़िक्र हुआ, बहुत ही रोचक चर्चा।यदि समय हो सुनिएगा । लिंक नीचे दिया गया है।
https://www.facebook.com/watch/?v=1095431694574792 याद है आज 'विश्व हिंदी दिवस' है……...प्रकाशित हुई है,
जिसका यूआरएल - https://hindibhashaa.com/याद-है-आज-विश्व-हिंदी-दिवस/
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
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कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
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याद है आज विश्व हिंदी दिवस है--अशोक चक्रधर‘विश्व हिंदी दिवस’ मनाए जाने के पीछे ‘विश्व हिंदी सम्मेलनों’ की भूमिका रही है। उन्नीस सौ पचहत्तर से ‘विश्व हिंदी सम्मेलनों’ का सिलसिला चला। पहला नागपुर में हुआ। दूसरा सम्मेलन उन्नीस सौ छिहत्तर में मॉरीशस में। फिर सात वर्ष के अंतराल के बाद सन उन्नीस सौ तिरासी में नई दिल्ली में आयोजित हुआ। चौथा इसके दस साल बाद उन्नीस सौ तिरानवे में पुन: मॉरीशस में हुआ। पांचवां उन्नीस सौ छियानवै में त्रिनिदाद में, छठा, उन्नीस सौ निन्यानवै में लंदन में, सातवां दो हज़ार तीन में सूरीनाम में आयोजित हुआ और आठवां न्यूयार्क में। नवां दो हज़ार बारह में जोहान्सबर्ग में हुआ, दो हज़ार पंद्रह में भोपाल में हुआ। अब तक का अंतिम ग्यारहवां हुआ है, मॉरीशस में। बताता चलूं कि मैं अधिकांश सम्मेलनों में दी गई ज़िम्मेदारियों के साथ सम्मिलित हुआ हूं।
‘विश्व हिंदी सम्मेलन’ की संकल्पना राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा द्वारा की गई थी। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के ही तत्त्वावधान में तीन-दिवसीय प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन चूंकि दस जनवरी उन्नीस सौ पिचहत्तर को नागपुर में आयोजित किया गया, इसीलिए आगे चलकर प्रतिवर्ष ‘विश्व हिंदी दिवस’, मनाने के लिए दस जनवरी की तिथि सुनिश्चित कर दी गई।
सम्मेलन का उद्देश्य पहले सम्मेलन में ही स्पष्ट कर दिया गया था कि, उन्हें तत्कालीन वैश्विक परिस्थिति में हिंदी को किस प्रकार सेवा का साधन बनाना है। उनकी कामना थी कि हिंदी संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रवेश पाकर विश्वभाषा के रूप में समस्त मानवजाति की सेवा की ओर अग्रसर हो। साथ ही यह किस प्रकार भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ विश्व के समक्ष प्रस्तुत करके ‘एक विश्व एक मानव-परिवार’ की भावना का संचार करे।
पहला विश्व हिंदी सम्मेलन किसी सामाजिक या राजनीतिक प्रश्न अथवा संकट को लेकर नहीं, बल्कि हिंदी भाषा तथा साहित्य की प्रगति और प्रसार से उत्पन्न प्रश्नों पर विचार के लिए भी आयोजित किया गया।
माना कि हिंदी राजभाषा है, लेकिन राजभाषा के रूप में इसका कितना महत्व है और राजकाज में कितना प्रयोग में आती है, ये कुछ ऐसी बातें हैं, जिन्हें हम दबा देते हैं। हिंदी अपने ही देश में अपने अधिकार खोने लगी थी और हम बात कर रहे थे संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी की आधिकारिकता की।
संयुक्त राष्ट्र संघ में भाषा की ‘श्रेष्ठता’ स्वीकार कराने के लिए कुछ निर्धारित मानक थे। हिंदी से जुड़े आंकड़ों को लेकर हम वहां खरे नहीं उतरे। दरअसल, हुआ क्या कि चीन में भाषा के प्रति राजनीतिक सदिच्छा रही और लाल झंडे तले लालफ़ीताशाही ने देश के सारे नागरिकों से भाषा के कॉलम में एक ही नाम भरवा लिया—‘मंदारिन’। हमारे लोकतंत्र में कोई अंकुश तो था नहीं, जनगणना में राज्यवार हमारे नागरिकों ने अलग-अलग भाषाएं लिख दीं। हालांकि, चीन में भी हमारे देश के समान तीस-चालीस भाषाएं अस्तित्व और चलन में थीं। सत्तर के दशक के प्रारंभ में उनकी आबादी लगभग सत्तर करोड़ थी। जनगणना के भाषागत सर्वेक्षण के आधार पर यूएनओ ने स्वीकार कर लिया कि चीनी बोलने वाले सत्तर करोड़ हैं। और उन्होंने ‘मंदारिन’ को मान्यता दे दी। संख्या-बल में हम दूसरी महाशक्तियों से भी पिछड़ते गए।
अनेक विद्वान मानते हैं कि हिंदी की महनीयता तभी मानी जाएगी, जब वह संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता पा जाएगी। विडम्बना देखिए कि सन् पिचहत्तर से लेकर अब तक ग्यारह विश्व हिंदी सम्मेलन हो चुके हैं लेकिन हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनने का गौरव प्राप्त नहीं हुआ। संयुक्त राष्ट्र संघ के नखरे बहुत थे।
दसवें सम्मेलन की अनुशंसा थी— ‘संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को समयबद्ध तरीक़े से आधिकारिक भाषा बनाने के लिए संकल्प लिया जाना चाहिए। इस संबंध में अन्य देशों का समर्थन जुटाने के लिए भारतीय दूतावासों/मिशनों को और अधिक प्रयास करने चाहिए’।
इसमें संदेह नहीं कि तत्कालीन विदेश मंत्री सम्मान्या श्रीमती सुषमा स्वराज के नेतृत्व में अनुशंसा अनुपालन समितियों की अठारह बैठकें हुईं और लगने लगा कि अब तो पुराना सपना साकार हो ही जाएगा। उन्होंने भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में हिंदी की अनिवार्यता के लिए बहुत कुछ किया पर वे भी संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच से एक हिंदी बुलेटिन प्रारंभ कराने से अतिरिक्त कुछ नहीं कर पाईं ।
‘विश्व हिंदी दिवस’ का आयोजन अभी तक विदेश मंत्रालय ही अपने सीमित दायरे में कराता आ रहा है। विदेश मंत्रालय में अब सुषमा जी जैसा कोई विकट हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषा-प्रेमी नज़र नहीं आ रहा। ऐसा लगने लगा है कि मंत्रालय की प्राथमिकताओं में भारतीय भाषाओं की अस्मिता जैसे मुद्दे गौण हो गए हैं।
उम्मीदें कभी समाप्त नहीं होतीं। हिंदी में भारत है। भारत की समेकित संस्कृति है। हम अगर नए वैश्विक संदर्भों में ‘विश्व हिंदी दिवस’ मनाएंगे, तो लक्ष्य भी पा जाएंगे। इस बार एक नए सोच के साथ विज्ञान-भवन में एक भव्य आयोजन होना था, लेकिन अफ़सोस कि कोरोना की भेंट चढ़ गया।अनुपालन को प्यासी बैठीं जाने कितनी अनुशंसाएं,आड़े आती हैं शंकाएं, पीड़ित करती आशंकाएं।मंज़िल हो जाए परास्त अगर गतिमान प्रगति का चक्का हो,अनकिया सभी पूरा हो यदि, संकल्प हमारा पक्का हो।
विश्व में हिंदी प्रसार के लिए अथक प्रयास कर रहे मित्रों से अग्रिम क्षमा-याचना सहित।
विश्व हिंदी दिवस पर मेरी गुहार।जब अपने ही घर में हिंदी, लटकी अधर में,बच्चे लिख-पढ़ नहीं पा रहे हिंदी, घर में।
हम लगे विश्व में, हिंदी का करने को प्रसार,
जब जड़े ही सूख रही हों, तो सोचिए,
पत्तों पर पानी डाल, कैसे आएगी बहार।
जब नहीं मिलता देश में, हिंदी से रोजगार,तो विदेशों में हिंदी का कोई, क्या करेगा यार?
छोटी सी यह सोच है मेरी, और छोटा सा विचार।
ज्यादा कुछ नहीं कर सको तो, इतनी सी है गुहार।
प्राइमरी तक तो हिंदी माध्यम, करवा दो सरकार।
डॉ. मोतीलाल गुप्ता 'आदित्य'
निदेशक
वैश्विक हिंदी सम्मेलनविश्व हिंदी दिवस -10 जनवरी, 2022 की ई-संगोष्ठियाँ।
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
प्रस्तुत
कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो.: 09703982136