| बुध, 28 अक्तू॰, 11:46 pm (11 घंटे पहले) | |||
वैश्विक ई-संगोष्ठी का आयोजन
‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ के तत्वावधान में दिनांक 24 अक्तूबर, 2020 को सायं 4.30 बजे से ‘भारतीय भाषाओं को रोंदता अंग्रेजी का साम्राज्यवाद’ विषय पर ‘वैश्विक ई-संगोष्ठी’ का आयोजन किया गया, जिसमें वरिष्ठ पत्रकार और भारतीय भाषा चिंतक श्री राहुल देव, हिंदी बचाओ मंच के संयोजक प्रो. अमरनाथ, डॉ. बरुण कुमार, निदेशक (राजभाषा), रेलवे बोर्ड, प्रो. जोगा सिंह विर्क, पूर्व विभागाध्यक्ष, पंजाबी विश्वविद्यालय ने विषय पर प्रतिभागियों का ज्ञानवर्धन किया। संगोष्ठी का प्रारंभ स्वागत-संबोधन के साथ ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ की संयोजक डॉ. सुस्मिता भट्टाचार्य ने किया तथा प्रथम वक्ता के रूप में विषय प्रवर्तन ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ के निदेशक डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’ ने किया।
‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ की संयोजक डॉ. सुस्मिता भट्टाचार्य ने कहा कि जब वे छोटे थे तो मातृभाषा में ही पढ़ते थे, ऐसा कैसे हुआ कि शिक्षा का पूरी तरह अंग्रेजीकरण कर दिया गया, इस पर संगोष्ठी में विचार करना आवश्यक है। तत्पश्चात ई-संगोष्ठी का संचालन करते हुए वैश्विक हिंदी सम्मेलन के निदेशक डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’ ने कहा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश के 99 प्रतिशत से भी अधिक जनता मातृभाषाओं के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करती थी लेकिन स्वराज्य प्राप्ति के बाद स्थिति उलट हो गई। संविधान में हिंदी को संघ सरकार की राजभाषा घोषित किया है, विभिन्न राज्यों में भी वहाँ की भाषाएँ राजभाषा घोषित हैं। लेकिन संविधान, विधान के अंतर्गत बने कानूनों आदि के माध्यम से अंग्रेजी संघ और सभी राज्यों की अघोषित राजभाषा बनी हुई है। संसाधनों की ढलान अंग्रेजी की ओर कर दी गई है। जब हिंदी के पठन-पाठन, ज्ञान, उपयोग से रोजगार, शिक्षा, न्याय आदि कुछ नहीं मिलेगा तो जनता क्यों और कैसे मातृभाषा में या किसी भारतीय भाषाओं में पढ़ेगी? उन्होंने कहा आज अंग्रेजी अट्टहास करते हुए हमारी तमाम भाषाओं को रोंदते हुए हमारी भाषा-संस्कृति, धर्म-परंपराओं और प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को लीलती जा रही है। राजनीतिबाज अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए भाषाओं के नाम पर हमें लड़ा रहे हैं। जो काम अंग्रेजों ने किया, स्वतंत्रता के पश्चात हमारे नेताओं के कंधों पर बैठकर अंग्रेजी ने भी यही काम किया, बांटो और राज करो। अपनी सहोदर भाषाओं के नाम पर हमारे दिमाग में कितना विद्वेष भर दिया गया है। भाषा के नाम पर जितने आंदोलन मैं देखता हूं, उनमें अंग्रेजी का विरोध शायद ही कहीं होता हो ? हम लड़ते रहे, वे बढ़ते रहे। और इस प्रकार धीरे-धीरे पूरे देश पर अंग्रेजी का साम्राज्य स्थापित होता गया। इससे सभी भारतीय भाषाएँ हाशिए पर जाती रहीं है। उन्होंने आशा की किरण के रूप में नई शिक्षा नीति का उल्लेख करते हुए कहा, ‘हमारी यह कोशिश होनी चाहिए कि हम अपने राज्य की संस्कृति की रक्षा के लिए अंग्रेजी के स्थान पर मातृभाषा माध्यम के लिए कोशिश करें। कम से कम प्राथमिक स्तर तक तो अंग्रेजी माध्यम न हो।‘
प्रो. जोगा सिंह विर्क, पूर्व विभागाध्यक्ष, पंजाबी विश्वविद्यालय ने कहा कि भारत एवं भारतीयता की भावना जब नीतिकारों के मन में आएगी तभी कुछ भाषाओं के बारे में सोचा जा सकता है। अतः उनके पास जाकर उनसे चर्चा कर इस भाषा संकट से उन्हें अवगत कराना बहुत जरूरी है। प्रशासन में भी भारतीय भाषाओं के उपयोग पर ध्यान दिया जाना जरूरी है क्योंकि जो भी नीति बनती है उसके पालन की जिम्मेदारी प्रशासन की ही होती है, उन्हें भी भाषाओं के प्रति अपनी जिम्मेदारी को ठीक तरह से निभानी जरूरी है। नौकरी में निचले स्तर की परीक्षा पास करने के लिए भी अंग्रेजी की अनिवार्यता होगी तो भारतीय भाषाओं में पढ़कर अभ्यर्थी कैसे सफल होगा, यह भी एक प्रश्न है।
डॉ. बरुण कुमार, निदेशक (राजभाषा), रेलवे बोर्ड, नई दिल्ली ने कहा कि ज्ञान के लिए अंग्रेजी पढ़ने का कहीं कोई विरोध नहीं है, लेकिन इसने सभी भारतीय भाषाओं को गौण कर दिया है, कुछ गिनेचुने लोगों की ही भाषा है। ज्यादातर लोग इसके जानकार नहीं है, जो भी शासनादेश आते हैं, ज्यादातर अंग्रेजी में ही होते हैं। अतः आम जनता उन्हें ठीक से समझ नहीं पाती, कुछ लोग ऐसे नियमों का दुरुपयोग अपनी सुविधा के लिए करते हैं। जनता सरकार की नीतियों से, कार्यों से वंचित रह जाती है क्योंकि उन्हें मातृभाषा का तो ज्ञान होता है लेकिन इस भाषा का नहीं। भाषा के रूप में अंग्रेजी ज्ञान उचित है लेकिन हमें अपने देश में कार्य करने, व्यवहार करने के लिए जितनी अंग्रेजी की जरूरत है उतनी ही रखना चाहिए लेकिन अनावश्यक प्रयोग, विद्वता एवं पढ़े-लिखे होने की निशानी के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। जहाँ भारतीय भाषाओं के उपयोग से काम चल रहा हो वहाँ भी लोग अंग्रेजी शब्दों, भाषा का उपयोग धड़ल्ले से करते हैं। विवाह का निमंत्रण पत्र छपवाना हो, चाहे अपने निवास के चौकीदार से बात करना हो, निर्देश देना हो, चाहे ऑटो वाले से बात करना हो, अनावश्यक रूप से अंग्रेजी का प्रयोग आम बात है जबकि यह काम मातृभाषाओं के माध्यम से हो सकता है। आज शिक्षा केवल अंग्रेजी जानना ही हो गया है। कई जानीमानी परीक्षाओं में अंग्रेजी ज्ञान का स्तर 10वीं या इससे थोड़ा ज्यादा रखा गया है, ऐसा कहा जाता है लेकिन सच्चाई ये है कि इन परीक्षाओं में अंग्रेजी ज्ञान का स्तर कहीं अधिक होता है, जिससे परीक्षार्थियों को इसका मजबूरी में गहन अध्ययन करना होता है, तभी सफल हो सकता है। विद्यार्थी स्कूलों, महाविद्यालयों में अंग्रेजी का मूलभूत ज्ञान प्राप्त करके आते हैं पुनः उनके ज्ञान की परीक्षा ली जाती है, अतः प्रतिभा जाँचने के लिए भाषा का रोड़ा न रखें। आगे उन्होंने कहा कि हमें अंग्रेजी से लड़ने की जरूरत नहीं बल्कि अपनी भाषाओं की मौजूदगी बढ़ाने की आवश्यकता है। परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता घटाई जानी चाहिए।
वरिष्ठ पत्रकार और भारतीय भाषा चिंतक श्री राहुल देव ने कहा कि अंग्रेजी वालों एवं इसका समर्थन करने वालों एवं हिंदी का विरोध करने वालों एवं भारतीय भाषाओं का महत्व न समझने वालों से बात किए बिना बात नहीं बनेगी। अतः हमें उनसे बात करनी पड़ेगी, उनकी बातों को सुनना पड़ेगा और उन्हें तथ्यों/आँकड़ों के आधार पर इस भाषा संकट से अवगत कराना होगा। हमें सभी नीति निर्मातों, प्रशासकों, अधिकार सम्पन्न संस्थाओं, विद्यालयों, महाविद्यालयों से विस्तृत चर्चा करनी होगी। जनता भाषाविद नहीं है। ज्यादातर जनता आज बिना जाने अपने बच्चों के लिए अंग्रेजी की माँग कर रही है। उनकी सोच को बदलने की जरूरत है। उन्हें बताना होगा कि केवल नक़ल की भाषा से आगे नहीं बढ़ा जा सकता। उन्होंने कहा कि देश में आजकल ‘हिंग्लिश’ प्रचलित भाषा हो गई है, आज लोग न तो अंग्रेजी में अपनी बात कह पा रहे हैं, न ही देश की या अपनी मातृभाषा में। यह एक अभूतपूर्व संकट है।
इस अवसर पर इलाहाबाद से एक विद्यार्थी और उत्तर प्रदेश प्रतियोगी छात्र मंच के अध्यक्ष, संदीप सिंह ने अपनी व्यथा व्यक्त की कि राज्य की प्रशासनिक परीक्षा तरीकों में जो अनावश्यक बदलाव किए गए हैं, उनसे हिंदी माध्यम के विद्यार्थियों को बहुत कठिनाइयाँ हो रही हैं, इनके कारण अंग्रेजी माध्यम से उत्तीर्ण होने वालों का प्रतिशत बढ़ा है। वे इसके लिए विगत कई दिनों से अपनी बात विभिन्न मंचों पर उठा रहे हैं।
इसी दौरान एक और विद्यार्थी ने पूछा कि बिना अंग्रेजी पढ़े शिक्षा या नौकरी के लिए विदेशों में कैसे जा पाएँगे? इसके जवाब में प्रो. अमरनाथ ने कहा कि केवल कुछ लोगों की विदेशों में नौकरी के लिए पूरे देश को उस ओर झोंक देना ठीक नहीं। उऩ्होंने कहा कि इसके लिए बचपन से अंग्रेजी माध्यम जरूरी नहीं है। जरूरत के अनुसार कुछ ही समय में अंग्रेजी सीखी जा सकती है।
हिंदी बचाओ मंच के संयोजक प्रो. अमरनाथ ने आँकड़ों के आधार पर कहा कि जो विकसित देश हैं, वहाँ जनता, शिक्षा और सरकारी भाषा एक ही है लेकिन ज्यादातर गरीब/विकासशील देशों में यह देखने में आया है कि वहाँ जनता, शिक्षा और सरकारी भाषा अलग-अलग है। समय के साथ-साथ बदलाव होते हैं लेकिन हमारी संस्कृति, भाषाओं को बचाने की जिम्मेदारी भी हमें निभानी होगी। यह संकट,आज़ादी की दूसरी लड़ाई जैसी बात है, शायद तभी बात बन सकती है। शिक्षा को अमीर-गरीब में अलग-अलग बाँट दिया गया है। हमारे पास समृद्ध विरासत है फिर भी हम इसका लाभ नहीं ले पा रहे हैं। भाषा नीति ग्रामीण लोगों तक अपनी बात पहुँच सके ऐसी होनी चाहिए न कि कुछ लोग जो विदेशों में रोजगार पाने के लिए इसकी वकालत करते हैं, उन्हें ध्यान में रखकर बनाई जानी चाहिए। साथ ही उन्होंने कहा कि अंग्रेजी को रट-रट कर कोई खोज हुई हो तो बताएं?
कार्यक्रम के अंत में वैश्विक हिंदी सम्मेलन के निदेशक डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’ ने कार्यक्रम की सफलता पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए सभी वक्ताओं तथा ई-संगोष्ठी में शामिल सभी महानुभावों को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया। यू-ट्यूब के माध्यम से भी लोगों ने इस कार्यक्रम का लाभ लिया।
भारतीय भाषाओं के अभ्यर्थियों के साथ अन्याय के खिलाफ किया प्रदर्शन....
लोकसेवा परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं के अभ्यर्थियों के साथ अन्याय क्यों?
http://hindimedia.in/why-injustice-to-candidates-of- indian-languages-%e2%80%8b%e2% 80%8bin-public-service- examinations/# यह मामला संघ लोक सेवा आयोग से नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग से संबंधित हैंवैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
वैश्विक हिंदी सम्मेलन की वैबसाइट -www.vhindi.in
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प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
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लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो.: 09703982136