प्रस्तुत
कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो.: 09703982136
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डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल पिछले काफी समय से अपने शोध के माध्यम से यह दावा करते रहे हैं कि हिंदी विश्व की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। इस प्रकार के निष्कर्ष से हिंदी-भाषियों का प्रसन्न होना स्वाभाविक है। लेकिन जहाँ हिंदी के कुछ विद्वान उनके शोध से सहमत हैं तो वहीं अनेक विद्वान इससे असहमति जताते हैं। एक बार फिर यह मुद्दा चर्चा में है। इसलिए वैश्विक हिंदी सम्मेलन इस विषय पर विद्वानों के विचारों को बिना किसी छेड़छाड़ के प्रस्तुत कर रहा है। जो विद्वान संक्षेप में अपने विचार भेजना चाहें वे निम्नलिखित ईमेल पर भेज सकते हैं।हिन्दी को लेकर भ्रामक शोध
· डॉ. अमरनाथ
केन्द्रीय हिन्दी संस्थान ने श्री आनंद कुमार, निदेशक (नीति), गृह मंत्रालय, भारत सरकार को प्रेषित अपने नवीनतम पत्र ( तिथि का उल्लेख नहीं )में28.07.2021 को प्रेषित अपने पूर्व पत्र से पल्ला झाड़कर समझदारी का काम किया है. संस्थान की ओर से निदेशक डॉ. बीना शर्मा ने अपने पूर्व पत्र का उल्लेख करते हुए स्पष्टीकरण दिया है और लिखा है, “वर्तमान स्थिति में किसी भी प्रकार के सर्वेक्षण की पुष्टि करना हमारे लिए संभव नहीं है.”निश्चित रूप से संस्थान ने ऐसा करके अपनी प्रतिष्ठा बचा ली है किन्तु डॉ. नौटियाल अति उत्साह में पिछले डेढ़ दशक से समाज में जो भ्रम फैला रहे हैं, उसपर से आवरण हटना बहुत जरूरी है. डॉ. नौटियाल अपने भ्रामक शोध -निष्कर्ष को गृह मंत्रालय तक पहुंचाने और उसकी संस्तुति हासिल करने के लिए हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयासरत देश की सबसे प्रतिष्ठित संस्था केन्द्रीय हिन्दी संस्थान को भी एक बार भ्रमित करने में सफल हो गए थे. अच्छा हुआ जल्दी ही संस्थान को अपनी गलती का अहसास हो गया किन्तुअपना स्पष्टीकरण देते हुए केन्द्रीय हिन्दी संस्थान और गृह मंत्रालय दोनों की किरकिरी जरूर हुई है.
डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल ने अपने निजी प्रयासों से शोध करके निष्कर्ष निकाला है किदुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा हिन्दी है. वे पिछले डेढ़ दशक से इस तरह के भ्रामक अध्ययन- निष्कर्ष के प्रचार में लगे हैं.
दरअसल वैज्ञानिक ढंग से किए जाने वाले किसी भी शोध के चार सोपान होते है, विषय की प्राक्कल्पना (हाइपोथीसिस), शोध सामग्री का संचयन, सामग्री का वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण और अंत में निष्कर्ष. प्राक्कल्पना कभी भी सिद्धांत के तौर पर नहीं की जा सकती. वह सिद्धांत को स्थापित करने के लिए अनुमानित की जाती है. वह निष्कर्ष तक पहुँचने का साधन मात्र है. डॉ. नौटियाल ने सिद्धांत या निष्कर्ष पहले ही तय कर लिया है. उन्होंने पहले से ही सुनिश्चित कर लिया है कि उन्हें हिन्दी को विश्व की सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा सिद्ध करना है. फिर इसे सिद्ध करने के लिए वे उन तथ्यों की उपेक्षा करते हैं जिनसे उनका पूर्वाग्रह प्रभावित हो सकता था. वे अपने द्वारा चयनित तथ्यों का भी भ्रामक विश्लेषण करते हैं.इस संबंध में उनके द्वारा अपनाए गए दो प्रमुख तथ्यों की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ.
पहला, डॉ. नौटियाल ने हिन्दी और उर्दू को एक ही भाषा माना है और इस तरह भारत और पाकिस्तान की हिन्दी-उर्दू भाषी जनसंख्या को हिन्दी- भाषी जनसंख्या के रूप में ही परिगणित कर लिया है.
यह सही है कि वाक्यों की बनावट, व्याकरण और शब्दावली की दृष्टि से हिन्दी और उर्दू में इतनी समानता है कि ज्यादातर भाषा वैज्ञानिकों ने उर्दू को भी हिन्दी की ही एक शैली माना है, किन्तु हमारे संविधान में उर्दू को हिन्दी से अलग एक स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है. वह भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल 22 भाषाओं में से एक भाषा है, हिन्दी की ही तरह देश के हिन्दी- भाषी कहे जाने वाले राज्यों में भी उर्दू को दूसरी या तीसरी राजभाषा के रूप में मान्यता मिली हुई है. देश के विश्वविद्यालयों तथा अन्य शिक्षण संस्थाओं में भी उर्दू के स्वतंत्र विभाग और पाठ्यक्रम हैं. ऐसी दशा में उर्दू- भाषियों को हिन्दी में परिगणित करना असंवैधानिक है और संविधान से ऊपर कुछ भी नहीं है.
इतना ही नहीं, पाकिस्तान में भी उर्दू राष्ट्रभाषा घोषित है. उसकी अपनी स्वतंत्र लिपि है. पाकिस्तान क्या अपनी राष्ट्रभाषा को हिन्दी में शामिल होने को स्वीकृति देगा ? पाकिस्तान यदि डॉ. नौटियाल के पद-चिह्नों पर चलते हुए इसी तरह से अपनी राष्ट्रभाषा उर्दू में हिन्दी को शामिल करने का प्रस्ताव करे और घोषित करे कि उर्दू दुनिया की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है तो डॉ. नौटियाल क्य़ा जवाब देंगे ?
डॉ. नौटियाल ने उर्दू के साथ ही मैथिली भाषियों की जनसंख्या को भी हिन्दी भाषियों में शामिल कर लिया है जो वर्ष 2003 में ही संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होकर हिन्दी से अलग एक स्वतंत्र भाषा बन चुकी है और 2011 की जनगणना में उसे हिन्दी की बोली नहीं, अपितु स्वतंत्र भाषा मानकर अलग कर दिया गया है.
डॉ. नौटियाल द्वारा अपनाया गया दूसरा भ्रामक तथ्य राजभाषा नियम से संबंधित है. दरअसल, राजभाषा नियम-76 के अनुसार पत्राचार की एक निश्चित नीति के अनुपालन के लिए देश के सभी प्रान्तों को ‘क’, ‘ख’ और ‘ग’, तीन श्रेणियों में बाँटा गया है. ‘क’ श्रेणी में हिन्दी- भाषी राज्य आते हैं. ‘ख’ श्रेणी में गुजरात, पंजाब, चंडीगढ़ आदि राज्य हैं जहाँ हिन्दी को भी पर्याप्त महत्व प्राप्त है और ‘ग’ श्रेणी में आंध्र प्रदेश, असम, कर्नाटक, केरल, उड़ीसा, तमिलनाडु, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल आदि अहिन्दी- भाषी राज्य आते हैं. डॉ. नौटियाल ने ‘क’ श्रेणी में आने वाले राज्यों की शत-प्रतिशत जनता को हिन्दी- भाषी मान लिय़ा है जद्यपि बड़ी समझदारी से उन्हें ‘हिन्दी जानने वाली’ कहा है. इसी तरह जहाँ की राजभाषाएं हिन्दी नहीं हैं ऐसे‘ख’ श्रेणी के राज्यों में 90 प्रतिशत जनता को उन्होंने‘हिन्दी जानने वाली’ कहा है.डॉ. नौटियाल ने‘ग’ श्रेणी के राज्यों में 46.24 प्रतिशत जनता को हिन्दी जानने वालों में शामिल किया है. इस तरह उनके द्वारा किए गए शोध के अनुसार 2015 में भारत की‘क’, ‘ख’ और ‘ग’ क्षेत्र की कुल जनसंख्या 1,27,41,90,992 है जिसमें 1,01,21,31,433 ‘हिन्दी जानने वाले’ हैं किन्तु अपने अन्तिम निष्कर्ष में उन्होंने जहाँ विश्व की प्रमुख भाषाओं की सूची दी है और 1300 मिलियन की संख्या दर्शाते हुए सबसे ऊपर हिन्दी को रखा है वहाँ उन्होंने तालिका में बड़ी चतुराई से हिन्दी ‘भाषा-भाषी’ और अंग्रेजी में ‘स्पीकर्स’ कहा है. यहाँ ‘हिन्दी जानने वाले’ और ‘हिन्दी भाषा-भाषी’ के अंतर की ओर उन्होंने संकेत नहीं किया है. डॉ. नौटियाल ने पूरी चतुराई से अनुबंध-1 की तालिका पृष्ठ संख्या 7 पर ‘भारत में हिन्दी जानने वालों की संख्या’ लिखा है और उनके अनुसार विश्व में हिन्दी- भाषियों की संख्या 18 प्रतिशत है और 1100 मिलियन की संख्या के साथ दूसरे नंबर पर आने वाली मंदारिन=भाषी जनता 15.23 प्रतिशत है. डॉ. नौटियाल ने अपने अध्ययन के स्रोत के रूप में प्रत्येक तालिका की जगह लिखा है- “स्रोत: डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल द्वारा किया गया शोध अध्ययन सन् 2015 ( अनुमानित आंकड़े )”. (https://rajbhasha.gov.in/
sites/default/files/ drjpnautiyal.pdf ) कहना न होगा, अनुमानित आंकड़ों से कभी भी शोध -सिद्धांत नहीं गढ़े जाते क्योंकि वे प्रामाणिक नहीं होते. डॉ. नौटियाल के अनुसार उनके सारे आंकड़े ‘अनुमानित’ हैं.उल्लेखनीय है कि भारत सरकार द्वारा करायी गयी जनगणना रिपोर्ट- 2011 उपलब्ध है जो वैज्ञानिक ढंग से कराई गई एकमात्र प्रामाणिक रिपोर्ट है, डॉ. नौटियाल ने उसकी नोटिस भी नहीं ली है क्योंकि उसे आधार बनाने पर उनके पूर्व निर्धारित निष्कर्ष पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता था. भारत सरकार की इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में हिन्दी- भाषियों की कुल जनसंख्या 52,83,47,193 ( बावन करोड़ तिरासी लाख सैंतालीस हजार एक सौ तिरानवे) है.
इतना ही नहीं, उन्होंने तीन हजार से अधिक लोगों की सहायता से जार्ज ग्रियर्सन के बाद का सबसे ब़ड़ा भाषा- सर्वेक्षण करने वाले पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के मुख्य संयोजक प्रो. गणेश एन. देवी के निष्कर्षों को भी तिरस्कृत कर दिया है. प्रो. गणेश एन. देवी ने अपने सर्वे का हवाला देते हुए 12 नवंबर 2014 को चैतन्य मल्लापुर के साथ एक इंटरव्यू में स्वीकार किया है कि विश्व में हिन्दी भाषियों की कुल संख्या 42 करोड़ है. उन्होंने कहा है, “ओवर द लास्ट फिफ्टी ईयर्स, द वर्ल्ड्स हिन्दी स्पीकिंग पॉपुलेशन हैज इन्क्रीज्ड फ्रॉम 260 मिलियन टू 420 मिलियन. ओवर द सेम पीरिअड, द इंग्लिश स्पीकिंग पॉपुलेशन हैज गान फ्रॉम 320 मिलियन टू 480 मिलियन. दीज फीगर्स इंडिकेट ओनली दोज हू से इंग्लिश इज देयर मदर टंग. इट डज नॉट इन्क्लूड दोज हू स्पीक इंग्लिश फॉर प्रोफेशनल यूज ऐज ए सेकंड लैंग्वेज.” ( हिन्दी आउटपेसेज इंग्लिश ग्लोबली : लिंग्विस्टिक सर्वे )
डॉ. नौटियाल ने अपनी शोध-रिपोर्ट का शीर्षक भी रखा है, “हिन्दी : विश्व में भाषा भाषियों की दृष्टि से प्रथम एवं सबसे लोकप्रिय भाषा- शोध रिपोर्ट 2015.”
प्रश्न यह है कि किसी व्यक्ति द्वारा बिना किसी वैज्ञानिक पद्धति से एकत्रित किए गए, अनुमानित आंकड़ोंके सहारे इस तरह के निष्कर्ष निकालना, जनता में भ्रम फैलाना और अध्ययन की कमजोरियों को जानते हुए भीउसकी मान्यता के लिए सरकार तक अर्जी देना कहाँ तक उचित हैं?
निस्संदेह डॉ. नौटियाल विद्वान और अध्ययनशील हैं किन्तु हिन्दी को प्रतिष्ठित करते समय अपनी नैतिक जिम्मेदारी के प्रति सजग नहीं हैं. मैं यहाँ उल्लेख करना चाहूँगा कि भारत की सबसे बड़ी पंचायत संसद में हिन्दी के संबंध में बार-बार भ्रामक तथ्य रखागया है और सभी मंत्री और सांसदों ने उसे यथावत स्वीकार किया है. हिन्दी की एक बोली भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग करते हुए एक सांसद प्रभुनाथ सिंह ने 1 दिसंबर 2005 को संसद में कहा था कि भारत में 16 करोड़ और दुनिया में 20 करोड़ लोग भोजपुरी भाषी हैं. संजय निरूपम ने 30 अगस्त 2010 को संसद में बोलते हुए दुनिया में भोजपुरी भाषियों की संख्या 18 करोड़ बतायी है. जगदंबिका पाल जैसे वरिष्ठ सांसद ने 17 दिसंबर 2012 को दुनिया में भोजपुरी भाषियों की संख्या 20 करोड़ बतायी थी. मनोज तिवारी ने 8 अगस्त 2016 को संसद में कहा था कि 22 करोड़ भारतीय भोजपुरी बोलते हैं. इतना ही नहीं, कौशाम्बी के सांसद शैलेन्द्र कुमार ने तो 17 मई 2012 को सारी हदें पार करते हुए यहाँ तक कह दिया कि, “ भोजपुरी भाषा को देश -विदेश के 40 करोड़ लोग बोलने का काम करते हैं.”
हमें अपने सांसदों की उदारता की दाद देनी चाहिए कि उनमें से किसी सांसद या मंत्री ने इस तरह के बयानों का बुरा नहीं माना जबकि भारत सरकार की ही जनगणना रिपोर्ट के अनुसार भारत में भोजपुरी बोलने वालों की कुल संख्या 2001 में 33099497 (तीन करोड़ तीस लाख निन्यानबे हजार चार सौ सत्तानबे ) थी और पिछली 2011 की जनगणना के अनुसार 50579447 ( पाँच करोड़ पाँच लाख उन्यासी हजार चार सौ सैंतालीस) है.
हमारे नेताओं को राजनीति करनी है उन्हें जनता को लुभाने के लिए झूठ बोलना पड़ता है और भाषण की कलाबाजियाँ भी दिखानी पड़ती हैं. वे हमारे जन- प्रतिनिधि हैं. वे जो कहते हैं वही सच बन जाता है. किन्तु डॉ. नौटियाल नेता नहीं है, शोधार्थी हैं, जहाँ झूठ के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती क्योंकि वह देर -सबेर पकड़ में भी आही जाती है.
फिर भी, डॉ. नौटियाल की भी दाद तो देनी ही पड़ेगी कि 2005 की अपनी थीसिस को मान्यता दिलाने के लिए वे सोलह साल तक लगे रहे और उसे सरकार तक पहुँचाने में कुछ दिन के लिए ही सही, कामयाब भी हो गए.
आश्चर्य यह कि ग्लोबलाइजेशन के बाद जब भारत के हिन्दी क्षेत्र के ही हिन्दी माध्यम वाले विद्यालय तेजी से टूट रहे हैं और वे अंग्रेजी माध्यम में बदल रहे हैं, हमारे घरों के बच्चे कखग की जगह एबीसी से अक्षर- ज्ञान करना सीख रहे हैं, सरकारी नौकरियों से हिन्दी को बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में हिन्दी नदारद है, सारी उच्च शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से दी जा रही है, वहाँ, डॉ. नौटियाल को विश्व में हिन्दी-भाषियों की संख्या शिखर को छूती नजर आ रही है और उसकी लोकप्रियता बुलंदियों पर है.
( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं.)
टिप्पणी
सच से आँखें न चुराएँ
डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल जी के शोध के स्रोतों पर प्रश्न खड़े किए जा सकते हैं लेकिन मेरा यह मानना है कि भाषिक स्तर और कानूनी स्तर को भी एक नहीं माना जा सकता। मेरे स्पष्ट मत है कि उर्दू, हिंदी या हिंदुस्तानी राजनीतिक, संवैधानिक कारणों के बावजूद हिंदी ही हैं, भले ही लिपि की भिन्नता क्यों न हो। राजनेताओं ने और इसके पहले अंग्रेजों ने इन्हें अलग करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन लिपि को छोड़ कर आज भी मैं कोई विशेष फर्क नहीं पाता। हिंदी अखबारों में छपे मेरे अनेक लेख उर्दू के अखबारों लिप्यांतरण करके ज्यों के त्यों छपते रहे हैं।
लेकिन हिंदी भाषा समझने वालों को हिंदी बोलने वाले समझने की बात भी तर्कसंगत नहीं है। अगर हम आत्ममुग्धता के चलते हिंदी के संबंध में सही स्थिति नहीं रखेंगे तो इसका नुकसान हिंदी को ही होगा। देश दुनिया का बात छोड़िए मुझे तो हिंदी भाषी राज्यों में भी हिंदी मुट्ठी से फिसलती दिख रही है। हमें स्थितियों का सही आकलन करते हुए आगे बढ़ना होगा।
डॉ. एम.एल. गुप्ता आदित्य
निदेशक, वैश्विक हिंदी सम्मेलन
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
संपर्क - vaishwikhindisammelan@gmail.
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कर्ता : संपत देवी मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
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हैदराबाद
मो.: 09703982136
लोक शिकायत
दिल्ली प्रदेश में काले अंग्रेजों की सरकार, हिन्दी का हुआ बंटाधार
महोदय,
दिल्ली सरकार के सभी कार्यालयों में राजभाषा अधि. 2002 और केंद्रीय राजभाषा अधिनियम 1963 का लगातार उल्लंघन जारी है, आम जनता पर हर सरकारी कार्यालय में अंग्रेजी थोपी जा रही है-
1. दिल्ली सरकार की एक भी वेबसाइट और ऑनलाइन सेवाएँ हिन्दी में उपलब्ध नहीं हैं ।
2. आम जनता के हिन्दी में लिखे आवेदनों, पत्रों व शिकायतों के उत्तर तब तक नहीं दिए जाते हैं जब तक कि वह अंग्रेजी में न हो।
3. सरकारी कार्यालयों में सारी स्टेशनरी, फार्म, साइन बोर्ड, लैटरहैड, रबर मुहरें, लिफाफे आदि अंग्रेजी में तैयार करवाए जाते हैं।
4. दिल्ली सरकार के अधिकारियों द्वारा हिंदी में लगे आरटीआई आवेदनों के उत्तर अंग्रेजी में दिए जाते हैं।
5. दिल्ली परिवहन की बसों पर डिजिटल बोर्ड में हिन्दी भाषा का विकल्प नहीं है, टिकट अंग्रेजी में होता है जिससे अंग्रेजी न जानने वाले यात्री परेशान होते हैं।
6. अंग्रेजी थोपे जाने के विरुद्ध आम जनता की शिकायतों को एक कार्यालय से दूसरे कार्यालय को भेज दिया जाता है पर उन पर कोई कार्यवाही नहीं की जाती है।
7. दिल्ली की जनता को योजनाओं की जानकारी, सरकारी सेवाएँ केवल अंग्रेजी भाषा में दी जाती है जिसे जनता नहीं समझती है इसलिए वे ऐसी योजनाओं का लाभ नहीं ले पाते।
8. दिल्ली सरकार ने कोरोना काल में भी जनता पर अंग्रेजी थोपने में कोई कसर नहीं छोड़ी, कोरोना संबंधी सभी वेबसाइटें, एप, ऑनलाइन सेवाएँ अंग्रेजी में तैयार की गईं।
9. कोरोना संबंधी सभी दिशा-निर्देश व परिपत्र केवल अंग्रेजी में जारी किए गए। अस्पतालों में कोरोना संबंधी बैनर, पोस्टर, सूचनाएं, कोरोना वार्ड के साइन बोर्ड केवल अंग्रेजी में लगाए गए।
10. दिल्ली सरकार के अधिकारी आम जनता से अंग्रेजी के आधार पर भेदभाव करते हैं, अंग्रेजी न जानने वाली आम जनता से भेदभाव किया जाता है।
10. परिवहन बसों के टिकट, संग्रहालय, चिड़ियाघर आदि के टिकट से सिर्फ अंग्रेजी में छापे जा रहे हैं।
11. योजनाओं/संस्थाओं के प्रतीक-चिह्न अंग्रेजी में बनाये जा रहे हैं।
12. दिल्ली हिंदी अकादमी ने पिछले 10 वर्षों में हिन्दी भाषा के लिए कोई काम नहीं किया, इसके सभी सदस्य हिन्दी के प्रति उदासीन व निष्क्रिय हैं, जो केवल बजट को खर्च करते हैं पर दिल्ली सरकार में हिन्दी की दुर्दशा पर कभी कोई काम नहीं करते हैं।
13. जहाँ पूरी दुनिया मातृभाषा में शिक्षा को बच्चों के बौद्धिक व मानसिक विकास का सर्वश्रेष्ठ माध्यम व बच्चों का मानवाधिकार मानती है वहीं दिल्ली की सरकार शासकीय विद्यालयों का अंग्रेजीकरण करके हिन्दी को सदा-2 के लिए समाप्त कर देना चाहती है। दिल्ली के सरकारी विद्यालयों में हिन्दी का पठन-पाठन बंद किया जा रहा है।
दिल्ली सरकार पर आम आदमी नहीं बल्कि अंग्रेजों का राज चल रहा है जो जनता का शोषण करते रहेंगे, अंग्रेजी जनता के शोषण का सबसे उम्दा हथियार है।
आपके द्वारा हिन्दी में उत्तर व कार्यवाही किए जाने की अपेक्षा करता हूँ।
भवदीय
प्रवीण कुमार जैन (एमकॉम, एफसीएस, एलएलबी)
अणुडाक | Email: प्रवीणजैन@डाटामेल.भारत | cs.praveenjain@gmail.com
झिलमिल
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबईvaishwikhindisammelan@gmail.com
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जनता को जनभाषा में सूचना न देना,
जनता के नागरिक व न्यायिक अधिकारों का हनन है।
वैश्विक हिंदी सम्मेलन
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वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
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हिंदी के साहित्यकार कब आत्मचिंतन करेंगे ?मेरा हिंदी जगत से जुड़े सभी साहित्यकारों से सीधा प्रश्न है कि वे बतायें कि उनकी रची कृतियों का प्रकाशन कितनी संख्या में होता है ?कम से कम पांच सौ, तीन सौ। ऐसे भी कितने हैं जिनकी कृतियों का प्रकाशन एक लाख, पांच लाख अथवा दस लाख संख्या में होता है। क्या इस विषय में कोई सर्वेक्षण हुआ है भी ? आज इस समूह पर जानकारी सामने आई है कि दुनिया में हिंदी बोलने वाले नब्बे करोड़ हैं। लिखने-पढ़ने वाले क्या तीस-चालिस करोड़ होंगे ? अथवा दस/ पंद्रह करोड़ ? क्या हिंदी में प्रकाशित साहित्य को पढ़ने वाले एक करोड़ होंगे या दस-बीस लाख ?
यह भी अज्ञात लगता है कि कितने ऐसे हिंदी में लिखने वाले साहित्यकार है, जिनकी आजीविका साहित्य प्रकाशन से चलती है ? ऊपर प्रस्तुत जिज्ञासा का प्रमाणिक समाधान कैसे, कहाँ से मिल सकता है ? हिंदी के पाठकों की कमी के पीछे क्या यह सच्चाई है कि इस भाषा में पाठकों को पसंद आने लायक़ लेखन न के बराबर होता है। हिंदी के लेखक हिंदी जगत के पाठकों की रुचि से क्या अवगत नहीं है ? अथवा दमदार लेखन कितने करते है, जिनकी ओर पाठक स्वत: आकर्षित होकर साहित्य ख़रीदें। पाँच-दस संस्करण कितनी और कितने रचनाकारों के प्रकाशित हो रहे हैं। हो सके तो इस संबंध में विगत सामने आना चाहिए।
मलयालम, तमिल, बांग्ला या मराठी भाषा वालों की आबादी, हिंदी भाषा वालों से कम से कम दस गुना कम होगी। किंतु इन भाषाओं में प्रकाशित अनेक रचनाकारों की कृतियां हिंदी भाषा में प्रकाशित साहित्यकारों की रचनाओं से कई गुना अधिक होती है। अब हिंदी के साहित्यकारों को आत्म चिंतन करना चाहिए कि नहीं जिस भाषा में वे लेखनी चलाते हैं, उनकी उस भाषा की स्थिति उनके अपने हिंदी भाषी राज्यों के हर क्षेत्र में निरंतर कमजोर क्यों होती जा रही है ? जब भाषा की दशा सोचनीय हो रही हो, तो लेखन में ताजगी कहाँ से आयेगी ? हिंदी का पक्ष कमजोर होने का बड़ा कारण क्या यह नहीं है कि इस भाषा की युवा पीढ़ी की शैक्षणिक परिस्थिति अब हिंदी में पढ़ने और लिखने का वातावरण ही नहीं प्रदान कर रही है ? युवा पीढ़ी की रुचि हिंदी के प्रति खत्म होती जा रही है ! हिंदी के साहित्यकार
फिर भी आत्ममुग्धता के स्वप्नलोक में खुश हैं ? वे खुश हैं कि उनकी रचनाओं का विमोचन, समीक्षा और प्रचार-प्रसार हो, तो रहा है ! इससे अधिक उनको कोई उम्मीद भी नहीं है ? भले ही उनकी रचनाओं के ख़रीददार नहीं के बराबर हैं। भले ही पुस्तकालयों में उनकी कृतियाँ धुल खा रही हो। जिस भाषा का जीवन के व्यवहार में मान-सम्मान निरंतर घट रहा हो, उस भाषा की कृतियों को ख़रीदने वालों की दशा निश्चित ही रचनाकार से अधिक कोई नहीं जान सकता है ! हिंदी जीवंत भाषा हो, इस ओर कब और कौन ध्यान देगा ?
निर्मलकुमार पाटोदी, इंदौर
मंगलवार २४ अगस्त २०२१
झिलमिल
'गगनांचल' और 'गगनांचल' के संपादक डॉ. आशीष कंधवे जी के साथ उनके निजी कार्यालय में डॉ. एम,एल. गुप्ता 'आदित्य'
नमस्कार !
गगनांचलगगनांचल पत्रिका सन् 1977 से निरंतर प्रकाशित हो रही है जिसकी स्थापना तत्कालीन विदेश मंत्री एवं भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आईसीसीआर) के अध्यक्ष भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेई जी ने की थी। श्रीअटल बिहारी वाजपेई जी इस विचार के प्रबल समर्थक थे कि भारतीय ज्ञान, संपदा, साहित्य, संस्कृति और भाषा के विकास के लिए वैश्विक स्तर पर पत्रिकाओं के माध्यम से हमारी सभ्यता का विस्तार होना चाहिए। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर अटल जी ने गगनांचल पत्रिका का प्रकाशन आरंभ ही नहीं किया अपितु साहित्य संसार की एक प्रतिष्ठित पत्रिका के रूप में उसे स्थापित कर दिया।डॉ. आशीष कंधवेसंपादक ,गगनांचल
'गगनांचल', 'गगनांचल' के संपादक डॉ. आशीष कंधवे जी तथा भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद को'वैश्विक हिंदी सम्मेलन 'परिवार की ओर से हार्दिक बधाई ।
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