लघु तरणि हंसिनी-सी सुंदर
तिर रही खोल पालों के पर
------------------------------ (पंत)
हम नदी के द्वीप हैं
हम नहीं कहते
कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए (अज्ञेय)
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शहर के पेशाबघरों और अन्य लोकप्रिय जगहों में/उन गुमशुदा लोगों की तलाश के / पोस्टर / अब भी चिपके दिखते हैं / जो कई बरस पहले दस ग्यारह साल की उम्र में बिना बताए घरों से निकले थे / पोस्टरों के अनुसार उनका कद मँझोला है / रंग गोरा नहीं गेहुआँ या साँवला है / हवाई चप्पल पहने है / चेहरे पर किसी चोट का निशान है / और उनकी माँएँ उनके बगैर रोती रहती हैं / पोस्टरों के अंत में यह भी आश्वासन रहता है / कि लापता की खबर देनेवाले को दिया जाएगा / यथासंभव उचित इनाम। (मंगलेश डबराल)
प्रथम उद्धरण कविता की छंदबद्धता, लयात्मकता, संगीतात्मकता का सुन्दर उदाहरण है। दूसरा उद्धरण मुक्त छंद में है और उसमें वाक्य गद्य जैसे हैं लेकिन लय का प्रवाह और बहाव उसमें मौजूद है। गद्यवत होने के बावजूद यह सीधा अभिधेय कथन नहीं होकर प्रतीक है - नदी का द्वीप मानवीय अस्तित्व का रूपक बनकर उभरा है। किंतु तीसरा उदाहरण? छंद की बात तो छोड़ ही दें, इसमें न लय है न संगीतात्मकता, न संक्षिप्तता, न ही किसी प्रकार की प्रतीकात्मकता। ऐसा नहीं कि लय, या संगीतात्मकता, या प्रतीकात्मक कविता के आवश्यक गुण हों किंतु यह निर्मिति अगर कविता है तो इसकी योग्यता किन तर्कों पर हासिल करती है।
आज जबकि कविता का रूप निरंतर गद्य जैसा होता जा रहा है और कविता और गद्य के बीच की सीमारेखा निरंतर धुंधली होती जा रही है यह समयानुकूल होगा कि हम इन दोनों की मूल प्रकृति पर विचार करें और पुनः उनके विधागत अंतर को परिभाषित करने का प्रयास करें। इससे हमें यह भी आकलन करने में मदद मिल सकती है कि आज कविता पाठक की अपेक्षाओं को पूरा करने में पीछे तो नहीं छूट रही है और अगर ऐसा है तो वह कवि की प्रतिभा या क्षमता या सजगता में कमी का परिणाम है या पाठक के प्रशिक्षण और रुचि.संस्कार में कमी का? यह अध्ययन विशेषतः विषय या ‘सामग्री’ की अपेक्षा उसके रूपायन (फार्म) से अधिक संबंधित होगा क्योंकि कोई भी अनुभव अपने आप में विधाविशिष्ट नहीं होता।
एक पाठक की कविता की पहचान सामान्यतः जिस चीज से शुरू होती है वह है छंद। छंद में बंधी रचना कविता होती है ऐसी समझ हमें बचपन से ही प्राप्त होती है। किसी भी भाषा में पहले पद्य रचना छंद में ही होती है। गद्य के साथ उसके अंतर को प्रथमतया छंद के आधार पर ही परिभाषित किया जाता है। छंद से मुक्त कविता आधुनिक युग की देन है। छंद से मुक्ति एक बहुत बड़ी आवश्यकता थी, जिसे हिंदी कविता में पहले पहल निराला ने शुरू किया और अपने समय का प्रचंड विरोध झेला। छंद से शब्द चयन की स्वतंत्रता बाधित हो रही थी, अर्थ की अनुकूलता के ऊपर छंद की अनुकूलता को तरजीह देनी पड़ती थी। इस आवश्यकता में कभी कभी कवि को पूरा बिम्ब ही बदल देना पड़ता था। छंद मूलतः संरचना है, पैटर्न है, ढाँचा है। छंदोबद्ध कविता में संरचना की मांग ही इतनी प्रबल हो जाती है कि कभी-कभी कवि को उसका मूल्य कथ्य की गुणवत्ता से चुकाना पड़ता है।
छंद की शक्ति है - लय। लय कविता में विशेष प्रभाव की सृष्टि करता है। पाठक के मन पर वह जो प्रभाव छोड़ता है उसमें एक स्थायित्व होता है और इस कारण वह पंक्ति स्मरणीय और उद्धरणीय बन जाती है। ऊपर पंत की ‘नौका विहार’ के उद्धरण में जो सौन्दर्य है (और जिस कारण वह स्मरणीय है) उसके लिए उत्तरदायी हैं उसका छंद जो नदी की मंद धारा में बहती नौका की लय का अनुकरण करता है, उसकी सांगीतिकता जो अनुप्रासों और कोमल अल्पप्राण घ्वनियाँ, म ल न ण आदि सांगीतिक ध्वनियोँ, और तुक से उपजी है। लयात्मकता संगीतात्मकता आदि को हम कविता के गुणों के रूप में ही देखते हैं। किंतु यही विशेषता उसे बोलचाल की सामान्य लय से दूर ले जाती है। छंद की लय विशिष्ट है, अतः कृत्रिम है। जो कवि यथार्थ को व्यक्त करने की आवश्यकता में अपने कथ्य के अनुरूप बोलचाल के सामान्य लय का भी अनुकरण करना चाहता है उसके लिए छंद की अपनी विशिष्ट लय बाधक होती है। पंत ने रीतिकाल की आलोचना के क्रम में तबके अत्यंत प्रचलित सवैया छंद की आलोचना इसी आधार पर की थी। सवैया वार्णिक छन्द है और इसके वाचन में दीर्घ या ह्रस्व स्वरों का निर्वाह नहीं हो पाता है। सभी वर्ण एक ही समयावधि में अँटाकर पढ़े जाते हैं। फलतः यह जिस लय का निर्माण करता है वह बोली जानेवाली ब्रजभाषा के समक्ष अत्यंत अस्वाभाविक लगता है। नियमित संरचना भी कथ्य को विशिष्टता प्रदान करती है। इससे उसके प्रभाव में भी तीव्रता आ जाती है, एक पैटर्न में बंधे होने के कारण वह स्मृति में टिकने की क्षमता भी पा लेता है। लोकोक्तियों का प्रभाव बहुत कुछ उनकी संरचना के कारण भी है -
1. नीम हकीम खतरे जान 2. नीम हकीम से जान का खतरा होता है।
दोनों कथन एक ही बात कहते हैं लेकिन जहाँ पहला बराबर वजन की दो समानान्तर संरचनाओं (नीम हकीम और खतरे जान दोनों में 7-7 मात्राएँ) और अनुप्रास की नियमितता के कारण चुटीला और विशिष्ट एवं काव्यात्मक बन जाता है वहीं दूसरा महज एक सामान्य कथन बनकर रह जाता है। दूसरा कथन केवल एक प्रेक्षण (observation) भर प्रतीत होता है पहला कथन उससे आगे बढ़कर अवधारणा की तरह। (कोई प्रश्न कर सकता है ‘नीम हकीम खतरे जान’ क्या होता है?’ यही प्रश्न दूसरे कथन को लेकर नहीं बनता) समानान्तर संरचना इस लोकोक्ति की न केवल प्रभाव क्षमता में वृद्धि करती है बल्कि इसे उद्धरणीय भी बनाती है।
छंद की अपेक्षा लय कहीं बुनियादी चीज है। छंद के बिना भी संरचना में नियमितता और आवृत्ति के तत्व अभिव्यक्ति को लयात्मक बनाते हैं। छंद से मुक्ति का अर्थ लय से मुक्ति नहीं है। निराला की कविताएँ छंदमुक्त भले ही हों, लय से रहित नहीं हैं। उनमें पूर्वप्रचलित छंद भले नहीं हैं मगर नियमितता और सममिति पूरी तरह मौजूद है। निम्न पंक्तियों को देखें -
वह तोड़ती पत्थर / मैंने उसे देखा इलाहाबाद के पथ पर
दूसरी पंक्ति पहली की अपेक्षा बहुत लम्बी होकर भी पहली के पैटर्न का ही विस्तार है। अगर इसे तबले के बोल से मिलाकर देखें तो यह तथ्य एकदम स्पष्ट हो जाता है –
वह तोड़ती पत्थर मैंने उसे देखा इलाहाबाद के पथ पर
ता थेई तथेइ ता थेइ ता थेइ तथेइ ता थेइ तथेइ ता थेइ
रबड़ छंद या केंचुआ छंद कहकर तत्कालीन आलोचकों ने जो उसका मजाक उड़ाया था वह उनकी सममिति की कमजोर समझ का परिचायक था। मुक्त छंद में होकर भी छायावादी दौर की कविताएँ लय से मुक्त नहीं थीं। लय के निर्वाह की प्रवृत्ति प्रयोगवादी दौर तक भी विद्यमान रही। किंतु आज की कविता में लय भी अत्यंत क्षीण, नहीं के बराबर हो गया है। लेख के आरंभ में दिया गया तीसरा उद्धरण ऐसा ही है। उसे बिना पंक्तिभंग किए लगातार लिखा जाए तो वह गद्य ही प्रतीत होगा:
शहर के पेशाबघरों और अन्य लोकप्रिय जगहों में उन गुमशुदा लोगों की तलाश के पोस्टर अब भी चिपके दिखते हैं जो कई बरस पहले दस ग्यारह साल की उम्र में बिना बताए घरों से निकले थे। पोस्टरों के अनुसार उनका कद मँझोला है, रंग गोरा नहीं गेहुआँ या साँवला है, हवाई चप्पल पहने है, चेहरे पर किसी चोट का निशान है, और उनकी माँएँ उनके बगैर रोती रहती हैं। पोस्टरों के अंत में यह भी आश्वासन रहता है कि लापता की खबर देनेवाले को दिया जाएगा यथासंभव उचित इनाम।
यह किसी कहानी या वर्णन का अंश प्रतीत होता है जिसमें ‘काव्यात्मक’ कहने लायक कुछ है तो सिर्फ अंतिम पंक्ति जिसका विपर्यय (inversion) सीधा करके अगर ‘खबर देनेवाले को उचित इनाम दिया जाएगा’ कर दिया जाए तो फिर इसके कविता होने की कोई प्रतीति नहीं रह जाती।
कविता में पंक्तिभंग का एक तर्क होता है, जो छंदबद्ध कविता में छंद की मांग से और छंदमुक्त कविता में लय एवं अर्थ की मांग से निर्देशित होता है। डबराल के उद्धृत अंश में वाक्य को सूचनाखण्डों में विभाजित करते हुए पंक्तिभंग किया गया है, जो व्याकरणिक दृष्टि से पदबंध या उपवाक्य हैं। यह अर्थ के आधार पर विभाजन का सबसे स्वाभाविक आधार है। यह विभाजन उस नियमितता को सहारा देता है जो किसी हद तक उक्त काव्यांश के अर्थ और संरचना में मौजूद है, जिस कारण उसमें हल्की सी लयात्मकता भी है:
कोष्ठक में दर्शाई गई किंचित् समानांतर संरचनाओं के अतिरिक्त भी इसमें और बड़े स्तर पर नियमितता है। चौथी पंक्ति (जो कई बरस पहले ..) से लेकर दसवीं पंक्ति (चेहरे पर किसी चोट...) लगातार ‘गुमशुदा लोग’ को विशेषित करने वाले परवर्ती विशेषकों (post modifiers) की श्रृंखला है जिसमें सिर्फ एक व्यतिक्रम है: ‘पोस्टरों के अनुसार’। इस व्यतिक्रम की प्रकृति भी विशेषक की-सी है; यहाँ यह क्रियाविशेषण पदबंध है। इन समानांतर संरचनाओं के कारण इसमें हल्की सी लय है।
लेकिन क्या अपने अर्थ में भी उक्त उद्धरण गद्य की अपेक्षा कोई वैशिष्ट्य रखता है? इसके लिए उपयुक्त होगा कि हम देखें कि पूरी कविता में क्या बात कही गई हैं। उद्धृत अंश के बाद बाकी अंश इस प्रकार हैं -
तब भी वे किसी की पहचान में नहीं आते / पोस्टरों में छपी धुधली तस्वीरों से / उनका हुलिया नही मिलता / उनकी शुरुआती उदासी पर / अब तकलीफें झेलने की ताब है / शहर के मौसम के हिसाब से बदलते गए हैं उनके चेहरेकम खाते कम सोते कम बोलते / लगातार अपने पते बदलते / सरल और कठिन दिनों को एक जैसा बिताते / अब वे एक दूसरी ही दुनियाँ में हैं / कुछ कुतूहल के साथ / अपनी गुमशुदगी के पोस्टर देखते हुए / जिन्हें उनके परेशान माता पिता जब तब छपवाते रहते हैं / जिनमें अब भी दस या बारह लिखी होती है उनकी उम्र।
‘गुमशुदा लोग’ जैसा कि शीर्षक से ही प्रतीत होता है, एक प्रतीक के रूप में आया है। अपने अतीत से, स्मृतियों से, मानवीय संबंधों से दूर जा चुके व्यक्ति का जो धीरे धीरे इतना बदल चुका है कि अपने खो जाने को भी भूल चुका है। उसके जो लक्षण गिनाए गए हैं: हुलिया नहीं मिलना, मौसम के हिसाब से चेहरे बदलना, लगातार अपने पते बदलना, एक दूसरी ही दुनियाँ में होना, कुतूहल के साथ अपनी गुमशुदगी के पोस्टर देखना आदि उसके विस्मरण और ‘गुमशुदगी’ को अच्छी तरह परिभाषित कर देते हैं। कवि के लिए बारह तेरह वर्ष की उम्र के अनुभव एक आदर्शीकृत अतीत (idealized past) की तरह है जिसे वह अपनी रचनाओं में अक्सर ‘मिस’ करता नजर आता है। कविता में कल्पित गुमशुदा व्यक्ति को संभवतः परिस्थितियों, जीवन के संघर्षों, विभिन्न बाहरी और आंतरिक दबावों ने इतना बदल डाला है कि वह अपनी पुरानी पहचान तक भूल गया है। यदि हम इसे आधुनिक निर्वासित विडम्बनाग्रस्त मानव का प्रतीक मानना चाहें तो यह दावा किया जा सकता है कि कविता के रूप में इसने छोटे कलेवर में एक विडम्बना, एक बिम्ब, एक प्रतीक को उभारा है और यहीं उसकी निर्मिति की और कर्तव्य की भी पूर्णता है। गद्य में उस विडम्बना, उस प्रतीक को उभारने के लिए वास्तविक पात्रों और घटनाओं के सृजन की आवश्यकता पड़ती। उन स्थितियों और कारणों को शामिल करना आवश्यक होता जो ‘गुमशुदा’ होने के लिए जिम्मेदार हैं। गद्य के रूप में यह निर्मिति अधूरी और ‘नाकाफी’ होने का एहसास दिलाती। यद्यपि ‘गुमशुदगी’ के कारणों का संकेत देनेवाले तत्वों के अभाव में अर्थ की द्विस्तरीयता की संभावना कमजोर पड़ जाती है किंतु फिर भी, अपनी संकीर्ण परिधि में भी यह कविता एक विशेष वर्ग के मानव का प्रतीक तो बन ही लेती है।
किंतु जितनी हल्की नियमितता और लयात्मकता हमने डबराल के उद्धरण में देखी है उतनी गद्य के नमूनों में भी पाई जा सकती है। उदाहरणार्थ -
कई बार नाम याद नहीं रहते: घटनाएँ और छवियाँ याद आती हैं, पर नाम बहुत जोर लगाने पर भी याद नहीं आते। याद पहले जो हुआ उसे जस का तस दोबारा से पेश नहीं कर देती: कई बार वह अनजाने ही या शायद बहुत महीन चतुराई से कुछ-न-कुछ बदल देती है। हमें गीत की धुन याद रहती है पर सब शब्द नहीं और हम उस धुन में उसी वजन का कोई और शब्द रख देते हैं, जो चुपके से अर्थ भी बदल देता होगा। पर हमें पता नहीं चलता। या शायद कहीं हममें कुछ सजग होता है जो जानता है कि कुछ बदल रहा है पर ऊपर से हमें न तो इसकी खबर होती है और न ही हम इसे स्वीकार करते हैं। स्मृति भी बदलती है, जीवन की दशा, गति और रूप अकेले नहीं बदलते, स्मृति भी बदलती जाती है। जैसे हम समय और लय चुनते हैं, अंततः हम अपनी स्मृति भी चुनते हैं। (कुछ भी एक बार नहीं, अशोक वाजपेयी)
आत्मकथात्मक रचना के बीच यह स्थल ऐसा है जहाँ घटना नहीं लेखक का चिंतन प्रकट हुआ है। यह स्थल केवल अर्थ की दृष्टि से ही नहीं बल्कि संरचना की दृष्टि से भी विशेष है। यदि इसे कविता के रूप में लिखें तो एक रूप यह हो सकता है -
कई बार/नाम याद नहीं रहते:/घटनाएँ और छवियाँ याद आती हैं / पर नाम बहुत जोर लगाने पर भी याद नहीं आते / याद / पहले जो हुआ उसे /जस का तस दोबारा से पेश नहीं कर देती कई बार / वह अनजाने ही या शायद बहुत महीन चतुराई से / कुछ न कुछ बदल देती है। / हमें गीत की धुन याद रहती है / पर सब शब्द नहीं / और हम उस धुन में उसी वजन का कोई और शब्द रख देते हैं / जो चुपके से अर्थ भी बदल देता होगा। / पर हमें पता नहीं चलता। / या शायद कहीं हममें कुछ सजग होता है / जो जानता है कि कुछ बदल रहा है / पर ऊपर से हमें न तो इसकी खबर होती है / और न ही हम इसे स्वीकार करते हैं।
इसके संयोजन में समानांतरता और नियमितता के तत्व देखे जा सकते हैं -
लयात्मक प्रकृति के गद्य का आत्यंतिक उदाहरण हैं राजा राधिकारमण सिंह की कहानियाँ जिनकी सबसे बड़ी विशेषता उनकी समानांतरता, तुक और अनुप्रास ही हैं।
1. उपवन में फूल खिलते हैं, वन में विहँसते हैं।
2. तो उस ताज के तले मुँहताज की तायदाद तरक्की पर होगी! (दरिद्रनारायण)
एक अन्य उदाहरण देखें -
वे भारी भरकम पोथे, कबिरा जाने कितने थोथे। ये धरम करम के पथ सारे, मल कीचड़ के ही गलियारे। ये तीरथ बरत के धाम, जिनसे अल्लाह बचाये राम। यह भाग भरम की शोभा तोबा रे बापू तोबा। ये ऊँच नीच की अनंत कजियारी रातें। ये राव रंक के जाले, सरासर झूठे और काले। सूरज उगने पर ही मिटती रात, दिशा दिशा में स्वर्णिम प्रभात। तो वक्त के मुताबिक यह बात बरसों पुरानी है कि हरियाली के बीच और हवा के झूले पर एक गाँव बसा था, जहाँ धरम करम के साँचे में ढले नित नेमी इन्सानों की बस्ती, पर एक झोंपड़ी टली हुई। उस झोंपड़ी में बसनेवाले व्यक्ति का नाम तो कुछ और ही था, पर गाँव व इलाके के लोग उसे व्यंग व ताने के बहाने कबीर के नाम से ही बतलाते थे।
(दूजौ कबीर, विजयदान देथा)
कहावतें प्रायः किसी स्थिति पर व्यंग्य या आलोचनात्क टिप्पणी होती हैं। लेखक यहाँ कहानी का आरंभ कहावतों वाली नियमित संरचनाओं से करके व्यंग्य और उपहास का एक ग्राम्य वातावरण तैयार करता है जिसमें कबीर की बेलौस और निर्लोभ मानव प्रकृति और राजा की आडम्बरपूर्ण कृत्रिम, कामनाचालित प्रकृति पर विजय पाती दिखाई गई है। कबीर राजा की धमकियों को ही नहीं, राजपाट और विलासितापूर्ण जीवन के प्रस्ताव को निर्भयतापूर्वक धूल की तरह ठुकरा देता है और राजकुमारी के प्रति आकर्षण के बावजूद उसे अपनी स्वतंत्रता की शर्त पर अपनाने को तैयार नहीं होता। एक उच्चतर आधार पर यह कहानी मानव की मूल प्रकृति और मूल्यबोध का यथार्थ रचती है और इसके लिए वह व्यंग्यपूर्ण, परिहासपूर्ण वातावरण के बीच अत्यंत गम्भीर सत्य को उद्घाटित करने की विरोधाभासी तकनीक का सहारा लेती है। उसके लिए सामान्य से अलग जिस विशिष्ट वातावरण की आवश्यकता थी उसके निर्माण में कथ्य के साथ समानांतर संरचनाएँ अहम भूमिका निभाती है।
इसलिए ऐसा नहीं कि गद्य में कविता के उपादानों का प्रयोग नहीं होता - अंतर उनके उपयोग के प्रयोजन में है। कविता की प्रकृति नियमितता की है उसमें अगर अनियमितता आती है तो किसी विशेष प्रभाव की सृष्टि के लिए; वैसा किसी कथ्य पर बल देने के लिए किया जाता है। इसके विपरीत गद्य की प्रकृति अनियमितता की है उसमें अगर नियमितता आती है तो विशेष प्रभाव के लिए। एक कवि अगर गद्यात्मक संरचना की कविता प्रस्तुत करता है तो वह सायास किसी विशेष वातावरण के निर्माण के लिए जो कि कविता में उसका अभीष्ट है।
विचलन
कविता......... अनियमित लय
विचलन
गद्य....... नियमित लय
कई बार कथ्य ही इतना प्रबल होता है कि उसी से एक आंतरिक लय निर्मित हो जाती है -
एक नीला दरिया बरस रहा (16 मात्राएँ)
और बहुत चौड़ी हवाएँ हैं (16 मात्राएँ)
मकानात हैं जंगल (12 मात्राएँ)
मगर किस कदर ऊबड़-खाबड़ (16 मात्राएँ) (शमशेर बहादुर सिंह)
इसमें सभी पंक्तियाँ अलग अलग प्रकार के व्याकरणिक वाक्य हैं, हालाँकि मात्राओं की एक नियमितता उनमें है लेकिन इसका सबसे उल्लेखनीय तत्व एक के बाद आनेवाले अनोखे अप्रत्याशित बिम्ब हैं, जो भाषाई विचलन का सहारा लेकर प्रकट हुए हैं। ‘नीला दरिया बरस रहा’ में स्थिर (नीला आकाश) के लिए गतिशील क्रिया (बरसना) का प्रयोग, हवाएँ जिनका कोई आयाम नहीं उसके लिए ठोस आयाम वाले विशेषण ‘चैड़ाई’ का प्रयोग और मानव निर्मित (मकान) की प्रकृतिनिर्मित (जंगल) के रूप में कल्पना। ये सभी विचलन एक के बाद एक लगातार आकर कथ्य मे एक लय निर्मित कर देते हैं। विन्यास की अपेक्षा अर्थ का स्तर यहाँ लय के लिए उत्तरदायी है। अर्थ का स्तर छंदबद्ध की अपेक्षा छंदमुक्त कविता में लय के निर्माण में गुरुतर भूमिका निभाता है।
लय के लिए एक और तत्व जिम्मेदार हो सकता है - अव्यवस्था में व्यवस्था आरोपित करने का प्रयास। किंग जेम्स अधिकृत पाठ बाइबिल की भाषा नियमित लय का ऐसा ही उदाहरण है जिसमें लय छंद के कारण नहीं है, जैसा कि कविता में होता है, या फिर गद्य की लय भी नहीं है जो मुख्यतः घटनाओं की अनुकृति के कारण होती है।
कविता से गद्य का भेद संप्रेषण व्यापार (discourse situation) की स्थितियों में भी है। गद्य में जब कोई बात कही जाती है तो उसके संदर्भों को परिभाषित करना आवश्यक होता है। गालिब का शे’र ‘दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है, आखिर इस दर्द की दवा क्या है’ अगर किसी गद्य की विधा में आता तो यह स्पष्ट करना अनिवार्य होता कि किसने किससे और किस संदर्भ में में ये बात कही। यही नहीं, किस प्रकार के दर्द की बात कही जा रही है यह भी स्पष्ट करना आवश्यक होता। किसी कहानी में इसके होने की संभावना पात्रों के संवाद, या किसी पात्र की सोच या फिर लेखक की तरफ से किसी पात्र या स्थिति के बारे में टिप्प्णी के रूप में ही हो सकती थी। लेकिन कविता की पंक्तियों के रूप में ये चीजें इसके लिए अनिवार्य नहीं। हाँ, कथात्मक कविता इसका जरूर अपवाद है। संदर्भ से न बंधने की इसी छूट के कारण कविता स्वतंत्र रूप से अनेक संदर्भों में फिट होने की क्षमता रखती है। कविता की पंक्तियों को हम इसी कारण अलग अलग स्थितियेां में उद्धृत कर पाते हैं। गद्य में ऐसी स्थिति तब आती है जब कोई उक्ति इतनी प्रसिद्ध हो जाए कि वह कहावत का-सा रूप धारण कर ले, जैसे प्रेमचंद के पंच परमेश्वर की ये पंक्तियाँ –‘बेटा, क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं बोलोगे?’
दोनों उदाहरणों में संप्रेषण व्यापार की स्थितियों के अंतर को हम निम्न आरेख से व्यक्त कर सकते हैं -
आज कविता छंद, लय आदि को छोड़कर चाहे कितनी ही गद्यवत हो चुकी हो, संदर्भ की उक्त स्वतंत्रता का लाभ वह अवश्य उठा रही है। ऊपर मंगलेश डबराल की कविता की पंक्तियाँ यदि गद्य की विधा में होतीं तो वह किसी निबंध या कहानी का अंश बनकर ही आतीं, उनका अलग वजूद संभव नहीं होता। इसके विपरीत अशोक वाजपेयी के संस्मरण का उद्धृत अंश कविता के रूप में स्वतंत्र रूप से खड़ा होने की क्षमता रखता है। संदर्भ से मुक्ति की यह सुविधा कविता को असीम संभावनाएँ प्रदान करती है। रघुवीर सहाय की प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं:
मैं सब जानता हूँ, पर बोलता नहीं / मेरा डर, मेरा सच एक आश्चर्य है / पुलिस के दिमाग मे वह रहस्य रहने दो / वे मेरे शब्दों की ताक में बैठे हैं / जहाँ सुना नहीं उनका गलत अर्थ लिया और मुझे मारा / इसलिए कहूँगा मैं / मगर मुझे पाने दो / पहले ऐसी बोली / जिसके दो अर्थ न हों।
यह आत्मकथन की मुद्रा में है जो मुद्रा गद्य भी अख्तियार करती है और यह गद्य के विन्यास में है भी। अगर गद्य की विधा के अनुरूप इसमें कोई भूमिका बांधने या प्रसंग सृजित करने की बाध्यता होती कि किन्ही पात्रों के बीच, किन्हीं स्थितियों में, किन्हीं घटनाओं के परिणाम या प्रतिक्रिया में उपर्युक्त बातें कही जाएँ तब शायद यह अभिव्यक्ति संभव ही नहीं हो पाती। बल्कि यह उद्धरण वास्तविक दुनियाँ के व्यवहार से विचलन प्रदर्शित करता है। इसमें पुलिस है जो शब्दों की ताक में बैठी है (जो होता नहीं), अपराध गलतबयानी का नहीं सच बोलने का है। विडम्बना सच बोलकर भी झूठे ठहराए जाने के षडयंत्र की है। और समस्या ऐसी ‘बोली’ पाने की है ‘जिसके दो अर्थ न हों’। व्याकरणिक दृष्टि से प्रत्यक्ष और अभिधेय कथन होने के बावजूद इसकी प्रकृति अभिधात्मक नहीं, प्रतीकात्मक है। इसका आशय राजनैतिक है: पुलिस सत्ता और राजनीति की प्रतीक है, उसके दिमाग में ‘आश्चर्य’ और ‘रहस्य’ कवि के सत्य पर बने रहने की जिद को लेकर है, शब्दों का गलत अर्थ लगाना और दण्डित करना राजनैतिक आशय में सत्ता और राजनीति द्वारा शब्दों के दुरुपयोग और सच को खामोश करने की कोशिशों से है। स्वयं कवि का दर्द कि ‘ऐसी बोली पाने दो जिसके दो अर्थ न हों’ विडम्बना का शिकार होकर बहुअर्थी बन जाता है - हम चाहें तो इसे रचनाकार और समाज के संबंध के संकट के स्तर पर भी संगत ठहरता देख सकते हैं जिसमें पुलिस समकालीन गलत आशय लगानेवाले आलोचक पाठक साहित्यिक समुदाय और अप्रिय सच्चाइयों से घबरानेवाले समाज की प्रतीक हो और कवि की मुश्किल शब्दच्युत समाज में अपने आशय को सही रूप में संप्रेषित करने की हो। अर्थ की यह बहुस्तरीयता इस कविता में संदर्भ मुक्ति के कारण संभव हो पाई है यद्यपि इसकी संरचना गद्य की है।
अर्थ की बहुस्तरीयता पर कविता का एकाधिकार हो ऐसा नहीं है। गद्य की रचनाएँ भी प्रतीकात्मक या उससे भी आगे रूपकात्मक हो सकती है। जार्ज आर्वेल का प्रसिद्ध उपन्यास ‘एनिमल फार्म’ रूपक का उत्कृष्ट उदाहरण है।
अतएव, एक अलंकार का सहारा लेकर कहें तो, गद्य और कविता विधागत अंतर के बावजूद एक दूसरे के घर में आवाजाही करते हैं। अभिव्यक्ति के हर उपादान, छंद, लय, नियमित विन्यास, अनियमित विन्यास का अपना महत्व है। इसे समझने की आवश्यकता है। आज जब कवि उत्साह में आकर एक फैशन के रूप में छंद की या उसके उपादानों की उपेक्षा करता है तब कई बार वह अभिव्यक्ति के सशक्त औजारों का या तो मूल्य नहीं समझ रहा होता है या उसमें चैंकाने की प्रवृत्ति काम कर रही होती है।
लेकिन दूसरी तरफ, चर्चा को संतुलित करते हुए, इस तथ्य का उल्लेख भी आवश्यक है कि केवल छंद या नियमित लय में बांध देने मात्र से ही कोई अभिव्यक्ति कविता की हैसियत अख्तियार नहीं कर लेती, वह पद्य की संज्ञा पा लेने की अर्हता भले प्राप्त कर लेती हो। प्राचीनकाल में साहित्येतर विषय भी छंद में बांध कर कहे जाते थे। आयुर्वेद भी पद्य में है और सारे उपनिषद् पुराण भी पद्यबद्ध हैं। आज कविता ने ऐसे दायित्व गद्य को हस्तांतरित कर दिए हैं। रचनात्मक अभिव्यक्ति के अंतर्गत भी अगर कविता के पास मूल्यवान कहने के लिए कुछ नहीं है तो छंद लय आदि उसको कोई सहारा नहीं दे सकते। किसी भी अभिव्यक्ति के लिए अर्थ का स्तर सबसे महत्वपूर्ण है। वही अभिव्यक्ति को मूल्य प्रदान करता है।
धड़कन धड़कन धड़कन -/ दाईं, बाईं, कौन आँख की फड़कन - / मीठी कड़वी तीखी सीठी / कसक किरकिरी किन आँखों की तड़कन? / ऊँह! कुछ नहीं, नशे के झोंके से में / स्मृति के शीशे की तड़कन। (अज्ञेय)
इसमें लय भी है और तुक अनुप्रास शब्दालंकार भी, भाषाशास्त्र की शब्दावली मे कहें तो इसमें विन्यास की नियमितता और स्वनिमिक आवृत्ति (अनुप्रास, एवं तुक) दोनों हैं लेकिन ये चीजें इसका मूल्य नहीं बढ़ातीं। उल्टे लगता है कवि बस तुक मिलाने के लिए शब्दों की बाजीगरी कर रहा है। अज्ञेय की उत्तरकालीन कृतियों में यह दोष अधिक है। इस मामले मे पंत और बड़े उदाहरण बनेंगे जिनकी उत्तरकालीन कविताओं में छंद, लय आदि सब हैं मगर कथ्य के नाम पर पुरानी बासी भावों की आवृत्ति है या समकालीन समस्याओं का सिर्फ विचार के रूप में उथला अनुभवरिक्त प्रत्यक्षीकरण। कई बार कवि नितांत सतही कथ्य को ही छंद, लय अलंकारों आदि में लपेटकर विशेष दिखाने की कोशिश करता है। यह दोष प्रायः मंचीय कवियों में अधिक होता है।
निष्कर्ष: गद्य और पद्य का अंतर अभिव्यक्ति के प्रकार (mode of perception) का अंतर है - दोनों अभिव्यक्ति की अलग अलग विधाएँ है। छंद और लय, उसमें भी विशेषकर लय वह गुण है जो कविता को गद्य से अलग करता है: कविता की लय नियमित होती है और गद्य की अनियमित। लय प्रतिफलित होता है नियमितता और आवृत्ति के द्वारा। विभिन्न स्तरों पर आवृत्ति, जैसे: स्वनिमिक स्तर पर वर्णों की आवृत्ति (तुक और अनुप्रास), रूपिमिक स्तर पर शब्दों की आवृत्ति (यमक, ध्वन्यर्थ व्यंजना, onomatopoeia, द्वित्व) व्याकरणिक स्तर पर संरचनात्मक इकाइयों की आवृत्ति (एक जैसे पदबंधों, उपवाक्यों, वाक्यों का आना, समानांतरता) आदि कथन में नियमितता लाती हैं और अभिव्यक्ति को काव्यात्मक बनाती हैं। ये काव्यात्मक उपादान हैं जिनकी मौजूदगी कथन को विशिष्टता प्रदान करती है। समग्र अर्थ के निर्माण में इनका योगदान होता है। ये अभिव्यक्ति के संसाधनों में शामिल हैं जिनका उपयोग कविता में अभीष्ट प्रभाव की सिद्धि के लिए किया जाता है। एक कुशल कवि अभिव्यक्ति के इन साधनों का अपनी कविता में जैसी जरूरत हो, उपयोग करता है। बिल्कुल सादी भाषा में, बिना अलंकारों के -‘जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख’ - में ऊँची कविता की जा सकती है और ‘उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख’ की शर्त पूरी की जा सकती है।
आज हिन्दी या किसी भी भाषा के आधुनिक काव्य का मूल्यवान अंश छंदहीन ही है। किंतु अगर हम लय का बहुत उदार अर्थ में प्रयोग न करके प्रचलित अर्थ ‘नियमित या सममितिपूर्ण आवृत्ति’ ही लें तो आज की कविता बहुत कुछ लय का भी त्याग कर चुकी है। आज कविता के नाम पर सीधे सीधे गद्य भी लिखा जा रहा है। यह प्रवृत्ति अपेक्षाकृत नई है। मुक्तिबोध, धूमिल जैसे ‘अब पुराने हो चुके’ कवियों का अधिकांश कृतित्व छंदहीन ही है किंतु उनकी कविताओं में एक प्रकार का लय है, जो छंद की लय-सी नियमित नहीं लेकिन उसके स्रोत अर्थ और संरचना में किसी प्रकार की नियमितता, सममिति या विचलन में हैं। मुक्तिबोध की टूटी वाक्य श्रृंखला, विश्रृंखल बिम्ब योजना और फैंटेसीपूर्ण भयावह जगत उसे सामान्य अनुभव और बोलचाल की भाषा के धरातल से उठाकर उसे एकदम दूसरे तल पर ले जाते हैं। उनमें अनेक संदर्भगत तत्वों का त्याग कर दिया गया है जैसा कि कविता करती है जिनका होना किसी गद्यकृति के लिए आवश्यक होता। अगर उसकी तुलना किसी गद्यकृति से करें तो फैंटेसीपूर्ण भयावह जगत, उदाहरण के लिए, जार्ज आर्वेल ने 1984 (या फिर एनिमल फॉर्म में भी) रचा है लेकिन वह जगत तार्किक संगति से परिपूर्ण है जिसके सभी अंग सुगठित हैं, जिसमें पात्र हैं घटनाएँ हैं, विचार हैं -- सबकुछ इस हद तक, और आंतरिक संगति से पूर्ण कि वही पूर्णता उसमें भयानक विसंगति का संचार करती है। ऑर्वेल “ऑल मेन आर ईक्वल बट सम मेन आर मोर ईक्वल” भाषाई विचलन से ऑर्वेल विद्रूप और व्यंग्य रचते हैं और मुक्तिबोध मोहभंग या फिर विद्रूप (चाँद का मुँह टेढ़ा है)। आर्वेल का संसार विलक्षण बौद्धिक समझ और व्यंग्य से प्रसूत है जबकि मुक्तिबोध का जगत सिर्फ भयानक कल्पना से निर्मित जिसमें भय के कारणों का उल्लेख या संकेत नहीं। फैंटेसी और भय (horror) दोनों ही में हैं। मुक्तिबोध का जगत अपने खंडित बिम्बों और विसंगतियों से चकित करता है और आर्वेल का जगत पात्रों घटनाओं विचारों की आश्चर्यजनक संगति से एक दर्शन, एक शासन व्यवस्था की अमानवीय विसंगति का आतंक रचता है। एक कविता है और एक गद्य।
आज की कविता का प्रतिनिधि चेहरा गद्य का है। उसने अलंकरण, लयात्मकता आदि का त्याग कर सपाटबयानी और सीधे साक्षात्कार को अपना मूलाधार बनाया है। उसमें सीधे गद्य के फॉर्म में बोली जानेवाली भाषा का अनुकरण करने की कोशिश है। यह सुरक्षित रूप से कहा जा सकता है कि बोलचाल की लय अपनाने की चेष्टा फॉर्म के स्तर पर समकालीन कविता की सबसे प्रबल प्रवृत्ति है। किंतु इस प्रवृत्ति का दूसरा पक्ष यह है कि बोलचाल की भाषा विवरणात्मक होती है, उसमें चीजों को पूर्णता में कहने की जरूरत होती है, व्याकरणिक विन्यासों को पूरा करना पड़ता है, जबकि कविता इस बाध्यता से काफी हद तक मुक्त होती है। गद्य का फॉर्म विस्तार मांगता है ; आश्चर्य नहीं कि आज की कविता में भी विस्तार से कहने की प्रवृत्ति है। यह विस्तार अक्सर उसमें अर्थ के स्तर पर मामूली तत्वों के समावेश के कारण आता है। अक्सर यह खतरा होता है कि साधारण भाषा में साधारण अनुभव या सोच ही सामने आ पाए, यद्यपि ऐसा होना आवश्यक नहीं । कवि की तो चेष्टा एक अर्थ में शब्दों की साधारणता के प्रति विद्रोह होती है: कैसे वह ‘यूनीक’ अनुभवों को एक ‘कॉमन’ भाषा में व्यक्त करे। किसी समय दार्शनिक रही यह समस्या आज के समय में संकट का रूप धारण कर चुकी है जब मीडिया बाजार आदि के विभिन्न बाहरी दबावों के कारण शब्द अवमूल्यित होते जा रहे हैं। आज कवि से और गहरी कोशिश की अपेक्षा है।
प्राचीन और मध्यकाल में कविता का फॉर्म छंदबद्ध, स्थिर था। छंद और काफी हद तक लय से स्वतंत्रता ने आज की कविता में फॉर्म के स्तर पर भी क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है। पुरानी अभिरुचि से चिपका पाठक आज कविता के साथ न्याय नहीं कर सकता। दुर्भाग्यवश हिन्दी क्षेत्र में वांछित रुचि-संस्कार सांस्कृतिक पिछड़ापन, या जिन भी कारणों से, अपेक्षा से बहुत कम हो पाया है। आज का हिन्दी समाज तो साहित्य से भी विमुख है, उसमें कविता से सम्पृक्ति की बात तो दूर है। किंतु दोष सिर्फ पाठक को देना अनुचित होगा। बदलाव के आग्रह में अति की सीमा तक बदलती जा रही हिन्दी कविता अब अपनी विधागत विशिष्टता - प्रभाव की सघनता - से भी वंचित हो रही है। उसमें गद्य की काया में मामूली अनुभवों और सपाट गद्यात्मक कथनों की बाढ़ है। ऐसा नहीं कि गद्य का मूल्य कुछ ‘कम’ है। एलियट ने कहा था कि एक अच्छी कविता एक अच्छा गद्य भी होती है। कविता की प्रकृति सघनता की, संक्षिप्तता की है। आज कविता के नाम पर आ रही ढेर सारी निर्मितियों को अच्छा गद्य भी नहीं कहा जा सकता। पाठक को लगता है कि जो बात गद्य में भी मामूली लगती उसको ही पंक्तियों में तोड़कर, बल्कि ‘तोड़-फोड़कर’ कविता की तरह लिख दिया गया है। ‘तोड़-फोड़’ इसलिए कि उसमें पंक्तिभंग का कोई तर्क नजर नहीं आता, और अगर तर्क हो भी तो भी मात्र उसी की बिना पर उसे कविता का दर्जा नहीं दिया जा सकता। स्वाभाविक है, वह पाठक से भी दूर होती जा रही है, क्योंकि पाठक को उसमें कविता का रस नहीं मिलता।
आज कविता नए यथार्थ को व्यक्त करने के नाम पर चाहे जितनी भी गद्यवत होने की चेष्टा करे, शब्द लाघव और ‘अर्थ अमित अति आखर थोरे’ की अपेक्षा उससे रहेगी ही, अन्यथा वह वाचालता के आरोप से अपने को मुक्त नहीं कर सकेगी। आज हिन्दी की कितनी ही पत्र-पत्रिकाओं में छपती विपुल काव्यराशि को देखकर यही प्रतीत होता है कि आज का कवि विभिन्न काव्यात्मक उपादानों से मुक्ति की आड़ में अपने ज्ञान और कल्पना और संयोजन क्षमता की दुर्बलता को छिपाना चाहता है। किसी अनुभवप्रसूत विवेकसम्पन्न जीवनदृष्टि की जगह तात्कालिक या सतही अनुभवों से काम चलाना चाहता है। अनुभवों के पीछे के सत्य का साक्षात करने के बजाए अनुभवों के विवरण देने में सुविधा देखता है। ऐसे में आज बार-बार छपते, चर्चित होते और क्रमशः पुरस्कृत भी होते अनेक कवियों के माहौल में किंचित अफसोस के साथ पाठक यही सोचता है -