डॉ. प्रभु चौधरी
उज्जैन(मध्यप्रदेश)
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स्वाधीनता की चेतना जगाने का काम जो भाषा करे,वही श्रेष्ठ मानी जाती है। हिन्दी भाषा में स्वाधीनता की चेतना जगाने का भाव निहित है। इसी कारण भारतीय जनमानस को हिन्दी से प्रेम है। इतिहास के पन्ने पलटकर देखें तो हमें ज्ञात होता है कि हमारी भाषा स्वतंत्रता पर अंग्रेजी शासन ने ऐसे अंकुश लगाए कि,हम अपनी भाषा,अपनी संस्कृति,अपने जीवन मूल्यों से दूरी बना लें। इस कारण उन्होंने भारतीयों पर अंग्रेजी थोपने का काम किया। अंग्रेजों की नीति यह थी कि यदि किसी जाति या देश के लोगों को अपने अधीन कर उसे सदैव के लिए अपना भक्त बनाए रखना है तो उस जाति या देश की भाषा,इतिहास,संस्कृति के प्रति वहां के लोगों में विरक्ति कर दो,वह गुलाम बना रहेगा। अंग्रेजों ने यह नीति अपनाई और हिन्दी को दोयम दर्जे पर रखने की साजिश की।
किसी भी राष्ट्र की केन्द्रीय सरकार जिस भाषा द्वारा अपना सारा काम-काज चलाती है तथा अपने राज्यों के साथ सम्पर्क स्थापित करती है,वह राष्ट्रभाषा कहलाती है। राष्ट्रभाषा बनने का अधिकार उसी भाषा को है,जिसे किसी देश की जनता के अधिकांश भाग वाले लोग बोलते और समझते हैं। भारत वर्ष में हिन्दी लगभग ६ राज्यों की राजभाषा है। राष्ट्रभाषा पूरे राष्ट्र को एकसूत्र में पिरोने का काम करती है,क्योंकि भूगोल भी भाषा से बंधा होता है। हिन्दी की जड़ें भारत के शताब्दियों लंबे इतिहास-भूगोल में है। अंग्रेजी को शासन की भाषा के रूप में थोपना उनकी औपनिवेशक मानसिकता का द्योतक है। राष्ट्रभाषा आपस की दरारों को या दूरियों को पनपने नहीं देती हैं। राष्ट्रभाषा से पूरे देश की पहचान झलकती है,जिसका प्रवाह सम्पूर्ण राष्ट्र में अभिव्यक्ति के माध्यम से दिखाई देता है। हिन्दी इस कटौती पर खरी उतरती है। भाषा का व्यक्ति से अटूट सम्बन्ध हैl इस संबंध में शैलेष मटियानी ने कहा है-“आदमी और भाषा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और आदमी में स्वाधीनता की भनक भी तभी उत्पन्न होती है,जब उसमें भाषा की खनक पैदा हो जाए। भाषा को उछालिये तो आदमी बोलता सुनाई देगा और आदमी को पटकिये तो भाषा फूटती दिखाई देगी,लेकिन भाषा देश की अनुगूंज तभी उत्पन्न होती है जबकि आदमी देश से जुड़ा हो। ऐसे में भाषा के सवालों को उन लोगों के हवाले नहीं छोड़ा जा सकता,जिनको हवा में उछालने या जमीन में पटकने से ऐसे कोई अनुगूंज उत्पन्न नहीं होती है।”
हिन्दी प्रभुसत्ता वर्ग या अधिकारी वर्ग की भाषा नहीं है,वरन यह समाज की भाषा है। यह राष्ट्र की अन्तर्भाषाओं की मुख्य धारा बनने का सामर्थ्य रखती है,क्योंकि इसी सामर्थ्य के कारण स्वतंत्रता आंदोलन की केन्द्रीय भाषा के रूप में हिन्दी को स्वीकार किया जा सका और इसी विस्तार के साथ-साथ हिन्दी ने अन्य प्रान्तों के शब्दों को ग्रहण किया और सहज ही अपनी व्यापकता को प्रतिष्ठित किया। हिन्दी में आत्मसात करने की प्रवृत्ति ने उसको एक क्षेत्र में न बांधते हुए विस्तार दिया। समस्त भारतीय समाज से बूंद-बूंद निसृत हुआ ही इस भाषा में समाहित हुआ है।इसी कारण वह अपनी निर्मिती में पूरे भारतवर्ष की भाषा है।
यह कैसी विडम्बना है कि,जिस भाषा ने स्वतंत्रता के समर में राष्ट्रीय चेतना जगाने का काम किया,आज उसी भाषा को भारत के ही लोग सम्पर्क भाषा के रूप में या राज-काज चलाने के रूप में तथा अपने बच्चों को शिक्षित करने के लिए हिन्दी को उतना सक्षम नहीं समझते,जितना कि अंग्रेजी को मानते हैं। अन्य भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करना बुरा नहीं है,किन्तु अपनी भाषा का सम्मान न करना बहुत ही दुखद पहलू है। इसके लिए कोई एक वर्ग जिम्मेदार नहीं है,बल्कि हम सभी जिम्मेदार हैं। उसके कुछ कारण भी हैं, रोजगार की भाषा के रूप में आज अंग्रेजी ने अपनी जड़ें गहरी कर ली हैं। अंग्रेजी में साक्षात्कार होना,अंग्रेजी भाषा में परीक्षाएं होना तथा अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व बढ़ने के कारण हिन्दी उपेक्षित हो रही है। हालांकि,हिन्दी में भी रोजगार के अवसर हैं,पर उनका प्रतिशत कुछ कम है। आज बच्चों को हिन्दी की गिनती और पहाड़े याद नहीं हैं। अंग्रेजी की गिनती और टेबिल उनकी जुबान पर सहज ही आ जाते हैं। किसी भी चीज का चलन जब समाज में कम होता है तो वह धीरे-धीरे लुप्त होने लगती है।
हम भारतवासी भारतीय माहौल में पले-बढ़े हैं,हम अपनी बात को हिन्दी में अच्छे ढंग से व्यक्त कर सकते हैं, लेकिन कई बार दूसरों पर प्रभाव दिखाने के लिए अंग्रेजी का प्रयोग करना हमारा स्वभाव बन गया है। यह हमारी मानसिक गुलामी है। हमें अपना आत्मविश्वास बढ़ाना होगा और हिन्दी का स्वयं सम्मान करने के संस्कार सीखने होंगे,तभी आगामी पीढ़ी को हम यह संस्कार सौंप सकेंगे। भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम होने के कारण ही बहुत बड़ी शक्ति के रूप में मान्य है, क्योंकि किसी भी विषय की गहराई या अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए भाषिक शक्ति आवश्यक है। भाषा के बिना व्यक्ति सामर्थ्यहीन है,जब तक भाषा का विकास नहीं हुआ था,तब तक आदिम युग के अंधेरों में आदमी भटकता रहा। सूर्य,चंद्र और सारे नक्षत्र मंडल की महत्ता भाषा द्वारा ही व्याख्यायित हो सकी। तभी हम सूर्य को सूर्य और चंद्र को चंद्र कह सके। डॉ.चतुर्वेदी का मत है-“हिन्दी ने अपनी क्षमता,शक्ति,सामर्थ्य के कारण पद पाया है। १००० वर्ष से अधिक की परम्परा है इसके पास विस्तृती है, संस्कृति है,प्रस्तुति है।” एक साहित्यकार का मत है-“भाषा आदमी की उस गूंज और अनुगूंजी की श्रृंखला का ही दूसरा नाम है, जो उसके प्रकृति तथा समाज के विराट के साथ संवाद से उत्पन्न होती है। यह श्रृंखला देश काल के अनुसार रूप में परिवर्तित भले ही होती जाए, लेकिन टूटती कभी नहीं।”
आज बच्चों में प्रारंभ से ही भाषा के प्रति सम्मान का भाव पुनः जागृत करने की आवश्यकता है। अपनी राष्ट्रीय अस्मिता की भावना जगाना आवश्यक है,वरना वे हिन्दी को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में नहीं समझ पायेंगे। यह बताना आवश्यक है कि,हिन्दी भाषा भी राष्ट्रीय ध्वज की तरह राष्ट्र का प्रतीक है। यह भाव भाषा के प्रति राष्ट्रीय स्वाभिमान का भाव जागृत करता है। हिन्दी भाषा को वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान स्थापित करने के लिए उन्नति और तकनीकी विकास के साथ-साथ अपनी सांस्कृतिक साहित्यिक और भाषाई पहचान को बचाए रखना बहुत जरूरी है। जो सच्चे भारतीय हैं,उनकी अंतर्रात्मा यही कहती है कि हिन्दी भाषा को हमारी राष्ट्रीय भाषा के रूप में पहचान मिले, इससे देश का गौरव और स्वाभिमान विश्वस्तर पर स्थापित होगा।
परिचय-डॉ.प्रभु चौधरी का निवास जिला उज्जैन स्थित महिदपुर रोड पर है। डॉ. चौधरी का जन्म १९६२ में १ अगस्त को उज्जैन में हुआ है। इनकी शिक्षा-हिन्दी और संस्कृत में पी-एच.डी. है। हिन्दी सहित अंग्रेजी संस्कृत,गुजराती तथा बंगला भाषा भी जानने वाले प्रभु जी की ४ प्रकाशित हो चुकी है। आप एक संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं,जो शिक्षकों तथा हिंदी के लिए कार्यरत है। साथ ही राष्ट्रीय कई संस्थाओं में उपाध्यक्ष,सम्पादक सदस्य(नई दिल्ली) और प्रदेश संयोजक हैं। आपको सम्मान के रूप में-साहित्य शिरोमणि,विद्या सागर एवं विद्या वाचस्पति,आदर्श शिक्षक(राज्य स्तरीय),राजभाषा गौरव(दिल्ली),हिन्दी सेवी सम्मान(बैंगलोर),हिन्दी भूषण सम्मान उपाधि,भाषा भूषण सम्मान,तुलसी सम्मान (भोपाल),कादम्बरी सम्मान तथा स्व. हरिकृष्ण त्रिपाठी कादम्बरी सम्मान(जबलपुर) है। प्रकाशन में आपके नाम-राष्ट्रभाषा संचेतना (निबंध संग्रह-२०१७),हिन्दी:जन भाषा से विश्व भाषा की राह पर(२०१७) प्रमुख है। कई अन्तरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों मेंआपकी समन्वयक के रूप में सहभागिता रही है। आपकी लेखन विधा मूलतः आलेख हैl राजभाषा,राष्ट्रभाषा,देवनागरी लिपि तथा सम-सामयिक विषयों एवं महापुरूषों के बारे में लगभग ३००० लेख प्रकाशित हुए हैंl डॉ.चौधरी की लेखनी का उद्देश्य हिंदी भाषा की बढ़ोतरी करना हैl
प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी
मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो.: 09703982136