बुधवार, 29 अगस्त 2018
मंगलवार, 28 अगस्त 2018
11वां विश्व हिंदी सम्मेलन : मेरी नजर में। डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य'
11वां विश्व हिंदी सम्मेलन : मेरी नजर में|
डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य'18 से 20 अगस्त 2018 को मॉरीशस में गोस्वामी तुलसीदास नगर के अभिमन्यु अनत सभागार में आयोजित '11वें विश्व हिंदी सम्मेलन' को ले कर हर किसी की अपनी राय है। हर कोई अपने तरीके से अपने अनुभवों को बांट रहा है। जो गए वे भी, और जो नहीं गए वे भी। अपनी जगह सभी सही हैं। यह कहानी तो सभी विद्वान जानते हैं कि पांच अंधों से जब हाथी के बारे में पूछा तो जिसने जहाँ से हाथी को छूआ वैसा ही बताया। मुझसे भी अनेक मित्रों ने '11वें विश्व हिंदी सम्मेलन' के बारे में जानना चाहा है। मेरी स्थिति भी कुछ वैसी ही है। इसलिए सम्मेलन और उसके परिवेश को जहाँ-जहाँ जैसा छूआ और जो अनुभव किया वह सभी के सामने रख रहा हूँ।
विश्व हिंदी सम्मेलन को लेकर अक्सर लोगों को अनेक शिकायतें रही हैं । यह भी कि इन सम्मेलनों में जो विचार विमर्श होता है, जो सिफारिशें होती हैं वे किसी परिणाम तक नहीं पहुंच पाती। या फिर यह है कि इन सम्मेलनों में अक्सर जुगाड़बाज सरकारी खर्चे पर पहुंच जाते हैं और असली हिंदी-सेवी दरकिनार हो जाते हैं। सरकारी कार्यालयों, संस्थानों या संस्थाओं के खर्च पर जाने वाले अनेक लोग तो पिकनिक मनाने ही जाते हैं। यह भी कि इसमें सरकारी धन का अनावश्यक रुप से अपव्यय होता है, वगैरह। इन तमाम बातों को मैं खारिज तो नहीं कर रहा। हमेशा की तरह इस बार भी सरकारी संस्थानों आदि के खर्च पर ऐसे अनेक लोग सम्मेलन में उपस्थित थे जिनका हिंदी से कोई संबंध नहीं था। अगर नौकरी के नाते कोई संबंध था भी तो उन्हें हिंदी से कोई विशेष सरोकार न था। भारतीय भाषाओं के प्रसार के लिए सतत् प्रयासरत वरिष्ठ पत्रकार राहुलदेव, भारतीय भाषाओं की प्रौद्योगिकी के लिए निरंतर प्रयासरक डॉ. ओम विकास और हिंदी व भारतीय भाषाओं के लिए निरंतर संघर्ष कर रहे ऐसे लोगों के अनेक नाम हैं जो सम्मेलन में होते तो सम्मेलन की गरिमा बढ़ती और वे सम्मेलन के उद्देश्यों की सफलता में योगदान भी देते।लेकिन ऐसा तो हमेशा हर जगह और हर तरह के आयोजनों में सदैव होता आया है। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि उनसे कहीं बड़ी संख्या में देश से ही नहीं विदेशों से भी ऐसे लोग वहाँ पहुंचे थे जिनका हिंदी और भारतीय भाषाओं सहित भारत और भारतीयता से गहरा सरोकार है। ऐसे अनेक लोग धनी न होने के बावजूद निजी खर्च पर भी इस सम्मेलन में पहुंचे। उनमें में मैं भी एक था। मॉरीशस में आयोजित 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन में मैं ऐसा बहुत कुछ भी देखता हूँ जो सकारात्मक है और हिंदी और भारतीय भाषाओं सहित भारत, भारतीयता और भारत की संस्कृति के विकास के मार्ग को प्रशस्त करता दिखता है।सम्मेलन के ठीक पहले भारत रत्न भारत के पूर्व प्रधानमंत्री, हिंदी के कवि हिंदी-प्रेमी व प्रखर वक्ता माननीय अटल बिहारी वाजपेयी जी के निधन का प्रभाव विश्व हिंदी सम्मेलन पर भी पड़ा। सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए वहाँ पहुंचे कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन नहीं कर पाए। भोपाल सम्मेलन की तरह यहाँ भारतीय संस्कृति की भव्य झलक देखने को नहीं मिली। लेकिन इसके साथ-साथ यह भी कि मा. अटल बिहारी वाजपेयी जी, जिन्होंने सबसे पहले संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी का झंडा गाड़ा उनके निधन से लोगों के दिलों दिमाग में देश-दुनिया में हिंदी के प्रति एक सघन भावनात्मक परिवेश बन गया, जो सम्मेलन में भी दिखा। माननीय अटल बिहारी वाजपेयी जी के प्रति जगी संवेदना लोगों के हिंदी-प्रेम को अंतर्मन तक ले गई और सांस्कृतिक कार्यक्रम का समय अटल बिहारी वाजपेयी जी की श्रद्धांजलि का सत्र बन गया।सम्मेलन में धूम-धड़ाका तो न था लेकिन उत्साह में कोई कमी न दिखी। मॉरीशस में तो मानो भारतीयता की लहर बह रही थी। हिंदी ही नहीं भारतीय धर्म और संस्कृति कहीं न कहीं हर मॉरीशसवासी के मन को स्पर्श करती दिखी। मुझे तो यह लगता है कि हिंदी के बहाने भारतीयता का रंग मॉरीशसवासियों के सिर चढ़कर बोल रहा था। और हो भी क्यों न, जब पूरे देश में विश्व हिंदी सम्मेलन के भव्य बैनर लगे होे, हर तरफ मारीशस और भारत के झंडे लगे हों, बड़ी संख्या में भारत व अन्य देशों से आए भारतवासी पूरे देश में दिखें और बड़ी संख्या में मॉरीशसवासी आयोजन से जुड़े हों तो वातावरण तो निर्मित होगा ही।। मॉरीशस के बहुसंख्यक भारतवंशी इन भारतीयों के समूह में अपनी जड़ों को तलाशते दिखे। इन सबके साथ साथ भारत के धर्म और संस्कृति की धूम पूरे वातावरण को भारतमयी कर रही थी। उद्टघान सत्र में मॉरीशस के प्रधानमंत्री मा. प्रवीण जगन्नाथ और समापन में कार्यवाहक महामहिम राष्ट्रपति श्री परमशिवम पिल्लैजी के संबोधन प्रभावी व आत्मीयतापूर्ण थे। इसके अतिरिक्त पूर्व प्रधानमंत्री मा. अनिरुद्ध जगन्नाथ और लीला देवी दुकन लछूमन, ड्रिक्स मंत्री सहित कई वरिष्ठ मंत्री सक्रियता से लगे थे ।
भारत की पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के निधन पर राजकीय शोक के चलते जब मॉरीशस भर में भारत के झंडे झुके तो उनके साथ साथ मॉरीशस के झुके झंडे हर भारतवासी के दिल को झंकृत कर रहे थे। सबसे बड़ी बात तो यह है कि विश्व हिंदी सम्मेलन का नेतृत्व भारत की विदेश मंत्री माननीय सुषमा स्वराज जी कर रही थीं। इनका हिंदी प्रेम तो जगजाहिर है ही, वे हिंदी की प्रखर वक्ता भी हैं। जब भी कोई अवसर आता है वे हिंदी सहित तमाम भारतीय भाषाओं के साथ खड़ी दिखती हैं। एक समय उऩ्होंने भारत भाषा प्रहरी डॉ. वेद प्रताप वैदिक जी के साथ हिंदी के आन्दोलनों में उनका साथ भी दिया है। उन्होंने सम्मेलन में इस बात को रेखांकित किया कि भोपाल के विश्व हिंदी सम्मेलन से पहले तक के विश्व हिंदी सम्मेलन मुख्यतः ललित साहित्य के सम्मेलन ही बने रहे लेकिन भोपाल और उसके बाद मॉरीशस के विश्व हिंदी सम्मेलन मैं साहित्य से इतर भाषा के विभिन्न पक्षों को भी पर्याप्त महत्व दिया गया है। विचार गोष्ठियों में पूरी गंभीरता के साथ मंथन भी हुआ। अपने उद्घाटन भाषण में स्वयं सुषमा स्वराज जी ने बताया कि भोपाल सम्मेलन की सिफारिशों और लिए गए निर्णयों पर निरंतर बैठकें की गई जिसमें वे स्वयं भाग लेती रहीं। कवि व भाषा-पप्रौद्योगिकिविद् अशोक चक्रधर, साहित्यकार हरीश नवल, पत्रकार लेखक प्रो. राम मोहन पाठक, राजभाषा विभाग के संयुक्त सचिव विपिन बिहारी, विश्व हिंदी सचिवालय के महासचिव विनोद मिश्र, पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति ब्रज किशोर कुठियाला सहित अनेक विद्वान सम्मेलन को सफल बनाने में जुटे थे।
भारत में अक्सर यह देखा गया है कि जहां छोटे-मोटे नेता भी उपस्थित होते हैं तो अक्सर वही बोलते हैं। बाकी सब तो केवल सुनने के लिए ही होते हैं। लेकिन एक बात जिसने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया वह यह थी कि "भाषा प्रौद्योगिकी के माध्यम से हिंदी सहित भारतीय भाषाओं का विकास" विषय पर आयोजित समानान्तर सत्र. जिसकी अध्यक्षता भारत सरकार के गृह राज्य मंत्री माननीय श्री किरेन रिजिजू जी कर रहे थे। उसमें मुझ जैसे प्रतिभागियों को भी खुलकर अपनी बात रखने का मौका दिया गया। उल्लेखनीय बात यह कि उस समय सभागार में उपस्थित भारत सरकार की विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज और विदेश राज्यमंत्री जनरल वी.के. सिंह मंच के बजाए पिछली पंक्ति में श्रोताओं के बीच बैठकर गंभीरता से हमारे सुझावों को सुन रहे थे। निश्चय ही यह सम्मेलन के उद्देश्यों के प्रति उनकी गंभीरता को दर्शाता है।सम्मेलन में भारत की ओर से विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज और विदेश मंत्रालय में राज्य मंत्री जनरल वीके सिंह और श्री एम जे अकबर के अतिरिक्त गृह राज्य मंत्री श्री किरेन रिजिजू उपस्थित थे, जिनके पास राजभाषा विभाग का दायित्व भी है। इसके अतिरिक्त हिंदी की साहित्यकार व गोवा की राज्यपाल माननीय श्रीमती मृदुला सिन्हा तथा हिंदी के कवि व बंगाल के माननीय राज्यपाल भी सम्मेलन की गरिमा बढ़ाने के साथ-साथ सक्रिय भूमिका भी निभा रहे थे। मॉरीशस सम्मेलन में भी हिंदी और भारतीय भाषाओं के विभिन्न पक्षों पर गहन चिंतन मनन हुआ। चर्चा सत्र और उसके बाद सिफारिशों को लेकर की गई मंत्रणा यह संकेत दे रही थी कि यह सम्मेलन केवल सैर-सपाटे का नहीं बल्कि हिंदी के लिए कुछ करने का गंभीर प्रयास है। प्रयास के इन तिलों से कब और कितना तेल निकलेगा, यह तो वक्त ही बताएगा।
अच्सछे सुझाव आए और अनुशंसाएँँ भी सार्थक थीं। इनमें से कुछ अनुशंसाएँ व सुझाव मन को बहुत भाए, जिनमें कुछ तो मेरे भी थे। जैसे - 1. भारत को इंडिया नहीं भारत ही कहा जाए। 2. हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाया जाए। 3. उद्योग व्यापार, रिटेल, बीमा, बैंकिंग, राजस्व आदि सहित सभी कंपनियों आदि के कार्य संबंधी आई.टी. समाधान, ई-गवर्नेंस, ऑन लाइन सेवाएँ तथा वैबसाइट आदि एक साथ द्विभाषी अथवा स्थानीय भाषा सहित त्रिभाषी हों। 4. नई पीढ़ी को सांस्कृतिक दृष्टि से जागरूक बनाया जाए। 5. भारतीय भाषाओं के पत्र-पत्रिकाओं व चैनलों के लिए प्रेस कौंसिल की तरह के भाषा संबंधी नियामक अथवा मार्गदर्शी निकाय बनाए जाएँ जो इन्हें अपनी भाषाओं के जीते - जागते शब्दों की हत्या करना व लिपि को लुप्त करने से रोकें।एक घटना ने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया। सम्मेलन के दूसरे दिन पूर्व निर्धारित योजना यह थी कि सम्मेलन से होटल के लिए जाने वाली बस कवि-सम्मेलन के बाद जाएगी। लेकिन कुछ विलंब के कारण काफी लोगों ने जल्द जाने का निर्णय लिया और बस चली गई। जब मैंने मॉरिशस सरकार के एक अधिकारी, जिन्हें हमारी बस के प्रतिनिधियों को लाने ले जाने का जिम्मा सौंपा गया था, फोन किया तो उन्होंने बताया कि बस के कुछ यात्री अपने आप चले गए थे और बाकी ने जल्द जाने का अनुरोध किया तो वे उन्हें होटल ले गए हैं। उनके पूछने पर मैंने बताया कि मैं तो अभी भी सम्मेलन स्थल पर ही हूँ । तब उन्होंने कहा, 'चिंता मत कीजिए मैं आपको लेने आ रहा हूूँ और आपके होटल तक पहुँचाऊँगा।' कुछ ही देर बाद वे अपनी निजी गाड़ी से मुझे लेने के लिए वहाँ पहुंच गए और मुझे लेकर वापस बहुत दूर स्थित होटल छोड़ने गए। उऩकी कर्तव्यपरायणता व विनम्रता देखकर मैं अभिभूत था। वहाँ के भारतवंशी भारत के लोगों के स्वागत में जिस प्रकार पलक - पाँवड़े बिछाए थे, वह दिल को छूता था।
सम्मेलन के अंतिम दिन भोजन के पंडाल में दूर एक कोने पर नाच-गाने की आवाज़ आ रही थी। ढोलक के साथ महिलाओं का नृत्य और संगीत चल रहा था। मैंने वहां जाकर देखा तो पाया कि भोजन की बड़ी सी मेज के चारों ओर ही भारतीय परिधान में कुछ महिलाएं बिल्कुल ठेठ भोजपुरी शैली में ढोलक की ताल पर भोजपुरी गीत गा रही थी, और कुछ महिलाएं नृत्य कर रही थीं। बाद में पता लगा कि वे सब मॉरीशस की प्रतिभागी महिलाएँ थीं। डेढ़ - दो सौ वर्ष बाद भी अपनी संस्कृति के प्रति प्रेम को देखकर मन भर आया।
सम्मेलन के दूसरे दिन भोजनोपरांत सम्मेलन की ओर से स्थानीय भ्रमण का कार्यक्रम रखा गया था। जिसमें वे सबसे पहले हमें पोर्ट लुइस ले गए । यह वही बंदरगाह है जहां भारत के लोग कुली बन कर पहुंचे थे। जिसे कुली घाट कहा जाता था। अब जिसका नाम बदलकर प्रवासी घाट कर दिया गया है। वहाँ लगी प्रदर्शनी में उस समय भारत से यहां पहुंचे भारतवंशियों की जिंदगी, उनकी तकलीफें और उनके संघर्ष को दिखाया गया था। वहाँ का एक बहुत बड़ा शैड था जिसमेंँ वहां पहुंचने वाले भारतीय कुलियों को पंजीकरण की कार्रवाई पूरी होने तक ठूंस दिया जाता था, इन हालात में अनेक लोग बीमारियों का शिकार हो जाते थे और मर जाते थे। सदियों पहले बिछड़े अपने उन भाइयों - बहनों उनकी तकलीफों के बारे में सोच कर सभी भारतीयों के दिल में कहीं ना कहीं एक टीस उठती थी।अपनत्व की यह टीस भारतवासियों और भारतवंशियों को परस्पर जोड़ती दिखी। इस दौरान दिखाए महात्मा गांधी संस्थान के विद्यालय और प्रदर्शनी भारतवंशियों के अतीत और वर्तमान को जोड़ रही थी । अंत में सभी प्रतिभागी विश्व हिंदी सचिवालय पहुंचे जिसके भव्य भवन का पिछले वर्ष भारत के महामहिम राष्ट्रपति ने उद्घाटन किया था।
एक समय था जब भारत में प्राय सभी हिंदुओं के घरों में आंगन में तुलसी का पौधा छोटा सा मंदिर और केसरिया ध्वजा मिलती थी। लेकिन अब ऐसा कम ही देखने को मिलता है। लेकिन हम यह देखकर हैरान थे कि मॉरीशस में सभी हिंदुओं के घर में आज भी यह सब कुछ था तुलसी का पौधा, आंगन में हनुमान जी का छोटा सा मंदिर और धर्म ध्वजा। मॉरीशस के प्रसिद्ध साहित्यकार रामदेव धुरंधर जी हमें अपनी बेटी के घर ले गए। हम यह देखकर हैरान थे कि वहाँ उनके नन्हे नाती वहांँ विधिवत चरण स्पर्श कर अपनी भारतीय संस्कृति का परिचय दे रहे थे। आधुनिकता के चलते जहां हम भारतवासी अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं, वही दूर देश में बसे भारतवंशी अपनी भाषा संस्कृति से इतनी दूर होने के और इतने समय बाद भी भारतीय संस्कृति को सीने से लगाए हुए हैं, यह देखना निश्चय ही ही सुखद था।
जिस प्रकार भारत में कुंभ के मेले धर्म से जुड़कर भारतीय संस्कृति और भारतीयता के महासमागम बन जाते हैं कुछ उसी प्रकार हिंदी से जुड़कर मॉरीशस का विश्व हिंदी सम्मेलन भी भारतीय धर्म संस्कृति का समागम था। जिसमें अपने से बिछड़े भारतवंशियों की संवेदनाओं के साथ साथ उनके द्वारा की गई प्रगति का गौरव भी शामिल था। जो कुछ भी था पाने के लिए ही था । खोने के लिए तो कुछ न था। हिंदी व भारतीय भाषाओंं के अलावा भी भारत से पहुंचे लोगों के लिए मॉरीशस में बहुत कुछ देखने को और उससे भी ज्यादा सीखने को था। मॉरीशस जो कि भारतवंशियों का ही देश माना जाता है वहाँ जिस प्रकार साफ-सफाई की खूबसूरती थी और उससे भी बढ़कर जो अनुशासन था, उसका कुछ अंश भी भारत वाले मॉरीशस से अपने सा हो सकता है ।मैं और मेरे जैसे अनेक लोग जो हिंदी प्रेम के चलते निजी खर्चे पर मॉरीशस में आयोजित ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन में पहुंचे थे, उनमें से मुझे कोई ऐसा नहीं मिला जिसे इस सम्मेलन में जाने से निराशा हुई हो। हर कोई भावनाओं से ओतप्रोत था। मॉरीशसवासियों का हिंदी और भारतीय संस्कृति के साथ-साथ भारतवासियों से प्रेम और भावनात्मक लगाव उनमें अपनत्व का संचार करता सा दिख रहा था। उस पर मॉरीशस की खूबसूरत समुद्री तट, ज्वालामुखी के अवशेष, प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ साफ सुथरा सुंदर देश ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन में पहुंचे प्रतिभागियों को अभिभूत कर रहा था।
सम्मेलन में क्या खोया , क्या पाया की चर्चा में मुझे अपने विद्वान मित्र रविदत्त गौड़ की टिप्पणी बहुत सटीक लगी, ' डॉ सा'ब ! दही मथने पर हमें मक्खन तोलना चाहिए, न कि छाछ।'
वैश्विक हिंदी सम्मेलन,
प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी
मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो.: 09703982136
[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] जावेद अख्तर जी ने गढ़े मुर्दे उखाड़ने का प्रयास किया है - प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी
प्रिय डॉ. गुप्ता जी,आपने सही कहा है जावेद अख्तर जी ने गढ़े मुर्दे उखाड़ने का प्रयास किया है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के दौरान संविधान समिति में संविधान-निर्माताओं के बीच हिन्दी और हिंदुस्तानी के पक्ष और विपक्ष में बहुत ही लंबी बहस हुई थी और हिन्दी तथा हिंदुस्तानी के बीच मतदान भी हुआ था। अंतत: 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दे दिया था। फिर क्यों जावेद अख्तर जी इस संवैधानिक मुद्दे को उठा रहे हैं। यह देखा गया है कि सिनेमा जगत से जुड़े लोग सुर्खियों में रहने के लिए कोई-न-कोई विवादास्पद मुद्दा उठा देते हैं और हम लोग उन पर विचार करना शुरू कर देते हैं।आज़ादी की लड़ाई के दौरान हिन्दी और उर्दू का मामला भी उठा था, बाद में राजनैतिक कारणो से हिंदुस्तानी शब्द की चर्चा होने लगी। वास्तव में उर्दू भाषा का प्रयोग सर्वप्रथम 18वीं शताब्दी में मुहम्मद शाह रँगीले के समय से माना जाता है। 18वीं शताब्दी से पहले तो उर्दू का नाम ही नहीं मिलता जबकि मुसलमान भारत में छठी-सातवीं शताब्दी से आने लगे थे। 13वीं शताब्दी में अमीर खुसरो अपने को हिंदुस्तानी तुर्क मानते हुए हिन्दी या हिंदवी को हिंदुस्तान की भाषा मानते थे। 1347 ई में बहमनी शाह के समय हिन्दी का प्रयोग मिलता है। 1 मुहम्मद बाकर ‘आगाह’ (1743-1805) और सैयद इंशा की ‘दरियाए लताफ़त (1808) के अनुसार उर्दू शब्द का प्राचीनतम प्रयोग मसहफी की रचना में (18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध) में मिलता है। उस समय अरबी-फारसी मिश्रित हिंदी को उर्दू नहीं ‘पुड़दूँ’ कहा जाता था। बाद में हिन्दी और संस्कृत के प्रभाव से उर्दू शब्दों का हिंदीकरण होने लगा। फारसी में जंगल के बहुवचन जंगलात, सुल्तान के बहुवचन सलातींन, मुल्क के बहुवचन ममालिक और ज़िला के बहुवचन अज़ला होते हैं जिनका उर्दू में क्रमश: जंगलों, सुल्तानों, मुल्कों और जिलों के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा। उर्दू कोई अलग भाषा नहीं है बल्कि अरबी-फारसी लिपि में लिखी जाने वाली खड़ीबोली हिन्दी का ही एक रूप है। वास्तव में लखनऊ में ‘मतरुकात (अलगाववादी) सिद्धांत’ के अनुसार हिन्दी में अरबी-फारसी के शब्द रखे जाने लगे। उर्दू पहले शाही घरानों और दरबारों की भाषा थी, किंतु आज़ादी के समय जन-सामान्य में प्रयुक्त होने लगी। इस लिए हिन्दी और उर्दू के अलग-अलग भाषा होने के पीछे यही मतरुकात या अलगाववादी सिद्धांत है। मैं एक घटना का यहा ज़िक्र कर रहा हूँ। 1975 में पंजाब के पटियाला में पंजाबी विश्वविद्यालय में एक अखिल भारतीय उर्दू सम्मेलन आयोजित हुआ था। उसमें मैंने जब हिन्दी और उर्दू की समानता बताते हुए और उर्दू को हिन्दी भाषा की एक शैली या रूप के प्रमाण देते हुए कहा था तो उस समय उर्दू के अनेक प्रोफेसर और विद्वान मुझ से नाराज़ हो गए थे। उस समय इस अधिवेशन की अध्यक्षता जामिया मिलिया इस्लामिया के वाइस चांसलर प्रो मसूद हुसैन खान कर रहे थे। वे भाषाविज्ञान और उर्दू के एक प्रतिष्ठित विद्वान भी थे। उन्होंने उस गरमागरम बहस को बंद कर अपने अध्यक्षीय भाषण में मेरे शोधपत्र का बचाव करते हुए कहा था कि भाषाविज्ञानी निष्पक्ष रूप से अध्ययन और विश्लेषण करता है। इस लिए शोधपत्र के वाचक गोस्वामी जी के निष्कर्ष सही हैं कि हिन्दी और उर्दू एक ही भाषा के दो रूप हैं। वास्तव में इस अलगाववादी सिद्धांत का लाभ उठाते हुए अंग्रेजों ने गहरी साजिश रची थी। फोर्ट विलियम कॉलेज के गिलक्राइस्ट ने ‘हिंदुस्तानी’ के नाम से उर्दू की तीन शैलियाँ बताईं – (हाई कोर्ट की) फारसी शैली, (मुंशियों की) बीच की शैली और जन सामान्य की हिंदवी अर्थात गँवारू शैली। उन्होंने बीच की शैली हिंदुस्तानी को बढ़ावा देने पर बल दिया। इस लिए अरबी-फारसी मिश्रित उर्दू हिंदुस्तानी के रूप में ढलती गई। 1872 में एक विदेशी विद्वान डाउसन ने हिंदुस्तानी भाषा का जो व्याकरण लिखा, उसे उर्दू का पर्याय ही माना गया। एक अन्य ब्रिटिश विद्वान रिचर्ड टेंपल ने हिन्दी और उर्दू में कोई अंतर नहीं माना। 1869 में मद्रास के गवर्नर विलियम्स ने लिखा कि फोर्ट विलियम कॉलेज की देख-रेख में जो हिंदुस्तानी पनपी है, जिसे मुंशियों ने अपनाया है और जिसे मुसलमानी मदरसों में लड़कों ने सीखा है, वह हिंदुस्तान के किसी भी भाग में नहीं बोली जाती।हम भाषाविज्ञानी हिन्दी की तीन मुख्य शैलियाँ मानते हैं – 1 संस्कृतनिष्ठ हिन्दी, 2 अरबी-फारसी मिश्रित हिन्दी (जिसे उर्दू कहते हैं) और सामान्य बोलचाल की हिन्दी (जिसे हिंदुस्तानी कहा जाता है)। एक चौथी शैली अंग्रेज़ी मिश्रित हिन्दी (अर्थात हिंगलिश) भी पनपी है। संरचना की दृष्टि से हिन्दी के इन सभी रूपों में पूरी-पूरी समानता मिलती है। प्रो. अशोक केलकर जैसे भाषाविज्ञानी ने हिन्दी और उर्दू के इस मिश्रित रूप को हिंदुस्तानी न क कर ‘हिर्दू’ कहा है। जब किसी भाषा का व्यापक प्रयोग होता है तो उसके कई रूप जन्म लेते हैं। इसी प्रकार हिन्दी के भी कई अन्य रूप मिलते हैं, जैसे मुंबइया हिन्दी, कलकतीया हिन्दी, मद्रासी हिन्दी, पंजाबी हिन्दी, फ़िजी हिन्दी, मारीशसी हिन्दी, सूरीनामी हिन्दी। इसी प्रकार अंग्रेज़ी के भी कई रूप हैं-ब्रिटिश इंगलिश, अमेरिकन इंगलिश, आस्ट्रेलियन इंगलिश, इंडियन इंगलिश, बंगाली इंगलिश, मद्रासी इंगलिश आदि। मेरे निर्देशन में हैदराबादी हिन्दी, कोचीनी हिन्दी, इंडियन इंगलिश विषयों पर शोधकार्य हुए हैं।स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिन्दी-उर्दू की जो लड़ाई चली थी, वह भाषा की लड़ाई नहीं थी, बल्कि भाषायी अस्मिता की लड़ाई है थी। महात्मा गांधी ने इस बात को भाँप लिया था और उन्हें या आशंका थी कि इस विवाद से भारत के स्वतंत्रता-संग्राम में बाधा पड़ सकती है। इसलिए वे समय-समय पर अपनी बात कहते रहते थे। सन् 1909 में उन्होंने ने ‘हिन्दी,स्वराज और होमरूल’ लेख में लिखा था –‘’सारे हिन्दुस्तान के लिए तो हिंदी होनी ही चाहिए। उसे उर्दू या नागरी लिपि में लिखने की छूट रहनी चाहिए। ऐसा होने पर हम आपस के व्यवहार में से अंग्रेजी को निकाल बाहर कर सकेंगे।’’ उन्होंने हिंदी बनाम उर्दू, हिंदी या हिन्दुस्तानी, हिन्दुस्तानी, हिंदी और उर्दू के बारे में ‘’हरिजन सेवक’’ के 17 जुलाई, 1937, 3 जुलाई,1937, 29 अक्तूबर, 1938 और 8 फरवरी, 1942 के अंकों में हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी के विवाद पर अपनी लेखनी चलाई थी और इसी समस्या पर वे अपने विचार प्रस्तुत करते रहे। उस समय एक वर्ग हिंदी का प्रबल समर्थक था और दूसरा वर्ग उर्दू का। इस विवाद से गांधी जी काफी आहत थे। उन्होंने दोनों वर्गों की गलतफहमी दूर करने के लिए कहा कि हिंदी, उर्दू और हिन्दुस्तानी शब्द उस एक ही ज़बान के सूचक हैं, जिसे उत्तर भारत में हिन्दू-मुसलमान बोलते हैं, जो देवनागरी या अरबी-फ़ारसी लिपि में लिखी जाती हे। इस बारे में उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि हिंदी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है और उर्दू अरबी-फ़ारसी लिपि में लिखी जाती है, किंतु इन दोनों भाषा-रूपों का मौखिक रूप हिन्दुस्तानी है जिसे सभी वर्ग बोलते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि हिंदुस्तानी कोई भाषा नहीं है। गांधी जी ने दोनों वर्गों के तुष्टीकरण के लिए राजनीतिक आधार का आश्रय लेते हुए हिन्दी-उर्दू के बोलने वाले रूप को हिंदुस्तानी नाम ही दे दिया। वास्तव में उस समय हिन्दू-मुस्लिम में अविश्वास और अलगाव की जो भावना पैदा हो रही थी उसे वे दूर करना चाहते थे। एक बात और, आज़ादी के बाद हिन्दी में पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण में उस्मानिया विश्वविद्यालय ने सामान्य बोलचाल अर्थात हिंदुस्तानी भाषा के शब्द अपनाने या गढ़ने पर बल दिया था किंतु यह अनुभव किया गया कि इस प्रक्रिया में कोई सिद्धांत नहीं बन पा रहा। यह बात उर्दू वालों को खुश करने के लिए कही गई थी, किंतु पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण मे आ रही कठिनाइयों को देखते हुए संस्कृत भाषा को आधार बनाना पड़ा जिसमें शब्द-निर्माण की उर्वरा शक्ति विद्यमान है। उर्दू ने शब्द-निर्माण में अरबी-फारसी के शब्दों को अपनाया है, जैसे अंग्रेज़ी ने लेटिन और ग्रीक भाषाओं से शब्द लिए हैं।राजनीतिक तुष्टीकरण के कारण हिन्दी और उर्दू अलग-अलग भाषाओं के रूप में बंट कर अपनी-अपनी जगह काम में तो आ रही हैं, लेकिन हिंदुस्तानी का क्या हश्र हुआ। यह इस बात से स्पष्ट होता है कि 1971 की जनगणना के अनुसार हिंदुस्तानी बोलने वालों की संख्या मात्र ग्यारह हज़ार थी और 1991 की जनगणना की सूची में से दक्खिनी के साथ-साथ इसे भी हटा दिया गया। वस्तुत: हिन्दी जन-जन की भाषा है, हिंदुस्तानी नहीं। हिन्दी ने अपनी सार्वदेशिकता, सार्वभौमिकता,सर्वसमावेशिकता, व्यापकता, बहु-प्रयोजनीयता, सहजता और जीवंतता के कारण विश्व के मानचित्र में अपना स्थान बना लिया है। इसने संस्कृत, अरबी, फारसी, तुर्की, अंग्रेज़ी, भारतीय भाषाओं आदि अनेक भाषाओं के शब्दों को अपना कर सर्वसमावेशी रूप धार्म कर लिया है। इस लिए अब समय आ गया है कि हिन्दी को केवल राजभाषा तक सीमित न रख उसे राष्ट्रभाषा के पद पर गौरवान्वित किया जाना चाहिए। हिंदुस्तानी भाषा के बारे में सोचना यथार्थ से परे जाना है और एक मिथ्या विवाद खड़ा करना है। दु:ख तो इस बात का है कि कुछ लोग ऐसे विवाद खड़े कर अपनी अहमियत दिखाने का प्रयास करते हैं। भाषा के अर्थात हिन्दी, उर्दू और हिंदुस्तानी के ऐतिहासिक संदर्भ को जाने बिना, हिन्दी और हिंदुस्तानी की वर्तमान स्थिति को पहचाने बिना तथा भाषायी विवादों से पैदा होने वाले परिणामों को समझे बिना ऐसे वक्तव्य देश, समाज और भाषा का अहित ही करते हैं। इस लिए ऐसे तथाकथित विद्वानों, साहित्यकारों, लेखकों और नेताओं को विषय की पूरी जानकारी लिए बिना इस प्रकार की विवादास्पद बातें करने का कोई अधिकार नहीं है।प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी0-9971553740
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प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी
मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
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लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो.: 09703982136
11th World Hindi Conference- डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’
ऐसा रहा मॉरीशस में 11वां विश्व हिंदी सम्मेलन
11th World Hindi Conference- डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’
11th World Hindi Conference- 18 से 20 अगस्त 2018 को मॉरीशस में गोस्वामी तुलसीदास नगर के अभिमन्यु अनत सभागार में आयोजित ’11वें विश्व हिंदी सम्मेलन’ को ले कर हर किसी की अपनी राय है। हर कोई अपने तरीके से अपने अनुभवों को बांट रहा है। जो गए वे भी, और जो नहीं गए वे भी। अपनी जगह सभी सही हैं। यह कहानी तो सभी विद्वान जानते हैं कि पांच अंधों से जब हाथी के बारे में पूछा तो जिसने जहाँ से हाथी को छूआ वैसा ही बताया। मुझसे भी अनेक मित्रों ने ’11वें विश्व हिंदी सम्मेलन’ के बारे में जानना चाहा है। मेरी स्थिति भी कुछ वैसी ही है। इसलिए सम्मेलन और उसके परिवेश को जहाँ-जहाँ जैसा छूआ और जो अनुभव किया वह सभी के सामने रख रहा हूँ।
विश्व हिंदी सम्मेलन को लेकर अक्सर लोगों को अनेक शिकायतें रही हैं । यह भी कि इन सम्मेलनों में जो विचार विमर्श होता है, जो सिफारिशें होती हैं वे किसी परिणाम तक नहीं पहुंच पाती। या फिर यह है कि इन सम्मेलनों में अक्सर जुगाड़बाज सरकारी खर्चे पर पहुंच जाते हैं और असली हिंदी-सेवी दरकिनार हो जाते हैं। सरकारी कार्यालयों, संस्थानों या संस्थाओं के खर्च पर जाने वाले अनेक लोग तो पिकनिक मनाने ही जाते हैं। यह भी कि इसमें सरकारी धन का अनावश्यक रुप से अपव्यय होता है, वगैरह।
इन तमाम बातों को मैं खारिज तो नहीं कर रहा। हमेशा की तरह इस बार भी सरकारी संस्थानों आदि के खर्च पर ऐसे अनेक लोग सम्मेलन में उपस्थित थे जिनका हिंदी से कोई संबंध नहीं था। अगर नौकरी के नाते कोई संबंध था भी तो उन्हें हिंदी से कोई विशेष सरोकार न था। भारतीय भाषाओं के प्रसार के लिए सतत् प्रयासरत वरिष्ठ पत्रकार राहुलदेव, भारतीय भाषाओं की प्रौद्योगिकी के लिए निरंतर प्रयासरक डॉ. ओम विकास और हिंदी व भारतीय भाषाओं के लिए निरंतर संघर्ष कर रहे ऐसे लोगों के अनेक नाम हैं जो सम्मेलन में होते तो सम्मेलन की गरिमा बढ़ती और वे सम्मेलन के उद्देश्यों की सफलता में योगदान भी देते।
लेकिन ऐसा तो हमेशा हर जगह और हर तरह के आयोजनों में सदैव होता आया है। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि उनसे कहीं बड़ी संख्या में देश से ही नहीं विदेशों से भी ऐसे लोग वहाँ पहुंचे थे जिनका हिंदी और भारतीय भाषाओं सहित भारत और भारतीयता से गहरा सरोकार है। ऐसे अनेक लोग धनी न होने के बावजूद निजी खर्च पर भी इस सम्मेलन में पहुंचे। उनमें में मैं भी एक था। मॉरीशस में आयोजित 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन में मैं ऐसा बहुत कुछ भी देखता हूँ जो सकारात्मक है और हिंदी और भारतीय भाषाओं सहित भारत, भारतीयता और भारत की संस्कृति के विकास के मार्ग को प्रशस्त करता दिखता है।
सम्मेलन के ठीक पहले भारत रत्न भारत के पूर्व प्रधानमंत्री, हिंदी के कवि हिंदी-प्रेमी व प्रखर वक्ता अटल बिहारी वाजपेयी के निधन का प्रभाव विश्व हिंदी सम्मेलन पर भी पड़ा। सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए वहाँ पहुंचे कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन नहीं कर पाए। भोपाल सम्मेलन की तरह यहाँ भारतीय संस्कृति की भव्य झलक देखने को नहीं मिली। लेकिन इसके साथ-साथ यह भी कि मा. अटल बिहारी वाजपेयी जी, जिन्होंने सबसे पहले संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी का झंडा गाड़ा उनके निधन से लोगों के दिलों दिमाग में देश-दुनिया में हिंदी के प्रति एक सघन भावनात्मक परिवेश बन गया, जो सम्मेलन में भी दिखा। माननीय अटल बिहारी वाजपेयी जी के प्रति जगी संवेदना लोगों के हिंदी-प्रेम को अंतर्मन तक ले गई और सांस्कृतिक कार्यक्रम का समय अटल बिहारी वाजपेयी की श्रद्धांजलि का सत्र बन गया।
सम्मेलन में धूम-धड़ाका तो न था लेकिन उत्साह में कोई कमी न दिखी। मॉरीशस में तो मानो भारतीयता की लहर बह रही थी। हिंदी ही नहीं भारतीय धर्म और संस्कृति कहीं न कहीं हर मॉरीशसवासी के मन को स्पर्श करती दिखी। मुझे तो यह लगता है कि हिंदी के बहाने भारतीयता का रंग मॉरीशसवासियों के सिर चढ़कर बोल रहा था। और हो भी क्यों न, जब पूरे देश में विश्व हिंदी सम्मेलन के भव्य बैनर लगे होे, हर तरफ मारीशस और भारत के झंडे लगे हों, बड़ी संख्या में भारत व अन्य देशों से आए भारतवासी पूरे देश में दिखें और बड़ी संख्या में मॉरीशसवासी आयोजन से जुड़े हों तो वातावरण तो निर्मित होगा ही।
मॉरीशस के बहुसंख्यक भारतवंशी इन भारतीयों के समूह में अपनी जड़ों को तलाशते दिखे। इन सबके साथ साथ भारत के धर्म और संस्कृति की धूम पूरे वातावरण को भारतमयी कर रही थी। उद्टघान सत्र में मॉरीशस के प्रधानमंत्री प्रवीण जगन्नाथ और समापन में कार्यवाहक महामहिम राष्ट्रपति परमशिवम पिल्लैजी के संबोधन प्रभावी व आत्मीयतापूर्ण थे। इसके अतिरिक्त पूर्व प्रधानमंत्री अनिरुद्ध जगन्नाथ और लीला देवी दुकन लछूमन, ड्रिक्स मंत्री सहित कई वरिष्ठ मंत्री सक्रियता से लगे थे ।
भारत की पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के निधन पर राजकीय शोक के चलते जब मॉरीशस भर में भारत के झंडे झुके तो उनके साथ साथ मॉरीशस के झुके झंडे हर भारतवासी के दिल को झंकृत कर रहे थे। सबसे बड़ी बात तो यह है कि विश्व हिंदी सम्मेलन का नेतृत्व भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज जी कर रही थीं। इनका हिंदी प्रेम तो जगजाहिर है ही, वे हिंदी की प्रखर वक्ता भी हैं। जब भी कोई अवसर आता है वे हिंदी सहित तमाम भारतीय भाषाओं के साथ खड़ी दिखती हैं। एक समय उऩ्होंने भारत भाषा प्रहरी डॉ. वेद प्रताप वैदिक के साथ हिंदी के आन्दोलनों में उनका साथ भी दिया है।
उन्होंने सम्मेलन में इस बात को रेखांकित किया कि भोपाल के विश्व हिंदी सम्मेलन से पहले तक के विश्व हिंदी सम्मेलन मुख्यतः ललित साहित्य के सम्मेलन ही बने रहे लेकिन भोपाल और उसके बाद मॉरीशस के विश्व हिंदी सम्मेलन मैं साहित्य से इतर भाषा के विभिन्न पक्षों को भी पर्याप्त महत्व दिया गया है। विचार गोष्ठियों में पूरी गंभीरता के साथ मंथन भी हुआ। अपने उद्घाटन भाषण में स्वयं सुषमा स्वराज जी ने बताया कि भोपाल सम्मेलन की सिफारिशों और लिए गए निर्णयों पर निरंतर बैठकें की गई जिसमें वे स्वयं भाग लेती रहीं। कवि व भाषा-पप्रौद्योगिकिविद् अशोक चक्रधर, साहित्यकार हरीश नवल, पत्रकार लेखक प्रो. राम मोहन पाठक, राजभाषा विभाग के संयुक्त सचिव विपिन बिहारी, विश्व हिंदी सचिवालय के महासचिव विनोद मिश्र, पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति ब्रज किशोर कुठियाला सहित अनेक विद्वान सम्मेलन को सफल बनाने में जुटे थे।
भारत में अक्सर यह देखा गया है कि जहां छोटे-मोटे नेता भी उपस्थित होते हैं तो अक्सर वही बोलते हैं। बाकी सब तो केवल सुनने के लिए ही होते हैं। लेकिन एक बात जिसने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया वह यह थी कि “भाषा प्रौद्योगिकी के माध्यम से हिंदी सहित भारतीय भाषाओं का विकास” विषय पर आयोजित समानान्तर सत्र. जिसकी अध्यक्षता भारत सरकार के गृह राज्य मंत्री माननीय किरेन रिजिजू जी कर रहे थे। उसमें मुझ जैसे प्रतिभागियों को भी खुलकर अपनी बात रखने का मौका दिया गया। उल्लेखनीय बात यह कि उस समय सभागार में उपस्थित भारत सरकार की विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज और विदेश राज्यमंत्री जनरल वी.के. सिंह मंच के बजाए पिछली पंक्ति में श्रोताओं के बीच बैठकर गंभीरता से हमारे सुझावों को सुन रहे थे। निश्चय ही यह सम्मेलन के उद्देश्यों के प्रति उनकी गंभीरता को दर्शाता है।
सम्मेलन में भारत की ओर से विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज और विदेश मंत्रालय में राज्य मंत्री जनरल वीके सिंह और एम जे अकबर के अतिरिक्त गृह राज्य मंत्री किरेन रिजिजू उपस्थित थे, जिनके पास राजभाषा विभाग का दायित्व भी है। इसके अतिरिक्त हिंदी की साहित्यकार व गोवा की राज्यपाल माननीय श्रीमती मृदुला सिन्हा तथा हिंदी के कवि व बंगाल के माननीय राज्यपाल भी सम्मेलन की गरिमा बढ़ाने के साथ-साथ सक्रिय भूमिका भी निभा रहे थे। मॉरीशस सम्मेलन में भी हिंदी और भारतीय भाषाओं के विभिन्न पक्षों पर गहन चिंतन मनन हुआ। चर्चा सत्र और उसके बाद सिफारिशों को लेकर की गई मंत्रणा यह संकेत दे रही थी कि यह सम्मेलन केवल सैर-सपाटे का नहीं बल्कि हिंदी के लिए कुछ करने का गंभीर प्रयास है। प्रयास के इन तिलों से कब और कितना तेल निकलेगा, यह तो वक्त ही बताएगा।
अच्सछे सुझाव आए और अनुशंसाएँँ भी सार्थक थीं। इनमें से कुछ अनुशंसाएँ व सुझाव मन को बहुत भाए, जिनमें कुछ तो मेरे भी थे। जैसे – 1. भारत को इंडिया नहीं भारत ही कहा जाए। 2. हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाया जाए। 3. उद्योग व्यापार, रिटेल, बीमा, बैंकिंग, राजस्व आदि सहित सभी कंपनियों आदि के कार्य संबंधी आई.टी. समाधान, ई-गवर्नेंस, ऑन लाइन सेवाएँ तथा वैबसाइट आदि एक साथ द्विभाषी अथवा स्थानीय भाषा सहित त्रिभाषी हों। 4. नई पीढ़ी को सांस्कृतिक दृष्टि से जागरूक बनाया जाए। 5. भारतीय भाषाओं के पत्र-पत्रिकाओं व चैनलों के लिए प्रेस कौंसिल की तरह के भाषा संबंधी नियामक अथवा मार्गदर्शी निकाय बनाए जाएँ जो इन्हें अपनी भाषाओं के जीते – जागते शब्दों की हत्या करना व लिपि को लुप्त करने से रोकें।
एक घटना ने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया। सम्मेलन के दूसरे दिन पूर्व निर्धारित योजना यह थी कि सम्मेलन से होटल के लिए जाने वाली बस कवि-सम्मेलन के बाद जाएगी। लेकिन कुछ विलंब के कारण काफी लोगों ने जल्द जाने का निर्णय लिया और बस चली गई। जब मैंने मॉरिशस सरकार के एक अधिकारी, जिन्हें हमारी बस के प्रतिनिधियों को लाने ले जाने का जिम्मा सौंपा गया था, फोन किया तो उन्होंने बताया कि बस के कुछ यात्री अपने आप चले गए थे और बाकी ने जल्द जाने का अनुरोध किया तो वे उन्हें होटल ले गए हैं। उनके पूछने पर मैंने बताया कि मैं तो अभी भी सम्मेलन स्थल पर ही हूँ । तब उन्होंने कहा, ‘चिंता मत कीजिए मैं आपको लेने आ रहा हूूँ और आपके होटल तक पहुँचाऊँगा।’ कुछ ही देर बाद वे अपनी निजी गाड़ी से मुझे लेने के लिए वहाँ पहुंच गए और मुझे लेकर वापस बहुत दूर स्थित होटल छोड़ने गए। उऩकी कर्तव्यपरायणता व विनम्रता देखकर मैं अभिभूत था। वहाँ के भारतवंशी भारत के लोगों के स्वागत में जिस प्रकार पलक – पाँवड़े बिछाए थे, वह दिल को छूता था।
सम्मेलन के अंतिम दिन भोजन के पंडाल में दूर एक कोने पर नाच-गाने की आवाज़ आ रही थी। ढोलक के साथ महिलाओं का नृत्य और संगीत चल रहा था। मैंने वहां जाकर देखा तो पाया कि भोजन की बड़ी सी मेज के चारों ओर ही भारतीय परिधान में कुछ महिलाएं बिल्कुल ठेठ भोजपुरी शैली में ढोलक की ताल पर भोजपुरी गीत गा रही थी, और कुछ महिलाएं नृत्य कर रही थीं। बाद में पता लगा कि वे सब मॉरीशस की प्रतिभागी महिलाएँ थीं। डेढ़ – दो सौ वर्ष बाद भी अपनी संस्कृति के प्रति प्रेम को देखकर मन भर आया।
सम्मेलन के दूसरे दिन भोजनोपरांत सम्मेलन की ओर से स्थानीय भ्रमण का कार्यक्रम रखा गया था। जिसमें वे सबसे पहले हमें पोर्ट लुइस ले गए । यह वही बंदरगाह है जहां भारत के लोग कुली बन कर पहुंचे थे। जिसे कुली घाट कहा जाता था। अब जिसका नाम बदलकर प्रवासी घाट कर दिया गया है। वहाँ लगी प्रदर्शनी में उस समय भारत से यहां पहुंचे भारतवंशियों की जिंदगी, उनकी तकलीफें और उनके संघर्ष को दिखाया गया था। वहाँ का एक बहुत बड़ा शैड था जिसमेंँ वहां पहुंचने वाले भारतीय कुलियों को पंजीकरण की कार्रवाई पूरी होने तक ठूंस दिया जाता था, इन हालात में अनेक लोग बीमारियों का शिकार हो जाते थे और मर जाते थे।
सदियों पहले बिछड़े अपने उन भाइयों – बहनों उनकी तकलीफों के बारे में सोच कर सभी भारतीयों के दिल में कहीं ना कहीं एक टीस उठती थी।अपनत्व की यह टीस भारतवासियों और भारतवंशियों को परस्पर जोड़ती दिखी। इस दौरान दिखाए महात्मा गांधी संस्थान के विद्यालय और प्रदर्शनी भारतवंशियों के अतीत और वर्तमान को जोड़ रही थी । अंत में सभी प्रतिभागी विश्व हिंदी सचिवालय पहुंचे जिसके भव्य भवन का पिछले वर्ष भारत के महामहिम राष्ट्रपति ने उद्घाटन किया था।
एक समय था जब भारत में प्राय सभी हिंदुओं के घरों में आंगन में तुलसी का पौधा छोटा सा मंदिर और केसरिया ध्वजा मिलती थी। लेकिन अब ऐसा कम ही देखने को मिलता है। लेकिन हम यह देखकर हैरान थे कि मॉरीशस में सभी हिंदुओं के घर में आज भी यह सब कुछ था तुलसी का पौधा, आंगन में हनुमान जी का छोटा सा मंदिर और धर्म ध्वजा। मॉरीशस के प्रसिद्ध साहित्यकार रामदेव धुरंधर जी हमें अपनी बेटी के घर ले गए। हम यह देखकर हैरान थे कि वहाँ उनके नन्हे नाती वहांँ विधिवत चरण स्पर्श कर अपनी भारतीय संस्कृति का परिचय दे रहे थे। आधुनिकता के चलते जहां हम भारतवासी अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं, वही दूर देश में बसे भारतवंशी अपनी भाषा संस्कृति से इतनी दूर होने के और इतने समय बाद भी भारतीय संस्कृति को सीने से लगाए हुए हैं, यह देखना निश्चय ही ही सुखद था।
जिस प्रकार भारत में कुंभ के मेले धर्म से जुड़कर भारतीय संस्कृति और भारतीयता के महासमागम बन जाते हैं कुछ उसी प्रकार हिंदी से जुड़कर मॉरीशस का विश्व हिंदी सम्मेलन भी भारतीय धर्म संस्कृति का समागम था। जिसमें अपने से बिछड़े भारतवंशियों की संवेदनाओं के साथ साथ उनके द्वारा की गई प्रगति का गौरव भी शामिल था। जो कुछ भी था पाने के लिए ही था । खोने के लिए तो कुछ न था। हिंदी व भारतीय भाषाओंं के अलावा भी भारत से पहुंचे लोगों के लिए मॉरीशस में बहुत कुछ देखने को और उससे भी ज्यादा सीखने को था। मॉरीशस जो कि भारतवंशियों का ही देश माना जाता है वहाँ जिस प्रकार साफ-सफाई की खूबसूरती थी और उससे भी बढ़कर जो अनुशासन था, उसका कुछ अंश भी भारत वाले मॉरीशस से अपने सा हो सकता है ।
मैं और मेरे जैसे अनेक लोग जो हिंदी प्रेम के चलते निजी खर्चे पर मॉरीशस में आयोजित ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन में पहुंचे थे, उनमें से मुझे कोई ऐसा नहीं मिला जिसे इस सम्मेलन में जाने से निराशा हुई हो। हर कोई भावनाओं से ओतप्रोत था। मॉरीशसवासियों का हिंदी और भारतीय संस्कृति के साथ-साथ भारतवासियों से प्रेम और भावनात्मक लगाव उनमें अपनत्व का संचार करता सा दिख रहा था। उस पर मॉरीशस की खूबसूरत समुद्री तट, ज्वालामुखी के अवशेष, प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ साफ सुथरा सुंदर देश ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन में पहुंचे प्रतिभागियों को अभिभूत कर रहा था।
सम्मेलन में क्या खोया , क्या पाया की चर्चा में मुझे अपने विद्वान मित्र रविदत्त गौड़ की टिप्पणी बहुत सटीक लगी, ‘ डॉ सा’ब ! दही मथने पर हमें मक्खन तोलना चाहिए, न कि छाछ |'
प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी
मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो.: 09703982136
सोमवार, 27 अगस्त 2018
[वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन पर चंपू —अशोक चक्रधर
11वें विश्व हिंदी सम्मेलन पर चंपू के चटकारे......
अनकिया सभी पूरा हो—अशोक चक्रधर—चौं रे चंपू! लौटि आयौ मॉरीसस ते?—दिल्ली लौट आया पर सम्मेलन से नहीं लौट पाया हूं। वहां तीन-चार दिन इतना काम किया कि अब लौटकर एक ख़ालीपन सा लग रहा है।करने को कुछ काम चाहिए।—एक काम कर, पूरी बात बता!—उद्घाटन सत्र, अटल जी की स्मृति में दो मिनिट के मौन से प्रारंभ हुआ। दो हज़ार से अधिक प्रतिभागियों के साथ दोनों देशों के शीर्षस्थनेताओं की उपस्थिति श्रद्धावनत थी और हिंदी को आश्वस्त कर रही थी। ‘डोडो और मोर’ की लघु एनीमेशन फ़िल्म को ख़ूब सराहना मिली। औरफिर अटल जी के प्रति श्रद्धांजलि का एक लंबा सत्र हुआ। ‘हिंदी विश्व और भारतीय संस्कृति’ से जुड़े चार समानांतर सत्र हुए। चार सत्र दूसरेदिन हुए। ‘हिंदी प्रौद्योगिकी का भविष्य’ विषय पर विचार-गोष्ठी हुई। प्रतिभागी विभिन्न सभागारों में जमे रहे। भारतीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों कोतिलांजलि दे दी गई, लेकिन रात में देश-विदेश के कवियों ने अटल जी को काव्यांजलि दी। तीसरे दिन समापन समारोह हुआ। देशी-विदेशीविद्वान सम्मानित हुए। सत्रों की अनुशंसाएं प्रस्तुत की गईं। भविष्य के लिए ‘निकष’ को भारत का प्रवेश द्वार बताया गया।—कछू बात तौ हमनैं अखबारन में पढ़ लईं। तू कोई खास बात बता!--एक ख़ास बात ये कि जिस होटल में हमें टिकाया गया, उसी में दो दशक पहले अटल जी ठहरे थे। इस बार यहां सुषमा जी ठहरी थीं। उनकेनिर्देशन में पूरा सम्मेलन उसी कक्ष के पास वाले कक्ष से संचालित हो रहा था। वहां की खिड़कियों से बंदरगाह के दूसरी ओर पुराना आप्रवासी भवन दिखता है। बंदरगाह पहले एक प्राकृतिक खाड़ी था। यहीं जहाज आए। जहाजी उतरे। यह प्राकृतिक खाड़ी न होती तो इस छोटे से द्वीप पर बड़े जहाज न आ पाते और इस द्वीप का उपयोग एक सभ्य समाज को बसाने के लिए न हो पाता। मॉरीशसवासियों के प्रतापी भारतवंशी पुरखोंके उद्यम से यहां गन्ने की खेती हुई। गन्ने ने सोना बरसा दिया। समृद्धि आने लगी और सन साठ में आज़ादी मिलने के बाद यह देश भारतवंशियों के हाथ में आ गया। विदेशी रहे, पर वर्चस्व भारतवंशियों का और उनकी भाषा का हुआ। उन्होंने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओंको जीवित रखा। चचा, अब चुनौती है हिंदी-भोजपुरी को बचाए रखने की।—चौं? अब लोग हिंदी नायं बोलैं का?—पिछले दस-पंद्रह साल में मॉरीशस बदल गया है। मैंने दस साल बाद यह जो मॉरीशस देखा, इसकी नई पीढ़ी में एक अलग तरह का स्वाभिमान है। अभी तक हम इसे कहते आ रहे हैं, गिरमिटिया देश। गिरमिटिया देश वे देश हैं, जिनमें भारत से गए मजदूरों के श्रम की बुनियाद पर सम्पन्न देशों ने अपने मुनाफ़े के महल बना लिए। मॉरीशस के अलावा त्रिनिडाड-टोबैगो, सूरीनाम, गुयाना, फीजी और नेटाल (दक्षिण अफ्रीका)आदि देशों में जो मज़दूर आते थे, उन्हें गिरमिटिया मज़दूर कहा जाता रहा है। यह मजदूर एग्रीमेंट के तहत भेजे जाते थे। एग्रीमेंट का अपभ्रंश गिरमिटिया हो गया। मैंने मॉरीशस के एक नवयुवक से पूछा कि गिरमिटिया सम्बोधन आपको ठीक लगता है? युवक ने कहा, न तो ठीक लगता है, न बुरा लगता है। हमारे पुरखे भी स्वयं को गिरमिटिया कहते आ रहे हैं तो हमने भी एक स्तर पर स्वीकार कर लिया। उन्होंने संघर्ष किया,कुर्बानियां दीं, हम आभारी हैं उनके, लेकिन हम तो आज़ाद मॉरीशस में पैदा हुए। फिर हमें क्यों कहा जाए गिरमिटिया, क्यों कहा जाए प्रवासी! हम मॉरीशसवासी हैं, मॉरीशियन हैं। हमें एक स्वायत्त देश का नागरिक मानकर मॉरीशियन कहा जाना चाहिए। बात सही है चचा! यहस्वाभिमान और अपने देश के प्रति प्यार का मामला है। लोकतांत्रिक ढांचे पर खड़ा कोई भी देश आकार या क्षमता के कारण छोटा या बड़ा नहींहोता। वह एक सम्प्रभु देश होता है। यह तो मॉरीशस का बड़प्पन है कि वे स्वयं को भाषा और संस्कृति के साम्य के कारण छोटा भारत कहतेहैं। बहरहाल, कहा जा सकता है कि सम्मेलन सफल रहा। उसके परिणाम अच्छे रहे। यह पूरा सम्मेलन अटल जी को समर्पित था। उनके प्रतिश्रद्धावनत था और भविष्य के लिए कार्यावनत। श्रेष्ठ नागरिकों से बसा हुआ एक सभ्य और सुंदर देश है मॉरीशस। धार्मिक, कार्मिक और चार्मिकदेश है।—घूमा-फिरी करी कै नायं?—घूमा-फिरी की बात तो घूमने वाले लोग जानें कि कितने घूमे, कितने फिरे। पर हम तो रहे घिरे। निरंतर किसी न किसी काम में। पहले दिन उद्घाटन सत्र के बाद श्रद्धांजलि सभा हुई। मुझे सुषमा जी ने संचालन सौंप दिया। तीन हज़ार की उपस्थिति में कौन नहीं होगा जो बोलना न चाहेगा और वह भी सारे के सारे हिंदी के बोलने वाले लोग बैठे हों तब। संयम के साथ ढाई घंटे श्रद्धांजलि सभा चली और विदेशी विद्वानों को अधिक समय दिया गया। उसके तत्काल बाद अपना सत्र था, प्रौद्योगिकी का। वह तीन घंटे चला। उसके अगले दिन निकष और इमली पर विचार गोष्ठी होनी थी, उसकी तैयारियों में लगे। थोड़ी अव्यवस्था तो जरूर थी, घोषणा किसी स्थान की हुई। सत्र कहीं हुए। इसमें वक्ता और श्रोता सभी भटकते रहे। बहरहाल, पहला सत्र रिजीजू जी की अध्यक्षता में हुआ था। उन्होंने बड़ी रुचि से निकष और कंठस्थ को देखा, सुना।चचा अब ज़रूरी ये है कि योजनाओं को मंत्रीगण समझें और उनको व्यवहार में लाया जाना देखें। इस मामले में यह सम्मेलन मुझे उपलब्धि नजर आता है, क्योंकि संगोष्ठी में विदेश राज्य मंत्री एम. जे. अकबर बैठे थे। उन्होंने प्रौद्योगिकी से जुड़े हुए पच्चीस विद्वानों को सुना और उसके प्रति अपनी गंभीरता दिखाई।—मंत्री का कल्लिंगे?—जब तक सरकार के मंत्रीगण नहीं समझेंगे कि प्रौद्योगिकी हिंदी के विकास के लिए सर्वाधिक ज़रूरी है, तब तक योजनाएं फाइलों में रहेंगी। आधे-अधूरे प्रयत्नों के साथ उत्पाद बनाए जाएंगे जो जनता तक नहीं जाएंगे। इस बार ‘निकष’ का प्रारूप तीन हज़ार के सभागार में दिखाया गया कि वह हिंदी सीखने, परीक्षा देने और प्रमाण-पत्र प्राप्त करने वाला वैश्विक द्वार होगा। जिसमें उनकी सुनने, बोलने, लिखने और पढ़ने की ऑनलाइन कक्षाएं दी जाएंगी, परीक्षाएं ली जाएंगी, प्रमाण-पत्र दिए जाएंगे। इन सबके बाद काव्यांजलि हुई। रात के बारह बज गए। लौटते ही अगले दिन के लिए अपने सत्र की अनुशंसाएं तैयार करनी थीं। विचार-गोष्ठी में भी अनेक अनुशंसाएं प्राप्त हुईं। पता नहीं ऊर्जा कहां से आती है,जो आपसे काम कराती है। काम डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा ने भी रात भर किया। वर्धा विश्वविद्यालय की ओर से भी कागज़ आए। समापनसमारोह के प्रारंभ में आठ सत्रों का लेखा-जोखा बताने के लिए आठ को ज़िम्मेदारी दी गई थी। प्रत्येक के लिए समय दिया गया तीन मिनिटका। अब भला तीन-तीन घंटों के सत्रों का ब्यौरा तीन-तीन मिनिट में कैसे दिया जा सकता था। मेरे सत्र के काग़ज़ों का पुलिंदा मेरे हाथ में था। पहले वक्ता प्रो. गिरीश्वर मिश्र का एक मिनिट तो मंचस्थ लोगों को संबोधित करने में ही निकल गया। अपने सत्र की रपट वे बहुत अच्छी तरहबता रहे थे। तीन मिनिट पूरे होते ही संचालिका महोदया ने डायस पर पर्ची रख दी। अच्छा हुआ उन्होंने वह पर्ची देखी ही नहीं, या देखकरअनदेखी कर दी। डेढ़-दो मिनिट और लेकर अपनी बात गरिमापूर्वक पूरी कर दी। अब मेरी बारी थी। डायस पर जाते ही मेरे हाथ से
अच्छा हुआ उन्होंने वहपर्ची देखी ही नहीं, या देखकरअनदेखी कर दी। डेढ़-दो मिनिट औरलेकर अपनी बात गरिमापूर्वक पूरीकर दी। अब मेरी बारी थी। डायसपर जाते ही मेरे हाथ से काग़ज़ों कापुलिंदा गिर गया। काग़ज़ बिखर गए।सभागार में सबके सामने मैंने कागज़ उठाए और माइक पर मेरा पहला वाक्य लगभग ऐसा था, ‘उठाते समयये काग़ज़ मुझसे कह रहे थे कि अगर तुम हमारा सहारा लोगे तो तीन मिनिट में अपनी बात पूरी न करपाओगे। हमें डायस के माइक केनीचे दबा दो।’ और चचा मैंने अपनेकाग़ज़ डायस पर रखे माइक के नीचेदबा दिये। स्मृति और अपने आईपैड पर लिखे नोट्स के सहारे मैंनेअनुशंसाएं सुना दीं। अपनी बातसमाप्त करने के लिए मैं एक कवितासुनाने को था कि अचानक पर्ची आगई। मैंने अपनी सुनास पर कोमलब्रेक लगाए।
मेरे कुर्सी पर लौटने तक शायद सुषमा जी ने संचालिका को पांच मिनिट का इशारा कर दिया। उसके बाद किसी को पर्ची नहीं भेजी गई। सबने तसल्ली से अपने–अपने सत्र की अनुशंसाएं पढ़ीं। फिर देशी-विदेशी विद्वानों को सम्मानित कियागया। सी-डैक द्वारा बनाई हुई’निकष’ फिल्म दिखाई गई। वहां केकार्यकारी राष्ट्रपति का मार्मिकभाषण हुआ। धन्यवाद दिए गए।
—अपनी कबता हमें तौ सुनाय दै!
—सुनिए!
अनुपालन को प्यासी बैठीं
जाने कितनी अनुशंसाएं,
आड़े आती हैं शंकाएं
पीड़ित करतीं आशंकाएं।
है कौन पूर्णता का दावा
जो दावे से कर पाता है,
कितना भी कर डाले लेकिन
अनकिया बहुत रह जाता है।
चिन्हित करने के बावजूद
मंज़िल आगे बढ़ जाती है,
गति का लेखा पीछे आकर
गुपचुप-गुपचुप पढ़ जाती है।
मंज़िल हो जाय परास्त, अगर
गतिमान प्रगति का चक्का हो,
अनकिया सभी पूरा हो, यदि
संकल्प हमारा पक्का हो।
तीन बजे भोजन हुआ। पांच बजे बस आ गई। नौ बजे की फ्लाइट से वापसी हो गई। आपसे मिलना था, सो आ गया, वरना अभी परवर्ती काम बाकी थे। दूसरे सत्रों का ब्यौरा भी तैयार कर रहा हूं।
वैश्विक हिंदी सम्मेलन की वैबसाइट -www.vhindi.in
'वैश्विक हिंदी सम्मेलन' फेसबुक समूह का पता-https://www.facebook.com/groups/mumbaihindisammelan/
संपर्क - vaishwikhindisammelan@gmail.com
प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी
मुरारका, विश्व वात्सल्य मंच
murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो.: 09703982136
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