प्रिय मित्र,
पिछले कुछ समय से आप सब भारतीय चिन्तन के विषय में अध्ययन करते आ रहे हैं। यह चिन्तन बहु-आयामी हैं, इसलिए एक सिरे से क्रमिक रूप से समझने का प्रयास न करके उसे अनेक कोणों से देखना उपयोगी रहेगा। इसलिए हम अपने इस प्रयास में भारतीय चिन्तन के विभिन्न पक्षों के कुछ अंश आपकी सेवा में प्रस्तुत करते रहे हैं। उनमें असम्बद्धता प्रतीत होने पर भी आप पाएँगे कि वे सब अन्ततोगत्वा किसी एक आन्तरिक सत्य को पहचानने में हमारी सहायता करते हैं।
भवदीय
अनिल विद्यालंकार
पिछले कुछ समय से आप सब भारतीय चिन्तन के विषय में अध्ययन करते आ रहे हैं। यह चिन्तन बहु-आयामी हैं, इसलिए एक सिरे से क्रमिक रूप से समझने का प्रयास न करके उसे अनेक कोणों से देखना उपयोगी रहेगा। इसलिए हम अपने इस प्रयास में भारतीय चिन्तन के विभिन्न पक्षों के कुछ अंश आपकी सेवा में प्रस्तुत करते रहे हैं। उनमें असम्बद्धता प्रतीत होने पर भी आप पाएँगे कि वे सब अन्ततोगत्वा किसी एक आन्तरिक सत्य को पहचानने में हमारी सहायता करते हैं।
भवदीय
अनिल विद्यालंकार
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अंग्रेज़ी वह भाषा नहीं है जिसमें हमारा देश चिन्तन कर सके।
भाषा
हम लोग सोचना प्रारंभ कर सकें इसके लिए माध्यम के रूप में एक भाषा का होना आवश्यक है। यह स्पष्ट है कि अंग्रेज़ी वह भाषा नहीं है जिसमें हमारा देश चिन्तन कर सके। पिछले चुनाव में यह बात सामने आई कि देश में चुनाव लड़ने की भाषा व्यापक रूप से हिन्दी है। नरेन्द्र मोदी ने सिवाय तमिलनाडु के सारे देश में अपने भाषण हिन्दी में दिए और उन्हें व्यापक सराहना और जनसमर्थन मिला। हम आशा करते हैं कि नई सरकार देश के संविधान के अनुसार अपना मूल काम हिन्दी में करेगी। अवश्य ही जिस भाषा में देश में चुनाव जीता जा सकता है उसमें देश का शासन भी चलाया जा सकता है।
पर भाषा किसी देश की सरकार चलाने का वाहन ही नहीं है , वह उस देश की अस्मिता का प्रतीक है और उस देश की संस्कृति और परंपरा की वाहिका है। अंग्रेज़ी के आधिपत्य ने भारतीयों को संस्कारविहीन कर दिया है और उन्हें अपनी परंपरा से काट दिया है। इस स्थिति को तुरंत बदलना आवश्यक है।
शिक्षा
किसी भी देश के निर्माण में शिक्षा का सबसे बड़ा योगदान है पर अपने देश में यह विषय सबसे उपेक्षित रहा है। 1966 में प्रो . दौलत सिंह कोठारी ने शिक्षा आयोग की प्रस्तावना के पहले वाक्य में लिखा थाऱ " भारत की नियति उसके विद्यालयों में लिखी जा रही है। " संपादक की प्रो . कोठारी से कुछ निकटता थी। उनके अंतिम वर्ष बड़ी निराशा में बीते क्योंकि वे देख रहे थे कि इतने परिश्रम से शिक्षा आयोग की जो रिपोर्ट उन्होंने तैयार की थी उसके सुझावों पर कोई ध्यान नहीं दे रहा। नई सरकार तेज़ी से साथ आर्थिक सुधार लाने का प्रयास कर रही है। ये सुधार बहुत आवश्यक हैं और देश की निर्धनता को दूर करने के लिए जितना जल्दी कारगर कदम उठाए जाएँ उतना ही अच्छा है। पर हमें ध्यान रखना चाहिए कि आर्थिक प्रगति से देशवासियों के शरीर का ही भला होगा , मनुष्यों के मन का निर्माण शिक्षा से होता है। यदि नरेन्द्र मोदी देश का वास्तविक विकास चाहते हैं तो उन्हें शिक्षा पर व्यक्तिगत ध्यान देना होगा।
शिक्षा के क्षेत्र में जो काम सबसे पहले किया जाना चाहिए वह है मानव संसाधान मंत्रालय को शिक्षा मंत्रालय में बदलना। मानव संसाधन का विकास शिक्षा का एक बहुत छोटा -सा हिस्सा है। पूरी शिक्षा को मानव संसाधन विकास की दृष्टि से देखना मनुष्य के जीवन को बहुत ही संकुचित दृष्टि से देखने का परिणाम है। देश में अच्छी गुणवत्तावाले वैज्ञानिक ,इंजिनियर , डाक्टर , प्रबंधक आदि हों , यह शिक्षा - व्यवस्था का एक आवश्यक कर्तव्य है। पर समग्र मनुष्य की शिक्षा इस सीमित उद्देश्य से कहीं अधिक व्यापक है।
इस प्रसंग में शिक्षा में भारतीय विचारों पर बल दिया जाना आवश्यक है। हमारी शिक्षा - व्यवस्था में रवीन्द्रनाथ टैगोर , श्री अरविन्द , महात्मा गांधी और जे . कृष्णमूर्ति जैसे विचारकों की उपेक्षा होती रही है। इन मनीषियों के विचारों पर आधारित छिटपुट संस्थाएँ काम कर रही हैं , पर अब समय आ गया है कि उनके विचारों को मुख्य धारा में लाया जाए , क्योंकि इन विचारों की आवश्यकता केवल भारत को ही नहीं सारे विश्व को है। इस समय अमेरिकी विचारों की नकल पर दी जा रही शिक्षा हमारे बच्चों को एकांगी बना रही है। अच्छी शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य मानो बच्चों को अधिक से अधिक पैसा कमाने में समर्थ बनाना हो गया है। बच्चों को सर्वांगीण शिक्षा देने में भारतीय चिन्तकों के विचारों को केन्द्र में रखना आवश्यक है।
राष्ट्रीय स्वाभिमान
हमें लगता है कि पिछले चुनाव के बाद भारतीयों को भारतीय होने का अवसर मिलेगा। आज़ादी के बाद हमारा देश बाहरी विचारों के आधार पर चलता रहा है। प्रारंभ में जवाहरलाल नेहरू रूस की नियोजित अर्थव्यवस्था से बहुत प्रभावित थे। रूस का व्यापक प्रभाव भारत की अर्थनीति पर पड़ा। नेहरूजी वामपंथी थे जोकि उस समय स्वीकार्य होना चाहिए था , पर उनकी सामूहिक अर्थनीति का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में चला गया जिनमें से अनेक सार्वजनिक प्रायोजनाओं के माध्यम से स्वार्थसिद्धि में लग गए क्योंकि वहाँ बिना किसी योग्यता के थोड़े ही समय में धनी बन सकना संभव हो गया।
रूस से ही प्रभावित होकर देश के कुछ भागों में साम्यवादी विचारधारा फैली। मौका मिलने पर साम्यवादी प्रभाव देश की शिक्षा पर पड़ा। देश का इतिहास साम्यवादी दृष्टिकोण से लिखा जाकर बच्चों को पढ़ाया जाने लगा। हमारे बच्चे यह सीखने को बाध्य हो गए कि उनकी संस्कृति के संस्थापक वैदिक ऋषि या तो संसार से भागनेवाले लोग थे या फिर सुरापन में अपने आपको खोकर गीत गानेवाले लोग। उनके ये गीत ही वेदमंत्रों के रूप में प्रचलित हो गए। प्राचीन भारत , जिसने विश्व भर की मानव - सभ्यता की नींव डाली , केन्द्रीय सरकार की शिक्षा के माध्यम से एक प्रकार का अंधायुग बन गया। वे लोग इतिहास के विद्वान बन गए जिन्हें वह भाषा , संस्कृत , नहीं आती थी जिसने इस देश का इतिहास बनाया है।
दूसरी ओर अमेरिका ने भी शिक्षा के क्षेत्र में अपने कदम बढ़ाए। हमारी उच्च शिक्षा अमेरिका की नकल पर आधारित हो गई। नए - नए विषय विश्वविद्यालयों में स्थान पाने लगे जिनका कोई औचित्य नहीं था। उन क्षेत्रों में रिसर्च की जाने लगी जिनमें कितना भी प्रयास करने पर रिसर्च हो ही नहीं सकती। अमेरिकी विद्वान भारतीय शिक्षा आकाश पर छा गए। दर्शन , मनोविज्ञान और भाषाविज्ञान जैसे विषय , जिनमें भारत की हज़ारों वर्ष की परंपरा रही है , पिछले सौ - दो सौ वर्ष में ही विकसित हुए अमेरिकी चिन्तन के आगे झुकने को बाध्य कर दिए गए। यह प्रभाव अभी भी दूर नहीं हुआ है।
संक्षेप में , भारतीयों को भारतीय होने में संकोच होने लगा मानो भारतीय होना हीन मनुष्य होना हो।
आज़ादी के बाद से एक व्यापक धारणा संसार भर में फैली है कि भारतीय लोग महत्त्वाकांक्षा से शून्य हैं। संसार में सम्मानपूर्ण स्थान बनाने की कोई इच्छा उनमें नहीं है। कोई भी उनको दबा सकता है। उनमें आत्मसम्मान नाम की कोई चीज़ नहीं है। वे अपनी प्राचीन संस्कृति की झूठी शेखी बघारते हैं और मानते हैं कि वे संसार के आध्यात्मिक गुरु हैं जबकि उनका वैयक्तिक और सामाजिक जीवन बहुत निकृष्ट है। भ्रष्टाचार में वे संसार के सभी देशों को मात दे सकते हैं।
भारतीयों में अपनी भाषाओं के लिए कोई सम्मान नहीं है। वे गुलामी की भाषा अंग्रेज़ी से चिपके हुए हैं जबकि वे अंग्रेज़ी में कोई गंभीर विचार दुनिया को नहीं दे सके हैं। विचारों के क्षेत्र में वे बुरे नकलची हैं। नई खोज या नए आविष्कारों के क्षेत्र में उनका योगदान नगण्य है। कुल चालीस वर्ष पहले भारत और चीन आर्थिक विकास की सीढ़ी पर समान स्थान पर थे। आज चीन और भारत की तुलना करने का कोई अर्थ नहीं रह गया है।
इन आरोपों में कुछ सच्चाई है। संपादक को संसार के अनेक देशों में जाने का और वहाँ विचार - विनिमय करने का अवसर मिला है। वहाँ के लोग यदि सुनना चाहते हैं तो केवल भारतीय दर्शन और अध्यात्म के बारे में। वे यह मान बैठे हैं कि आधुनिक ज्ञान के क्षेत्र में भारत कोई योगदान नहीं कर सकता। यदि विभिन्न देशों में योग के विषय में व्यापक रुचि न जगी होती तो भारत में रुचि रखनेवाले लोग संसार में इनेगिने ही रह जाते।अंग्रेज़ी में एक उक्ति ही चल गई थी " We are like this only." हिन्दी में भी कहा जाने लगा था हम तो ऐसे ही रहेंगे। परिवर्तन की कोई आशा तो दूर , प्रयास भी दिखाई नहीं देता था।
नई सरकार से लोगों में व्यापक परिवर्तन की आशाएँ बँधी हैं। किसी सीमित समय में कोई भी सरकार सभी वांछनीय परिवर्तन नहीं ला सकती , पर आम जनता को यह विश्वास होना चाहिए कि सरकार देश की समस्याओं पर ध्यान दे रही है और उन्हें हल करने के लिए कृतसंकल्प है।
भारत के लोगों ने बहुत आशा से नई सरकार चुनी है। उस आशा को पूरा करना सरकार का कर्तव्य है।
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अनुलग्नक :भाषा - विमर्श 2017
कोलकाता से प्रकाशित पत्रिका
( भारतीय भाषाओं के संघर्ष का दर्पण )
संपादक : प्रो. अमरनाथ
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वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
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प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी
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लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
मो.: 09703982136