वैश्विक ई संगोष्ठी- 2
हिंदी में अँग्रेजी शब्दों और रोमन लिपि की स्वीकार्यता आखिर किस हद तक ?
पिछले दिनों माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में कुलपति प्रो. ब्रजकिशोर कुठियालाजी द्वारा भारत सरकार की माननीय विदेशमंत्री श्रीमती सुष्मा स्वराज तथा अनेक वरिष्ठ पत्रकारों व विद्वानों की उपस्थिति में देश के कई प्रमुख समाचारपत्रों में अंग्रेजी से आयातित शब्दों के अध्ययन के आधार पर यह जानने की कोशिश की गई कि किस प्रकार मीडिया में के शब्द किस-किस प्रकार आवश्यक, अनावश्यक या जबरन हिंदी में प्रवेश कर रहे हैं या करवाए जा रहे हैं।इस पहल को आगे बढ़ाते हुए 'वैश्विक हिंदी सम्मेलन' द्वारा इस विषय पर वैश्विक संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है। प्रस्तुत हैं कुछ संक्षिप्त विचार ।
डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य', वैश्विक हिंदी सम्मेलन ।
हिंदी या भारतीय भाषाओं से आए सभी शब्दों व प्रयोगों निषेध ही करना है ऐसा नहीं है। आवश्यकतानुसार विवेकसंगत रूप से कुछ चीजें लेना हमारी भाषाओं के हित में होगा । लेकिन समस्या यह है कि अंग्रेजी अपने चौतरफा हमलों से भारतीय भाषाओं को लीलती जा रही है और भाषाओं के सेनापति व सिपाही भाषा-विलास और हास - परिहास से बाहर आने को तैयार ही नहीं हैं। अंग्रेजी के आक्रमण और साम्राज्यवादिता के चलते भाषाओं को लीलने की समस्या अकेले हिंदी की नहीं है बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं की भी कमोबेश यही स्थिति है। यहाँ एक कटु सत्य की ओर भी ओर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है कि भारत में भारतीय भाषाओं के लिए स्थापित सरकारी संस्थाओं व गैर सरकारी हजारों संस्थाएँ हैं। केवल हिंदी की संस्थाओं का आंकड़ा ही हजारों में होगा जो साल भर भाषा और साहित्य की कथित सेवा, विकास आदि के नाम पर शॉल- श्री फल. सम्मान, पुरस्कार, अभिनंदन का आयोजन करते रहते हैं । इनमें लाखों पात्र- अपात्र उपकृत होते हैं ।
साहित्यकारों कवियों, हिंदी सेवियों और हिंदी प्रमियों की संख्या तो और बड़ी है। दुनिया में इतनी बड़ी संख्या किसी अन्य भाषा के चिंतकों और सेवियों की नही होगी । इन कथित हिंदी सेवियों, हिंदी संस्था-चालकों, पुरस्कार-वितरकों और सम्मान व पुरस्कार बटोरुओं में से कितनों ने भाषा की इस दुर्गति को रोकने के लिए कलम या जुबान चलाई । ले दे कर मुश्किल से उंगलियों पर गिने जाने वाले कुछ नामों को छोड़ कर इस बारे में सन्नाटा पसरा है। अखबार मालिक, प्रबंधन व संपादक आदि सरेआम प्रतिदिन मिलकर अपनी ही भाषा का चीरहरण करते आ रहे हैं और लाखों चौकीदार लाभ-लोभ या उदासीनता -विवशता की भांग खा कर सो रहे हैं।
जिस देश में भाषा साहित्यकार- लेखक और भाषा-सेवी तक अपनी भाषा की दुर्गति के प्रति उदासीन हों वहाँ सुघार की गुंजायश बचती ही कहाँ है। ऐसे में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय द्वारा वैज्ञानिक रूप से अध्ययन के माध्यम से उच्च स्तर पर आयोजित संगोष्ठी सराहनीय तो है लेकिन भाषा का चीरहरण करनेवालों को रोकने में कितनी या किस हद तक कारगर होगी, यह एक बड़ा प्रश्न है।
मेरा मानना है कि यदि हमारी भाषा अकादमियाँ , भाषा व साहित्य की लाखों संस्थाएँ, लाखों भाषा-सेवी, साहित्यकार अपनी भाषा की दुर्दशा सुधारने के लिए मात्र खड़े हो जाएँ तो करोड़ों भाषा-प्रेमी भी स्वत: साथ आ जाएँगे । तब दशा व दिशा बदलना कठिन न होगा। पर लाभ-लोभ, विवशता या उदासीनता की बेडियों में कैद हिंदी-प्रमियों में कहीं कोई जागरूकता का उफान आएगा लगता नहीं । राहुलदेव जी , डॉ वेदप्रताप वैदिक जी जैसे भाषा -प्रेमी वरिष्ठ साहित्यकारों से कुछ उम्मीद अवश्य है। हाल ही में राष्ट्रीय स्तर पर गठित भारतीय -भाषा मंच भी इस दिशा में सार्थक प्रयास करता दिख रहा है। नागरी लिपि परिषद जैसी कुछ संस्थाएँ, कई संस्थान, बालेंदू शर्मा दाधीच, डॉ. औम विकास जैसे भाषा-प्रौद्योगिकीविद् और कुछ हिंदी सेवी आदि भी हैं।
इसमें विदेशी पूंजी की भूमिका की बात और अन्य आर्थिक दबावों की भी बात उठती रही है । संविधान के अनुच्छेद - 351 में संविधान ने भी संघ को इसके लिए जो दायित्व सौंपे हैं उनके अंतर्गत इस दिशा में विधिक प्रावधान किए जा सकते हैं।
डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य', वैश्विक हिंदी सम्मेलन ।
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आशा मोर ,टिृनिडाड और टोबेगो
आदरणीय आदित्य जी ,
सादर नमस्कार ,
आपका प्रयास अतुलनीय है।
आदरणीय स्नेह ठाकुर जी का विचार अत्यंत ही सुलझा हुआ और अच्छे सुझावों से युक्त है । में उनके इस पत्र से पूरी तरह सहमत हूँ । मैं तो बस एक छोटी सी , साधारण सी इकाई हूँ , लेकिन किसी भी विचार की पुष्टि के लिये बहुमत अनिवार्य होता है और प्रत्येक पानी की बूँद का अपना महत्व होता है । इसलिये मैं तो बस उनके विचार की सम्मति में अपना वोट डालने का कार्य कर रही हूँ।
मैं अपनी हिन्दी भाषा पर सदैव गर्व करती हूँ और सभी हिन्दी प्रेमियों से स्नेह रखती हूँ ।
सादर,
आशा मोर ,टिृनिडाड और टोबेगो
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मंजु रानी सिंह
हिंदी में अंग्रेजी शब्दों की स्वीकार्यता कहीं-कहीं यदि जरुरी लगे तो देवनागरी लिपि में लिखा जा सकता है,बल्कि इसका तो प्रचलन भी है,पर देवनागरी लिपि को समाप्त करने के बिल्कुल खिलाफ हूँ मैं। ऐसा इसलिए कि हिंदी के अनेक शब्द मर जायेंगे।भाषा के सन्दर्भ में सबसे महतेपूर्ण बात यह है कि कर्म मरता है तो शब्द मरता है,इसलिए जो कर्म जीवित हैं और उसके लिए शब्द भी जीवित हैं उन्हें अंग्रेजी के फैशन में मरने देना सांस्कृतिक अपराध होगा।
अभी-अभी मैं 'कोष्ठ' शब्द भूल जा रही थी और ब्रैकेट शब्द का प्रयोग करने जा रही थी जबकि मैंने बारहवीं कक्षा तक हिंदी में तथा देवनागरी लिपि में विज्ञान(साइंस) की पढ़ाई की है,तब बिहार ,उत्तरप्रदेश,मध्यप्रदेश आदि हिंदी भाषा -भाषी प्रदेशों में विज्ञान की किताबें हिंदी और देवनागरी में प्रचलित थीं।अब उसके खरीदार ही नहीं रहे तो मिले ही क्यों?पर इससे यह तो प्रमाणित होता ही है कि हिंदी में विज्ञान की पढाई संभव है, और भी बहुत तर्क हो सकते हैं,पर हमारी अगली पीढ़ी को कैसे इस भाषिक संस्कृति की प्रतिबद्धता से कैसे जोड़ा जाये?
आप ऐसी चिंताएं कर रहे हैं यही एक सकारात्मक तथ्य है,शायद।
अभी-अभी मैं 'कोष्ठ' शब्द भूल जा रही थी और ब्रैकेट शब्द का प्रयोग करने जा रही थी जबकि मैंने बारहवीं कक्षा तक हिंदी में तथा देवनागरी लिपि में विज्ञान(साइंस) की पढ़ाई की है,तब बिहार ,उत्तरप्रदेश,मध्यप्रदेश आदि हिंदी भाषा -भाषी प्रदेशों में विज्ञान की किताबें हिंदी और देवनागरी में प्रचलित थीं।अब उसके खरीदार ही नहीं रहे तो मिले ही क्यों?पर इससे यह तो प्रमाणित होता ही है कि हिंदी में विज्ञान की पढाई संभव है, और भी बहुत तर्क हो सकते हैं,पर हमारी अगली पीढ़ी को कैसे इस भाषिक संस्कृति की प्रतिबद्धता से कैसे जोड़ा जाये?
आप ऐसी चिंताएं कर रहे हैं यही एक सकारात्मक तथ्य है,शायद।
मंजु रानी सिंह
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योगेंद्र जोशी
यह सब इसलिए है क्योंकि भारतीयों में स्वाभिमान का अभाव है चाहे जो भी क्षेत्र आप ले लें। चाहे भाषाई स्वाभिमान हो या सांस्कृतिक स्वाभिमान या पारंपरिक जीवन-शैली की बात वे उन्हें त्यागते जा रहे हैं और जो कुछ पाश्चात्य है उसको अपनाते जा रहे हों। संभव है कि अधिसंख्य भारतीय अभी भी कुछ स्वाभिमान रखते हों, किंतु जिनके हाथ में देश की व्यवस्था है - चाहे अर्थ-व्यवस्था हो, समाचार-माध्यम हो, राजनीति और शासकीय व्यवस्था हो, शिक्षा हो, वे सब अंगरेजी के वर्चस्व को स्वीकार करके ही मैदान में उतरे हैं। उनमें न तो हिंदी के प्रति सम्मान है और न ही इतनी काबिलियत कि बिना अंगरेजी के शब्दों के वे हिन्दी में बात कर सकें। कारण स्पष्ट है कि किसी भी क्षेत्र में आपका प्रवेश अंगरेजी में संपन्न चुनाव-विधि पर आधारित रहता है। हिन्दी समाचार पत्र अंगरेजी अनुवाद पर आधारित हैं उनके अनुवादक संतोषप्रद हिंदी-ज्ञान रखते ही नहीं। उनका आगे बढ़ने की सीड़ी तो अंगरेजी ही रहती है। इसलिए हिन्दी को लेकर रोना कोई माने नहीं रखता। हिन्दी को बिगाड़ने वाले हिन्दी-भाषी ही हैं। जब आप उसी टहनी को काट रहे हों जिस पर बैठे हों तो परिणाम क्या होगा?
जिस समाज के लोग अपने देश को "भारत" कहने के बजाय "इंडिया" कहना पसंद करते हों, हर क्षेत्र में अंगरेज और अग्रेजियत पर उतर आये हों, मां-बाप को डैड-मॉम कहना बेहतर समझते हों, पारंपरिक संबोधनों को छोड़ अंगरेजी सम्बोधनों यथा हज़्बैंड, वाइफ़, ब्रदर-इन-लॉ, सिस्टर-इन-लॉ आदि कहना शुरू कर चुके हों, अंगरेजी शैली में जन्मदिन-केक काटते हों और मोमबत्तियां बुझाते हों, अभिवादन में गुडमॉर्निंग-गुडईवनिंग कहते हों, अंगरेजी-अमेरिकी त्योहार मनाने का उत्साह पालते हों, उस समाज में आप हिंदी-अंगरेजी की खिचड़ी न परोसें यह कैसे उम्मीद करते हैं? सबसे बड़ी बात यह है कि हमारा देश वाकई स्वतंत्र है जहां लोगों को अपनी मर्जी का कुछ भी करने की पूरी छूट है; वे क्या खायें, क्या पहनें, कैसे बोलें, आदि पर कोई रोक-टोक तो यहां एक प्रकार का अपराध है। लोगों को अपनी सुविधानुसार भाषाओं को विकृत करने और उनकी लिपियों को बदलने की पूरी छूट है। है संविधान में इसके विरुद्ध कोई आदेश? नहीं न? तो शांत होकर देखते रहिए: आगे होता है क्या।
योगेंद्र जोशी
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नरेंद्र सहारकर
जहाँ तक मुझे याद है कि माननीया विदेश मत्री व विदूषी महोदया ने उस समय कहा था कि "भाषा का कोमार्य भंग हो चुका है" | किंतु मैंने तो अनेकों बार लिखा है कि हिंदी और हमारी प्रादेशिक भाषाओं पर हर समय जानबूझकर बलात्कार हो रहा है, करने वाले , देखने वाले तथा न्यायाधीश भी हम ही हैं किंतु बलात्कारी खुले आम घुमक्कड बन फ़िर रहा है …………।फ़िर …। बलात्कार करने की तैयारी कर रहा है ………………।
नरेंद्र सहारकर
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दिव्या
Waah, Sneh ji, aisa saargarbhit lekh maine pehli baar padha hai, atma tript ho gayi, bahut vahut badhai. Asha karti hoon ki apke us lekh ko sammelan mein padh kar sunaya jayega taaki aapke sundar aur sateek vichaar adhik se adhik janta tak pahunchein....
Sasneh, Divya
( आशा है दिव्याजी जल्द ही देवनागरी में मोबाइल/कंप्यूटर पर टाइपिंग सीख लेंगी।)
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
वेबसाइट- वैश्विकहिंदी.भारत / www.vhindi.in
वैश्विक हिंदी सम्मेलन की वैबसाइट -www.vhindi.in
'वैश्विक हिंदी सम्मेलन' फेसबुक समूह का पता-https://www.facebook.com/groups/mumbaihindisammelan/
संपर्क - vaishwikhindisammelan@gmail.com
प्रस्तुति : संपत देवी मुरारका (विश्व वात्सल्य मंच)
email: murarkasampatdevii@gmail.com
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद