शुक्रवार, 29 मई 2015

...मेरे भारत देश को ‘इंडिया’ क्यों कहा जा रहा है ? - प्रो. डॉ. पुष्पिता अवस्थी,

 ...मेरे भारत देश को ‘इंडिया’ क्यों कहा जा रहा है ?
- प्रो. डॉ. पुष्पिता अवस्थी,
logofinal Mediumनिदेशक, वैश्विक हिंदी संस्थान, नीदरलैंड, यूरोप
  एवं समन्वय प्रभारी 'वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई' 
                                             नीदरलैंड [यूरोप] में बसी साहित्यकार प्रो.पुष्पिता अवस्थी ने ‘भारत’ नाम के पक्ष में उठाई आवाज !
प्रो. डॉ. पुष्पिता अवस्थी
प्रो. डॉ. पुष्पिता अवस्थी
        ...मेरे भारत देश को ‘इंडिया’ क्यों कहा जा रहा है ? मैं समझ नहीं पाती कि आजादी के इतने बरस बाद भी आखिर क्यों  हम  गुलामी के प्रतीक ‘इंडिया’  शब्द को अपने देश का नाम बनाए हुए हैं और ‘भारत’ जो कि वास्तविक नाम है उसे    बिसराने में लगे हैं।  मेरा  स्पष्ट मत है कि ‘भारत’ देश का नाम केवल  ‘भारत’ ही होना चाहिए । ‘भारत’ सिर्फ देश या भूखंड  का नाममात्र ही नहीं है  बल्कि इस  देश की संस्कृति का भी नाम है। ‘भारत’ शब्द भारत की संस्कृति का  द्योतक है। हमारे  देश के भारत नाम में हमारी  भारतीय संस्कृति  के संदर्भ छुपे हैं। इन संदर्भों में भारत देश के ऐतिहासिक दस्तावेज  समाहित हैं, जिन्हें  अलग से उद्घोष करने  की आवश्यकता नहीं  पड़ती है। भारत नाम में इस देश की पहचान ध्वनित होती  है जो इस देश की अस्मिता है। यही कारण है कि    विदेश में रहनेवाली  भारतवंशी पीढ़ियाँ अपने को भारतीय मानती हैं या  फिर हिंदुस्तानी। वे देश को ‘इंडिया’ या  स्वयं को’ इंडियन’  कभी संबोधित नहीं  करते  हैं।  इन सबकी दृष्टि को भी ध्यान में  रखते हुए सरकार और भारत की न्याय व्यवस्था को चाहिए कि ‘  इंडिया’ शब्द से छुटकारा  पाकर केवल भारत नाम      रखने  के लिए प्रयत्नशील रहें। क्योंकि देश का अस्तित्व और अस्मिता जितनी  देश के भीतर होती है उतनी ही या उससे अधिक  देश के बाहर के देशवासियों  की भी होती है। जो अपनी इसी भारतीयता की  पहचान के आधार पर विश्व में भारतीय होकर  डटे हुए हैं, इंडियन होकर नहीं।
    भारत देश का नाम ‘भारत’ होने, और एक ही नाम होने से इसकी स्थायी पहचान बन सकेगी। विदेशों में कई बार कुछ लोग हमारे देश के दो नाम होने से दो    देश मान बैठते हैं क्योंकि यह विश्व के लोगों की कल्पना से परे है कि किसी एक देश के एक ही समय में दो नाम हो सकते हैं। अगर भारत का नाम इंडिया  रहेगा तो देश को अंग्रेजी संस्कृति के प्रभाव से मुक्त करा पाना कठिन हो जाएगा। क्योंकि ‘इंडिया’ शब्द में कहीं न कहीं अंग्रेजी कल्चर और भाषा भी समाहित  रहेगी । इसलिए राष्ट्रभाषा हिंदी को  अंग्रेजीयत के दुष्प्रभाव से बचाना है और हिंग्रेजी तथा हिंग्लिश जैसे संबोधनों से मुक्त रखना है। सारत: भारत देश का एकमात्र नाम भारत होना चाहिए । शताब्दियों से इस भूधरा की इसी नाम से पहचान है। युगों से इसका भारत नाम है फिर चन्द लोगों की गलतियों की सजा पूरे देशऔर विश्व के भारतीयों, भारतवंशियों और नई पीढ़ी को भला क्यों मिलनी चाहिए।
भारत देश का एक ही नाम होने से कम से कम देश के अंग्रेजीदाँ स्कूलों  और ऐसी ही मानसिकता के लोगों के बीच देश का नाम हिंदी में बोलने की आदत तो पड़ेगी । आदतें संस्कार और भाषा की जननी हैं।
विदेशों के भारतीय दूतावासों में ‘भारतीय दूतावास’ तो हिंदी में लिखा रहता है लेकिन सारे कार्य और गतिविधियों के कारण दूतावासों में कार्य करनेवाले भारतीयऔर उन देशों के अभारतीय नागरिक ‘इंडियन अम्बेसी’ ही संबोधित करते हैं और ‘राजदूत’ को ‘इंडियन अम्बेसडर’। वह भारतीय संस्कृति और तंत्र का दूत होते हुए भी ‘भारतीय राजदूत’ के संबोधन के लिए तरसता हुआ ही रिटायर हो जाता है क्योंकि दूतावास के कार्यकर्ताओँ से लेकर दूसरे देशों के अधिकारी व नागरिक तक उसे ‘इंडियन अम्बेसडर’ ही संबोधित करते रहते हैं। उनके सामने कम, पीठ पीछे और अधिक।
भारत देश का नाम सिर्फ भारत इसलिए भी होना चाहिए क्योंकि भारत नाम हो जाने के कारण कम से कम विदेशों में स्थित दूतावासों से जारी होनेवाले निमंत्रणपत्रों पर तो ‘भारत’ नाम देवनागरी लिपि में भी लिखा रहेगा, जिससे देश की भाषा और संस्कृति दोनों का बोध होगा और महसूस होगा कि भारतीय दूतावास से जो पत्र या निमंत्रण पत्र आया है वह किसी विदेशी दूतावास से नहीं है। विदेशों में बसे भारतीय नागरिकों के लिए यह राष्ट्रीय संवेदना और राष्ट्रप्रेम से जुड़ा सवाल है। जब व्यक्ति के नाम का अनुवाद नहीं होता है तो देश के नाम का अनुवाद क्यों होना चाहिए ?
भारत के राष्टीय ध्वज और राष्ट्रीय चिह्न तथा सत्यमेव जयते के साथ भारत नाम ही उचित और सटीक लगता है। इंडिया नाम तो बाहर के लोगों द्वारा पुकारा जानेवाला विदेशी शब्दावली और ब्रिटिश सत्ता का द्योतक है। जिससे गुलामी के इतिहास की दुर्गंध आती है और दम घुटने लगता है। ‘इंडिया’ नाम का देश की भाषा संस्कृति और इतिहास के साथ कोई सांस्कृतिक व वैचारिक संबंध ही नहीं है। ‘भारत’ नाम के साथ ‘इंडिया’ नाम चलाना अपने देश का अपमान करना है, वैसे ही जैसे कि अपने माता-पिता के दो नाम रखे जाएँ। जब पासपोर्ट में पहचान के लिए कानूनन एक व्यक्ति का एक ही नाम रहता है तो भला एक देश के दो नाम कैसे हो सकते हैं ? वैश्विक स्तर पर दूसरे देशों के बीच भी यह स्वीकार नहीं कि किसी देश के दो नाम हों। यही कारण है कि वैश्विक स्तर पर भारत नहीं केवल इंडिया ही प्रचलन में आता है और भारत नाम केवल औपचारिकता के लिए ही रखा गया प्रतीत होता है। विदेशी लोगों के लिए भारतीय दूतावास शब्द एकदम अनजाना है और ‘इंडियन अम्बेसी’ शब्द ही प्रचलन में है तथा विदेशी लोग इसे इसी रूप में पहचानते हैं, भारत नाम उनके लिए अनजाना है।
    भारत नाम से इस देश की प्राचीनता, पौरुष और ‘वसुधैव कुटंबकम’ के दर्शन का बोध होता है। विदेशी विद्वानों ने अपने आलेखों और विचार-विमर्श में सदा ही इस ओजस्वी भूधरा को ‘भारत’ ही संबोधित किया है। 'भारत को विश्व को देन' माननेवाले मैक्समूलर हों या ‘भारत की आत्मा’ नाम से पुस्तक लिखनेवाले गाय सोर्मन हों उनका कहना है कि उन्हें भारत में उदारता की भावना एवं वह जीवनी शक्ति मिली जो कि यूरोप और विश्व में कहीं नहीं है।
 मैं भी इस विचार से सहमत हूँ और करोड़ों भारतवासियों की भावना को स्वर देते हुए नीदरलैंड वैश्विक संस्था (नीदरलैंड हिंदी यूनिवर्स फाउंडेशन) के माध्यम से विश्व के सभी भारत-प्रेमियों, हिंदी-प्रेमी व्यक्तियों और संस्थाओं की ओर से करबद्ध अनुरोध और आह्वान करना चाहूँगी कि हम सब पूरी शक्ति के साथ अपने देशवासियों, सरकार, व्यवस्था और अन्य सभी शक्तियों के साथ मिलकर भारत का नाम केवल ‘भारत’ रहने के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद करें और जल्द ही तत्संबंधी घोषणा करवाएं। जिससे भारतवासियों के साथ-साथ विदेश में रहनेवाले हम भारतीयों तथा भारतवंशियों की आत्मा भी संतुष्ट हो
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 नीदरलैंड [यूरोप] में बसी साहित्यकार प्रो.पुष्पिता अवस्थी ने ‘भारत’ नाम के पक्ष में जो आवाज उठाई है उसके संबंध में भारत व  विश्व के अन्य साहित्यकार, भारत-प्रेमी, हिंदी-प्रेमी व्यक्ति और संस्थाएँ क्या सोचती हैं  ? कृपया  अपनी आवाज यानि अपने संक्षिप्त विचार 'वैश्विक हिंदी सम्मेलन' 



प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारका 

संपत देवी मुरारका
अध्यक्षा, विश्व वात्सल्य मंच
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद
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'राजभाषा भारती' में प्रकाशित लेख डॉ.एम.एल.गुप्ता 'आदित्य'​




भाषा प्रौद्योगिकी विषय पर भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग की पत्रिका
'राजभाषा भारतीमें प्रकाशित लेख

​                                      
     
          डॉ.एम.एल.गुप्ता 'आदित्य'​                               vaishwikhindisammelan@gmail.com




प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारका 

संपत देवी मुरारका
अध्यक्षा, विश्व वात्सल्य मंच
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद

हिंदी की विश्वदूत : प्रो. पुष्पिता अवस्थी


हिंदी की विश्वदूत
हिंदी की विश्वदूत : प्रो. पुष्पिता अवस्थी
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प्रो. डॉ. पुष्पिता अवस्थी
 भारत में पिछले दो-तीन दशकों में शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में आए परिवर्तनों के चलते जहाँ  एक ओर भारत में अंग्रेजीयत के मुकाबले भारतीयता व भारतीय भाषाओं को दोयम दर्जे का  मानने की प्रवृत्ति बढ़ी है वहीं दूसरी ओर ऐसे भारतीय भी हैं जो वैश्विक स्तर पर भारतीय  भाषाओँ और संस्क़ति को स्थापित व प्रतिष्ठित करने में दिन- रात एक किए हुए हैं। विश्वस्तर  पर भारत की पहचान हिंदी भाषा से है। चूंकि उन देशों में कामकाज व शिक्षा की भाषा के लिए  अपनी  भाषाएँ हैं वहाँ हिंदी भाषा के माध्यम से वे और भारतवंशियों को साथ लेकर हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति की जड़ें मजबूत कर रहे है। हिंदी के विश्वदूत बनकर विश्वस्तर पर हिंदी भाषा व साहित्य को  प्रतिष्ठित करनेवालों में  एक प्रमुख नाम है - प्रो. डॉ. पुष्पिता अवस्थी ।
  पुष्पिता अवस्थी के व्यक्तित्व व कृतित्व को किसी एक सीमा में रख पाना कठिन है। वे यायावर,   कवि, लेखक,  संपादक, प्रोफेसर और एक कुशल संगठनकर्ता एवं राजनयिक के रूप  में कठिन  संघर्ष करते हुए विश्वस्तर पर विशिष्ट प्रतिष्ठा व पहचान प्राप्त कर चुकी हैं।  प्रो.पुष्‍पिता  अवस्‍थी विगत 14 वर्षो से विदेश में  हिंदी साहित्य, भाषा, संस्‍कृति के प्रचार - प्रसार  में संलग्‍न हैं  तथा कविता, कहानी, निबंध, आलोचना, मोनोग्राफ,  व हिंदी शिक्षण, जीवनी  इत्‍यादि की हिंदी  सहित कई भाषाओं की 30 पुस्‍तकें अब तक  प्रकाशित हैं। विदेश में उनके प्रकाशित  साहित्‍य एवं कृतित्‍व से हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए किए गए बहुविध  कार्य उन्हें हिंदी की  विश्वदूतके रूप में एक विशिष्ट पहचान प्रदान करते हैं।
 भारत के कानपुर में जन्मी पुष्पिता की पढ़ाई राजघाट, वाराणसी के प्रतिष्ठित जे कृष्णमूर्ति    फाउन्डेशन (बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से संबद्ध) में हुई । बाद में, वर्ष 1984 से 2001 के  बीच वह जे कृष्णमूर्ति फाउन्डेशन के बसंत महिला महाविद्यालय की वर्षों हिंदी विभागाध्यक्ष  रहीं। वर्ष 2001 से ही वे दक्षिण अमेरिका के उत्तर पूर्व में स्थित सुरीनाम देश के भारतीय  दूतावास एवं भारतीय सांस्कृतिक केंद्र, पारामारिबो, सूरीनाम में प्रथम सचिव एवं हिंदी प्रोफेसर के रूप में वर्ष 2001 से 2005 तक वह कार्यरत रहीं । उन्हीं के संयोजन में वर्ष 2003 में सूरीनाम में सातवाँ विश्व हिंदी सम्मलेन संपन्न हुआ । वर्ष 2006 से वे नीदरलैंड स्थित 'हिंदी यूनिवर्स फाउन्डेशन' की निदेशक हैं।  सामाजिक सरोकारों से गहराई से जुड़ी पुष्पिता 'बचपन बचाओ आंदोलन' और स्त्री अधिकारों के लिए विश्वस्तर पर संघर्षरत समूहों से भी सक्रियता से संबद्ध हैं ।
सातनें विश्व हिंदी सम्मेलन के मंच से पुष्पिता अवस्थी का संबोधन ।
सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन के मंच से पुष्पिता अवस्थी का संबोधन ।
विश्वबंधुत्व में पगी प्रो. पुष्पिता की रचना की निजता या निजता में की   जानेवाली रचना और रचना की सार्वजनिता सब के हित में है। वे अपनी रचना शक्तियों के प्रयुक्तिकरण का विलक्षण द्वंद रचते हुए स्वयं के लिए एक असाधारण परिचय संदर्भ बन जाती हैं। अपने सूरीनाम प्रवास के दौरान पुष्पिता ने अथक प्रयास करके हिंदीप्रेमी समुदाय को संगठित किया जिसकी परिणति उनके द्वारा अनुदित और संपादित समकालीन सूरीनामी लेखन के दो संग्रहों 'कविता सूरीनाम' ( राधाकृष्ण प्रकाशन, 2003) और 'कहानी सूरीनाम' (राधाकृष्ण प्रकाशन, 2003) में पुस्तकों में हुई । 'सूरीनाम' शीर्षक से उन्होंने मोनोग्राफ़ भी लिखा, जिसे राधाकृष्ण प्रकाशन ने वर्ष 2003 में प्रकाशित किया । इन सबका लोकार्पपण सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन में हुआ।  पुष्पिता के कविता संग्रहों 'शब्द बनकर रहती हैं ऋतुएँ' (कथारूप, 1997), 'अक्षत' (राधाकृष्ण प्रकाशन, 2002), 'ईश्वराशीष' (राधाकृष्ण प्रकाशन, 2005), 'ह्रदय की हथेली' (राधाकृष्ण प्रकाशन, 2008), तुम हो मुझ में (राधाकृष्ण प्रकाशन, 2014), 'शब्दों में रहती है वह' ( किताब घर-2014) और कहानी संग्रह  'गोखरू' (राजकमल प्रकाशन, 2002) और जन्म’ ( मेघा बुक्स -2009) को साहित्य संसार में व्यापक सराहना मिली है ।
आलोचना के क्षेत्र में वर्ष 2005 में राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित उनकी पुस्तक 'आधुनिक हिंदी काव्यालोचना के सौ वर्ष' विशेष रूप से चर्चित रही जिसके कई संस्करण प्रकाशित हुए। हिंदी और संस्कृत विद्वान पंडित विद्यानिवास मिश्र से उनके संवाद 'सांस्कृतिक आलोक से संवाद' (भारतीय ज्ञानपीठ, 2006) को समकालीन हिंदी और हिंदी समाज की विकासयात्रा को दर्ज करने के अनूठे प्रयास के रूप में देखा/पहचाना गया है । वर्ष 2009 में मेधा बुक्स से 'अंतर्ध्वनि' और अंग्रेजी अनुवाद सहित रेमाधव प्रकाशन से 'देववृक्ष' काव्य संग्रहों का प्रकाशन हुआ। साहित्य अकादमी, दिल्ली से वर्ष 2010 में 'सूरीनाम का सृजनात्मक हिंदी साहित्य' पुस्तक प्रकाशित हुई, जिसका लोकार्पण जोहान्सवर्ग में वर्ष 2011 में आयोजित हुए नवें विश्व हिंदी सम्मलेन में हुआ । वर्ष 2010 में ही नेशनल बुक ट्रस्ट से उनकी 'सूरीनाम' शीर्षक पुस्तक प्रकाशित हुई । एम्सटर्डम स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ने डिक प्लक्कर और लोडविक ब्रंट द्वारा डच में किये उनकी कविताओं के अनुवाद का एक संग्रह वर्ष 2008 में प्रकाशित किया । नीदरलैंड के अमृत प्रकाशन से डच, अंग्रेजी और हिंदी में वर्ष 2010 में 'शैल प्रतिमाओं से' शीर्षक काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ ।
हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, बांग्ला, फ्रेंच और डच भाषाओँ की जानकार पुष्पिता को अपनी कविताओं के पाठ के लिए जापान, मॉरिशस, अमेरिका, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, न्युजीलैंड सहित कई यूरोपियन और कैरिबियई देशों में आमंत्रित किया जा चुका है । विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में उन्होंने वैश्विक मानवीय संस्कृति तथा भारतवंशी संस्कृति पर विशेष व्याख्यान दिए हैं । मॉरीशस स्थित हिंदी लेखक संघ सहित विदेशों की कई संस्थाओं का उन्हें मानद सदस्य बनाया गया है ।
 लगातार दस वर्षों से वे भारतवंशीबहुल देशों में से सुरीनाम, गयाना, ट्रिनिडाड, फिजी,  दक्षिण  अफ्रीका और कैरिबियाई देश-द्वीपों को अपना कार्य और सृजनात्मक चिंतन का  क्षेत्र बनाए  ह्ए हैं। प्रो. पुष्पिता कहती हैं, ‘ भारतवंशियों की नई पीढ़ी ने मॉरिशस, गयाना,  ट्रिनिडाड और  कुछ हद तक सुरीनाम जैसे देशों में न सिर्फ सत्ता, व्यवसाय और राजनीति  में ही अपना वर्चस्व  बनाया है बल्कि अन्य देशों की भाषा-संस्कृति की रगड़ मार से संघर्ष  करते हुए वैश्विक स्तर  पर अपनी अलग भारतीय भाषाई और सांस्कृतिक पहचान बनाई  है।प्रो. पुष्पिता अवस्थी के  भारतवंशी सांस्कृतिक दृष्टिपूर्ण सृजनात्मक कृतित्व को  ध्यान में रखते हुए हिंदुस्तानी बहुल  देश मॉरिशस के सांस्कृतिक मंत्रालय ने अपने  अंतर्राष्ट्रीय अप्रवासी सम्मेलन में उन्हें मुख्य  अतिथि और विशेषज्ञ के रूप में आमंत्रित किया और अंतर्राष्ट्रीय भारतवंशी सांस्कृतिक  परिषद का महासचिव भी घोषित किया।
भारतवंशियों पर केंद्रित अद्यतन  पुस्तक ( किताबघर से 2015 में प्रकाशित)  
भारतवंशियों पर केंद्रित अद्यतन पुस्तक 
( किताबघर से 2015 में प्रकाशित)
                               सुरीनाम की पुस्तकों का लोकार्पण करते हुए सुरीनाम के पूर्व राष्ट्रपति फिनित शियांग और पूर्व विदेशराज्यमंत्री स्व.श्री दिग्विजयसिंह।                           
               सुरीनाम की पुस्तकों का लोकार्पण करते हुए सुरीनाम  के पूर्व राष्ट्रपति    
                  फिनित  शियांग  और पूर्व विदेशराज्यमंत्री स्व.श्री दिग्विजयसिंह।
फिल्म, मीडिया और टेलीविजन से निरंतर जुड़ी रहनेवाली पुष्पिता ने अनेक महत्वपुर्ण    वृत्तचित्र बनाए हैं। सूरीनाम की संस्कृति और प्रकृति पर उनके द्वारा बनाई गई दो घंटे की    डॉक्यूमेंटरी फिल्म वर्ष 2003 में आयोजित हुए विश्व हिंदी सम्मलेन में और इसके उपरांत  कई भारतवंशी बहुल देशों में भी प्रदर्शित की गई । इसके पूर्व महान हिंदी साहित्यकार व  उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल, प्रोफेसर विद्यानिवास मिश्र और प्रोफेसर शिवप्रसाद सिंह के  कृतित्व-व्यक्तित्व पर उनके द्वारा बनाई गईं डॉक्यूमेंटरी फिल्मों का लखनऊ दूरदर्शन से  प्रदर्शन हुआ है। पुष्पिता अवस्थी विश्व की अनेक आदिवासी प्रजातियों तथा भारतवंशियों के  अस्तित्व और अस्मिता पर विशेष अध्ययन और शोधकार्य से भी संबद्ध हैं ।
प्रो. डॉ.पुष्पिता अवस्थी
प्रो. डॉ.पुष्पिता अवस्थी
  हिंदी-भाषा-प्रसार के क्षेत्र में भी प्रो. पुष्पिता नेमहत्वपूर्ण कार्य किया है । उन्होंने विदेश में हिंदी पढ़  रहे विद्यार्थियों के लिए अन्य भाषाविद् विद्वानों के  साथ देवनागरी से शुरुआत करते हुए छह भाषाओं में  विशेष पुस्तकें तैयार की हैं जिनका भारतवंशी बहुल  देशों में उपयोग हो रहा है।
बहुमुखी - बहुआयामी प्रतिभा की धनी व विश्व में भारतीयता का बिगुल बजा रही प्रो.पुष्पिता अवस्थी के व्यक्तित्व-कृतित्व तथा चिंतन को इस एक लेख की परिधि में समेट पाना संभव नहीं है। हिंदी के विश्वदूत के रूप में हिंदी भाषासाहित्य के प्रसार में उनका योगदान निश्चय ही विश्व स्तर पर उन्हें अग्रिम पंक्ति में खड़ा करता है। वैश्विक हिंदी सम्मेलन हिंदी की विश्वदूतप्रो.पुष्पिता अवस्थी को उनके प्रेरणास्पद अप्रतिम योगदान की सराहना करता है।
अगर यहाँ प्रो.पुष्पिता अवस्थी की जिंदगी के एक और पहलू का यदि उल्लेख न किया जाए तो उनका यह परिचय अधूरा होगा। प्रो.पुष्पिता अवस्थी की जैसी दीवानगी साहित्य और हिंदी भाषा के प्रति है कुछ वैसी ही दीवानगी फुटबॉल के प्रति भी है। प्रो.पुष्पिता अवस्थी नीदरलैंड के आयक्स फुटबॉल क्लब (18 मार्च 1900 से स्थापित) के बिजनेस क्लब की वरिष्ठ सदस्य हैं और इतनी व्यस्तताओं के बावजूद पिछले दस वर्षों से राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय साप्ताहिक फुटबॉल मैच नियमित रूप से देखती आ रही हैं। फुटबॉल के प्रति दीवानगी तथा फुटबॉल और हिंदी साहित्य के बीच क्या तालमेल है ?  मैंने फुटबॉल के कई कोच और खिलाड़ियों पर कविताएँ और आलेख हिंदी में लिखे हैं जिनका अनुवाद कई भाषाओँ में हुआ है। पिछले अनेक वर्षों से इस खेल के कोच और खिलाड़ियों की तरह ही रमी हुई हूँ। कई देशों में जाकर विश्व फुटबॉल मैच देखे हैं। मुझे यह खेल इसलिए पसंद है क्योंकि इस खेल में दोनों टीम का हर खिलाड़ी अंतिम क्षण तक हार नहीं मानता है और आखिरी सांस तक गोल करने के लिए प्राण-प्रण से लगा रहता है। गिरता है, पड़ता है, धक्के खाता है, चोटिल होता है फिर भी रुकता नहीं है, उसकी आँखें फुटबॉल और गोल पर ही लगी रहती हैं।
थोड़ा रुक कर वे आगे कहती हैं, “फुटबॉल खेल में हर खिलाड़ी का एक ही लक्ष्य होता है- गोल, गोल और सिर्फ गोल। फुटबॉल के खेल का यह दृष्टिकोण यह मिशन मेरे जीवन में भी उत्साह बनाए रखता है। लगे रहो- बस लगे रहो- जीवन की अंतिम सांस तक फुटबॉल के खिलाड़ियों की तरह अपनी भाषा और संस्कृति के पक्ष में, क्योंकि भाषा और संस्कृति के अटूट संबंधों से ही अक्षय और अभिन्न पहचान बनती है, फिर चाहे वह व्यक्ति हो या देश, फिर चाहे वह देश में रहें या विदेश में।                                                                                                                           - डॉ. एम.एल. गुप्ता  '‘आदित्य
 प्रो. डॉ. पुष्पिता अवस्थी- 
Hindi Universe Foundation,P.O. Box 1080,
1810 KB Alkmaar, The Netherlands
Phone: 0031 226 753 104
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई



प्रस्तुत कर्ता : संपत देवी मुरारका 

संपत देवी मुरारका
अध्यक्षा, विश्व वात्सल्य मंच
लेखिका यात्रा विवरण
मीडिया प्रभारी
हैदराबाद